17 April, 2009


( कविता )

आत्मा की आग
यूँ तो किसी ना किसी आग को
मेरी आत्मा
सदियों से सवीकार रही है
तडप उठती
यदा कदा
मगर अब चीतकार रही है
क्योंकि
ये आग
मिलन की नहीं
विछोह की नही
कुछ पाने की नहीं
कुछ खोने की नही
ये आग
कर्मठ की
अक्रमण्यता से
इन्सान की हैवानियत से
नेताओं के फरेब से
शहीदों की आत्मा से रिसते घाव से
साधूयों सन्तों के ऐश्वर्य
ए.सी आश्रम ए सी गाडियों से
राज्यवाद भाषावाद जातिवाद
और भ्रष्टाचार से
मेरे दिल मे सुलगी है
मेरी आत्मा पुकार रही है
हे गाँधी, हे नहरू
हे भगतसिह राजगुरू
हे आज़ाद हे पटेल
कहाँ हो?
फिर धरती पर आओ
अपने उतराधिकारी शासकोंसे त्रस्त
देशवासियों को बचाओ
इन्हें राष्ट्र प्रेम की
पाँचवीं पास तो कराओ
नहीं तो ये आग
पता नहीं क्या गुल खिलायेगी
जनता अब नहीं सह पायेगी
अब तो जनता
नेताओं पर
जूते भी बरसाने लगी है
देश भगतों की याद
सताने लगी है
आओ जलदी आओ
मेरी आत्मा की आग बुझाओ

15 April, 2009

श्रीमती प्रकाश कौर जी की एक कविता [माँ] मैने अपने पंजाबी ब्लोग पंजाब दी खुश्बू पर पोस्त की थी गलती से वो मेरे वीरबहुटी ब्लोग पर भी प्रकाशित हो गयी थी 1 अर्शजी और श्री. रूपचन्द शास्त्री मंयक जी ने उसका हिन्दी अनुवाद करने के लिये कहा मैने प्रयास किया है पर कई बार भाषा के कुछ शब्द कवित की सुन्दरता को चार चाँद लग देते हैं फिर भी उसे कहने की कोशिश की है-----

माँ

मायका अब मुझे घर नहीं लगता
घर होते हैं माँ के साथ
माँ बिना अब कैसा मायका
झूठा मान भाईयों के साथ

कौन मेरा अब सिर मुँह चूमे
भींचे कौन प्यार के साथ
कौन सुनेगा दिल के दुखडे
लाड और मल्हार के साथ

माँ के पास तो बहुत समय था
दुख और सुख सुनाने को
पर मेरे पास समय नही था
उसके साथ बिताने को

दिल भर बातें कभी ना की
सदा तुझे तडपाया माँ
रात तेरे पास रहने का
नया बहाना बनाया माँ

तेरी गोद तो वो चुंबक थी
जिस से सारे जुड जाते थे
जिधर कहे तू चल पडते थे
जिधर कहे तू मुड जाते थे

पर इक तेरे ना होने ने
कितने अनर्थ करवाये माँ
सब की दुनिया अलग हो गयी
हो गये सब पराये माँ

माँ तो सच मुच माँ होती है
माँ का कोई भी सानी नहीं
माँ जैसा हमदर्द ना कोई
माँ जैसा कोई दिलजानी नहीं

माँ की दुनिया माँ की दुनियां
जिसे देवी देवते तरसते हैं
माँ है वो प्रकाश कि जिस से
सूरज चाँद सितारे चमकते है

माँ की ममता रुख बोहड[बट] का
माँ की छाँव तो ठंडी छाँव है
माँ तो ममता का है मंदिर
माँ तो रब का दूज नाम है
माँ तो रब का दूजा नाम है1



