18 July, 2009

अपनी बात

मै जब भी कोई कहानी लिखती हूँ तो अक्सर मुझे मेल आती हैं कि ये कहनी मेरे जीवन से सम्बन्धित तो नहीं मैने आज तक लगभग 70 कहानियाँ लिखी हैं क्या 70 ही मेरी हो सकती हैं तो मैं स्पश्ट करना चाहूँगी कि मैं अधिकतर आत्मकथानक मे कहानी लिखती हूँ वो मेरी कहनी नहीं होती मेरे दुआरा लिखित जरूर होती है क्यों कि मैने अस्पताल जैसे स्थान पर नौकरी की है जहाँ ज़िन्दगी को बहुत ही करीब से देखने का अवसर मिला है और मुझे जिस जीवन मे कुछ लिखने योग्य मिला उस पात्र के बहुत करीब गयी हूँ उसे दिल से महसूस किया और उनकी भावनाओं को कागज़ पर उतारा मात्र है इनमे बहुत से पात्र मेरे दिल के करीब अब भी हैं जानती हूँ उनके दुख सुख बाँटती हूँ जिसमे फिर से एक नयी कहानी मिल जाती है इस लिये जिसके साथ कहानी लिखा हो वो केवल कहानी होती है ----हाँ अपने जीवन से संमबन्धित कुछ प्रसंगों को भी कहानी का रूप दिया है उन्हें भी आपके सामने रखूँगी और जरूर बताऊँगी कि ये मेरी कहानी है
अपने बारे मे --अपनी रचनाओं के बारे मे स्वयं कुछ लिखना कठिन भी है और रोचक भी कारण कि अपनी निन्दा करना खुद को बुरा लगता है और प्रशंसा करना पाठक को------ वास्तव मे अपनी निगाह मे अपने को देखना असम्भव जैसा है क्यों कि हम उसे केवल अपने नज़रिये से देखते हैं लेकिन भावुक और संवेदनशील व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त किये बगैर रह भी नहीं सकता
साहित्य हृदय की पुकार है--मनुष्य के आन्तरिक मनोभावों का बाह्म चित्रण है --साहित्यकाए समाज के आन्दर निवास करता है और समाज के अन्याय और् प्रिस्थितियों से प्रभावित होता है इस लिये वो समय की धारा और परिवेशगत प्रभावों से अछूता नहीं रहता--कहना ना होगा कि साहित्य का मूल तत्व जीवन हैऔर उसे साकार करने वाली शक्तियाँ प्रिस्थितियों मे होती हैं कोई भी रचना बादल से गिरी हुई बून्द नहीं होती रचना तो हृदय की उर्वर्क भूमि मे ही अँकुरित होती है और बुद्धि इस की परवरिश करती हैमेरा मानना है कि मनुष्य़ अपने सुख दुख से ही प्रभावित नहीं होता दूसरों के दुख सुख भी उसे प्रभावित करते हैंइस निगूढ्रहस्य को हृदयंगम कर कोई भी रचनाकार कल्पना के सहारेअपने भावों को प्रकट कर सकता हैसंवेदना ही इस कल्पना की जननी है लेकिन कल्पना भी एक शक्तिशाली सत्य होती है क्यों की ये मानसिक अनुभूतियों वेदनाओं और रंग विरंगेसामाजिक और परिवेशगत प्रभावों का अद्भुत प्रतिफल है चूँकि मैअपने पारिवारिक और सामाजिक परिवेश एवं उसके प्रभावों की साक्षी रही हूँ जिसे मैने अन्य लोगों के साथ अपनी रचना प्रक्रिया के जरिये बाँटना चाहा है कहानी किसी की भी हो मगर जो बात ज़िन्दगी की रेत पर कई सवाल छोड जाये वो कहानी समाज की कहानी बन जाती है सो मेरी कहानियां समाज की कहानियां हैं मुझे ज़िन्दगी के बारे मे लिखना पढना जानना और चिन्तन करना बहुत अच्छा है

