30 December, 2009

सन 2009  तेरा शुक्रिया

वर्ष 2009 का जाते हुये धन्यवाद न करूँ तो ये कृ्त्घ्नता होगी। अगर मैं कहूँ कि ये साल मेरी ज़िन्दगी का सब से खूबसूरत और खुशियाँ देने वाला साल रहा तो गलत न होगा। प्यार रिश्तों का मोहताज़ नहीं होता। अन्तर्ज़ाल जैसी आभासी दुनिया मे भी रिश्ते कैसे फलते फूलते हैं ये महसूस कर अभिभूत हूँ।
जो प्यार और सम्मान मुझे इस साल मे मिला है उसकी तुलना  दुनिया की किसी भी दौलत से नहीं की जा सकती ।। इस ब्लाग जगत ने मुझे अथाह प्यार दिया है, जिस मे अपने सब दुख तकलीफें अकेलापन यहाँ तक कि अपनी बिमारी भी भूल गयी हूँ। सब से बडी उपल्ब्धि मुझे दो भाईयों का प्यार बहुत मिला है। बडे भाई साहिब श्री प्राण शर्मा जी ने जो स्नेह और आशीर्वाद मुझे दिया है उससे मेरी ऊर्जा कई गुना बढ गयी है । आज कल किस के पास इतना समय है। वो मुझे गज़ल ही नहीं सिखाते और भी बहुत अच्छी अच्छी बातें सिखाते  हैं । उनसे बात करके हमेशा खुद को पहले से सबल पाया है। जब मैने गज़ल सीखनी शुरू की तो मैं कहती थी कि मुझे कभी भी गज़ल लिखनी नहीं आ सकती मगर उन्होंने मुझे हमेशा उत्साहित किया। बेशक अभी अधिक अच्छी गज़ल कह नहीं पाती मगर गज़ल के गुर सीख रही हूँ। जब ब्लागिन्ग शुरू की थी तब मुझे कविता और गज़ल मे अन्तर नहीं पता था मगर भाई साहिब के स्नेह, पेशैंस और आशीर्वाद ने सीखने की राह आसान कर दी। उनकी ऋणी हूँ। उसके बाद छोटे भाई श्री पंकज सुबीर जी 01 ने मुझे *दी* कह कर अपने स्नेह मे बाँध लिया है। 1973 और 1983 मे दो भाई खोये थे और 2009 मे दोनो को पा लिया इससे बडी उपल्ब्धि और क्या हो सकती है। इसके बाद राज भाटिया जी ने भी यही सम्मान मुझे दिया। यूँ तो और बहुत से नाम हैं मगर इन से जो प्यार और सहयोग मिला उस की मिसाल नहीं है। दूसरी सब से बडी उपल्ब्धि है मुझे अर्श { प्रकाश सिंह अर्श} जैसा बेटा मिला इस के बारे मे इतना ही कहूँगी कि वो मेरी हर मुश्किल का हल है और मेरे हर सवाल का जवाब है,  हर दुख ,सुख उस से कह लेती हूँ। फिर अच्छे बच्चों की तरह मुझे मश्विरा देता है ।हाँ मेरी गलती पर मुझे डाँट भी देता है।--- मुझे शब्द नहीं सूझ रहे कि उसके लिये क्या कहूँ। इसके बाद दीपक मशाल ने मुझे बहुत सम्मान दिया। यहाँ तक कि वो मुझ से मिलने मेरे पास नंगल भी आये। उसका प्यार और सम्मान पा कर अभिभूत हूँैआज के युग मे ऐसे बच्चे मिलना सच मे बहुत मुश्किल है। इसके बाद मुझे  प्रकाश  गोविन्द जी मिले उनकी क्या कहूँ बस निशब्द हू। इन बच्चों के संस्कार देख कर इनके माँ बाप को सलाम करती हूँ। प्रकाश गोविन्द जी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया और हमेशा बहुत कुछ करने की प्रेरणा भी दी मगर मैं ही नालाय्क हूँ अभी तक उन  आपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर सकी।इसके अतिरिक्त दर्पण शाह , ने भी बहुत सम्मान दिया है। एक नाम जो मैं बडे गर्व के साथ लेना चाहूँगी वो गौतम राज रिशी जी का है उनके सम्मान और प्यार के लिये भी उनकी ऋणी हूँ। मिथिलेश दुबे छोटे बच्चों की तरह मुझ से बहुत प्यार करता है। कुलवन्त हैपी, लोकेन्द्र विक्रम सिंह  अर्विन्द, धीरज शाह  महफूज़,प्रवीण पथिक, रविन्द्र्,    इम सब ने मुझे बेटोंजैसा प्यार और सम्मान दिया। एक नाम जिस ने एक दम मेरे सामने उपस्थित हो कर मुझे हैरान कर दिया वो थे श्री अकबर खान राणा जी ।मुझे कहते कि आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ सोचिये उस समय मेरी खुशी का कोई ठिकाना था?। आज कह सकती हूँ प्यार रिश्तों का मोहताज नहीं होता मुझे ये सभी बेटे अपनी लगते हैं। शायद अपना होता तो कभी पूछता भी नहीं। इसके बाद अपनी बेटियों का नाम भी लेना चहूँगी। एडी सेहर, विनीता यशस्वी, कविता रावत , रश्मि रविज़ा,कविता राजपूत वाणी जी । लडकियाँ मा के लिये इतनी चिन्तित रहती हैं कि अगर दो तीन दिन नेट पर नज़र न आऊँ तो लम्बी सी मेल आ जाती है। इन सभी बच्चों को बहुत बहुत आशीर्वाद
       एक उल्लेखनीय नाम और लेना चाहूँगे जिस से मुझे कुछ और अधिक काम  करने की प्रेरणा मिलती है वो है अनुज खुशदीप सहगल कभी मिली नहीं मगर मिलूँगी जरूर रिश्ता पता नहीं मगर मेरे मन से हर वक्त आशीर्वाद निकलता है उन के लिये, तो लगता है मेरे बेटे जैसे ही हैं। मुफ्लिस जी, दिगम्बर नास्वा जी पंकज मिश्रा जी , श्रीश पाठक जी, स्वपनिल भारतीयम् .निशू तिवारी,अनिल कान्त जी , ओम आर्यजी इन सब की भी आभारी हूँ कि समय समय पर मुझे अपने स्नेह से उत्साहित करते हैं। नीरज गोस्वामी जी ,दिनेश राय दिवेदी जी  की भी आभारी हूँ। स. पावला जी की बहुत आभारी हूँ मुझे पंजाबी लिखने मे जो समस्या आती है उसका हल उनके पास होता है। अगर श्री आशीश खन्डेलवाल जी का नाम न लूँ तो शायद सब से बडी भूल हो जायेगी। मुझे ब्लाग के बारे मे बहुत कुछ उन्होंने सिखाया है। चाहे वो व्यस्त भी रहे हों मै झट से उन्हें बज़ कर देती और चुटकी मे मेरी समस्या हल कर देते।
उपर तो उन लोगों की बात हो रही थी जिन से मेल या चैट दुआरा सम्पर्क मे रहती हूँ । इसके अतिरिक्त मेरे पाठक  जो मुझे अपनी प्रतिक्रियाओं से उतसाहित करते हैं उनकी बहुत बहुत आभारी हूँ। मैं अलपग्य कुछ भी नहीं थी मगर मेरे पाठकों ने मुझे सिर आँखों पर बिठाया। श्री रविन्द्र प्रभात जी के ब्लाग *परिकल्पना* से जब पता चला कि मेरा नाम उन नौं देवियों मे है जिनके ब्लाग इस साल चर्चा मे रहे और आगे रहे। इस से मेरा उत्साह बढा है। उनका आभार ।
   ये सब लिखने का मेरा एक मकसद ये भी है कि प्रोत्साहन इन्सान को आगे बढने की शक्ति देता है । आओ सब पिछले सब झगडे भूल कर नये साल मे ब्लाग जगत मे प्रेम की परिभाषा  सीखें और नये आने वाले शब्दशिलपियों को प्रोत्साहित करेंमैने अपने शहर से भी दो नये ब्लागर्ज़ बनाये हैं। एक राकेश वर्मा जी{ http://akhrandavanzara.blogspot.com/} aur doosare Sanjeev kuraalia jee{ http://kalamkakarz.blogspot.com/}  }इन्हें भी अपना आशीर्वाद दें। ये मेरे इस साल का लेखा जोखा है। मेरी उपल्ब्धियों का और जो प्यार मैने ब्लाग जगत से पाया है। सभी का धन्यवाद।ये  सब मेरे दामाद ललित सूरी  जी की वजह से हुया है। उसे भी बहुत बहुत आशीर्वाद ।
  नये साल की सब को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें। मेरे बच्चों को आशीर्वाद। दो तीन दिन ब्लाग से दूर रहूँगी। चार पँक्तियाँ नये साल के लिये

नये साल ऐसे तराने सुनाओ
लुटाओ खुशी के खज़ाने लुटाओ

चलो अब मिटा दें गिले सब पुराने
मिलन के कोई तो बहाने बनाओ

न जात और धर्मों का बन्धन रहे
उठो नफरतों के ठिकाने मिटाओ

कहो बात वो प्यार बढता रहे
अंधेरे घरों मे दिये से जलाओ

26 December, 2009

प्यार रिश्तों का मोहताज़ नहीं होता। अन्तर्ज़ाल जैसी आभासी दुनिया मे भी रिश्ते कैसे फलते फूलते हैं ये महसूस कर अभिभूत हूँ।24 दि. रात 9 बजे अचानक फोन आया *मासी जी मैं दीपक बोल रहा हूँ, मै कल सुबह सात बजे आपसे मिलने आ रहा हूँ।* सुन कर खुशी का ठिकाना नहीं रहा। दीपक और कोई नहीं आपका दीपक मशाल है जिसे आप रोज़ ब्लाग पर पढते हैं। बाकी जानकारी फिर से अलग पोस्ट मे दूँगी। अभी एक गज़ल पढिये------
गज़ल

बेवज़ह बातों ही बातों में सुनाना क्या सही है
भूला-बिसरा याद अफसाना दिलाना क्या सही है

कुछ न कुछ तो काम लें संजींदगी से हम ए जानम
पल ही पल में रूठ जाना और मनाना क्या सही है

मुस्करा ऐसे  कि  जैसे  मुस्कराती  हैं   बहारें
चार दिन की ज़िन्दगी घुट कर बिताना क्या सही है

ख्वाब में आकर मुझे आवाज़ कोई  दे  रहा    है
बेरुखी दिखला के उसका दिल दुखाना क्या सही है

तुम इन्हें सहला नहीं पाए मेरे हमदर्द   साथी
छेड़  कर सारी खरोचें दिल दुखाना क्या सही है

अब बड़े अनजान बनते हो हमारी ज़िन्दगी   से
फूल  जैसी ज़िन्दगी को यूँ सताना क्या सही  है

ज़िन्दगी का बांकपन खो सा गया जाने कहाँ अब
सोचती हूँ ,तुम बिना महफ़िल सजाना क्या सही है



23 December, 2009

एक पुरानी कविता जो अभी आप लोगों ने पढी नहीं है। आज भी नया कुछ लिख नहीं पाई। तो इसे ही झेलले़ ।
कविता
मुझे मेरे दिल के करीब रहने दो
न पोंछो आँख मेरी अश्क बहने दो
ये इम्तिहां मेरा है जवाब् भी मेरा होगा
दिल का मामला है खुद से कहने दो
जीते चले गये ,जिन्दगी को जाना नहीं
मुझे मेरे कसूर की सजा सहने दो
उनकी जफा पर मेरी वफा कहती है
खुदगर्ज चेहरों पे अब नकाब रहने दो
तकरार से कभी फासले नहीं मिटते
घर की बात है घर में रहने दो !!

20 December, 2009

कविता
आज एक छोटी सी कविता जो पहले भी शायद कुछ लोगों ने पढी है। आजकल घर की व्यस्ततायों के चलते कुछ नया लिख नहीं पा रही। इसे ही झेल लीजिये।
छोटी सी बात

कई बार
जब हो जाते हैं
हम
मैं और तू
छोटी छौटी बातों पर
कर देते हैं रिश्ते
कचरा कचरा
तर्क---वितर्क
तकरारें--
आरोप--प्रत्यारोप
छिड जाता है
महाँसंग्राम
अतीत की डोर से
कटने लगती है
भविश्य की पतंग
और खडा रह जाता है
वर्तमान
मौन, निशब्द
पसर जाता है
एक सन्नाटा
उस सन्नाटे मे
कराहते हैं
छटपटाते हैं
और दम तोड देते हैं
जीवन के मायने
ओह!
रह जाते हैं
इन छोटी- छोटी  बातों मे
जीने से
जीवन के बडे बडे पल


18 December, 2009

कई दिन से बच्चे आये हुये हैं कुछ अधिक नया लिख नहीं पा रही। ये छोटी सी गज़ल जिसे प्राण भाई साहिब ने संवारा है उनके आशीर्वाद से आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ
                                                                   गज़ल


करें कितना भरोसा हम इन्हें तो टूट जाना है
दरार आयी दिवारों का भला अब क्या ठिकाना है

ज़मीन पर पाँव रखती हूँ नज़र पर आसमां पर है
नहीं रोके रुकूँगी मैं कि ठोकर पर  जमाना   है

कहाँ औरत रही अबला कहाँ बेबस सी लगती   है
वो पहुँची है सितारों तक ,किसीको क्या दिखाना है

है ऊंची बाड़ के पीछे जड़ें खुद काटता    माली
लुटा जो अपनों के हाथों कहाँ उसका ठिकाना   है

ख़यालों में ही तू खोया रहेगा कब तलक यूँ ही
कि उठ मन बावरे अब ढूंढना तुझको ठिकाना है
               