14 April, 2009

गज़ल


मेहरबानियों का इज़हार ना करो
महफिल मे यूँ शर्मसार ना करो

दोस्त को कुछ भी कहो मगर
दोस्ती पर कभी वार ना करो

प्यार का मतलव नहीं जानते
तो किसी से इकरार ना करो

जो आजमाईश मे ना उतरे खरा
ऐसे दोस्त पर इतबार ना करो

जो आदमी को हैवान बना दें
खुद मे आदतें शुमार ना करो

इन्सान हो तो इन्सानियत निभाओ
इन्सानों से खाली संसार ना करो

कौन रहा है किसी का सदा यहां
जाने वाले का इन्तज़ार ना करो

मरना पडे वतन पर कभी तो
भूल कर भी इन्कार ना करो

पाप का फल वो देता है जरूर
फिर माफी की गुहार ना करो
गज़ल


मेहरबानियों का इज़हार ना करो
महफिल मे यूँ शर्मसार ना करो

दोस्त को कुछ भी कहो मगर
दोस्ती पर कभी वार ना करो

प्यार का मतलव नहीं जानते
तो किसी से इकरार ना करो

जो आजमाईश मे ना उतरे खरा
ऐसे दोस्त पर इतबार ना करो

जो आदमी को हैवान बना दें
खुद मे आदतें शुमार ना करो

इन्सान हो तो इन्सानियत निभाओ
इन्सानों से खाली संसार ना करो

कौन रहा है किसी का सदा यहां
जाने वाले का इन्तज़ार ना करो

मरना पडे वतन पर कभी तो
भूल कर भी इन्कार ना करो

पाप का फल वो देता है जरूर
फिर माफी की गुहार ना करो


13 April, 2009

ਪ੍‌ਰਕਾਸ਼ ਕੌ ਜੀ ਦੀ ਇਕ ਰਚਨਾ ਜੋ ਸੂਲ ਸੂਰਾਹੀ ਪ੍ਤਰ੍ਕਾ ਵਿਚ ਛਪੀ
ਪਰਕਾਸ਼ rਸਾਡੇ ਸ਼ਹਰ ਦੀ ਏਕ੍ਸ ਏਮ ਸੀ ਹਨ ਅਤੇ ਬਹੁਤ ਹੀ
ਧਿ ਲੇਖਿਕਾ ਵੀ ਹਨ
ਮੇ ਅਜੇ ਜਾਬੀ ਲਿਖਣ ਦਾ ਅਭਿਆਸ ਕਰ ੜੀ ਹਾਂ ਮੇਰੀ ਗਲਤੀਵਲ ਧਿਆ
ਨਾ ਦੇਣਾ ਜੀ
----ਰਚਨਾ ----ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਕੌਰ ਜੀ ਦੀ
ਪੇਕਾ ਹੁਣ ਮੇਨੂ ਨ੍ਹੀ ਲਗਦਾ
ਘਰ ਹੁੰਦੇ ਨੇ ਮਾਵਾਂ ਨਾਲ
ਮਾ ਬਿਨਾ ਹੁਣ ਕਾਹਦੇ ਪੇਕੇ
ਝੁ ਮਾਨ ਰਾਵਾ ਨਾਲ
ਕੋ ਮੇਰਾ ਹੁਣ ਸਿਰ ਮੁਹ ਚੁਮੂ
ਘੁਟੂ ਕੋਣ ਪਿਅਰਾਂ ਨਾਲ
ਕੋਣ ਸੁਣੇਗਾ ਡੂਖਃਡੇ ਦਿਲ ਦੇ
ਲਾਦਾ ਅਤੇ ਮ੍ਲਾਰਾ ਨਾਲ
ਮਾ ਕੋਲ ਤਾ ਬਹੁਤ ਸ੍ਮਾ ਸੀ
ਦੁਖ ਤੇ ਸੁਖ ਫਰੋਲਣ ਯੀ
ਪ੍‌ਰ ਮੇਰੇ ਕੋਲ ਬੇਹਲਹੀ ਸੀ
ਉਸ ਦਿਆ ਗ੍ਲਾਂ ਗੋਲ੍ਣ ਲ਼ਯੀ
ਰ੍ਜ ਕੇ ਗ੍ਲਾਂ ਕ੍ਦੇ ਨਾ ਕੀਤਿਆਂ
ਸ੍ਦਾਤੇਨੂ ਪਾਇਆ ਮਾ
ਰਾਤ ਤੇਰੇ ਕੋਲ ਨਾ ਹਿਣ ਦਾ
ਵਾਹਾਨਾਲਾ ਮਾ
ਤੇਰੀ ਗੋਦ ਤਾ ਓਹ ਚੁਮਬ੍ਕ ਸੀ
ਜਿਸ ਨਾਲ ਸਾਰੇ ਜੁਡ਼ ਜਾਂਦੇ
ਜ਼ੀਡਃਰ ਆਖੇ ਟੂਰ ਪੇਂਦੇ ਸੀ
ਜਿਧਰੋਂ ਮੋਡੇ ਮੂਡ ਪੇਂਦੇ ਸੀ
ਪ੍‌ਰ ਤੇਰੀ ਅਣਹੋਂਦ ਨੇ ਇਕਦਮ
ਕਿ ਭਾਣੇ ਤਾਏ ਮਾ
ਸ੍ਬ ਦੀ ਦੁਨਿ ਵ੍ਕਰੀ ਹੋ ਗਯੀ
ਹੋ ਗਏ ਸ੍ਬ ਪ੍ਰਾਏ ਮਾ
ਮਾ ਤਾ ਸ੍ਚ ਮੁਚ ਮਾ ਹੁੰਦੀ ਹੈ
ਮਾ ਦਾ ਕੋਈ ਵੀ ਸਾਨੀ ਹੀ
ਮਾ ਜਿਹਾ ਹਿਮਦਰਦ ਨਾ ਕੋਈ
ਮਾ ਜਿਹਾ ਕੋਈ ਦਿਲਜਨੀ ਹੀ
ਮਾ ਦੀ ਦੁਨਿਯਾ ਮਾ ਦੀ ਦੁਨੀਆ
ਜਿਸ ਨੂ ਵ੍ਲੀ ਓਲੀਹੇ ਤਰਸਨ
ਮਾ ਹੈ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਕਿ ਜਿਸਤੋ
ਸੂਰਜ ਤੇ ਤਾਰੇ ਮ੍ਕ੍ਣ

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