17 July, 2009

खुशखबरी खुशखबरी

17 जुलाई 2009 को हिन्दीअजित समाचार मे श्री बद्रीनारायण तिवारी जी का एक आलेख छपा है जिसमे उन्होंने लिखा है कि------- राष्ट्र भाषा हिन्दी भाषियों को ये जान कर खुशी होगी कि आप हिन्दी मे बोलते जायेंगे और कम्प्यूटर आपका आग्याकादी बन कर हिन्दी मे लिखता जायेगा हिन्दी प्रेमी वैग्यानिक दिल्ली महनगर स्थित भारतीय आई टी सोहाईटी सेंटर फार दिवेलप्मेन्ट आफ एडवाँस कम्प्यूटरिँग सीडैक मे ये साफ्ट्वेयर तैयार किया जा रहा हैविगत 10 महीनो से इस पर् 35 वैग्यानिक काम कर रहे हैंशब्द सुन कर टाईप किया जाने वल ईन्जन तैयार किया जा चुका हैइन दिनो हिन्दी बोलने की विभिन्न शैलियों और शब्दों का डाता बेस तैयार किया जा रहा है जिसके लिये 5000 लोगों की आवाज़ के नमूने लिये गये हैंजो लिखेंगे कम्प्यूटर हिन्द मे बोल कर बतायेगा कि आपने क्या लिखा है यही नही इसकी विशेशता ये भी है किये हिन्दी का अंग्रेजी मे और अंग्रेजी का हिन्दी मे अनुवाद भी करेगा इसके अतिरिक्त आठ और देशों की भाशा मे भी अनुवाद करेगाइससे संब्न्धित अधिकारियों ने बताया कि ये तीन चरणो मे हिन्दी भाशा को इन देशों की भाशा मे अनुवाद कर सकेगा प्रारम्भ मे ये साफ्टवेयर लोगों को निशुल्क उपलब्ध करवाया जायेगा ताकिफीडबैक से इसकी त्रुटियों को सुधारा जा सके इसे तकनीक ढंग से मोबाईल पर् काम करने के लिये तैयार किया जायेगा विशेशता ये होगी कि इन देशों मे होने वाली परस्पर वार्ता को नौ भाशाओं मे अनुवाद कर के बोलेगा राष्ट्र भाषा हिन्दी के क्षेत्र मे ये एक क्राँतीकारी उपलब्धी है
है ना ये खुशखबरी सभी हिन्दी भाषियों को बधाई