16 December, 2009

मैं नेता बनूंगा [व्यंग ]
एक दिन बेटे से पूछा ;बेटा क्या बनोगे?:
कौन सा प्रोफेशन अपनाओगे,किस राह पर जाओगे
वह थोडा हिचकिचाया,फिर मुस्कराया और बोला
मैं नेता बनूंगा
मैं हुआ हैरान उसकी सोच पर परेशान
नेता बनना होता है क्या इतना आसान?
फिर पूछा :बेटा नेता जैसी योग्यता कहां से लाओगे?
लोगों में अपनी पहचान कैसे बनाओगे?
वो जरा सा मुस्कराया
और  बोला मुझे सब पता है
नेता के लिये मिनिमम कुयालिफिकेशन है---
1पहली जमात से ऊपर पास हो या फेल
2 किसी न किसी केस में कम से कम एक बार हुई हो जेल
3 गणित मे करोडों तक गिनत जरुरी है
इस के बिना नेतागिरी अधूरी है
4 माइनस डिविजन चाहे ना आये पर
प्लस मल्टिफिकेशन बिना
नेता बनने की चाह अधूरी है
5 सइकालोजी थोडी सी जान ले
ताकि वोटर की रग पह्चान ले
6 डराईंग में कलर स्कीम का ग्याता हो
गिरगिट  की तरह रंग बदलना आता हो
लाल, काले सफेद से ना घबराये
नेता की पोशाक में हर रंग समाये
पिताजी बस अब भाई दादाओं के हुनर जानना है
 उस के लिये किसी अच्छे डान को गुरू मानना है
डाक्टर इंजनिय्र बनकर मै भूखों मर जाऊंगा
नेता बन कर ही होगा गाडी बंगला और विदेश जा पाऊंगा
मैने सोचा, और  बहुमत में नेताओं को ऎसा पाया
बस फिर क्या? अपने बेटे की बुद्धि पर हर्शाया

14 December, 2009

  गज़ल
अपना इतिहास पुराना भूल गये
लोग विरासत का खज़ाना भूल गये
रिश्तों के पतझड मे ऐसे बिखरे
लोग बसंतों का जमाना भूल गये
दौलत की अँधी दौड मे उलझे वो
मानवता को ही निभाना भूल गये
भूल गये  आज़ादी की वो गरिमा
कर्ज़ शहीदों का चुकाना भूल गये
वो बन बैठे ठेकेदार जु धर्म के
वो अपना धर्म निभाना भूल गये
बीवी  के आँचल मे ऐसे उलझे
माँ का ही ठौर ठिकाना भूल गये
परयावरण बचाओ,  देते भाषण
पर खुद वो पेड लगाना भूल गये
भूल गये सब प्यार मुहब्बत की बात्
अब वो हसना हंसाना भूल गये


12 December, 2009

कथित बाबा सचिदानन्द का कच्चा चिट्ठा और कुछ सवाल --गताँक से आगे
नवांशहर  पंजाब के बाबा सचिदानन्द को पुलिस् ने कविता के कत्ल के जुर्म  मे गिरफ्तार कर लिया तो कविता की माँ के हाथ एस एस पी राकेश अग्रवाल के लिये दुआ देने को उठे कि बाकी लोगों को तो कम से कम उसके चँगुल से छुडा लिया।वो खुद को रिटायर्ड जज और अपनी मुँह बोली बेटी को को आई,  पी, एस. अधिकारी बताता था। जब कि हकीकत मे वो 10वीं पास था।अपने श्रद्धालुयों की संख्या बढाने के लिये बाबा साधना चैनल पर प्रवचन भी देता था। अब सवाल ये है कि क्या ये धार्मिक चैनल हिन्दु धर्म का कुछ भला कर रहे हैं या उन्हें ऐसे ढोंगी बाबाओं के चँगुल मे फसाने का साधन बन रहे हैं। वो साधना चैनल को एक प्रवचन का ढेड लाख रुपया देता था। अनपढ लोगों को क्या पता कि चैनल पर आने वाले उन श्रद्धालूयों के पैसे खर्च करके ही प्रवचन देते हैं। मैने एक-दो गली की औरतों से  पूछा कि क्या उन्हेंसे पता है कि चैनल पर बाबा कैसे प्रवचन करने पहुँचते हैं तो उसे नहीं पता था। उसने कहा कि वो पहुँचे हुये बाबा होंगे तभी तो चैनल पर आते हैं।
हम लोग ब्लाग्स पर रोज़ धर्म के लिये लडते झगडते हैं लेकिन ऐसे ढोंगी बाबाओं के खिलाफ क्यों नहीं कुछ बोलते?  ऐसे धार्मिक चैनलों के खिलाफ क्यों नहीं कुछ कहते जिन को देख कर लोग इन के झाँसे मे आ जाते हैं। दो साल पहले मैं नये घर मे आयी थी। यहाँ प्राईवेट कालोनी है पहले हम जहाँ रहते थे वहाँ सभी नौकरी पेशा लोग थे औरतें भी अधिकतर नौकरी पेशा थी । हम मे धर्म पर बहुत कम बात होती थी। लेकिन इस कालोनी मे 70% लोग रिटायरी हैं और साथ ही आस पास ग्रामिण इलाका भी लगता है। मेरी अपनी गली मे 20 के आस पास घर हैं जहाँ हर घर किसी न किसी बाबा को मानता ह। और हर आये दिन किसी न किसी बाबा का कीर्तन प्रवचन होता है। बहुत अच्छी बात हैलेकिन मन तब और दुखी होता है जब आर्ती के समय केवल उस बाबा की ही आरती होती है। हरेक बाबा ने अपनी अलग अलग आरती लिख रखी है, उसे या उसकी तस्वीर को ही भोग  लगाया जाता है। उसकी बहुत बडी तस्वीर होती है और उसके नीचे छोटी छोटी तस्वीरें हिन्दू देवी देवतायों की रखी होती हैं जैसे वो बेचारे इनके दास हों। अब आस पडोस की बात है ऐसे समारोह मे जाना भी पड्ता था। लेकिन अब मैने ऐसे घरों मे जाना बन्द कर दिया है जो बाबा संस्कृ्ति को बढावा देते हैं। मगर मन मे क्षोभ होता है कि आखिर ये हो क्या रहा है।उनमे तो कई बाबा अनपढ ही हैं बस कथा कहानिया सुना कर चले जाते हैं। उनके प्रवचनों  मे एक बात पर ही बल दिया जाता है कि गुरू के बिना गति नहीं। बस गुरू ही आपका भगवान है। सही बात है मगर क्या गुरू के मायने भी उन्हें बताते हैं कि गुरू मे क्या विशेशतायें होनी चाहिये।
अब मेरा सवाल ये है कि आज के इस युग मे जहाँ हम ये तय नहीं कर सकते कि कौन सच्चा है कौन झूठा तो धर्म के नाम पर ऐसे आश्रम और बाबाओं की जरूरत है? 
क्या इन बाबाओं के बिना लोग धर्म का ग्यान नहीं ले सकते?
धार्मिक चैनल क्या ऐसे लोगों को बढावा नहीं देते? ये दोनो की दुकानदारी मिली भगत नहीं है?
दूसरा इन धार्मिक चैनलों का अगर फायदा है तो क्या हानि नहीं है? ऐसे लोगों को दिखा कर ये धर्म को हानि नहीं पहुँचा रहे? ऐसे ढोंगी बाबाओं के रोज़ प्रवचम सुन कर ही लोग इनके चंगुल मे नहीं फसते? क्या धार्मिक चैनलों पर कुछ प्रतिबन्ध नहीं लगने चाहिये? ये इन दुकानों के व्यापार मे साझीदार हैं।
क्या सरकार को इस मामले मे हस्तक्षेप करना चाहिये?
आज पंजाब इन्हीं बाबाओं की वजह से जल रहा है लुधिआना मे दो दिन कर्फ्यू और बन्द रहाुआये दिन कोई न कोई शहर इस आग की लपेट मे आ जाता है।
क्या साधु सन्तों को ए.सी गाडियाँ,एसी आश्रम और सुख सुविधा के साधन रखने चाहिये? अगर नहीं तो आपमे से कितने हैं जो ऎसे गुरुओं का वहिष्कार   करते हैंजो भौतिक वस्तुयों का उपयोग कर रहे हैं?


आखिर धर्म के ठेकेदार क्यों नहीं कुछ करते। मेरे हिसाब से तो सभी आश्रम बन्द होने चाहिये जिसे धर्म का प्रचार करना है वो साधु बन कर रहे और केवल धार्मिक स्थान मन्दिर आदि मे ही प्रवचन दे और लोगों से कोई धन न ले। खुद सादा जीवन व्यतीत कर वैभव  और भौतिक साधनों का मोह छोड कर एक छोटी सी कुटी मे रहे जहाँ किसी को भी आने की अनुमति न हो बस प्रवचन के लिये शहर का मंदिर  या  कोई सार्वजनिक स्थान चुन सकते हैं। । जगह जगह मन्दिर अपने- अपने नाम से बनवाये जा रहे हैं, जिन की न तो सफाई का उचित प्रबन्ध है न ही और रखरखाव का। बस चढावे के रूप मे धन इकट्ठा करना ही इनका मकसद है। क्या लाभ है ऐसे मन्दिर निर्माण करने का जहाँ भगवान उपेक्षित होते हों?  क्या एक छोटे शहर मे एक मन्दिर काफी नहीं? आज इस बाबा संस्कृ्ति पर लगाम कसने की जरूरत है। नहीं तो एक दिन लोग ये भूल जायेंगे कि हिन्दु देवी देवता कौन हैं उनकी जगह इन बाबाओं के नाम ही होंगे। ये सिर्फ हिन्दु धर्म की बात नहीं है किसी भी धर्म मे ये बाबा लोग दीमक की तरह उसे चाट जायेंगे। आईये हम सब मिल कर इस बाबा संस्कृ्ति से लडें। जब लोग समझ जायेंगे तो फिर अपने आप ये दुकाने बन्द हो जायेंगी । इन  आश्रमों मे होने वाले कुकर्मों और शोषण के विरुध आवाज़ उठायें। इस मे सब का भला है। ये लोग एक नाम दे देते हैं और लोग इसी को बस धर्म समझ कर जपते रहते हैं मगर धर्म के मर्म तक कम ही लोग जाते हैं, अगर जाते तो आज दुनिया मे इतने अपराध न होते।   आज हम केवल धार्मिक बन रहें अध्यात्म क्या है इसे जानते ही नहीं।  आओ लोगों को बाबा संस्कृ्ति का सच बतायें और इन के चंगुल से लोगों को बचायें। मैं तो जहाँ भी जाती हूँ जम कर इन लोगों के खिलाफ बोलती हूँ। बोलती रहूँगी। हम लोग धर्म के नाम पर ब्लाग्स पर भी आपस मे लडते रहते हैं लेकिन इन असली गुनहगारों के खिलाफ एक शब्द भी क्यों नहीं कहते?

10 December, 2009

ढोंगी बाबा सचिदानन्द निकला कातिल

  ये खबर कल दैनिक जागरण  अखबार मे थी। नंवाशहर, पंजाब मे कुछ दिन पहले कविता नाम की एक महिला का कत्ल हुया था। तब से पुलिस कातिल  की तलाश मे थी। अखबार के अनुसार ये बाबा लोगों को बहला फुसला कर उन से धन सम्पति एंठता था। बाबा उर्फ सतिन्दर कुमार् ही कविता का कातिल निकला। पोलिस ने सोमवार रात को उसे गिरफ्तार कर लिया।बाबा ने गला घोंट कर उसकी हत्या की थी।वो कई लोगों को अपने झाँसे मे ले कर बर्बाद कर चुका था। कविता भी इस के झाँसे मे आ गयी।करीब 4 साल मे वो बाबा पर 4--5 लाख लुटा चुकी थी। विदेश से उसके बेटे जो पैसे भेजते वो बाबा के चरणो मे अर्पित कर देती। इसी दौरान कविता को बाबा के ढोंगी पहरावे की भनक लगी तो वो अपना पैसा वपिस मांगने लगी। कविता को पता चला कि बाबा सचिदानन्द पर गुरदासपुर के कस्बे कादियाँ मे धोखा धडी के कई केस दर्ज हैं और पोलिस रिकार्ड मे भगौडा है। पोल खुलने पर उसने बाबा से अपने पैसे लौटाने के लिये कहा और वापिस न करने पर पोल खोल देने की धमकी दी।


28 नवम्बर की रात करीब 11 बजे बाबा कविता के घर पहुँचा और उसे समझाया। कविता के बार बार अपनी बात पर अडे रहने के बाबा ने पजले उसके सिर पर जोर से घूँसा जडा और बाद मे उसी की चुन्नी से उसका गला घोंट दिया।हत्या को लूट का मामला बनाने के लिये उसने उस के बाल बिखेर दिये और घर का सारा सामान भी बिखेर दिया।ुसके 2 मोबाईल फोन भी नष्ट कर दिये।। फिर कमरे को ताला लगा कर दूसरे दरवाजे से चला गया ।अगली सुबह छ: बजे बाबा अपने चेलों को साथ ले कर गाडी से कुरुक्षेत्र चला गया। इसके बाद वो जालन्धर और अमृतसर मे भी घूमा।। 7 दिस्मबर को जब वो नवां शहर लौटा तो पोलिस ने उसे दबोच लिया।जाँच के दौरान पोलिस लो पता चला कि  कविता का उस बाबा के पास काफी आना जाना था। बाबा कविता का भाई बना हुया था। पोलिस ने जब सबूत जुटाने शुरु किये तो सभी कडियाँ खुलती चली गयी।

पोलिस को पता चला कि बाबा लोगों को सम्मोहित करने की क्रिया जानता था।बस बात यहीं तक नहीं थी जो लोई भी उसके पास आता वो उसी का हो कर रह जाता। 1990 मे खुद को बाबा कह कर प्रचार करने वाले बाबा पर ठगी धोखाधडी अवैध हथियार रखने, हत्या का प्रयास करने के चार केस दर्ज हुये। वो उसके बाद अपने परिवार को वहीं छोड कर दिल्ली के गनेश नगर मे चमन लाल मूँगा के घर पहुँचा।। वहाँ उन्को उनके बेटे की मौत का वहम डाल कर उन से लाखों रुपये ठग लिये यही नहीं मूँगा परिवार की लडकी नेहा को भी अपने जाल मे फंसा लिया और उसे अपने साथ ही नवांशहर ले गया। नेहा इस कदर बाबा के चंगुल मे फसी कि उसने अपने ही पिता समेत 11 लोगों पर बलात्कार का केस दर्ज करवा दिया। इस के इलावा कई पोलिस वाले भी बाबा के सम्मोहन मे थे। पोलिस जब पूछताछ करती तो बाबा अपने सम्मोहन और प्रवचनों से सम्म्मोहित कर लेता।
फिर एस एस पी श्री राकेश अग्रवाल ने खुद पूछताछ शुरू की तो वो टूट गया और सारी कडियाँ खुल गयी। 
ये खबर तो अखबार की है बाकी खबर कल और फिर इसी को ले कर मेरे  कुछ सवाल होंगे। बाकी कल ।
क्रमश:



