16 October, 2009

गज़ल

एक और कोशिश की है सही या गलत आप बतायें

सपने सुन्दर उजियारे देख
मौसम के अजब नज़ारे देख

देख घटा शरमाये उसको
नैना उस के कजरारे देख

चोर उच्चकों की दुनिया है
संसद के गलियारे देख

मजहब का ओढ नकाब रहे
मानवता के हत्यारे देख

जूतमजूत चले संसद मे
अब मुफतो मुफत नज़ारे देख

रक्षक,भक्षक जब बन बैठे
तो इन को कौन सुधारे देख

गीत गज़ल लिख वक्त गुजारें
सब तन्हाई के मारे देख

आँखों मे जिसको रखते थे
बह गए बन आँसू खारे देख

उसकी यादें रोज़ रुलायें बस
दर्द-ए-दिल के मारे देख

14 October, 2009

कविता-- जीने का ढंग
कल से मन कुछ उदास सा था । हिमांशी की गज़ल तरही मुशायरे मे सुबीर जी के ब्लाग पर पढी तो जरा मनोबल बना। इस बार घर मे दिवाली भी नहीं मनेगी फिर सभी बच्चे भी अपने अपने घर हैं तो अकेले मे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था।अज नेट पर आते ही सुबीर जी की मेल मिली। लिखा था * निर्मला दी*। बस और क्या चाहिये था बुलबुले सी फिर उठ गयी। आज एक कविता सुबीर जी को समर्पित कए लिख रही हूं।मैं सुबीर जी की धन्यवादी हूँ और उनके बडप्पन के आगे नत्मस्तक हूँ कि दीपावली पर एक छोटे भाई का ये तोहफा मेरे लिये यादगार रहेगा। कल बडे भाई साहिब आदरणीय प्राण जी की भी दिवाली पर बधाई मिली । मेरी दिवाली मेरे भाईयों और बेटों ने खुश नुमा कर दी । धन्यवाद नहीं कहूँगी। सुबीर जी को ढेरों आशीर्वाद और शुभकामनायें। बडे भाई साहिब को भी ढेरों शुभकामनायें। और अपने बेटों को भी आशीर्वाद ।बाकी सब का भी धन्यवाद कि इस ब्लागजगत के कारण मैं दिवाली पर कुछ हादसों को भूल सकूँगी।


जीने का ढंग (कविता )

अपनी विजय गाथा के
तुम खुद ही गीत बनाओ
श्रम और आत्मविश्वास की
ऐसी धुन सजओ
अपने आप सुर बन जाते हैं
जो बस विजय गीत सुनाते हैं

मज़िल आती नहीं खुद चल कर
जाना पडेगा हर सीढी चढ कर
सकारात्मक सोच से राह बनाओ
खुद मे इक उत्साह जगाओ
बस बढते जाओ बढते जाओ

निराशा का एक भी पल
कर देता है पथ से विचलित
बुराई से करो किनारा
इस मे है तुम्हारा हित
व्यवस्थित करो जीवन शैली
अपनी ऊर्जा को न व्यर्थ गंवाओ
जीवन है कितना अद्भुत सुन्दर
सोचो जीनी का ढंग अपनाओ


ये नहीं केवल किताबी फलसफा
अपनाओ निश्चित है तुम्हारी सफलता




12 October, 2009

अलविदा
आज कल देश मे खास कर ब्लाग जगत मे धर्म के नाम पर हो रहा है उस से मन दुखी है। इसका हमारे बच्चों पर क्या असर होता है क्या वो ये नहीं सोचेंगे कि धर्म हमे जोडता नहीं है बल्कि तोडता है? अगर कोई किसी के धर्म के खिलाफ बोलता है तो वो आपका कुछ नहीं बिगाड रहा बल्कि अपने धर्म की संकीर्णता और कट्टरता का प्रचार कर रहा है जब कि किसी भी धर्म मे दूसरे धर्म के खिलाफ बोलना नहीं लिखा। अगर वो अपने देश{जिस मे कि वो रह रहा है} के खिलाफ कुछ क हता है तो भी दुनिया को अपनी असलियत बता रहा है कि मै जिस थाली मे खाता हूँ उसी मे छेद भी करता हूँ और जिस डाल पर बैठता हूँ उसे ही काट भी देता हूँ।िस लिये उत्तेजित होने की बजाये आप उस ब्लोग को पढना ही छोड दें। जिस को जिस से शिकायत है वो एक दूसरे के ब्लाग पर ही न जाये। कृ्प्या सभी भाई बहनों से निवेदन है कि ब्लागजगत मे हम सब एक परिवार की तरह ही रहें । इस बात को कहने के लिये मैं आज श्री महिन्द्र नेह जी की कविता प्रस्तुत करना चाहती हूँ जो कि कल श्री दिनेश राय दिवेदी जी के ब्लाग पर छपी थी उन्हीं के साभार !


अलविदा
महेन्द्र 'नेह'

धर्म जो आतंक की बिजली गिराता हो
आदमी की लाश पर उत्सव मनाता हो
औरतों-बच्चों को जो जिन्दा जलाता हो
हम सभी उस धर्म से
मिल कर कहें अब अलविदा
इस वतन से अलविदा
इस आशियाँ से अलविदा


धर्म जो भ्रम की आंधी उड़ाता हो
सिर्फ अंधी आस्थाओं को जगाता हो
जो प्रगति की राह में काँटे बिछाता हो
हम सभी उस धर्म से
मिल कर कहें अब अलविदा
इस सफर से अलविदा
इस कारवाँ से अलविदा


धर्म जो राजा के दरबारों में पलता हो
धर्म जो सेठों की टकसालों में ढलता हो
धर्म जो हथियार की ताकत पे चलता हो
हम सभी उस धर्म से
मिल कर कहें अब अलविदा
इस धरा से अलविदा
इस आसमाँ से अलविदा


धर्म जो नफ़रत की दीवारें उठाता हो
आदमी से आदमी को जो लड़ाता हो
जो विषमता को सदा जायज़ बताता हो
हम सभी उस धर्म से
मिल कर कहें अब अलविदा
इस चमन से अलविदा
इस गुलसिताँ से अलविदा

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