16 July, 2009

चिंगारी---------- गताँक से आगे

मैं समझ नहीं पा रही थी कि रजेश मेरी मुश्किलें क्यों नही समझते-------मै भी इन की तरह नैकरी कर रही हूँ------ और उससे भी अधिक घर का सारा काम---सब की देख भाल ----खुद तो आ कर टी वी के सामने बैठ कर हुक्म चलाने लगते हैं-------- आज ये खाने का दिल है आज वो खाने का दिल है---------
फिर एक दिन मेरी पदोन्नती हो गयी----मै स्कूल की हैड बन गयी थी-------सारा स्टाफ घर बधाई देने आया------ अनुज नया टीचर भी आया था मुझे दीदी कहता और बडा सम्मान करता था-----वो सब से अधिक खुश था-------दीदी मै तो बहुत खुश हूँ-------अप हेड बनी हैं तो स्कूल का जरूर सुधार होगा------हम सब आपके साथ हैं मैं भी बहुत खुश थी-----पर मै देख रही थी कि राजेश को उतनी खुशी नही है------मैने रात को पूछा कि---क्या मेरी प्रोमोशन से आप खुश नहीं-----
मुझे क्या हुआ है-----हाँ एक बात बता दूँ कि इन चापलूस लडकों से दूर ही रहा करो-----कैसे चहक रहा था-----
और मेरी सारी खुशी काफूर हो गयी------राजेश मुझे आगाह नही कर रहे थे---ये उनके अन्दर एक हीन भावना पनपने लगी थी वो बाहर निकल रही थी----- खुद भी मेरे जितनी मेहनत करते पढते-- मैने कौन सा मना किया था------ मैने इन से कई गुना अधिक मेहनत की थी---सारी जिम्मेदारियाँ निभाई फिर भी ये खुश नहीं हैं-----इनको तो मुझ पर नाज़ होना चाहिये-----
मगर मैं भी पागल थी------औरत का वर्चस्व आदमी से बढे ये आदमी को कैसे सहन हो सकता है------ किसी पार्टी मे किसी के घर जब कोई मेरी प्रशंसा करता--मुझ से कोई डिस्कशन करता तो इन्हें वो भी अच्छा ना लगता ----लोगों के सामने अपनी होशियारी झाडती रहती हो ये दिखाने के लिये कि तुम मुझ से अधिक समझ दार हो----- अगर किसी सहेली या सहयोगी के घर जाना पडता तो मना कर देते मुझे अकेले ही जाना पडता वो भी इन्हें अच्छा ना लगता-----धीरे धीरे दोनो के बीच का फासला बढने लगा था------ फिर अचानक माजी और बाऊजी का एक ही साल मे निधन हो गया और देवर की नौकरी दूसरे शहर मे लग गयी--दो साल मानसिक परेशानी मे निकल गये----- इस दुख के समय मे मै राजेश के साथ खडी रही------ कुछ कहते भी तो खून का घूँट पी जाती----- बस उन्हें खुश रखने की हर कोशिश करती-------माँ और बाऊ जी के ना रहने से राजेश को किसी का डर और चिन्ता ना रही-----फिर शराब पीनी शुरू कर दी पी तो पहले भी लेते मगर बाऊ जे से छुप कर----- साल भर मे ही इन्हें जैसे शराब की लत लग गयी रोज़ ही पीने लगे------ बहुत कहती मगर जितना कहती उतना ही और पीते---- मै कमाता हूँ तुम्हारी कमाई से नहीं पीता------धीरे धीरे दोस्तों के साथ महफिल सजाना शुरू कर दिया क्भी कहीं तो कभी कहीं-----मुझे समझ नहीं आ रहा था कि राजेश को हो क्या गया है----- उनकी समस्या क्या है-----बेटी बडी हो रही थी उस पर क्या प्रभाव पडेगा-----मै मन ही मन घुट रही थी------ अभी जिम्मेदारियों से मुक्त हुये थे कि अब सुख के दिन आयेंगे पैसे की कमी नहीं थी फिर जिस आदमी को आसानी से जीवन मे सब कुछ मिल जाये वो ऐश के सिवा क्या सोच सकता था------- घर चलाने के लिये कमाऊ पत्नि थी ही-----
