दोहरे माप दँड
पिछली बार आपने पढा
कि रिचा और रिया दोनो स्कूल मे इकठी पढती थीं । दोनो सहेलियाँ थी। रिया शहर मे और रिचा साथ लगते गाँव मे रहती थी। जिस दिन स्कूल मे छुटियाँ हुई उस दिन जब रिचा स्कूल से घर नहीं पहुँची तो उसके घर वालों को चिन्ता हुई। उसके पिता पोलिस मे केस दर्ज नहीं करवाना चाहते थे। सभी इसी सोच मे थे कि क्या किया जाये उसे कहाँ ढूँढा जाये। tतभी पता चला कि वो खून् से लथपथ खेत मे पडी है उसे असपताल लाया गया। पोलिस मे केस दर्ज हुया मगर रिचा के पिता ने उसे मना कर दिया कि किसी का नाम मत बताये क्योंकि उन्हें रिचा ने बता दिया था कि वो साथ के गाँव के ्रपंच का बेटा था रिचा घर आ गयी। मगर उसे किसी से बात करने की इजाजत नहीं थी वो अकेली अन्दर बैठी आँसू बहाती रहती उसकी सहेली रिया उससे मिलने आती है। आब आगे पढिये-------
दोहरे माप दँड
मै जैसे ही रिचा के घर पहूँची सामने आँगन मे उसकी बेबे{माँ} बैठी थी।
*बेबे नमस्ते।* मैने उन्हें प्यार से बुलाया।
* नमस्ते बेटी आओ।* एक अप्रयातिश खुशी के साथ उनकी आँखें भर आयी।
*रिचा कहाँ है मै उस से मिलने आयी हूँ हम लोग रात ही लुधियाना से आये हैं।*
मुझे बहुत दिन से तेरा इन्तज़ार था रिचा ने बताया था कि तुम लोग लुधियाना गये हो। बेटी उसे समझाओ । वो अन्दर बैठी अपनी तकदीर पर आँसू बहाती रहती है।* कहते हुये उनके आँसू बह गये।
मेरा दिल अन्दर तक एक पीडा से भर गया। बेशक अभी छोटी थी दुख देखा नहीं था मगर समाज मे रहती थी । औरत की, एक माँ की बेबसी देख कर दिल तडप गया।
जैसे ही अन्दर जाने लगी,उसके पिता से सामना हो गया।मेरी नमस्ते का जवाब भी उन्होंने बडी उपेक्षा से दिया। मन को झटका लगा, शायद् मेरा आन भी उन्हें अच्छा नहीं लगा था।पुरुश को किसी भी चीज़ से अधिक अपने घर की इज्जत और अहं प्यारा होता है। अपनी आबरू के आगे औलाद का प्यार दर्द उन्हें नहीं पिघला सकता। शायद घर की बात बाहर न जाये इस लिये उन्हें रिचा का किसी से मिलना अच्छा नहीं लगता था।
कैसा निर्दयी बाप है! बेटी पर क्या गुज़र रही है कैसे अकेली इस सदमे मे घुट रही है? उसकी संवेदनाओं से अधिक समाज का डर है। मन विशाद से भर गया।
मैं अन्दर गयी तो रिचा दिवार की तरफ मुँह करके लेटी हुई थी।
*रिचा<*, मैने उसका हाथ पकडते हुये उसे पुकारा। वो अपलक छत की ओर देख रही थी एक महीना हो गया था इस हादसे कोमगर उसके चेहरे पर अब भी खौफ था। बहुत कमजोर हो गयी थी।उस भयानक हादसे को सुन कर किसी की भी रूह काँप जाये फिर उसने तो झीला था।
*रिचा, क्या मुझ से नाराज़ हो?*