07 December, 2009

गुरू मन्त्र {कहानी}-------- गताँक से आगे

पिछली कडी मे आपने पढा कि मदन लाल ज अपनी पत्नि से बहुत प्रेम करते थे उसने कभी अपने लिये उनसे कुछ नहीं माँगा था मगर आज कल उसे हरिदचार जा कर गुरू धारण करने की इच्छा थी जिसे मदन लाल जी ने पूरी करने के लिये अपना स्कूटर तक बेच दिया । बेशक उन्हें इस दाधु सन्तों पर इतना विश्वास नहीं था मगर पत्नी के मन को ठेस पहुँचाना नहीं चाहते थे। वो उसे ले कर हरोदवार पहुँचे और आश्रम मे एक कमरा किराये पर ले लिया। और धर्म के नाम पर जो लूट और धर्मिक सन्तों का वैभव देखा उसने उसके मन मे इन बाबाओं के प्रति और भी नफरत भर दी। अगर वो अपनी पत्नि को घर बैठ कर ही सब कुछ बताते तो शायद वो उन्हें नास्तिक कहती मगर प्रत्यक्ष रूप मे सामने सब कुछ देख कर सन्ध्या पर क्या असर हुया ये पढिये आगे------

दन लाल जी बहुत परेशान हो गए थे । आज कमरे का किराया भी पड़  गया । अगर कल भी समय रहते काम न हुआ तो एक दिन का किराया और पड़ जायेगा । उनके पास एक हजार रू बचा था । 280 / रू जाने का किराया भी लग जायेगा । उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। मदन लाल जी कुछ सोच कर उठे और बाहर चल दिए । आज चाहे उन्हें कुछ भी करना पडे वह करेंगे । जब गंरू जी का काम चोर दरवाजे से चलता है तो वो भी थोड़ा झूठ बोलकर काम निकलवा लेंगे । सोचते हुए वो  पिछले दरवाजे की तरफ गए तो उन्हें गुरू जी का एक सेवक् मिल गया । पिछले दरवाजे पर अभी भी कुछ लोग अन्दर आ- जा रहें थे । मदन लाल जी आगे लपके ‘महाराज, देखिए मैं एक अखबार का प्रतिनिधि हू । मेरे पास छुटटी नही है अगर इन लोगों के साथ हमें भी गुरू जी के साथ मिलवा दें तो बड़ी कृपा होगी । अखबार में इस आश्रम के बारे में जो कहें लिख दूगा । नही तो निराश  होकर जाना पड़ेगा ।" मदन लाल जी ने झूठ का सहारा लिया।

 ‘‘ठीक है आप 15-20 मिनट बाद आना, मैं कुछ करता हूं ‘‘ वह कुछ सतर्क सा होकर बोला ।

मदन लाल जी मन ही मन खुश हो गए । उनका तीर ठिकाने पर लगा था । वह जल्दी से अपने कमरे कें गए और संध्या को साथ लेकर उसी जगह वापिस आ गए । संध्या के पांव धरती पर नहीं पड़ रहे थे । इस समय वह अपने को मंत्री जी से कम नहीं समझ रही थी । उसके चेहरे की गर्वोन्नति देख मदन लाल जी मन ही मन उसकी सादगी पर  मुरूकराए । वो सोच रही थी कि यह उसकी भक्ति और आस्था की ही चमत्कार है जो गुरू जी ने इस समय उन पर कृपा की है । उसने मदन लाल की तरफ देखा ‘‘ देखा गुरू जी की महानता ।‘‘ वो  हस पड़े ।


पाच मिनट में ही वो सेवक  उन्हें गुरू जी के कमरे में ले गया । संध्या ने दुआर पर नाक रगड़ कर माथा टेका । जैसे ही उसने अंदर कदम रखा उसे लगा वह स्वर्ग के किसी महल में आ गई है । ठंडी हवा के झोंके से वह आत्म विभोर हो गई । उसने पहली बार वातानुकूल कमरे को देखा था । उसके पाँव किसी नर्म चीज में धंसे  जा रहे थे । उसने नीचे देखा, सुन्दर रंगीन गलीचा बिछा था, इतना सुन्दर गलीचा उसने जीवन में पहली बार देखा था । कमरे में तीन तरफ बड़े- 2 गददेदार सोफे थे । छत पर बड़ा सा खूबसूरत फानूस लटक रहा  था । कमरे की सजावट देख कर लग रहा था कि वह किसी राजा के राजमहल का कमरा था । सामने गुरू जी का भव्य आसन था । और कमरे मे दो जवान सुन्दर परिचातिकायें सफेद साडियों मे  खडी थीं।वि आगे बढे और  दोनों ने गुरू जी के चरणों में माथा टेका । संध्या ने गुरू दक्षिणा भेंट की । गुरू जी ने आशीर्वाद दिया । वों दोनों आसन के सामने गलीचे पर बैठ गए ।

 

‘‘ देखो बच्चा, हमें किसी चीज का लोभ नही । मगर भक्तों की श्रद्धा का हमें सम्मान करना पड़ता है । उनकी आत्म संतुष्टी में ही हमारी खुशी है । बहुत दूर-2 से भक्त आते है । विदेशों में भी हमारे बहुत शिष्य  है । यह इतना बड़ा आश्रम भक्तों की श्रदा और दान से ही बना है ।‘‘ मदन ला जी मन ही मन समझ रहें थे कि गुरू जी उन्हें यह सब क्यों बता रहे है ।

‘‘स्वामी जी मेरी पत्नि टेलिविजन पर आपका प्रवचन सुनती रहती है । इसकी बड़ी इच्छा थी कि आपसे गुरू मंत्र ले । ‘‘ मदन लाल जी अपना काम जलदी करवाना चाहते थे । उन्हें डर था कि कहीं गुरु जी ने अखवार के बारे में पूछ लिया तो संध्या के सामने भेद खुल जाएगा ।

 ‘‘बेटी तुम राम-2 का जप करा करो यही तुम्हारा गुरू मंत्र है ।‘‘संध्या ने सिर झुकाया ‘‘पर गुरू जी मुझे पूजा -विधि बिधान नही आता । भगवान को कैसे पाया जा सकता है ? ‘‘ संध्या की बात पूरी नही हुई थी कि गुरु जी के टेलिफोन की घंटी बज गई । गुरू जी बात करते-2 उठ गए । पता नही किससे फोन पर बात हो रही थी कि। उन्हें गुस्सा आ गया और वो बात करते-2 दूसरे कमरे में चले गए ----- उन दोनों के कान में इतनी बात पड़ी ------ "उस साले की इतली हिम्मत ? मैं मंत्री जी से बात करता हू ------‘‘


मदन लाल और संध्या का मन कसैला सा हो गया । आधे धंटे बाद उनके एक सेवक  ने आकर बताया कि अब गुरू जी नही आ पाएगे । उनका मूड ठीक नही है, कोई समस्या आ गई है ।वो दोनो निराश  से बाहर आ गए ।

दोनो के मन मे एक ही सवाल था क्या संतों का मूड भी खराब होता है? अगर ये लोग अपने मन पर काबू नहीं पा सकते तो लोगों को क्या शिक्षा देते होंगे। क्या इन लोगों को भी क्रोध आता है? क्या ये लोग भी अपशब्द बोलते हैं -- ये लोग हम से अधिक भौतिक सुखों भोगते हैं। स्वामी जी के कमरे मे कितना बडा एल सी डी लगा था।----- ऐसे कई प्रश्न----

 ‘‘संध्या ! आने से पहले तुम्हारे मन में जो स्वामी जी की तस्वीर थी क्या अब भी वैसी ही है ?"

‘‘पता नही जी, मैंने तो सोचा भी नहीं था कि साधु संत इतने वैभव-ऐश्वर्य में रहते है । खैर ! वो गुरू जी हैं, अन्तर्यामी है उन्होने मेरी सच्ची आस्था को समझा तभी तो इतने लोगों को छोड़कर हम पर कृपा की ‘‘ संध्या अपनी आस्था को टूटने नहीं देना चाहती थी ।

‘‘तुम जैसे भोले लोग ही तो इनके वैभव का राज है । तुम जानती हो कि हम लोगों को क्यों पहले बुलाया ?"

‘‘क्यों?", संध्या हैरानी से मदन लाल को देख रही थी । मदन लाल ने उसे नूरी बात बताई कि किस तरह उन्होंने पत्रकार बनकर सेवक को पटाया था । क्योंकि उनके पास पैसे भी कम पड़ रहें थे । उधर मुनीम जी उनकी नौकरी से छुट्‌टी न कर दें ।‘‘

" पता नहीं जी यह सब क्या है ?" क्या सच? मैं तो समझी गुरू जी अन्तर्यामी हैं--वो मेरी आस्था को जान गये हैं इस लिये जल्दी बुलाया है?संध्या ने मदनला की ओरे देखा।

‘‘फिर तुमने देखा फोन पर बात करने का ढंग ? गाली देकर बात करना फिर मंत्री जी की धोंस दिखाना, क्रोध में आना क्या यह साधु संतों का काम है?"अगर साधू सन्तो मे धैर्य न हो तो वो भक्तों को क्या शिक्षा देंगे?क्या ये सब साधू संतों का आचरण है?: मदन लाल सन्ध्या की मृगत्रिष्णा मे सेंध लगाने की कोशिश कर रहे थे।

"फिर देखो साधू सन्तों का रहन सहन क्या इतना भैववशाली होना चाहिये?वातानुकूल महलनुमां कमरे,बडी बडी ए सी गाडियाँ अमीर गरीब मे भेद भाव। तुम ही बताओ क्या ये हम जैसे भोले भाले लोगों को गुमराह नहीं कर रहे?हमे कहते हैं भौतिक वस्तुयों से परहेज करो धन से प्यार न करो,और हम से धन ले कर उसका उपयोग अपने सुख भैवव के लिये कर रहे हैं।" मदन लाल ने एक और कील ठोंकी।

":देखो जी मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा।फिर भी सब कुछ ठीक ठाक सा नहीं लगा।"

"संध्या आज वो साधू सन्त नहीं रहे जो लोगों को धर्म का मार्ग बताते थे। खुद झोंपडिओं मे रहकर लोगों को सुख त्याग करने का उदहारण पेश करते थे। आज धर्म के नाम पर केवल व्यापार हो रहा है। किसकी दुकान कितनी उँची है ये भक्त तय करते हैं। कुकरमुत्तोंकी तरह उगते ये आश्रम असल मे दुकानदारी है व्यापार है चोर बाज़ारी है जहाँ अपराधी लोग शरण पाते हैं और फिर कितना खून खराबा इन लोगों दुआरा करवाया जाता है लोगों की भावनायों को भडका कर राजनेताओं को लाभ पहुँचाना आदि काम भी यही लोग करते हैं। मैं ये नहीं कहता कि सब ऐसे होंगे अगर कोई अच्छा होगा भी तो लाखों मे एक जो सामने नहीं आते। लाखों रुपये खरच कर ये टी वी पर अपना प्रोग्राम दिखाते हैं जहाँ से तुम जैसे मूर्ख इन के साथ जुड जाते हैं। अगर इन्हें धर्म का प्रचार करना है तो गली गली घूम कर धर्मस्थानों पर जा कर करें वहाँ जो रूखा सूखा मिले उस खा कर  आगे च्लें मगर लालच वैभव और मुफ्त का माल छकने के लिये ये बाबा बन जाते हैं।" मदन लाल जी अपना काम कर चुके थे।

 चलो इसी बहाने तुम ने कुछ क्षण ही सही वातानुकूल कमरे.गद्देदार कालीन का आनन्द तो उठा लिया ? साधु-सन्तों का मायाजाल भी देख लिया, अपना मायाजाल तोड कर ।ऎसे साधुयों के काराण ही तो लोग धर्म विमुख हो रहे हैं।" मदन लाल को लगा कि अब वो सन्धया की मृग त्रिष्णा को भेद चुके हैं।

   सन्ध्या सब समझ गयी थी।वो मदन लाल से आँख नहीं मिला पा रही थी।उसकी आस्था ऐसे सन्तों से टूट चुकी थी।उसे आज मदन लाल जी इन सन्तों से महान नज़र आ रहे थे जिन्हों ने अपना स्कूटर बेच कर उसका मन रखने के लिये अपने सुख का त्याग किया था।अब उन्हें रोज़ पैदल ही दफ्तर जाना पडेगा। सच्चा मन्त्र तो ईश्वर की बताई राह पर चलना है। मगर मैं साधन को साध्य समझ कर भटक गयी थी

 प्रेम भाव और दूसरे की खुशी के लिये अपने सुख का त्याग करना---ओह्! यही तो है वो मन्त्र! इसे मैं पहले क्यों नहीं समझ पाई? आज इस आत्मबोध को सन्ध्या ने धारण कर लिया था -गुरू-मन्त्र की तरह । 

समाप्त







05 December, 2009

गुरू मन्त्र {कहानी}-------- गताँक से आगे
पिछली कडी मे आपने पढा कि मदन लाल जी अपनी पत्नि से बहुत प्रेम करते थे, उसने कभी अपने लिये उनसे कुछ नहीं माँगा था मगर आज कल उसे हरिदचार जा कर गुरू धारण करने की इच्छा थी जिसे मदन लाल जी ने पूरी करने के लिये अपना स्कूटर तक बेच दिया । बेशक उन्हें इन साधु सन्तों पर इतना विश्वास नहीं था मगर पत्नी के मन को ठेस पहुँचाना नहीं चाहते थे। वो उसे ले कर हरिदवार पहुँचे और आश्रम मे एक कमरा किराये पर ले लिया। अब आगे पढें-----

मई महीने की कड़कती गर्मी से बेहाल लोग आश्रम के प्रांगण में स्वामी जी का इन्तजार कर रहें थें । दोपहर का प्रचंड रूप भी आज संध्या को भला लग रहा था । आज उसकी बरसों की आशा पूर्ण होने जा रही थी । संध्या बड़ी श्रदा से गुरू दक्षिणा का सामान संभाले मदन लाल के साथ आश्रम के प्रांगण में एक पेड़ के नीचे आकर बैठ गई । वह ध्यान से आस पास के लोगों का निरीक्षण कर रही थी । लोग बड़े-2 उपहार फलों के टोकरे मिठाई मेवों के डिब्बे, कपडे और , बड़े-2 कंबलों के लिफाफे लिए बैठे थे । साथ ही एक परिवार की औरत दूसरी औरत को दिखा रही थी कि वो 50 ग्राम सोने की चेन, विदेशी घड़ी गुरू दक्षिणा के लिए लाई है । साथ ही बता रही थी कि यह तो कुछ भी नही लोग गुरू जी को लाखों रूपये चढ़ावा चढ़ाते है । सुनकर संध्या ने कुछ शर्मिदा सा हो लिफाफे को कसकर बगल में दबा लिया ताकि उसकी तुच्छ सी भेंट कोई देख न ले । उस गरीब के लिए तो यह भी बहुत बड़ा तोहफा था ।