परिवार के लिये मेरा समर्पण मेरा कर्तव्य था पैसे का सुख सब ने भोगा मगर घर की लक्ष्मी की किसी ने सुध नही ली------मैं सब कुछ सह सकती थी मगर राजेश की ये ऐयाशी नहीं---- माँ अनपढ थी तो पति के मन ना भाई और मै पति से अधिक पढ गयी तो पति के मन ना भाई औरत के लिये क्या जगह है इस समाज मे----- आदमी के लिये तो चित भी मेरी और पट भी मेरी------ अब बचपन से मन मे सुलगती चिँगारी फिर से सिर उठाने लगी थी----- राजेश कुछ भी सुनने को तैयार ना थे रोज़ शराब पी कर आना और दोस्तों के साथ आधी रात तक ताश खेलना येही इनका काम रह गया था------अगर मै कहती कि जिन के साथ बैठ कर शराब पीते हो वो अच्छे लोग नहीं हैं----तो शब्दों के नश्तर कहीं गहरे तक उतार देते--------हाँ तुम अफसर बन गयी हो----अब तुम्हें मेरे दोस्त क्या मै भी छोटा नज़र आने लगा हूँ------कभी अपने पीछे नज़र मार कर देखा है कि किस रईस के घर से आयी हो --तुम्हारे भाई नहीं पीते कया-------
अब मैने राजेश से कुछ भी कहना छोड दिया था-----
उस दिन राजेश बारह् बजे तक घर नहीं आये---- बडी चिन्ता हुई ----- ये भी जानती थी कि अधिक पी ली होगी तो किसी दोस्त के घर होंगे----- क्या करती मन मे एक डर भी था कि पी कर स्कूटर चलायेंगे कहीं रास्ते मे गिर ना पडे हों---- हार कर आधी रात को पडोसियों को जगाया------- साथ वाले शर्मा जे बहुत शरीफ् इन्सान थे---उन्हें मैने इनके एक दोस्त का पता दिया जिसका मुझे पता था कि अकेले रहते हैं और उनके साथ बैठना उठना अधिक है----- शर्मा जी अपनी गाडी मे इनको ले आये----- बडी मुश्किल से गाडी तक लाये थे ------फिर घर आ कर बडी मुश्किल से गाडी से उतारा---- और बेडरूम तक पहुँचाया------ शर्मा जी के जाते ही राजेश शुरू हो गये------- तो पीछे से शर्मा के साथ रास रचाती हो-------- ये आधी रात तक यहाँ क्या कर रहा था------ नीच कमीनी औरत आखिर तुम ने अपनी औकात दिखा ही दी---------- और जूता उतार कर मुझ पर फेंक दिया------- ये डाँट फटकार अब रोज़ इनका काम हो गया था बहाना तो कोई भी ढूँढ लेते
उस समय मेरी हालत क्या हुई होगी ये कोई भी समझ सकता है------- रोश उबल पडा------ क्रोध से दिल जिस्म अँगारा बन गया------- चिंगारियाँ उठने लगी------- बचपन से अब तक जितनी आग थी सुलग उठी------ आज उस चिंगारी ने मेरे स्त्रित्व के वज़ूद को जला कर राख कर दिया------- मेरे संस्कार समर्पण त्याग और कर्तव्य सब विद्रोह कर उठे------- अब नहीं सहेंगे ये उत्पीड्न------- ये अपमान ------- और आज मैने एक नया विद्रोही्रूप पाया -- ----- अगले कुछ दिन मैं चुपचाप रही मगर मैने अपनी ट्राँसफर चुपके से करवा ली और एक दिन राजेश को बिना बताये घर छोड कर अपनी बच्ची को ले कर दूसरे शहर चली आयी-----
नहीं जानती कि अच्छा किया या बुरा------ क्या खोया क्या पाया----स्वाभिमान या अभिमान ----- गर्व या दर्प कोई कुछ भी कहे-------क्या फर्क पडता है ---मैं तो बस जीना चाहती हूँ अपनी बच्ची के लिये------- अपने वज़ूद के साथ ------ टुकडों मे कोई कब तक जी सकता है------- स्वाभिमान का अधिकार मुझे चाहिये------ नहीं तो ये चिंगारी पूरे समाज को ---सृ्ष्टी को जला देगी----- बेटी को इस चिंगारी की भेट नही चढने देना चाहती थी------
काश कि पुरुष जौहरी होता------- सहेज लेता नारी मन और उसके अस्तित्व को------- नहीं तो अपना वज़ूद खो कर पत्थर बन जायेगी----- या विध्रोही आग मेरी इस चिंगारी को कसौटी पर कसना समाज का काम है-----जरूरत भी है समाज के वज़ूद के लिये ------ आप क्या कहते हैं कि ये चिंगारी यूँ ही सुलगती रह्ती या इसे बुझाने के लिये जो मैने किया वो सही है------ ऐसी ना जाने कितनी चिंगारियां रोज़ सुलगती हैं------- आपके जवाब का इन्तज़ार रहेगा
---- समाप्त्