मैने धीमे से उसे हिलाया,उसने मेरी तरफ मुड कर देखा और फफक कर मेरे गले लग गयी।अँ सू ऐसे बहने लगे जैसे बरसाती नदी बान्ध तोड कर बिखरती है। मैने जोर से उसे भीँच लिया जैसे एक माँ अपने बच्चे को भीँचती है। मै उसे रोने देना चाहती थी।पीडा का कुछ अंश तो ये आँसू बहा ही लेते हैं।यूँ तो औरत की नियती ये आँसू ही हैं,इन्हीं से जीवन का ताना बाना बुनती है,मगर अबला नारी अकेली रो भी नहीं सकती उसे रोने के लिये भी एक कन्धा चाहिये होता है ।
मैं बेशक छोटी थी मगर दुनिया को समझने लगी थी। मैने सोच लिया कि चाहे कुछ भी हो मैं उसे कन्धा दूँगी। उसका साथ नहीं छोडूंगी।
*रिचा बस बहुत हो गया ,संभालो अपने आप को।* मैने उसे पेछे सिरहाना रख कर बैठनी मे मदद करते हुये कहा।
*जानती हो जितना दुख मुझे इस हादसे से था उस से भी अधिक इस बात का कि मेरी जान से प्यारी सहेली भी मेरे पास नहीं है,मुझे लगा शायद वो भी दुनिया की भीड मे खो गयी है।*
*तुम जानती थी माँ का आप्रेशन था। क्या मुझ पर भी विश्वास नहीं रहा?*
*विश्वास?जब अपने खून के रिश्तों मे ही मेरा द्र्द समझने का एहसास नहीं तो और किसी से क्या उमीद रखी जा सकती है।* उसने एक लम्बी साँस भर कर कहा
*रोचा अगर एक हादसे से विश्वास टूटने लगेगा तो कैसे चलेगा।जीवन तो अपने आप मे एक हादसा है । अगर आदमी मे मनोबल रहेगा तभी वो जी सकता है।*
अच्छा बताओ अब जख्म ठीक हैं?* मैने उसके शरीर पर नज़र दौदाते हुये कहा।
*तन के ज़्ख्म तो भर गये हैं,पर मन के ज़ख्मों मे इतना मवाद भर गया है कि मौत ही इससे छुटकारा दिला सकती है।*
*देखो रिचा,मरना तो सब को एक दिन है ,ागर मरने से पहले जीना सीख लें तभी मरने पर भी शान्ति मिलेगी। बस इन्साम को निराश नहीं होना चाहिये।*
*सब कहने की बातें हैं। कहने और सहने मे बहुत अन्तर है।एक अफसाना है दूसरा सच्चाई,यथार्थ अगर ये हादसा उस घटना तक ही सीमित रहता तब भी कभी न कभी इस दुख से उभर आती,मगर उसके बाद जो हो रहा है---- अपनों का समाज का इपेक्षापूर्ण व्यवहार,तिरस्कार उस से कैसे उबर सकती हूँ?*
*जानती हो जैसे ही मुझे होश आया, मै एक दम चीख मार कर उठी,मन था कि अभी उन दरिंदों को गोली से उडा दूँ। उन का घिनौना अत्याचार सहा था मैने,म्रे रोम रोम से एक लावा उठ रहा था। मैने जोर से कहा कि मैं उन्हें गोली मार दूँगी मुझे एक पिस्तौल चाहिये--- तभी पोता ने जोर से मुह पर थप्पड मारा-*चुप रह चुपचाप बेड पर पडी रह, नाक तो कटवा ही दी अब और क्या करेगी।*
सच कहूँ उस समय ,इझे मेरा बाप उन बदमाशों से भी निर्दयी लगा।मेरा क्या कसूर था?पिता के चेहरे पर क्रोध और मेरे बेटी होने की शर्मिन्दगी की काली परछाई देख कर दिल टूट गया था। लगा उन दुश्टों से तो हारी ही अपने आप से और जीवन से भी हार गयी हूँ।*
---*माँ की आँखों मे दया ढूँढी वहाँ द्या से अधिक बेबसी के साये थे। वो भी औरत थी इस आदम समाज की वंदिनी एक इज्जतदार पति की कर्तव्यनिष्ठ पत्नी!जो चाहते हुये भी कुछ नहीं कर सकती थी।---