मदन लाल जी का गर्मी से बहुत बुरा हाल था । पाँच बजने वाले थें मगर गुरू जी का कोई अता पता नही था । मदन लाल को गुस्सा भी आ रहा था । साधु सन्तों को लोगों की असुविधा, तकलीफ का कुछ तो एहसासा होना चाहिए । फिर सुध्या ने तो सुबह से कुछ खाया ही नही था । गुरू मन्त्र लेना है तो व्रत तो रखना  ही था।  । पवित्र काम के लिए शुद्धि आवश्यक होती है ।
‘‘देखो जी लोग गुरू दक्षिणा के लिए कितना कुछ ले कर आए है । मुझे तो अपनी छोटी सी भेंट पर शर्म आ रही है । क्योंं न कुछ रूपये और रख दें । ‘‘ संध्या तो बस एक ही बात सोच रही थी । मगर कह नहीं पा रही थी।
‘‘महाराज क्या आज गुरू जी के दर्शन  होंगे ?‘  मदन लाल ने वहाँ एक आश्रम के सेवक से पूछा  ‘हाँ- हाँ, बस आने वाले है ।‘‘ उसने जवाब दिया ।
"हमारा नंबर जल्दी लगवा दीजीए, दूर से आए हैं , थक भी गए है ।"
‘‘ठीक है, बैठो-2 ‘‘ उसका ध्यान मोटी आसामियों पर था ।

संध्या तो मगन थी मगर मदल लाल जी को झुंझलाहट हो रही था । वो सोच ही रहे थे  कि बाहर कहीं जाकर कुछ खा पी लिया जाए तभी उन्होंने देखा कि 4-5 गाड़ियों का काफिला आश्रम के प्रांगण में आकर रूका । गाड़ियों में से गुरू जी तथा कुछ उनके शिश्य   उतरे और गुरू जी के कमरे में चले गए । सँत जी ने बाहर बैठे, सुबह से इन्तजार करते भक्तों की तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखा । लोग जय जय कार करते रहे । संध्या कितनी श्रद्धा से आँख  बन्द कर हाथ जोड़ कर खड़ी थी । मदन लाल का मन क्षोभ से भर गया मगर बोले कुछ नहीं ।

सात बजे एक सेवक  अन्दर से आया । उसने लोगों को बताया कि गुरू जी थक गए है । सुबह आठ बजे सबको गुरू मन्त्र मिलेगा । जो लोग यहाँ ठहरना चाहते है उनके लिए हाल में दरियां विछा दी है । सब को खाना भी मिल जाएगा वहीं भजन कीर्तन करें । संध्या बहुत खुश  थी । वह सोच रही थी कि गुरू आश्रम मेंं सतसंग कीर्तन का आनन्द उठाएंगे, ऐसा सौभाग्य कहा रोज -2 मिलता है । मगर मदन लाल जी मन ही मन कुढ़ कर रह गए । - गुरू जी कौन सा हल जोत कर आए हैं जो थक गए है । ।महंगी ए- सी- गाड़ी में आए है। उन्हें क्यों ध्यान नही आया कि लोग सुबह से भूखे प्यासे कड़कती धूप में उनका इन्तजार कर रहे है । यह कैसे सन्त है जिन्हें अपने भक्तों की असुविधा, दुख दर्द का एहसास नही । उन्हेे तो पहले ही ऐसे साधु सन्तों पर विश्वास नही है जो वातानुकूल गाड़ियों में धूमते तथा महलनुमा वातानुकूल आश्रमों में आराम दायक जीवन जीते है । उनका मन हुआ कि यहा से भाग जाए । मगर वह संध्या के मन को चोट पहुचाना नही चाहते थे ।

दोनो ने कमरे में आकर कुछ आराम किया । फिर 8-30 बजे खाना खाकर वो सतसंग भवन में आकर बैठ गए जहाँ कीर्तन भजन चल रहा था । मदन लाल धीरे से ‘अभी आया‘ कहकर उठ गया । मन का विषाद भगाने के लिए वह खुली हवा में टहलना चाहते थे ।  वह आश्रम के पिछली तरफ बगीचे में निकल गया । सोचने लगा कि उनका क्षोभ अनुचित तो नही ? गुरू जी के मन का क्रोध उन्हें पाप का भागी तो नही बना रहा ------------ इन्ही सोचों में चलते हुए उसकी नजर आश्रम के एक बड़े कमरे के दरवाजे पर पड़ी । शायद वह गुरू जी के कमरे को पिछला दरवाजा था । दरवाजे पर गुरू जी का एक सेवक् 2-3 परिवारों के साथ खड़ा था । तभी अन्दर से एक आदमी तथा एक औरत बाहर निकले । सेवक  ने तभी एक और  परिवार को अन्दर भेज दिया । अब मदन लाल जी की समझ में सारा माजरा आ गया । मालदार लोगों के लिए यह चोर दरवाजा था , जहा से गुरू जी तक चाँदी की चाबी से पहूंचा जा सकता था । यह धर्म का कैसा रूप है ? यह साधु-सन्त है या व्यवसाई? उन्हें नही चाहिए ऐसे संतों का गुरूमन्त्र ! वह वापिस जाना चाहते थे मगर संध्या की आस्था का तोड़ उनके पास नही था । वह अनमने से संध्या के पास जाकर बैठ गए ।

कीर्तन के बाद कमरे में आकर उन्होंने संध्या को सब कुछ बताया मगर वह तो अपनी ही रौ में थी , ‘‘ आप भी बस जरा-2 सी बात में दोष ढूंढने लगते है । क्या सतसंग में सुना नही छोटे महात्मा जी क्या कह रहे थे ? हमें दूसरों के दोष ढूंढने से पहले अपने दोष देखने चाहिए । मगर तुम्हें तो साधु सन्तों पर विवास ही नही रहा । संध्या की आस्था के आगे उसके तर्क का सवाल ही नही उठता था । वह चुपचाप करवट लेकर सो गया ।

सुबह पाँच   बजे उठे नहा धोकर तैयार हुए और छ: बजे आरती में भाग लेने पहूंच गए । यहाँ भी गुरू जी के शिश्य  ही आरती कर रहे थे । संध्या ने व्रत रखा था । वह शुद मुख से मंत्र लेना चाहती थी । वह आठ बजे ही प्रांगण में जाकर बैठ गई और आस पास के लोगों से बातचीत द्वारा गुरू जी के बारे में अपना ज्ञान बांटने लगी । मदन लाल जी 9 बजे बाहर से नाश्ता करके उसके पास आकर बैठ गए । आठ बजे की बजाए गुरू जी 10 बजे आए और अपने आसन पर विराजमान हो गए । आस पास उनके सेवक  खड़े थे और कुछ सेवक  लोगों को कतार में आने का आग्रह कर रहे थे ।

गुरू जी ने पहले गुरू-शिष्य  परंपरा की व्याख्या जोरदार शब्दों में की । लोगों को मोह  माया त्यागने का उपदेश  दिया फिर बारी बारी एक-2 परिवार को बुलाने लगे । उन्हें धीरे से नाम देते फिर आाीर्वाद देते । लोगों की दान दक्षिणा लेकर ाष्यों को सपुर्द कर देते । जिनकी दान दक्षिणा अक्ष्छी होती उन्हें फल मिठाई को प्रसाद अधिक मिल जाता । उनको हंस कर आशीर्वाद देते, कुछ बातें भी करते । मदन लाल ने कई बार उठने की चेष्टा की मगरसेवक उन्हें हर बार बिठा देता । वह मालदार असामी को ताड़कार पहले भेज देता । मदन लाल मन मार कर बैठ जाते । उन्हें चिन्ता थी कि अगर दो बजे तक फारिग न हुए तो आज का दिन भी यहीं रहना पड़ेगा । चार पाच सौ रूपये और खर्च हो जाएगा ।

एक बजे तक बीस पचीस लोग ही गुरू मंत्र ले पाए थे । उनमें से कुछ पुराने भक्त भी थे । एक मास में केवल 3 दिन ही होते थे गुरू म्रत्र पाने के लिए । एक बजे गुरू जी उठ गए । भोजन का समय हो गया था । लोग मायूस होकर अपने’-2 कमरों में लौट गए । जिनके पास कमरे नहीं थे वो वृक्षों के नीचे बैठ गए । कई लोग तीसरी चौथी बार आए थें अभी उनहें गुरू मंत्र नही मिला था । चार बजे फिर गुरू जी ने मंत्र देना था । लोग इन्तजार कर रहें थे । पाँच बजे गंरू जी के सेवक  ने बड़े गर्व से लोगों को बताया कि अभी थोड़ी देर में एक मंत्री जी गुरू जी के दर्शन करने आने वाले है । इसलिए कल 10 बजे गुरू जी आपसे मिलेंगे । तभी चमचमाती कारों का काफिला प्रांगण में आकर रूका । मंत्री जी व उनके साथ आए लोग सीधे गुरू जी के कमरे में चले गए । चाय पानी के दौर के बाद गुरू जी मंत्री जी को आश्रम का दौरा करवाने निकले । इस काम में 7 बज गए । मंत्री जी आश्रम के लिए 50 हजार का चैक भी दे गए थे ।     
क्रमश:

03 December, 2009

गुरू मन्त्र
कहानी
मदन लाल ध्यान ने संध्या को टेलिवीजन के सामने बैठी देख रहें हैं । कितनी दुबली हो गई है । सारी उम्र अभावों में काट ली, कभी उफ तक नही की । वह तो जैसी बनी ही दूसरों के लिए थी । संयुक्त परिवार का बोझ ढोया, अपने बच्चों को पढ़ाया लिखाया और शादियां की और फिर सभी अपने-अपने परिवारों में व्यस्त हो गए । मदन लाल जी और संध्या को जैसे सभी भूल गये । मदन लाल जी क्लर्क के पद से रिटायर हाने के बाद अभी तक एक साहूकार के यहां मुनिमी कर रहे हैं । बच्चों की शादियों पर लिया कर्ज अभी बाकी है । फिर भी वे दोनों खुश  है । संध्या आजकल जब भी फुरस्त में होती है तो टेलिविजन के सामने बैठ जाती है , कोई धार्मिक चैनल लगाकर । साधु -संतों के प्रवचन सुनकर उसे भी गुरू धारण करने का भूत सवार हो गया है। मगर  मदन लाल को पता नही क्यां इन साधु संन्तों से चिढ़ है । संध्या कई बार कह चुकी है कि चलो हरिद्वार चलते हैं । पड़ोस वाली बसन्ती भी कह रही थी कि स्वामी श्रद्वा राम जी बड़े पहूंचे हुये महात्मा है । उनका हरिद्वार में आश्रम है । वो उन्हें ही गुरू धारण करना चाहती हैं ।
संध्या ने प्रवचन सुनते-सुनते एक लग्बी सास भरी । तो मदन लाल जी की तन्द्रा टूटी । जाने क्यों उन्हें संध्या पर रहम सा आ रहा था । उन्होंने मन में ठान लिया कि चाहे कही से भी पैसे का जुगाड़ करना करें, मगर संध्या को हरिद्वार जरूर लेकर जाएंगे । आखिर उस बेचारी ने जीवन में चाहा ही क्या है । एक ही तो उसकी इच्छा है ।
‘‘संध्या तुम कह रही थी हरिद्वार जाने के लिए, क्या चलोगी‘क्या,?"
 वह चौंक सी गई ------‘‘मेरी तकदीर में कहा जिन्दा जी जाना बदा है । अब एक ही बार जाना है हरिदुयार मेरी अस्थिया लेकर‘ । ‘‘ वह कुछ निराश् सी होकर बोली ।
‘‘ऐसा क्यों कहती हो ? मदन लाल के मन को ठेस सी लगी । अब बुढापे मे तो दोनो के केवल एक दूसरे का ही सहारा था।
‘‘सच ही तो कहती हूं । पैसे कहाँ से आऐंगे ? बच्चो की शादी का कर्ज तो अभी उतरा नही । बेटा भी कुछ नही भेजता । आज राशन वाला लाला भी आया था ।‘‘
‘‘ तुम चिन्ता मत करो । मैं सब कर लूंगा । बच्चों की तरफ से जी मैला क्यों करती हो । नइ -2 ग्‌ृहस्थी बसाने में क्या बचता होगा उनके पास । हम हरिद्वार जरूर जाएंगें ‘‘ कहते हुए वह बाहर निकल गया । मदन लाल भावुक होकर संध्या से कह तो बैठे, मगर अब उन्हें चिन्ता सता रही थी कि पैसे का इन्तजाम कैसे करें । मन में एकाएक विचार आया कि क्यों न अपना स्कूटर बेच दें । यूं भी बहुत पुराना हो गया है । हर तीसरे दिन ठीक करवाना पड़ता है । बाद में किश्तों  पर एक साईर्कल ले लेंगे । वैसे भी साईकिल चलाने से सेहत ठीक रहती है --उसने अपने दिल को दोलासा दिया।  हाँ, यह ठीक रहेगा । मन ही मन सोच कर इसी काम में जुट गए । चार-पाच दिन में ही उन्होने पाँच हजार में अपना स्कूटर बेच दिया । उन्हें स्कूटर बेचने का लेश  मात्र भी दुख न था । बेशक  उनका अपना मन हरिदार जाने का नही था मगर वह संध्या की  एक मात्र इच्छा पूरी करना चाहतें थें ।
संध्या बड़ी खुश थी । उसे मन चाही मुराद मिल रही थी । उसने धूमधम से हरिदार जाने की तैयारी शुरू कर ली । अब गुरू मन्त्र लेना है तो गुरू जी के लिए गुरू दक्षिणा भी चाहिए, कपड़े, फल, मिठाई आदि कुल मिलाकर दो ढाई हजार का खर्च । चलो यह सौभाग्य कौन सा रोज रोज मिलता है । जिस प्रभू ने इतना कुछ दिया उसके नाम पर इतना सा खर्च हो भी गया तो क्या ।
 हरिदार की धरती पर पाव रखते ही संध्या आत्म विभोर हो गई । मदन लाल जी गर्मी से वेहाल थे मगर संध्या का सारा ध्यान स्वामी जी पर ही टिका हुआ था । अब उसका जीवन सफल हो गया । गुरू मंत्र पाकर वो धन्य हो जायेगी। मदन लाल जी भी  नास्तिक तो नही थे मगर धर्म के बारे में उनका नजरिया अलग था । वो संध्या की आस्था को ठेस पहूंचाना नही चाहते थे ।
दोपहर बारह बजे वो आश्रम पहूंचे । आश्रम के प्रांगण में बहुत से लोग वृक्षों की छांव में बैठे थें । मदन लाल जी रात भर ट्रेन के सफर में थक गए थे । पहले वह नहा धोकर फ्रेश् होना चाहते थे । आश्रम के प्रबन्धक से ठहरने की व्यवस्था पूछी । तीन सौ रूपये किराए से कम कोई कमरा नहीं था । चलो एक दिन की बात है यह सोचकर उन्होंने एक कमरा किराए पर ले लिया । थोड़ा आराम करके नहा धोकर तैयार हुए । 2 बजे के बाद गुरू दीक्षा का समय था ।------ क्रमश