15 July, 2009

चिँगारी----गताँक से आगे

मेरे अण्दर की चिँगारी फिर दहकी------- और मै घर पर ही बी ए की तैयारी करने लगी तीन साल मे फर्स्ट क्लास मे बी ए पास कर ली----- बडा भाई दो वर्ष कालेज मे लगा कर घर बैठ गया-------छोटा बी काम मे पाँच साल लगा कर पास हुआ---- और प्राईवेट फैक्ट्री मे मुनीमी करने लगा---लडके कुछ बिगडैल भी थे ---मगर उस के लिये भी माँ को ही जिम्मेदार ठहराया जाता-------जैसी माँ वैसे ही बेटे------ माँ ने ही बिगाडे हैं-----कई बार सोचती पिता जी भी क्या करें---पैसा कमाना कौन सा आसान काम है------ मैने सोच लिया था कि मै भी नौकरी करूँगी ताकि अकेले पति पर बोझ ना पडे------ पर जब पिता जी शराब पी लेते और दोस्तों मे बैठ कर गप शप करते और ताश खेलने मे समय बर्वाद करते तो मन मे फिर एक चिंगारी उठती उन के इस अधिकार के प्रति----क्या वो बच्चों की पढाई के लिये देखभाल के लिये ये समय नहीं बचा सकते------ये जन से सुलगती चिंगारी शायद औरत की चिता के साथ ही जाती है-----
अब मेरी शादी के लिये लडका ढूँढा जाने लगा----पिताजी ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार राजेश को दामाद के रूप मे ढूँढ लिया------- बाहरवीं के बाद सरकारी दफ्तर मे क्लर्क------- उस सरकारी नौकरी के सामने मेरी बी ए बेमायने थी----- पर अन्दर कहीँ एक सकून था किाब अनपढ और फूहड तो नहीं सुनना पडेगा------मेरे संस्कारों या समाज की परंपरा ने अन्दर से आवाज़ दी या सवधान किया------ कि अपने कोकहीं लाट साहिब ना समझ लेना----याद रखना कि पति को कभी ऐसा आभास ना हो कि तुम उससे अधिक पढी हो
शादी धूमधाम से--जितनी हो सकती थी हो गयी-------सब ने सर आँखों पर बिठा लिया------नई नई शादी मे सब सुहाना लगता है-------मगर मै कुछ ही दिनों मे जान गयी थी कि स्थितीयाँ यहाँ भी मायके से कुछ अलग नहीं है------- संयुक्त परिवार मे एक छोटा भाई और दो जवान बहने----सास ससुर-----राजेश ही बडे और अकेले कमाने वाले थे-- बाबु जी अब रिटायर हो चुके थे -----शादी के तीन महीने बाद ही मेरा बी एड का इम्तिहान था------घर के काम से फुरसत कहाँ मिलती थी ---ननदें भी पढ रही थी कोई मदद भी नहीं करता-----मैने सोच लिया था कि जैसे तैसे पेपर दूँगी------राजेश को मेरी पढाई से सरोकार ना था---कहते कहीं ना कहीं कलर्क की नौकरी ढूँढ लेंगे-----मगर मैं जानती थी कि मै आगे और पढ कर तीचिंग लाईन मे जल्दी पदोन्ति पा लूँगी---- किसी तरह मैने बी एड भी पास कर ली------और् रोज टीचर के लिये वेकैंसी देखने लगी------मेरा निश्चय रंग लाया और मुझे पास के ही सरकारी स्कूल मे नौकरी मिल गयी-------