--*भाई ने तो नज़र उठा कर देखना भी गवारा नहीं समझा।उसे तो एक ही चिन्ता थी कि वो लोगों से नज़र कैसे मिलायेगा।मुझे तो ये उमीद थी कि मैं उसकी इकलौती लाडली बहन हूँ वो अभी जायेगा और उन दुश्टों कोगोली से उडा देगा। मगर उसे भी अपनी इज्जत और भविश्य ही प्यारा था। *----
*मेरे साथ अन्याय हुया है ,मुझे न्याय कौन दिलायेगा? कौन?*
*रिचा शाँत हो जाओ।* सच मे इतने दिनो से उसके अन्दर का लावा फूट रहा था।
*किसी को एहसास नहीं कि मैं किस तरह का संताप झेल रही हूँ।कैसे पर कटे पक्षी की तरह छटपटा रही हूँ।* और वो फूट फूट कर रोने लगी थी।
अच्छा अब चुप हो जाओ। तुम अपनी पढाई क्यों नहीं शुरू कर रही हो? मैने बात बदलने की कोशिश की।
*अब कौन भेजेगा मुझे स्कूल ? पिताजी ने मना कर दिया है*
मुझे एक झटका सा लगा। क्या इस की जिन्दगी बरबाद कर देना चाहते हैं?
*देखो तुम अपने आप को सम्भालो तुम्हारा कोई कसूर नहीं है इस लिये किसी से डरने की जरूरत नहीं।तुम घर पर रह कर तो पढ सकती हो ना? पढाई शुरू करो आगे देखते हैं। मैं अपने मम्मी पापा को ले कर आऊँगी वो तुम्हारे पिता से बात करेंगे।चिन्ता मत करो सब सही हो जायेगा और मै अब आती रहूँगी। * इसके बाद मै उसे माँ के आप्रेशन के बारे मे बताती रही ।बेबे चाय ले कर आयी चाय पी ही थी कि तभी मेरे पिता जी लेने आ गये। क्रमश;
कि रिचा और रिया दोनो स्कूल मे इकठी पढती थीं । दोनो सहेलियाँ थी। रिया शहर मे और रिचा साथ लगते गाँव मे रहती थी। जिस दिन स्कूल मे छुटियाँ हुई उस दिन जब रिचा स्कूल से घर नहीं पहुँची तो उसके घर वालों को चिन्ता हुई। उसके पिता पोलिस मे केस दर्ज नहीं करवाना चाहते थे। सभी इसी सोच मे थे कि क्या किया जाये उसे कहाँ ढूँढा जाये। tतभी पता चला कि वो खून् से लथपथ खेत मे पडी है उसे असपताल लाया गया। पोलिस मे केस दर्ज हुया मगर रिचा के पिता ने उसे मना कर दिया कि किसी का नाम मत बताये क्योंकि उन्हें रिचा ने बता दिया था कि वो साथ के गाँव के ्रपंच का बेटा था रिचा घर आ गयी। मगर उसे किसी से बात करने की इजाजत नहीं थी वो अकेली अन्दर बैठी आँसू बहाती रहती उसकी सहेली रिया उससे मिलने आती है। आब आगे पढिये-------
दोहरे माप दँड
मै जैसे ही रिचा के घर पहूँची सामने आँगन मे उसकी बेबे{माँ} बैठी थी।
*बेबे नमस्ते।* मैने उन्हें प्यार से बुलाया।
* नमस्ते बेटी आओ।* एक अप्रयातिश खुशी के साथ उनकी आँखें भर आयी।
*रिचा कहाँ है मै उस से मिलने आयी हूँ हम लोग रात ही लुधियाना से आये हैं।*
मुझे बहुत दिन से तेरा इन्तज़ार था रिचा ने बताया था कि तुम लोग लुधियाना गये हो। बेटी उसे समझाओ । वो अन्दर बैठी अपनी तकदीर पर आँसू बहाती रहती है।* कहते हुये उनके आँसू बह गये।