30 November, 2009

अच्छा लगता है (कविता )
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कभी कभी
क्यों रीता सा
हो जाता है मन
उदास सूना सा
बेचैन अनमना सा
अमावस के चाँद सी
धुँधला जाती रूह
सब के होते भी
किसी के ना होने का आभास
अजीब सी घुटन सन्नाटा
जब कुछ नहीं लुभाता
तब अच्छा लगता है
कुछ निर्जीव चीज़ों से बतियाना
अच्छा लगता है
आँसूओं से रिश्ता बनाना
बिस्तर की सलवटों मे
दिल के चिथडों को छुपाना
और
बहुत अच्छा लगता है
खुद का खुद के पास
लौट आना
मेरे ये आँसू मेरा ये बिस्तर
मेरी कलम और ये कागज़
और
मूक रेत के कणों जैसे
कुछ शब्द
पलको़ से ले कर
दो बूँद स्याही
बिखर जाते हैँ
कागज़ की सूनी पगडंडियों पर
मेरा साथ निभाने
हाँ कितना अच्छा लगता है
कभी खुद का
खुद के पास लौट आना

28 November, 2009


गज़ल
ये गज़ल भी प्राण भाई साहिब के आशीर्वाद और संवारने से
कहने लायक बनी है।

हौसला दिल में जगाना साथिया
देश दुश्मन से बचाना साथिया

जो करे बस सोच कर करना अभी
फिर न तू आँसू बहाना साथिया

क़ैद कर् पलकों में रखना हर घड़ी
यूँ बना काजल सजाना साथिया

जान हाल-ए- दिल न ले तेरा कहीं
चेहरा ऎसे छुपाना साथिया

कौन कहता है तुझे अब आदमी
भ्रूण मारे क्यों,बताना साथिया

रूप उसका जान का दुश्मन बना
प्रेम का जलवा दिखाना साथिया

छोड़ कर चल दे मुसीबत में कोई
दोस्त कैसा वो,बताना साथिया

दोस्ती निर्मल है "निर्मल" की सदा
जब जी चाहे आज़माना साथिया

26 November, 2009

मेरे ब्लाग की आज वर्षगाँठ है
कल मेरा जन्म दिन था । आप सब की इतनी शुभकामनायें पा कर अभिभूत हूँ। पता नहीं क्यों मेरी हर खुशी के साथ गम की कोई न कोई दास्ताँ क्यों जु ड जाती है। अब 26/11 की घट्ना को भी शायद कभी भूल नहीं पाऊँगी। इतनी खुश शायद मैं कभी नहीं हुई थी।

सुबह पोस्ट लिखी तो दिन मे ये घटना घट गयी। और दूसरी परेशानी, ये कि कल रात को जब पोस्ट लिखने लगी तो देखा टिप्पणी और पोस्ट वाला विजेट गलत सँख्या बता रहा था। बहुत परेशान हुई । कल दोपहर को 3500 तक टिप्पनी पहुँच गयी थी मगर रात को 405 दिखाने लगा। क्या कोई इसका कारण बता सकता है? खैर मैने फिर सभी पोस्ट और टिप्पनियाँ गिनी ।कुछ पोस्ट भी गायब लगती हैं । आज फिर देखती हूँ। खैर अब बात करती हूँ आज की। आज मेरे ब्लाग की पहली वर्षगाँठ है।
एक साल मे 172 -- प्रविष्टियाँ और 3510 कमेन्ट्स इस के अतिरिक्त मेरा दूसरा ब्लाग वीराँवल गाथा भी है जिस पर केवल 11 प्रविश्टियाँ ही डाल पाई वहाँ कमेन्ट्स पता नहीं कितने हुये । बहुत से फालोयर --- मुझ जैसी अल्पग्य के लिये बहुत बडी उपल्ब्धि है।
मेरे ब्लाग के जन्म की कहानी भी बहुत रोचक है।दिसम्बर 2007 मे रिटायर होने के बाद हम अपने नये घर मे आ गये नया मोहल्ला और नया घर यहाँ मन नहीं लगता था लोग तो नंगल के ही जाने पहचाने थे मगर जो घर जैसे सम्बन्ध पहले वाली जगह बन गये थे वैसे यहाँ नहीं थे। कुछ एक माह बाद छोटी बेटी की शादी तय हो गयी तो उसमे समय कैसे निकल गया पता ही नहीं चला। 1 नवम्नर 2009 मे बेटी की शादी की। अब ब्च्चों को भी चिन्ता हुई कि मम्मी पापा अकेले हैं दिल कैसे लगेगा। मेरे छोटे दामाद ललित जी से आप पहले भी मिल चुके हैं। शादी पर उनके दोस्त सिरिल जी [ब्लागवाणी वाले} ने उनके कान मे फूँक मार दी कि अगर पत्नि को खुश रखना है तो पहले सासू माँ को खुश करना होगा। बस जब पहली बार ललित शादी के बाद मेरे पास 25 नवम्बर को आये तो शाम को सिरिल जी को फोन लगा दिया कि यार अब कोई तरीका भी बताओ कि सासू माँ को कैसे खुश किया जाये। वो एक लेखिका हैं। बस फिर क्या था, सिरिल जी ने झट से ब्लाग बनाने का मश्विरा दे डाला। मैने कहा भी कि मुझे कम्पयूटर तो आता नहीं ब्लाग क्या खाक चलाऊँगी? मगर ललित ने मेरा ब्लाग उसी समय बना दिया और मुझे टाईप करना भी सिखा दिया। बाकी सब कुछ डेस्क टाप पर रख दिया कि यहाँ यहां कलिक करना है। बस फिर क्या था हम भी बन गये ब्लागर । अब हाल ये है कि ललित खुद तो दिल्ली मे बैठे मुस्कुरा रहे हैं और हमारे पास कहीं नज़र उठा कर देखने का समय नहीं है। 2-3 महीने तो इन्टरनेट का बिल 600 के आस पास आया मगर फिर 2000 से उपर जाने लगा तो पति देव भी कुछ कसमसाये। ये शौक तो बहुत मंहगा है। फिर बच्चों ने उनसे कहा कि आप अनलिमिटिड कनेक्शन ले लें।उसमे 750 रुपये लगेंगे बस फिर पति देव ने हिसान किताब लगाया कि अगर मैं सारा दिन खाली रहूँगी तो जरूर मेरा मन अपनी सहेलियों से मिलने को करेगा । अगर महीनी मे चार पाँच चक्कर भी शहर के लगाने गयी तो 500 का तो पट्रोल ही फूँक देगी { ये भी एक बहुत बडी बात है, नहीं तो भारतिय पति शराब पर तो खर्च कर सकते हैं मगर पत्नि के शौक के लिये हर माह इतना खर्च करना कहाँ सहन कर सकते हैं } इससे अच्छा ये कनेक्शन ही ले लेते हैं क्यों कि मुझ से अधिक उन्हें इस का फायदा था।वो तो अपनी किताबों मे इतने व्यस्त रहते हैं कि उनके पास बात करने का भी समय नहीं होता।चलो इसी बहाने वो अपनी शाँति तो बरकरार रख ही सकते हैं। कुछ सोशल सर्विस मे समय निकल जाता है। पहले हाल ये था कि मुझे बात करने के लिये देखना पडता कि कब किताब छोडें मैं बात करूँ । जैसे ही बात शुरू करती वो अपना काम करते हुये इधर उधर चले जाते और मुझे पूरी बात करने के लिये उनके पीछे पीछे जाना पडता कई बा्र इसी बात पर मैं नाराज़ हो जाती । यूँ भी मुझे हूँ हाँ मे ही निपटा देते । मुहल्ला पुराण न तो इन्हें अच्छा लगता है न मुझे।
जब से बलाग्गिंग शुरू की है मैं जरूरी बात करना भी भूल जाती हूँ और हाल ये है कि इन्हें बार बार मुझ से बात करने के लिये मेरे पास आना पडता है। अब मेरे पास टाईम नहीं होता मैं भी इन्हें हूँ हाँ मे ही निपटा देती हूँ। सब्जी की कडाही और कुकर कितनी बार जला चुकी हूँ। इन्हें पता है कि सब्जी गैस पर रख कर भूल जाऊँगी और जल जायेगी।अपने कमरे मे से आवाज़ लगा कर मुझे याद दिलाते रहते हैं।आगे कभी ये बाहर से देर से आते तो प्रश्नों की झडी लगा देती, अब कभी भी आयें मैं आराम से ब्लाग पर काम करती रहती हूँ। कई बार खुद आ कर कुछ बताने लगते हैं तो हूँ हाँ करती रहती हूँ मुझे लगता है ये सब अब गैर जरूरी बातें हैं । फिर इनके होते मैं बाहर की टेंशन क्यों लूँ?
तो है न सब के लिये फायदे का सौदा? मुझे शुरू से महमानवाज़ी बहुत पसंद है अब एक दो महमान आ जायें तो लगता है कि बहुत समय खराब हो गया। पहले मैं रोज़ पोस्ट लिखती थी फिर एक दिन छोड कर्। मगर पिछले कुछ दिनों बिमार हुई तो अब कई कई दिन बाद पोस्ट लिखने लगी हूँ दूसरा बेटी और नातिन साल बाद USA से आयी हैं उनके साथ भी मस्त हूँ। बस कुछ दिन मे ही पहले वाले रुटीन मे आ जाऊँ गी।
एक और बात ब्लागिन्ग ने मुझे बहुत से रिश्तों की खुशी दी है मेरे बेटे बेटियाँ भाई बहने इतना बडा परिवार है कि ये खुशी मुझ से सँभाले नहीं सम्भलती। और आप सब का प्यार और प्रोत्साहन पा कर अभिभूत हूँ। हाँ कुछ दिन से सभी ब्लाग पर नियमित रूप से नहीं जा पा रही हूँ मगर जल्दी सब की शिकायत दूर कर दूँगी। सिरिल जी का धन्यवाद करना चाहूँगी कि उन्हों ने ललित को ये मन्त्र दे कर सच मे मुझे ललित की प्रिय सासू जी बना दिया। ललित और सिरिल जी को बहुत बहुत धन्यवाद और ढेरों आशीर्वाद भी।
और आप सब का भी बहुत बहुत धन्यवाद। यहाँ अर्श बेटे का इस लिये जरूरी जिक्र करना चाहूँगी कि कम्प्यूटर की जानकारी न होने से जब शुरू मे मुझे मुश्किल आती तो अर्श ही मेरी मुश्किल दूर करते थे। उसे आशीर्वाद । एक नाम मेरे भानजे प्रदीप मेहता का जो मेरे कम्प्यूटर को टीम व्यूवर पर लगा कर ठीक करता रहता था मगर अब मैने पुराने की जगह नया कम्प्यूटर ले लिया है। प्रदीप अर्थात छोटू को बहुत बहुत आशीर्वाद। बस ये है कहानी मेरे एक साल के सफर की। अन्त मे ब्लागवाणी का धन्यवाद करना चाहूँगी जिन की वजह से मैं आज यहाँ हूँ। आशा है आप सब पहले की तरह आपना स्नेह और विश्वास बनाये रखेंगे। धन्यवाद।


24 November, 2009

गज़ल
इस गज़ल को भी आदरणीय प्राण भाई साहिब ने संवारा है ।तभी कहने लायक बनी है।

नज़र ज़रा सी उठा के तो देख्
अपनों से शरमाना कैसा?

चाहे भी शरमाये भी तू
अब नखरा यूँ दिखाना कैसा?

आते ही जाने की जिद्द?
पल दो पल का आना कैसा?

आईना तो सच बोले है
फिर खुद को भरमाना कैसा?



जलना है बस काम शमा का
जो न जले परवाना कैसा?

मतलव के तराजू मे तोले?
प्यार का ये पैमाना कैसा?

वो तोड गये दिल चुपके से
मुहबत का नज़राना कैसा?

तकरार से दूरी मिटती नहीं
इतनी बात बढाना कैसा?