जहाँ घर मे सब को मेरी आमदन से खुशी थी वहाँ काम की भी समस्या खडी हो गयी-------ाब बहू घर मे हो तो सस्स काम करते हुये कहाँ अच्छी लगती है------फिर मै औरत ---त्याग समरपण की देवी----- घर मे किसी तरह की कलह ना हो मैं भाग भाग कर काम करती------- बहु सुबह इतनी भाग दौड करती हो कुछ काम इसके लिये भी छोड दिया करो--- और मै इसी बात पर खुश हो जाती कि चलो किसी को तो एहसास है मेरी तकलीफ का
ज़िन्दगी चल रही थी चार वर्शों मे ननदों की शादी कर दी देवर इँजनीयरिंग करने लगा ---- और मेरे फूल सी बेटी आ गयी------पता नहीं चला समय कैसे भाग रहा है ----मैने एम ऎ भी कर ली थी जिम्मेदारिओं से जरा फुरसत मिली तो जाना कि मेर स्वास्थ्य भी बिगडने लगा था------ अपने पहरावे के प्रति भी लापरवाह हो गयी थी------ अब पता नहीं क्यों मुझे लगता कि राजेश हर बात पर मुझ पर हावी होने की कोशिश करते रहते हैं------ मेरे खाने पहनने घर के काम मे सोने उठने हर काम मे उन्हे कुछ् ना कुछ बोलने के लिये मिल ही जाता है-------- तन्ख्वाह इनको देती थी----ापने लिये या बच्ची के लिये कुछ लेना होता था तो इन से माँगना पडता था पहले पहले तो जितने पैसे माँगती दे देते थे ये नहीं पूछते थे कि क्या लेना है------ मगर अब पहले पूछते फिर सलाह देते कि इस चीज़ की क्या जरूरत है----------ागर कहूँ कि कपडे सिलवाने हैं तो कहते कि अभी क्या जरूरत है दो महीने पहले तो सीट सिलवाया था-------चार महीनी भी इन्हें दो महीने लगने लगते-----फिर कुछ न कुछ बोल कर थिडे बहुत दे देते-----जिसमे सूट तो आ जता मगर मर्जी का नहीं-----चु्प रह जाती------ मैं कमाती थी अपनी मर्ज़ी का क्यों ना खाऊँ पहनूँ चिँगारी फिर उठती मगर उसे हवा न लगने देती------ घर की शाँती के लिये-------
घर मे कभी मेरी सहेलियाँ आ जाती--- और जब कभी कोई पुरुष सहकर्मी आ जाते तब तो राजेश को बहुत बुरा लगता------ और कई बार मेरे बन ठन कर रहने पर भी ताने कसने लगते------- अब मैने डबल एम ए भी कर ली घर के काम---- पढाई --बच्चे की देखभाल सास ससूर की जिम्मेदारी और कई छोटे मोटे काम मे सारा दिन निकल जाता कई बार इनका कोई छोटा मोटा काम रह जाता ---कमीज प्रेस करना भूल जाती ---बटन लगाना भूल जाती---- नहाने के लिये तौलिया या अन्डर वीयर बनियान रखना भूल जाती तो शुरू हो जाते----- चार अक्षर क्या पढ गयी अपनी औकात भूल गयी------- अब मेरे लिये तुम्हारे पास समय ही कहाँ है------ अपने सजने संवरने से समय मिले तब ना-----तब मेरी याद आये---- मै समझ नहीं पा रही थी कि राजेश मेरी मुश्किल क्यों नहीं समझते--------