मेरा दिल अन्दर तक एक पीडा से भर गया। बेशक अभी छोटी थी दुख देखा नहीं था मगर समाज मे रहती थी । औरत की, एक माँ की बेबसी देख कर दिल तडप गया।
जैसे ही अन्दर जाने लगी,उसके पिता से सामना हो गया।मेरी नमस्ते का जवाब भी उन्होंने बडी उपेक्षा से दिया। मन को झटका लगा, शायद् मेरा आन भी उन्हें अच्छा नहीं लगा था।पुरुश को किसी भी चीज़ से अधिक अपने घर की इज्जत और अहं प्यारा होता है। अपनी आबरू के आगे औलाद का प्यार दर्द उन्हें नहीं पिघला सकता। शायद घर की बात बाहर न जाये इस लिये उन्हें रिचा का किसी से मिलना अच्छा नहीं लगता था।
कैसा निर्दयी बाप है! बेटी पर क्या गुज़र रही है कैसे अकेली इस सदमे मे घुट रही है? उसकी संवेदनाओं से अधिक समाज का डर है। मन विशाद से भर गया।
मैं अन्दर गयी तो रिचा दिवार की तरफ मुँह करके लेटी हुई थी।
*रिचा<*, मैने उसका हाथ पकडते हुये उसे पुकारा। वो अपलक छत की ओर देख रही थी एक महीना हो गया था इस हादसे कोमगर उसके चेहरे पर अब भी खौफ था। बहुत कमजोर हो गयी थी।उस भयानक हादसे को सुन कर किसी की भी रूह काँप जाये फिर उसने तो झीला था।
*रिचा, क्या मुझ से नाराज़ हो?*
मैने धीमे से उसे हिलाया,उसने मेरी तरफ मुड कर देखा और फफक कर मेरे गले लग गयी।अँ सू ऐसे बहने लगे जैसे बरसाती नदी बान्ध तोड कर बिखरती है। मैने जोर से उसे भीँच लिया जैसे एक माँ अपने बच्चे को भीँचती है। मै उसे रोने देना चाहती थी।पीडा का कुछ अंश तो ये आँसू बहा ही लेते हैं।यूँ तो औरत की नियती ये आँसू ही हैं,इन्हीं से जीवन का ताना बाना बुनती है,मगर अबला नारी अकेली रो भी नहीं सकती उसे रोने के लिये भी एक कन्धा चाहिये होता है ।
मैं बेशक छोटी थी मगर दुनिया को समझने लगी थी। मैने सोच लिया कि चाहे कुछ भी हो मैं उसे कन्धा दूँगी। उसका साथ नहीं छोडूंगी।
*रिचा बस बहुत हो गया ,संभालो अपने आप को।* मैने उसे पेछे सिरहाना रख कर बैठनी मे मदद करते हुये कहा।
*जानती हो जितना दुख मुझे इस हादसे से था उस से भी अधिक इस बात का कि मेरी जान से प्यारी सहेली भी मेरे पास नहीं है,मुझे लगा शायद वो भी दुनिया की भीड मे खो गयी है।*
*तुम जानती थी माँ का आप्रेशन था। क्या मुझ पर भी विश्वास नहीं रहा?*
*विश्वास?जब अपने खून के रिश्तों मे ही मेरा द्र्द समझने का एहसास नहीं तो और किसी से क्या उमीद रखी जा सकती है।* उसने एक लम्बी साँस भर कर कहा
*रोचा अगर एक हादसे से विश्वास टूटने लगेगा तो कैसे चलेगा।जीवन तो अपने आप मे एक हादसा है । अगर आदमी मे मनोबल रहेगा तभी वो जी सकता है।*
अच्छा बताओ अब जख्म ठीक हैं?* मैने उसके शरीर पर नज़र दौदाते हुये कहा।
*तन के ज़्ख्म तो भर गये हैं,पर मन के ज़ख्मों मे इतना मवाद भर गया है कि मौत ही इससे छुटकारा दिला सकती है।*