23 November, 2009


गज़ल
ज़िन्दगी से मैने कहा कि मैं गज़ल सीखना चाहती हूँ तो उसने कहा कि तुम्हारे पास क्या है जो गज़ल लिखोगी? मैने कहा देखो इस मे काफिया भी है रदीफ भी है तो वो हंसी और बोली अरे! मूर्ख ये बहर मे नहीं है। और मैं इसे गज़ल न बना पाई। तो आप भी इस बेबहरी को ऐसे ही सुन लीजिये। आज पोस्ट करने के लिये और कुछ नहीं है न ।


चाहता हूँ खुद तेरी तकदीर लिख दूँ
खामोश होठौं पर एक तहरीर लिख दूँ

तू मिले या ना मिले कभी ज़ालिम्
दिल पर तेरे अपनी तस्वीर लिख दू

क्या दूँ तुझे इश्क मे इस के सिवा कि
तेरे नाम दिल की जागीर लिख दूँ

आओगी कभी तो कोई दुआ मांगने गर
खुद को इश्क ए फकीर लिख दूँ

मैं जानता हूँ अपनी हस्ती को ------
आ तेरे माथे की लकीर लिख दूँ

21 November, 2009

अस्तित्व [गताँक से आगे]

पिछले अंक मे आपने पढा कि रमा को अपने पति की अलमारी से एक वसीयत मिली जिसमे उनके पति ने अपने 2 बेटों के नाम सारी संपति कर दी और छोटे बेटे और रमा के नाम कुछ नहीं किया जिस से रमा के मन मे क्षोभ हुया कि उसे बिना बताये ये सब क्यों किया गया। क्या औरत केवल घर की नौकरानी है उसकी इस फैसले मे कोई अहमियत नहीं ? उसने घर छोडने का फैसला कर लियाेऔर पने पति नंद के नाम पत्र लिख कर अपनी सहेली के घर चली गयी आब आगे पढें -------
आशा के घर पहुँची1 मुझे देखते ही आशा ने सवालों की झडी लगा दी
"अखिर ऐसा क्या हो गया जो तुम्हें ऐसी नौकरी की जरूरत पड गयी1नंद जी कहाँ हैं?"
मुँह से कुछ ना बोल सकी,बस आँखें बरस रही थी महसूस् हुआ कि सब कुछ खत्म हो गया है1मगर मेरे अन्दर की औरत का स्वाभिमान मुझे जीने की प्रेरणा दे रहा था1आशा ने पानी का गिलास पिलाया,कुछ संभली अब तक वर्मा जी भी आ चुके थे1 मैने उन्हें पूरी बात बताई1 सुन कर वो भी सन्न रह गये
"देखो आशा ये प्रश्न सिर्फ मेरे आत्म सम्मान का नहीं है1बल्कि एक औरत के अस्तित्व का है क्या औरत् सिर्फ आदमी के भोगने की वस्तु है?क्या घर्, परिवार्,बच्चो पर् और घर से सम्बंधित फैसलों पर उसका कोई अधिकार नही है ! अगर आप लोग मेरी बात से सहमत हैं तो कृ्प्या मुझ से और कुछ ना पूछें। अगर आप नौकरी दे सकते हैं तो ठीक है वर्ना कही और देख लूँगी1
"नहीं नहीं भाभीजी आप ऐस क्यों सोचती हैं? नौकरी क्या ये स्कूल ही आपका है1मगर मैं चाहता था एक बार नंद से इस बारे में बात तो करनी चाहिये"
*नहीं आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे1"
" खैर आपकी नौकरी पक्की है1"
दो तीन दिन में ही होस्टल वार्डन वाला घर मुझे सजा कर दे दिया गया 1वर्माजी ने फिर भी नंद को सब कुछ बता दिया था उनका फोन आया था1मुझे ही दोशी ठहरा रहे थे कि छोटे को तुम ने ही बिगाडा है अगर तुम चाह्ती हो कि कुछ तुम्हारे नाम कर दूँ 'तो कर सकता हूँ मगर बाद में ये दोनो बडे बेटों का होगा1मैने बिना जवाब दिये फोन काट दिया 1था वो अपने गरूर मे मेरे दिल की बात समझ ही नही पाये थे1मैं तो चाहती थी कि जो चोट उन्होंने मुझे पहुँचाई है उसे समझें1
बडे बेटे भी एक बार आये थे मगर औपचारिकता के लिये शायद उन्हें डर था कि माँ ने जिद की तो जमीन में से छोटे को हिस्सा देना पडेगा1 वर्मा जी ने नंद को समझाने की और मुझे मनाने की बहुत कोशिश की मगर नंद अपने फैसले पर अडे रहे। बडे बेटे भी एक बार आये फिर चुपी साध गय।
लगभग छ: महीने हो गये थे मुझे यहाँ आये हुये1घर से नाता टूट चुका था1बच्चों के बीच काफी व्यस्त रह्ती1फिर भी घर बच्चों की याद आती छोटे को तो शायद किसी ने बताया भी ना हो1नंद की भी बहुत याद आती--पता नहीं कोई उनका ध्यान रखता भी है या नहीं वर्मा जी ने कल बताया था कि दोनो कोठियाँ बन गयी हैं1नंद दो माह वहाँ रहे अब पुराने घर मे लौट आये हैं1ये भी कहा कि भाभी अब छोडिये गुस्सा नंद के पास चले जाईये1
अब औरत का मन--मुझे चिन्ता खाये जा रही थी-ेअकेले कैसे रहते होंगे--ठीक से खाते भी होंगे या नहीं--बेटों के पास क्यों नहीं रहते--शायद उनका व्यवहार बदल गया हो--मन पिघलने लगता मगर तभी वो कागज़ का टुकडा नाचते हुये आँखों के सामने आ जाता--मन फिर क्षोभ से भर जाता
चाय का कप ले कर लान मे आ बैठी1बच्चे लान मे खेल रहे थे मगर मेरा मन जाने क्यों उदास था छोटे की भी याद आ रही थी--चाय पीते लगा पीछे कोई है मुड कर देखा तो छोटा बेटा और बहू खडे थे1दोनो ने पाँव छूये1दोनो को गले लगाते ही आँखें बरसने लगी--
"माँ इतना कुछ हो गया मुझे खबर तक नही दी1क्या आपने भी मुझे मरा हुया समझ लिया था1" बेटे का शिकवा जायज़ था1
*नहीं बेटा मै तुम्हें न्याय नहीं दिला पाई तो तेरे सामने क्या मुँह ले कर जाती1फिर ये लडाई तो मेरी अपनी थी1"
"माँ मैं गरीब जरूर हूँ मगर दिल से इतना भी गरीब नहीं कि माँ के दिल को ना जान सकूँ1मैं कई बार घर गया मगर घर बंद मिला मैने सोचा आप बडे भईया के यहाँ चली गयी हैं1पिता जी के डर से वहाँ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया
*अच्छा चलो बातें बाद मे होंगी पहले आप तैयार हो कर हमारे साथ चलो"
"मगर कहाँ?"
माँ अगर आपको मुझ पर विश्वास हैतो! ये समझो कि आपका बेटा आपके स्वाभिमान को ठेस नही लगने देगा1ना आपकी मर्जी के बिना कहीं लेकर जाऊँगा1बस अब कोई सवाल नहीं"
"पर् बहू पहली बार घर आई है कुछ तो इसकी आवभगत कर लूँ1" मन मे डर स लग रहा था कहीं नंद बिमार तो नहीं --कहीं कोइ बुरी खबर तो नहीं--या बेटा अपने घर तो नहीं ले जाना चाहता1मगर बेटे को इनकार भी नहीं कर सकी
"माँ अब आवभगत का समय नहीं है आप जलदी चलें"
अन्दर ही अन्दर मै और घबरा गयी1मन किया उड कर नंद के पास पहुँच जाऊँ वो ठीक तो हैं!मैं जल्दी से तयार हुई घर को ताला लगाया और आया से कह कर बेटे के साथ चल पडी
चलते चलते बेटा बोला-"माँ अगर जीवन में जाने अनजाने किसी से कोई गलती हो जाये तो क्या वो माफी का हकदार नहीं रहता? मान लो मैं गलती करता हूँ तो क्या आप मुझे माफ नहीं करेंगी?"
"क्यों नहीं बेटा अगर गलती करने वाला अपनी गलती मानता है तो माफ कर देना चाहिये1क्षमा तो सब से बडा दान है1बात ्रते करते हम गेट के पास पहूँच चुके थे
"तो फिर मैं क्षमा का हकदार क्यों नहीं1क्या मुझे क्षमा करोगी?"----!नंद ये तो नंद की आवाज है---एक दम दिल धडका---गेट की तरफ देखा तो गेट के बाहर खडी गाडी का दरवाजा खोल कर नंद बाहर निकले और मेरे सामने आ खडे हुये1उनके पीछे--पीछे वर्माजी और आशा थे1
"रमा आज मैं एक औरत को नहीं, अपनी अर्धांगिनी को लेने आया हूं1हमारे बीच की टूटी हुई कडियों को जोडने आया हूँ1तुम्हारा स्वाभिमान लौटाने आया हूँ1उमीद है आज मुझे निराश नहीं करोगी1शायद तुम्हारे कहने से मै अपनी गलती का अह्सास ना कर पाता मगर तुम्हारे जाने के बाद मै तुम्हारे वजूद को समझ पाया हूँ1मैं तुम्हे नज़रंदाज कर जिस मृ्गतृ्ष्णा के पीछे भागने लग था वो झूठी थी इस का पता तुम्हारे जाने के बाद जान पाया1जिसे मैं खोटा सिक्का समझता था उसने ही मुझे सहारा दिया है दो दिन पहले ये ना आया होता तो शायद तुम मुझे आज ना देख पाती1बडों के हाथ जमीन जायदाद लगते ही मुझे नज़र अंदाज करना शुरू कर दिया1मैं वापिस अपने पुराने घर आ गया वहाँ तुम बिन कैसे रह रहा था ये मैं ही जानता हूँ1तभी दो दिन पहले छोटा तुम्हें मिलने के लिये आया1 मैं बुखार से तप रहा था1 नौकर भी छुटी पर था तो इसने मुझे सम्भाला1 इसे मैने सब कुछ सच बता दिया1मैं शर्म् के मारे तुम्हारे सामने नहीं आ रहा था लेकिन वर्माजी और छोटे ने मेरी मुश्किल आसान कर दी1 चलो मेरे साथ"कहते हुये नंद ने मेरे हाथ को जोर से पकड लिया---मेरी आँखें भी सावन भादों सी बह रही थी और उन आँसूओं मे बह ्रहे थे वो गिले शिकवे जो जाने अनजाने रिश्तों के बीच आ जाते ``हैं। अपने जीवन की कडियों से बंधी मै नंद का हाथ स्वाभिमान से पकड कर अपने घर जा रही थी1-- समाप्त


19 November, 2009



अस्तित्व [गतांक से आगे]

पिछले अंक मे आपने पढा कि रमा को अपने पति की अलमारी से एक वसीयत मिली जिसमे उनके पति ने अपने 2 बेटों के नाम सारी संपति कर दी और छोटे बेटे और रमा के नाम कुछ नहीं किया जिस से रमा के मन मे क्षोभ हुया कि उसे बिना बताये ये सब क्यों किया गया। क्या औरत केवल घर की नौकरानी है उसकी इस फैसले मे कोई अहमियत नहीं ? अब आगे पढें---------------
*मालकिन खाना खा लें* नौकर की आवाज़ से वो अतीत से बाहर आयी
*मुझे भूख नहीं है1बकी सब को खिला दे"कह कर मै उठ कर बैठ गयी
नंद बाहर गये हुये थे1बहुयों बेटों के पास समय नही था कि मुझे पूछते कि खाना क्यों नही खाया1 नंद ने जो प्लाट बडे बेटौं के नाम किये थे उन पर उनकी कोठियां बन रही थी जिसकी निगरानी के लिये नंद ही जाते थे1इनका विचार था कि घर बन जाये हम सब लोग वहीं चले जायेंगे1
नींद नही आ रही थी लेटी रही, मैने सोच लिया था कि मैं अपने स्वाभिमान के साथ ही जीऊँगी मै नंद् के घर मे एक अवांछित सदस्य बन कर नहीं बल्कि उनक गृह्स्वामिनी बन् कर ही रह सकती थी1इस लिये मैने अपना रास्ता तलाश लिया था1
सुबह सभी अपने अपने काम पर जा चुके थे1मैं भी तैयार हो कर शिवालिक बोर्डिंग स्कूल के लिये निकल पडी1ये स्कूल मेरी सहेली के पती मि.वर्मा का था1मैं सीधी उनके सामने जा खडी हुई1
'"नमस्ते भाई सहिब"
*नमस्ते भाभीजी,अप ?यहाँ! कैसी हैं आप? बैठिये 1* वो हैरान हो कर खडे होते हुये बोले1
कुछ दिन पहलेआशा बता रही थीकि आपके स्कूल को एक वार्डन की जरूरत है1क्या मिल गई?"मैने बैठते हुये पूछा
"नहीं अभी तो नही मिली आप ही बताईये क्या है कोई नज़र मे1"
"तो फिर आप मेरे नाम का नियुक्ती पत्र तैयार करवाईये1"
"भाभीजी ये आप क्या कह रही हैं1आप वार्डन की नौकरी करेंगी?"उन्होंने हैरान होते हुये पूछा1
हाँागर आपको मेरी क्षमता पर भरोसा है तो1"
"क्या नंद इसके लिये मान गये हैांअपको तो पता है वार्डन को तो 24 घन्टे हास्टल मे रहना पडता हैआप नंद को छोड कर कैसे रहेंगी?"
*अभी ये सब मत पूछिये अगर आप मुझे इस काबिल मानते हैं तो नौकरी दे दीजिये1बाकी बातें मैं आपको बाद में बता दूँगी:।*
"आप पर अविश्वास का तो प्रश्न ही नही उठता आपकी काबलियत के तो हम पहले ही कायल हैं1ऐसा करें आप शाम को घर आ जायें आशा भी होगी1अपसे मिल कर खुश होगी अगर जरूरी हुआ तो आपको वहीं नियुक्ती पत्र मिल जायेगा।"
*ठीक है मगर अभी नंद से कुछ मत कहियेगा1"कहते हुये मै बाहर आ गयी
घर पहुँची एक अटैची मे अपने कपडे और जरूरी समान डाला और पत्र लिखने बैठ गयी--
नंदजी,
अंतिम नमस्कार्1
आज तक हमे एक दूसरे से क्भी कुछ कहने सुनने की जरूरत नहीं पडी1 आज शायद मैं कहना भी चाहूँ तो आपके रुबरु कह नहीं पाऊँगी1 आज आपकी अलमारी में झांकने की गलती कर बैठी1अपको कभी गलत पाऊँगी सोचा भी नहीं था आज मेरे स्वाभिमान को आपने चोट पहुँचाई है1जो इन्सान छोटी से छोटी बात भी मुझ से पूछ कर किया करता था वो आज जिन्दगी के अहम फैसले भी अकेले मुझ से छुपा कर लेने लगा है1मुझे लगता है कि उसे अब मेरी जरुरत नहीं है1आज ये भी लगा है कि शादी से पहले आप अकेले थे, एक जरुरत मंद आदमी थे जिन्हें घर बसाने के लिये सिर्फ एक औरत की जरूरत थी, अर्धांगिनी की नहीं1 ठीक है मैने आपका घर बसा दिया है1पर् आज मै जो एक भरे पूरे परिवार से आई थी, आपके घर में अकेली पड गयी हूँ1तीस वर्ष आपने जो रोटी कपडा और छत दी उसके लिये आभारी हूँ1किसी का विश्वास खो कर उसके घर मे अश्रित हो कर रहना मेरे स्वाभिमान को गवारा नही1मुझे वापिस बुलाने मत आईयेगा,मै अब वापिस नहीं आऊँगी1 अकारण आपका अपमान हो मुझ से अवमानना हो मुझे अच्छा नहीं लगेगा1इसे मेरी धृ्ष्ट्ता मत समझियेगा1ये मेरे वजूद और आत्मसम्मान क प्रश्न है1खुश रहियेगा अपने अहं अपनी धन संपत्ती और अपने बच्चों के साथ्1
जो कभी आपकी थी,
रमा1
मैने ये खत और वसीयत वाले कागज़ एक लिफाफे मे डाले और लिफाफा इनके बैड पर रख दिया1अपना अटैची उठाया और नौकर से ये कह कर निकल गयी कि जरूरी काम से जा रही हूँ1मुझे पता था कि नंद एक दो घन्टे मे आने वाले हैं फिर नहीं निकल पाऊँगी1 आटो ले कर आशा के घर निकल पडी----------क्रमश