क्रमश

14 July, 2009

चिँगारी (कहानी )

ये मेरी कहानी सरिता पत्रिका मे मई 15 के अँक मे छप चुकी हैैऔर मेरे कहानी संग्रह प्रेम सेतु मे भी

जीवन मंथन मे नारी के हाथ सदा विष ही लगा है1 आज निर्नय नही ले पा रही थी---------बच्ची का भविष्य ---समाज्के बारे मे सोचती तो नारी अस्तित्व के पहल कर्तव्य् त्याग और समर्पण मुझे रोक लेते----तभी भीतर से एक चिँगारी उठती -----पुरुष के अधिकारों के प्रति-------नारी के शोषण के विरुद्ध ---क्या करूँ-----मै ही क्यों घर और बच्चों की परवाह करूँ--------जब राजेश का कठिन् समय था मैने अपना कर्तव्य निभाया-------ापने सुख और इच्छाओं को त्याग कर अपने आप को पूरे परिवार के लिये समर्पित कर दिया-----मगर आज मेरे साथ क्या हो रहा है---अवहेलना-------तिरस्कार-----नहीं नहीं-----ये चिँगारी अन्दर से यूँ ही नहीं उठती-----इसने मेरा संताप देखा है----कहीं करीब से----जिसे अगर शाँत ना किया तो सब बर्बाद हो जायेगा------
मैने अपने अस्तित्व को बचाया या बर्बाद किया---पता नहीं------ये सोचना समाज का काम है मगर अब मैं अबला बन कर नहीं जीना चाहती--------चाय का अखिरी घूँट अन्दर सरकाया---मन कहीं सकून भी आया कि अन्याय सहन करने की कायरता मैने नहीं की ----ापना स्वाभिमान और अधिकार पाने का हक मुझे भी है-------
सब से अधिक बात जो मुझे कचोटती------एक तो बैठे बिठाये हुक्म चलानऔर दूसरा सब के सामने जरा जरा सी बात के लिये मुझे लज्जित करना-------घर की मेरी या बच्चे की कोई जिम्मेदारी नहीं समझना-----डाँटना जैसे मेरा कोई वज़ूद ही नहीं------मायके वालों के उल्लाहने----कभी मेरे मायके मे कोई शादी ब्याह आ जाता तो जाने के नाम पर सौ बहाने----ाउर खर्च की दुहाई-----दिन रात शराब के लिये पैसे थे------तब मन कचोट उठता ----जब मुझे अकेले जाना पडता-------जिस प्रेम प्यार और खुशियों की कामना की थी उनका तो कहीं अता पता ही नहीं था-------बस एक व्यवस्था के अधीन सब चल रहा था-------समाज के लिये ये छोटी छोटी बातें हैं मगर एक पत्नि के लिये बहुत कुछ-------लोग अक्सर कहते हैं कि पति पत्नि के बीच ये छोटी छोटी बातें तो होती रहती हैं---मगर ये नही सोचते कि पत्नि के लिये पति का प्यार और सतकार भी जरूरी हैउसके अभाव मे ये छोटी छोटी चिँगारियां अक्सर भयानक रूप ले लेती हैं---------
बचपन से माँ को देखती आई थी सुबह से शाम तक कोल्हू के बैल की तरह घर के काम मे जुटी रहती-----सब की आवश्यकताओं के लियी सदा तत्पर रहती --- ना खाने का होश ना पहनने की चिँता------शाम ढले जब पिताजी घर आते तो शुरू हो जाते-------- ये नहीं किया ---वो नहीं किया-----ये ऐसे नहीं करना था ---ये वैसे नहीं करना था------पता नहीं सारा दिन घर मे क्या करती रहती है--------एक रोटी सब्जी का ही तो काम है----उन्हें क्या पता कि रोटी सब्जी के साथ और कितने काम जुडे होते-------- हैं बच्चों की-- बज़ुर्गों की सब की जरूरतें---घर की साफ सफाई--------किसे कब क्या चाहिये कपडे धोना बर्तन साफ करना और बहुत से काम-------मगर माँ ने कभी उन्हें ये ब्यौरा नहीं दिया-------चुप चाप लगी रहती------मगर जब शाम को किसी दोस्त के साथ एक दो पेग लगा कर आ जातेतो माँ ही क्या दादा- दादी ाउर बच्चे भी सहम जाते-------पेग लगा कर बाकी केधिकार जताने का बल भी आ जाता---------माँ फिर भी सहमी सहमी स गरम गरम खाना परोसती---ेअपने लिये या बच्चों के लिये बचे ना बचे मगर्ुनकी थाली मे कोई कमी ना रहे जरा सी भी कमी हुई नहींकि भाशण शुरू--------ढंग से खाना भी नहीं खिला सकती------कैसी अनपढ मूरख औरत से पाला पडा है--------
यही सब देखते हुये बडी हुई--------ये एक घर की बात नहीं थी पास पडोस -----रिश्तेदारी------मध्य्म और निम्न वर्ग मे तो बहुधा औरतों को घुट घुट कर जीते देखा है मन मे विद्रोह की एक चिँगारी सी सुलगती और मेरे भीतर एक आग भर देती -------मैं घुट घुट कर नेहीं जीऊँगी--------मैं पढुँगी लिखूँगी और पति के कँधे से कँधा मिला कर चलूँगी----मैं विद्रोह कर के जीना नहीं चाहती थी------बल्कि अपना एक व्ज़ूद कायम कर पति की मन मानी और प्रताडना के विरुद्ध एक कवच तैयार करना चाहती थी------शायद मै गलत थी----पुरुष के अधिकार क्षेत्र मे स्त्रि का हस्ताक्षेप---ताँक झाँक------एक अबला सबल का मुकाबला करे--------पुरुष को कहाँ मँजूर-------उस बचपन की चिँगारी ने यही इच्छा बलवती की कि मैं माँ की तरह अनपढ् नहीं रहूँगी-------- पर ये भी कहाँ उस समय की मध्यम वर्ग के परिवार की लडकी के वश मे था--------पिता जी एक मामूली क्लर्क थे--------घर मे हम दादा दादी --तीन भाई बहन और माँ और पिता जी थे सात सदस्यों के परिवार का एक कलर्क की पगार मे कैसे निर्वाह हो सकता था---उपर से पिता की शराब-------- उन के लिये दोनो लडकों को पढाना जरूरी था-------क्यों कि वो घर के वारिस थे और पराई लडकी का क्या वो तो मायका ससुराल दोनो मे पराई ही होती है-------इस मनमानी का अधिकार भी पिताजी के पास ही था और इसे मनना सब का कर्तव्य था--------- बाहर्वीं पास करने के बाद मुझे घर मे बिठा दिया गया-------ागले कर्तव्य की ट्रेनिँग ----घर के काम काज के लिये-------
मेरे अँदर की चिँगारी फिर दहकी और मैं घर पर ही बी ए की तयारी करने लगी------
- क्रमश---