*देखो रिचा,मरना तो सब को एक दिन है ,ागर मरने से पहले जीना सीख लें तभी मरने पर भी शान्ति मिलेगी। बस इन्साम को निराश नहीं होना चाहिये।*
*सब कहने की बातें हैं। कहने और सहने मे बहुत अन्तर है।एक अफसाना है दूसरा सच्चाई,यथार्थ अगर ये हादसा उस घटना तक ही सीमित रहता तब भी कभी न कभी इस दुख से उभर आती,मगर उसके बाद जो हो रहा है---- अपनों का समाज का इपेक्षापूर्ण व्यवहार,तिरस्कार उस से कैसे उबर सकती हूँ?*
*जानती हो जैसे ही मुझे होश आया, मै एक दम चीख मार कर उठी,मन था कि अभी उन दरिंदों को गोली से उडा दूँ। उन का घिनौना अत्याचार सहा था मैने,म्रे रोम रोम से एक लावा उठ रहा था। मैने जोर से कहा कि मैं उन्हें गोली मार दूँगी मुझे एक पिस्तौल चाहिये--- तभी पोता ने जोर से मुह पर थप्पड मारा-*चुप रह चुपचाप बेड पर पडी रह, नाक तो कटवा ही दी अब और क्या करेगी।*
सच कहूँ उस समय ,इझे मेरा बाप उन बदमाशों से भी निर्दयी लगा।मेरा क्या कसूर था?पिता के चेहरे पर क्रोध और मेरे बेटी होने की शर्मिन्दगी की काली परछाई देख कर दिल टूट गया था। लगा उन दुश्टों से तो हारी ही अपने आप से और जीवन से भी हार गयी हूँ।*
---*माँ की आँखों मे दया ढूँढी वहाँ द्या से अधिक बेबसी के साये थे। वो भी औरत थी इस आदम समाज की वंदिनी एक इज्जतदार पति की कर्तव्यनिष्ठ पत्नी!जो चाहते हुये भी कुछ नहीं कर सकती थी।---
--*भाई ने तो नज़र उठा कर देखना भी गवारा नहीं समझा।उसे तो एक ही चिन्ता थी कि वो लोगों से नज़र कैसे मिलायेगा।मुझे तो ये उमीद थी कि मैं उसकी इकलौती लाडली बहन हूँ वो अभी जायेगा और उन दुश्टों कोगोली से उडा देगा। मगर उसे भी अपनी इज्जत और भविश्य ही प्यारा था। *----
*मेरे साथ अन्याय हुया है ,मुझे न्याय कौन दिलायेगा? कौन?*
*रिचा शाँत हो जाओ।* सच मे इतने दिनो से उसके अन्दर का लावा फूट रहा था।
*किसी को एहसास नहीं कि मैं किस तरह का संताप झेल रही हूँ।कैसे पर कटे पक्षी की तरह छटपटा रही हूँ।* और वो फूट फूट कर रोने लगी थी।
अच्छा अब चुप हो जाओ। तुम अपनी पढाई क्यों नहीं शुरू कर रही हो? मैने बात बदलने की कोशिश की।
*अब कौन भेजेगा मुझे स्कूल ? पिताजी ने मना कर दिया है*
मुझे एक झटका सा लगा। क्या इस की जिन्दगी बरबाद कर देना चाहते हैं?
*देखो तुम अपने आप को सम्भालो तुम्हारा कोई कसूर नहीं है इस लिये किसी से डरने की जरूरत नहीं।तुम घर पर रह कर तो पढ सकती हो ना? पढाई शुरू करो आगे देखते हैं। मैं अपने मम्मी पापा को ले कर आऊँगी वो तुम्हारे पिता से बात करेंगे।चिन्ता मत करो सब सही हो जायेगा और मै अब आती रहूँगी। * इसके बाद मै उसे माँ के आप्रेशन के बारे मे बताती रही ।बेबे चाय ले कर आयी चाय पी ही थी कि तभी मेरे पिता जी लेने आ गये। क्रमश;