18 November, 2009

अस्तित्व

कागज़ का एक टुकडा क्या इतना स़क्षम हो सकता है कि एक पल में किसी के जीवन भर की आस्था को खत्म कर दे1मेरे सामने पडे कागज़् की काली पगडँडियों से उठता धुआँ सा मेरे वजूद को अपने अन्धकार मे समेटे जा रहा था1 क्या नन्द ऐसा भी कर सकते हैं? मुझ से पूछे बिना अपनी वसीयत कर दी1 सब कुछ दो बडे बेटों के नाम कर दिया 1 अपने लिये मुझे रंज ना था, मैं जमीन जायदाद क्या करूँगी 1मेरी जायदाद तो नन्द,उनका प्यार और विश्वास था 1मगर उन्होंने तो मेरी ममता का ही बंटवारा कर दिया 1 उनके मन मे तीसरे बेटे के लिये लाख नाराज़गी सही पर एक बार माँ की ममता से तो पूछते1--काश मेरे जीते जी ये परदा ही रहता मेरे बाद चाहे कुछ भी करते1---बुरा हो उस पल का जब इनकी अलमारी में मैं राशन कार्ड ढुढने लगी थी1तभी मेरी नजर इनकी अलमारी मे रखी एक फाईल पर पडी1उत्सुकता वश कवर पलटा तो देखते ही जैसे आसमान से गिरी1 अगर मैं उनकी अर्धांगिनी थी तो जमीन जायदाद में मेरा भी बराबर हक था1 मन क्षोभ और पीडा से भर गया इस लिये नहीं कि मुझे कुछ नहीं दिया बल्कि इस लिये कि उन्होंने मुझे केवल घर चलाने वली एक औरत ही समझा अपनी अर्धांगिनी नहीं। यही तो इस समाज की विडंबना रही है1 तभी आज औरत आत्मनिर्भर बनने के लिये छटपटा रही है। मुझे आज उन बेटों पर आश्रित कर दिया जो मुझ पर 10 रुपये खर्च करने के लिये भी अपनी पत्नियौ क मुँह ताका करते हैं
भारी मन से उठी,ेअपने कमरे मे जा कर लेट गयी1 आज ये कमरा भी मुझे अपना नहीं लग रहा था1कमरे की दिवारें मुझे अपने उपर हंसती प्रतीत हो रही थी1छत पर लगे पंखे कि तरह दिमाग घूमने लगा1 30 वर्श पीछे लौत जाती हूं
"कमला,रमा के लिये एक लडका देखा है1 लडके के माँ-बाप नहीं हैं1मामा ने पाला पोसा है1जे.ई. के पद पर लग है1माँ-बाप की बनी कोठी है कुछ जमीन भी है1कोई ऐब नहीं है1लडका देख लो अगर पसंद हो तो बात पक्की कर लेते हैं"1 पिता जी कितने उत्साहित थे1
माँ को भी रिश्ता पसंद आगया 1मेरी और नंद की शादी धूम धाम से हो गयी1 हम दोनो बहुत खुश थे1
"रमा तुम्हें पा कर मैं धन्य हो गया मुझे तुम जैसी सुशील लड्की मिली है1तुमने मेरे अकांगी जीवन को खुशियों से भर दिया1" नंद अक्सर कहते1 खुशियों का ये दौर चलता रहा1 हम मे कभी लडाई झगडा नही हुआ1सभी लोग हमारे प्यार औरेक दूसरे पर ऐतबार की प्रशंसा करते1
देखते देखते तीन बेटे हो गये1 फिर नंद उनकी पढाई और मै घर के काम काज मे व्यस्त हो गये1
नंद को दफ्तर का काम भी बहुत रहता था बडे दोनो बेटों को वो खुद ही पढाते थे लेकिन सब से छोटे बेटे के लिये उन्हें समय नही मिलता था छोटा वैसे भी शरारती था ,लाड प्यार मे कोइ उसे कुछ कहता भी नहीं था ।स्कूल मे भी उसकी शरारतों की शिकायत आती रहती थी1उसके लिये ट्यूशन रखी थी,मगर आज कल ट्यूशन भी नाम की है1 कभी कभी नंद जब उसे पढाने बैठते तो देखते कि वो बहुत पीछे चल रहा है उसका ध्यान भी शरारतों मे लग जाता तो नंद को गुसा आ जाता और उसकी पिटाई हो जाती1 धीरे धीरे नंद का स्व्भाव भी चिड्चिदा सा हो गया। जब उसे पढाते तो और भी गुस्सा आता हर दम उसे कोसना उनका रोज़ का काम हो गया।
दोनो बदे भाई पढाई मे तेज थे क्यों कि उन्हें पहले से ही नंद खुद पढाते थे1 दोनो बडे डाक्टर् बन गये मगर छोटा मकैनिकल का डिपलोमा ही कर पाया1 वो घूमने फिरने का शौकीन तो था ही, खर्चीला भी बहुत था नंद अक्सर उससे नाराज ही रहते1कई कई दिन उससे बात भी नहीं करते थे। मैं कई बार समझाती कि पाँचो उंगलियाँ बराबर नही होती1 जवान बच्चों को हरदम कोसना ठीक नहीं तो मुझे झट से कह देते "ये तुम्हारे लाड प्यार का नतीजा है1" मुझे दुख होता कि जो अच्छा हो गया वो इनका जो बुरा हो गया वो मेर? औरत का काम तो किसी गिनती मे नहीं आता1इस तरह छोटे के कारण हम दोनो मे कई बार तकरार हो जाती1
दोनो बडे बेटों की शादी अच्छे घरों मे डाक्टर् लडकियों से हो गयी1नंद बडे गर्व से सब के सामने उन दोनो की प्रशंसा करते मगर साथ ही छोटे को भी कोस देते1धीरे धीरे दोनो में दूरि बढ गयी1 जब छोटे के विवाह की बारी आयी तो उसने अपनी पसंद की लडकी से शादी करने की जिद की मगर नंद सोचते थे कि उसका विवाह किसी बडे घर मे हो ताकि पहले समधियों मे और बिरादरी मे नाक ऊँची् रहे। छोटा जिस लडकी से शादी करना चाहता था उसका बाप नहीं था तीन बहिन भाईयों को मां ने बडी मुश्किल से अपने पाँव पर खडा किया था।जब नंद नहीं माने तो उसने कोर्ट मैरिज कर ली1 इससे खफा हो कर नंद ने उसे घर से निकल जाने का हुकम सुना दिया1
अब नंद पहले जैसे भावुक इन्सान नही थे1 वो अब अपनी प्रतिष्ठा के प्रती सचेत हो गये थे। प्यार व्यार उनके लिये कोई मायने नहीं रखता था 1छोटा उसी दिन घर छोड कर चला गया वो कभी कभी अपनी पत्नी के साथ मुझे मिलने आ जाता था1 नंद तो उन्हें बुलाते ही नहीं थे1 उन्हें मेरा भी उन से मिलना गवारा नहि था /मगर माँ की ममता बेटे की अमीरी गरीबी नही देखती ,बेटा बुरा भी हो तो भी उसे नहीं छोड सकती।
कहते हैँ बच्चे जीवन की वो कडी है जो माँ बाप को बान्धे रखती है पर यहाँ तो सब उल्टा हो गया था।हमारे जिस प्यार की लोग मसाल देते थे वो बिखर गया था मैं भी रिश्तों मे बंट गयी थी आज इस वसीयत ने मेरा अस्तित्व ही समाप्त कर दिया था---
"मालकिन खाना खा लो" नौकर की आवाज से मेरी तंद्रा टूटीऔर अतीत से बाहर आई\ क्रमश:

17 November, 2009

कविता

भेजी हैं नासा ने
मंगल से
कुछ तस्वीरें
कहा मंगल पर
कभी हुया करती थी नहरें
शायद कभी टकराया था केतू
कोई और कर दिया था
मंगल के दिल पर छेद्
मगर मैं जानती थी
बहुत पहले सुना भी था कि
मंगल का संबन्ध तुम से था
और मेरा वीनस {शुक्र} से
मुझे पता है वो नहर
मेरे आँसूओँ का समुद्र था
जो तुम्हारी कठौरता, निर्दयता पर
मैने ने बहाये थे
वो केतू और कोई नहीं
मेरी आहों का धूम केतू था
जिसने तुम पर बरसाये
तमाम उम्र आँसू
मगर तोड सकी न तेरा गरूर
और सूख गया वो दरिया भी
ज्यों ज्यों जली मेरे जज़्बातों की अर्थी
शाप दिया था मैने
नहीं पनपेगा ए मंगल
तुझ पर जीवन मेरे बाद
और आज भी तू पत्थर ही है
केवल पत्थर की चट्टान

-- निर्मला कपिला

14 November, 2009

गज़ल

इस गज़ल को सजाया संवारा मेरे बडे भाई साहिब श्री प्राण शर्मा जी ने
इस लिये ये कहने लायक हुई है । उनका आशीर्वाद ही मेरी प्रेरणा है



तराने प्यार के सबको ज़रा गा कर सुनाया कर
कि जैसे गुल लुभाते हैं तू वैसे ही लुभाया कर

ज़रा पहचान अपने को, खुदा का बंदा होकर भी
खुदा के नाम पर बन्दे न लोगों को लड़ाया कर

परिंदे देखकर उड़ते हुए आकाश में यूँ ही
करे तेरा कभी मन ओड़नी लेकर उडाया कर

करे मजबूर कहने को मुझे तेरे फसाने को
न दूरी के ये झूठे से बहाने अब बनाया कर

करे धोखा गरीबों से मिलावट कर कमाए नोट
कभी भगवान का बन्दे जरा तो खौफ खाया कर

विदेशी खाए,पहने भी विदेशी तू, बता क्योंकर
कभी पहचान अपने देश की भी तू दिखाया कर

10 November, 2009

गज़ल
दीपावली के शुभ अवसर पर गज़ल गुरू पंकज सुबीर जी ने एक तरही मुशायरे का आयोजन अपने ब्लाग पर किया। जिसमे देश विदेश के उस्ताद शायरों और उनके शिश्यों ने भाग लिया। कहते हैं न कि तू कौन ,मैं खामखाह। वही काम मैने किया। अपनी भी एक गज़ल ठेल दी।जिसे गज़ल उस्ताद श्री प्राण शर्मा जी ने संवारा । मगर सुबीर जी की दरियादिली थी कि उन्हों ने मुझे इस मे भाग लेने का सम्मान दिया।तरही का मिसरा था------ दीप जलते रहे झिलमिलाते रहे

शोखियाँ नाज़ नखरे उठाते रहे
वो हमे देख कर मुस्कुराते रहे

हम फकीरों से पूछो न हाले जहाँ
जो मिले भी हमे छोड जाते रहे

याद उसकी हमे यूँ परेशाँ करे
पाँव मेरे सदा डगमगाते रहे

हाथ से टूटती ही लकीरें रही
ये नसीबे हमे यूँ रुलाते रहे

वो वफा का सिला दे सके क्यों नहीं
बेवफा से वफा हम निभाते रहे

शाख से टूट कर हम जमीं पर गिरे
लोग आते रहे रोंद जाते रहे

जब चली तोप सीना तना ही रहा
लाज हम देश की यूँ बचाते रहे
[ये शेर मेजर गौतम राज रिशी जी के लिये लिखा था]


02 November, 2009

गज़ल

बहुत दिन से किसी के ब्लाग पर नहीं आ पायी जिस के लिये क्षमा चाहती हूँ।
कुछ दिन से अस्वस्थ हूँ। डा़ ने आराम करने की सलाह दी है। मगर 2-4 दिन मे ही लगने लगा है कि जैसे दुनिया से कट गयी हूँ।बच्चे मुझे नेट पर भी नहीं बैठने देते। ब्लोग नहीं लिखने देते तो सारा दिन बिस्तर पर पडा आदमी तो और बीमार हो जायेगा। कल अचानक शाम को 5 बजे एक फोन आया कि *मैं अकबर खान बोल रहा हूँ। [अकबर खान जी The NetPress.Com vaale] हम लोग नंगल आये थे तो सोचा कि आपसे भी मिलते चलें।* मैं उस समय सो रही थी। एक दम से पता नहीं कहाँ से इतनी फुर्ती आ गयी कि मुझे लगा ही नहीं कि बीमार हूँ। उनके आने की इतनी खुशी हुई कि बता नहीं सकती। काफी देर ब्लोगिन्ग के बारे मे बातें हुई। और इस पर भी चर्चा हुई कि एक ब्लागर्ज़ मीट नंगल् मे रखी जाये। सेहत ठीक होते ही इस पर विचार करेंगे । उनकी पत्नि हमारे शहर से है ये जान कर और भी खुशी हुई। दोनो पति पत्नि इस तरह मिले जैसे हम लोग कई वर्षों से जानते हों। जाते हुये मुझ से आशीर्वाद मांगा तो मन भीग सा गया। इस ब्लाग्गिंग ने मुझे कितने रिश्ते कितनी खुशियां दी हैं सोचती हूँ तो मन भर आता है। जीने के लिये और क्या चाहिये? ऐसा लगता है कि अब हर खुशी और हर गम मेरी ब्लागिन्ग से ही जुडा हुया है। कहते हैं कि जिस इन्सान का बुढापा सुखमय और खुशियों से भरा हो वो इन्सान खुशनसीब होता है। क्यों कि जवानी मे तो iइन्सान के पास हिम्मत होती है सहनशक्ति होती है मगर बुढापे मे दुख सहन करने की ताकत नहीं होती। इस हिसाब से मैं खुशनसीब हूँ उमर चाहे कम हो या अधिक क्या फर्क पडता है जितनी भी हो सुखमय हो बस । । अकबरखान जी का धन्यवाद कि उन्होंने मुझे याद रखा और मेरे घर आने का कष्ट किया।
एक छोटी सी गज़ल ठेल रही हूँ पता नहीं बहर मे है या नहीं। आप देखें।ये मिसरा अनुज सुबीर जी ने दीपावली पर तरही मुशायरे पर दिया था उसी पर ये एक और गज़ल है jजो वहाँ नहीं भेज पाई थी।

दीप जलते रहे झिलमिलाते रहे
दौर खुशियों के हम को लुभाते रहे

कौल करके निभाना न आया तुझे
यूँ निरे झूठ हम को बताते रहे

क्या गिला है मुझे कुछ बता तो सही
कौन से फासले बीच आते रहे

दूरियाँ यूँ बनी देखते ही गये
पास रहते हुये दूर जाते रहे

जश्न ऐसे मनाया तेरी मौत का
हम बने आग खुद को जलाते रहे

चाह कर भी भुला ना सकी मैं तुझे
रोज़ ही ख्वाब तेरे रुलाते रहे

खुर्सियाँ राजसी खून से हैं सनी
होलियाँ खून की वो मनाते रहे


28 October, 2009

गज़ल

यह गज़ल भी अपने बडे भाई साहिब आदरणीय प्राण शर्माजी के आशीर्वाद
और गलतियाँ निकालने के बाद ही सजी संवरी है ।
मैं उन की शुक्रगुज़ार हूँ कि अपना इतना कीमती समय निकाल कर
मुझे गज़ल सिखा रहे हैं।उनका धन्यवाद् कह कर इस ऋण से मुक्त
नहीं होना चाहती, उनकी चिरायू और सुख समृद्धि के लिये दुआ करती हूँ।
अपको कैसी लगी?