12 July, 2009

मेरी तलाश (कविता )

मुझे तलाश थी
एक प्यास थी
तुम्हें पाने की
तुम मे आत्मसात हो जाने की
तभी तो
डूबते सूरज की एक किरण को
आत्मा मे संजोये निकली थी
तुम्हें ढूँढने
मैने देखा
कई बडे बडे देवों मुनियों को
किन्हीं अपसराओं मेनकाओं पर
आसक्त होते
तेरे नाम पर लडते झगडते
लूटते और लुटते
तेरे नाम पर
खून की नदियाँ बहाते
aअब कई साधु सँतों की दुकानों पर
तेरा नाम भी बिकने लगा है
फिर मन मे सवाल उठते
तेरी लीलाओं पर
कैसे तुम भरमाते हो
जानती हूँ
मेरी प्यास के लिये भी
तुम नित नये कूयेँ
दिखा देते हो
डूबती नित मगर प्यास
फिर भी शेष रहती
तुम्हें पाने की तुम मे
आत्मसात हो जाने की
इस लिये मैने तुम्हारी सब तस्वीरों को
राम -कृ्ष्ण खुदा गाड
सब को एक फ्रेम मे
बँद कर दिया है
ताकि तुम आपस मे
सुलझ लो और खुद लौट आयी हूँ
अपने अन्तस मे
और यहाँ आ कर मैने जाना की
मुझे तेरे किसी रूप को चेतना नहीं है
बल्कि तुम सब की सी
चेतना को चेतना है
तुझे पूजना नहीं है
तुम सा जूझना है
त्तुम्हें जपना नहीं
तुम सा तपना है
तुम्हारी साधना नहीं
खुद को साधना है
कितना सुन्दर है
धर्म से अध्यात्म का पथ
जहाँ तू मैं सब एक है
और अब मेरी प्यास
शाँत हो गयी है

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