सुनहरे हर्फों को दिल पर मेरे आकर सजाये कौन
मेरी किस्मत मेरे माथे पे खुशियों की बनाये कौन

बहुत नाराज़ हो तुम भी बहुत नाराज़ मैं भी हूँ
चलो छोडो सभी शिकवे,मगर पहले मनाये कौन

उठे ऊपर अगरचे लौ बुझाने को लगे सब ही
मगर बढती हुई उसकी पिपासा को बुझाये कौन

बनाया स्वार्थ को तूने मुकाम अपना बता क्योंकर
दया, करुणा,मुहब्बत और सच्चाई पढाये कौन

कहे इन्सान खुद को तू मगर हैवान लगता है
बता इन्सानियत के गुर तुझे कुछ भी सिखाये कौन

चले बंदूक ले कर हाथ मे बेखौफ वो ऐसे
फिज़ा मे खौफ की फैली सदाओं को सुनाये कौन


जला तू आग सीने मे बने अँगार जज़्वा यूँ
सिवा तेरे बता तू देश तेरा अब बचाये कौन


26 October, 2009

बेटियों की माँ (कहानी )
सुनार के सामने बैठी हूं । भारी मन से गहनों की पोटली पर्स मे से निकाल कर कुछ देर हाथ में पकड़े रखती हूं । मन में बहुत कुछ उमड़ घमुड़ कर बाहर आने को आतुर है । कितन प्यार था इन जेवरों से । जब कभी किसी शादी व्याह पर पहनती तो देखने वाले देखते रह जाते । किसी राजकुमारी से कम नही लगती थी । खास कर लड़ियों वाला हार कालर सेट पहन कर गले से छाती तक सारा झिलमला उठता । मुझे इन्तजार रहता कि कब कोई शादी व्याह हो तो सारे जेवर पहून । मगर आज ये जेवर मेरे हाथ से निकले जा रहे थे । दिल में टीस उठती है ----- दबा लेती हू ---- लगता है आगे कभी व्याह शादियों का इन्तजार नही रहेगा -------- बनने संवरन की इच्छा इन गहनों के साथ ही पिघल जाएगी । सब हसरतें लम्बी सास खींचकर भावों को दबाने की कोशिश करती हू । सामने बेटी बैठी है -------- अपने जेवर तुड़वाकर उसके लिए जेवर बनवाने है ----- क्या सोचेगी बेटी ----- मा का दिल इतना छोटा है ? अब मा की कौन सी उम्र है इतने भारी जेवर पहनने की ------------- अपराधी की तरह नज़रें चुराते हुए सुनार से कहती हू ‘ देंखो जरा, कितना सोना है ? वो सारे जेवरों को हाथ में पकड़ता है - उल्ट-पल्ट कर देखता है - ‘इनमें से सारे नग निकालने पड़ेंगे तभी पता चलेगा ?‘‘
टीस और गहरी हो जाती है --------इतने सुन्दर नग टूट कर पत्थर हो जाएगे जो कभी मेरे गले में चमकते थे । शायद गले को भी यह आभास हो गया है -------बेटी फिर मेरी तरफ देखती है ----- गले से बड़ी मुकिल से धीमी सी आवाज़ निकलती है ---हा निकाल दो‘ ।
उसने पहला नग जमीन पर फेंका तो आखें भर आई । नग के आईने में स्मृतियां के कुछ रेषे दिखाई दिए । मा- पिता जी - कितने चाव से पिता जी ने आप सुनार के सामने बैठकर यह जेवर बनवाए थे । ‘ मेरी बेटी राजकुमारी इससे सुन्दर लगेगी । मा की आखें मे क्या था --- उस समय में मैं नही समझ पाई थी या अपने सपनों में खोई हुई मा की आखें में देखने का समय ही नही था । शायद उसकी आखों में वही कुछ था जो आज मेरी आखें में है, दिल में है ---- शरीर के रोम-रोम में है । अपनी मा का दर्द कहा जान पाई थी । सारी उम्र मा ने बिना जेवरों के काट दी । वो भी तीन बेटियों की शादी करते-करते बूढ़ी हो गई थी । अब बुढ़े आदमी की भी कुछ हसरतें होती हैं । बच्चे कहा समझ पाते हैं ---- मैं भी कहा समझ पाई--- इसी परंपरा में मेरी बारी है फिर कैसा दुख ----मा ने कभी किसी को आभास नहीं होने दिया, उन्हें शुरू से कानों में तरह-तरह के झूमके, टापस पहनने का शौक था मगर छोटी की शादी करते-करते सब कुछ बेटियों को दे दिया । फिर गृहस्थी के बोझ में फिर कभी बनवाने की हसरत घरी रह गई । किसी ने इस हसरत को जानने की चेष्टा भी नही की । औरत के दिल में गहनों की कितनी अहमियत होती है ---- यह तब जाना जब छोटी के बेटे की शादी पर उन्हें सोने के टापस मिले । मा के चेहरे का नूर देखते ही बनता था ‘देखा, मेरे दोहते ने नानी की इच्छा पूरी कर दी‘‘ वो सबसे कहती ।
धीरे-धीरे सब नग निकल गए थे । गहने बेजान से लग रहे थे । शायद अपनी दुर्दाशा पर रो रहे थे --------------‘ अभी इन्हें आग में गलाना पड़ेगा तभी पता चलेगा कि कितना सोना निकलेगा ।‘‘
‘हा,, गला दो‘ बचा हुआ साहस इकट्‌ठा कर, दो शब्द निकाल पाई ।
उसने गैस की फूकनी जलाई । एक छोटी सी कटोरी को गैस पर रखा, उसमें उसने गहने डाले और फूकनी से निकलती लपटों से गलाने लगा । लपलपाटी लपटों से सोना धधकने लगा । एक इतिहास जलने लगा ---- टीस और गहरी हुई । लगा जीवन में अब कोई चाव ----- नही रह गया है ---- एक मा‘-बाप के बेटी के लिए देखे सपनों का अन्त हो गया और मेरे मा- बाप के बीच उन प्यारी यादों का अन्त हो गया ----- भविष्य में अपने को बिना जेवरों के देखने की कल्पना करती हू तो ठेस लगती है । मेरी तीन समघनें और मैं एक तरफ खड़ी बातें कर रही है । इधर-उधर लोग खाने पीने में मस्त है । कुछ कुछ नज़रें मुझे ढूंढ रही है । थोड़ी दूर खड़ी औरतें बातें कर रही है । एक पूछती है ‘लड़की की मा कौन सी है ? ‘‘दूसरी कहती है ‘अरे वह जो पल्लू से अपने गले का आर्टीफिशल नेकलेस छुपाने की कोशिश कर रही है ।‘‘ सभी हस पड़ती हैं । समघनों ने शायद सुन लिया है ----- उनकी नज़रें मेरे गले की तरफ उठी --------- क्या है उन आखों में जो मुझे कचोट रहा है ---- हमदर्दी ----- दया--- नहीं--नहीं व्यंग है, बेटिया जन्मी हैं तो सजा तो मिलनी ही थी ----- उनके चेहरे पर लाली सी छा जाती है । बेटों का नूर उनके चेहरे से झलकने लगता है । अन्दर ही अन्दर ग‌र्म से गढ़ी जा रही हूं, क्यों ? क्या बेटियों की मा होना गुनाह है ---- सदियों से चली आ रही इस परंपरा से बाहर निकल पाना कठिन है । आखें भर आती हैं । साथ खड़ी औरत कहती है बेटियों को पराए घर भेजना बहुत कठिन है और मुझे अन्दर की टीस को बाहर निकालने का मौका मिल जाता है । एक दो औरतें और सात्वना देती है । ---- आसुयों को पोंछकर कल्पनाओं से बाहर आती हू । मैं भी क्या उट पटाग सोचने लगती हू --- अभी तो देखना है कि कितना सोना है । शायद उसमें थोड़ा सा मेरे लिये भी बच जाए । सुनार ने गहने गला कर सोने की छोटी सी डली मेरे हाथ पर रख दी । मुटठी में भींच कर अपने को ढाढस बंधाती हू । इतनी सी डली में इतने वर्षों का इतिहास समाया हुआ था । तोल कर हिसाब लगाती हू तो बेटी के जेवर भी इसमें पूरे नही पड़ते है ------ मेरा सैट कहा बनेगा । फिर सोचती हू सास का सैट रहने देती हू ---- बेटी को इतना पढ़ा लिखा दिया है एक महीने की पगार में सैट बनवा देगी । मुझे कौर बनावाएगा ? मगर दूसरे ही पल बेटी का चेहरा देखती हू । सारी उम्र उसे सास के ताने सुनने पड़ेंगे कि तुम्हारे मा-बाप ने दिया क्या है------ नहीं नही मन को समझाती ह अब जीवन बचा ही कितना है । बाद में भी इन बेटियों का ही तो है । एक चादी की झाझर बची थी । उस समय - समय भारी घुघरू वाली छन छन करती झाझरों का रिवाज था ----- नई बहू की झाझर से घर का कोना कोना झनझना उठता । साढ़े तीन सौ ग्राम की झाझर को पुरखों की विरासत समझ कर रखना चाहती थी मगर पैसे पूरे नही पड़ रहे थे दिल कड़ा कर उसे भी सुनार को दे दिया । सुनार के पास तो यू पुराने जेवर आधे रह जाते है ------- झाझर को एक बार पाव में डालती हू -------------- बहुत कुछ आखें में घूम जाता है । बरसों पहले सुनी झकार आज भी पाव में थिरकन भर देती है । मगर आज पहन कर भी इसकी आवाज बेसुरी लग रही है ---शायद आज मन ठीक नही है । उसे भी उतार कर सुनार को दे देती हू ।
सुनार से सारा हिसाब किताब लिखवाकर गहने बनने दे देती हू । उठ कर खड़ी होती हू तो लड़खडार जाती हू । जैसे किसी ने जान निकाल दी हो । बेटी बढ़कर हाथ पकड़ती है---- डर जाती हू कहीं बेटी मेरे मन के भाव ने जान ले । उससे कहती हू अधिक देर बैठने से पैर सो गए हैं । अैार क्या कहती ? कैसे बताती कि इन पावों की थिरकन समाज की परंपंराओं की भेंट चढ़ गई है ।
सुनार सात दिन बात जेवर ले जाने को कहता है । सात दिन कैसे बीते बता नहीं सकती--- हो सकता है मैं ही ऐसा सोचती हू । ाायद बाकी बेटियों की मायें भी ऐसा ही सोचती होंगी । आज पहली बार लगता है मेरी आधुनिक सोच कि बेटे-बेटी में कोई फरक नहीं है , चूर-चूर हो जाती है --- जो चाहते हैं कि समाज बदले बेटी को सम्मान मिले --- वो सिर्फ लड़की वाले हैं । कितने लड़के वाले जो कहते है दहेज नहीं लेंगे ? वल्कि वो तो दो चार नई रस्में और निकाल लेते है । उन्हें तो लेने का बहाना चाहिए । लगता है और कभी इस समस्या से मुक्त नही हो सकती ।------ औरत ही दहेज चाहती है । औरत ही दहेज चाहती है सास बनकर ------- औरत ही दहेज देती है, मा बनकर । लगता है तीसरी बेटी की शादी पर बहुत बूढ़ी हो गई हू ----- शादियों के बोझ से कमर झुक गई है ----- खैर अब जीवन बचा ही कितना है । आगे बेटियां कहती रहती थी ‘मा यह पहन लो, वो पहन लो---- ऐसे अच्छी लगती है -----‘अब बेटिया ही चली गई तो कौन कहेगा । कौन पूछेगा ----मन और भी उदास हो जाता है । रीता सा मन----रीता सा बदन- लिए हफते बाद सुनार के यहा फिर जाती हू ---- बेटी साथ है ---- बेटी के चेहरे पर चमक देखकर कुछ सकून मिलता है ।
जैसे ही सुनार ने गहने निकाल कर सामने रखे, बेटी का चेहरा खिल उठता है ---- उन्हें बड़ी हसरत से पहन-पहन कर देखती है और मेरी आखों के सामने 35 वर्ष पहले का दृष्य घूम गया--------मैं भी तो इतनी ही खु थी -----------मा की सोचों से अनजान -------लेकिन आज तो जान गई हू --- सदियों से यही परंपरा चली आज रही है -----मैं वही तो कर रही जो मेरी मा ने किया ---बेटी की तरफ देखती हू उसकी खूशी देखकर सब कुछ भूल जाती ---- अपनी प्यारी सी राजकुमारी बेटी से बढ़कर तो नहीं हैं मेरी खुायॉं -----मन को कुछ सकून मिलता है ----जेवर उठा कर चल पड़ती हॅ बेटी की ऑंखों के सपने देखते हुूए । काष ! मेरी बेटी को इतना सुख दे, इतनी शक्ति दे कि उसको इन परंपराओं को न निभाना पड़े ----- मेरी बेटी अब अबला नहीं रही, पढ़ी लिखी सबला नारी है, वो जरूर दहेज जैसे दानव से लड़ेगी ----- अपनी बेटी के लिए----मेरी ऑंखों में चमक लौट आती है -----पैरों की थिरकन मचलने लगती है --------------।


---निर्मला कपिला

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