सच्ची साधना
कल आपने पढा कि शिवदास अपनी जिम्मेदारियों से भाग कर साधु बन गया और 20-25 साल बाद वो साधु के वेश मे अपने गाँव लौटता है। उसका मन साधु के रूप मे भी अब नही लगता था। eएक दिन उसका मन बहुत उदास हुया तो उसे अपने घर की याद आयी।वो अपने गाँव लौटता है और अपने दोस्त्राम किशन से मिलता है अब आगे पढिये --------
‘पहले यह बताओ कि तुम बीस--पचीस वर्ष कहाँ रहे ? राम किशन शिवदास के बारे में जानने के उत्सुक थे ।
‘यहां से मैं सीधा उसी बाबा के आश्रम में गया जो हमारे गाँव आए थे । दो वर्ष उनके पास रहा मगर वहाँ मुझे कुछ अच्छा नही लगा । वहां साधु संतों के वेश में निटठले, लोग अधिक थे । मुझे लगा लोग जिस आस्था से साधू संतों के पास आते हैं उस आस्था के बदले उन्हें रोज-रोज़ वही साधारण से प्रवचन, कथाएं आदि सुनाकर भेज दिया जाता है । उन्हें अपने ही आश्रम से बांधे रखने के लिए कई तरह के प्रलोभन, मायाजाल विछाए जाते हैं । मैं भक्ति की जिस पराकाष्टा पर पहूँचना चाहता था उसका मार्गदर्षन नही मिल पा रहा था । साधू महात्मों की सेवा करते करते करते मेरा परिचय कुछ और साधुओं से हो गया । एक दिन चुपके से मैं किसी और संत के आश्रम में चला गया ।
वहां कुछ वेद पुराण आदि पढे महात्मा जी से बहुत कुछ सीखा भी। वो बहुत अच्छे थे। वहाँ मुझे 4-5 साल हो गये थे। माहौल तो इस आश्रम में भी कुछ अलग नही था मगर वहां से एक वृद्ध संत मुझ पर बहुत आसक्ति रखते थे । उन्हें वेदों का अच्छा ज्ञान था मगर आश्रम की राजनीति के चलते ऐसे ज्ञानवान सच्चे संत के पास भी स्वार्थी लोगों की भीड जमा हो जाती है जो उनकी अच्छाई का फायदा उठा कर अश्रम का संचालन करने लगती है। उन्होंने मुझे समझाया कि तुम अपने सच्चे मार्ग पर चलते रहो बाकी भगवान पर छोड़ दो । हर क्षेत्र में तरह-तरह के लोग हं। आश्रम की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कई बार अपने आप से समझौता करना पड़ता है । मैंने बड़ी मेहनत से यह आश्रम बनाया है । मैं चाहता हूं कि अपनी गददी उस इन्सान को दूं जो सच्चाई, ईमानदारी से इसका विस्तार कर सके । मैं चाहता हँ, कि तुम इतने ज्ञानवान हो जाओं कि मैं निष्चिंत होकर प्रभू भक्ति में लीन हो जाऊं । और इसका सारा प्रबन्ध तुम्हारे हाथों सौंप दूँ
उन्होंने मुझे कथा वाचन में प्रवीन किया । मैं कई शहरों में कथा के लिए जाने लगा । मेरे सतसंग में काफी भीड़ जुटने लगी । आश्रम में षिष्य बड़ी गिनती में आने लगे । दान- दक्षिणा में कई गुणा वृद्धि हुई । महात्मा जी नेअपने आश्रम की बागडोर मेरे हाथ मे सौंप दी, और मैं उनकी छत्रछाया मे आश्रम का विस्तार करने लगा। भक्तों में कई दानी लोगों की सहायता से मैंने उस आश्रम में बीस कमरे और बनवा दिए । कुछ कमरे साधू संतों के लिए और कुछ कमरे आश्रम में आने वाले भक्तों के लिए । बड़े महात्मा जी ने मुझे अपना उत्राधिकारी घोषित कर दिया था । धीरे-धीरे आश्रम में सुख सुविधाएं भी बढने लगी । कुछ कमरे वातानुकूल बन गए । आश्रम के लिए दो गाड़ियां तथा दो ट्रक आ गए । अब कई और साधू इस आश्रम की ओर आकर्षित होने लगे । सुख सुविधओं का लाभ उठाने के लिए कई धीरे- धीरे मुझे से गददी हथियाने के षडयन्त्र रचे जाने लगे, बड़े महात्मा जी के कान भरे जाने लगे । कई बातों में बडे़ महात्मा जी और मुझ में टकराव की स्थिती बनने लगी मुझे लगता था कि बीस वर्ष की मेहनत से जो आश्रम मैंने बनाया वह नकारा लोगों की आरामगाह बनने लगा है । मगर महात्मा जी ये सब देख नही पाते लोगों की चाल को समझ नही पाते।
मेरा मन वहां से भी उचाट होना शुरू हो गया । मुझे लगा कि यह आश्रम व्यवस्था धर्म के नाम पर व्यवसाय बनने लगा है । मेरा मन मुझ से सवाल करने लगा कि तू साधु किस लिए बना ? ये कैसी साधना करने लगा ? भौतिक सुखों, वातानुकूल कमरे और गाड़ी से एक संत का क्या मेल जोल है ? चार पुस्तकेंे पढ कर लोगों को आश्रम के माया जाल में बाँध लेते है और कितने निटठले लोग उनकी खून पसीने की कमाई से अपनी रोजी रोटी चलाते है लोग संतों के प्रवचन सुनते है बाहर जाते ही सब भूल जाते है । मैं जितना आत्म चिंतन करता उतना ही उदास हो जाता । मुझे समझ नहीं आता खोट कहाँ है मुझ मे या धर्म की व्यवस्था में । इन आश्रमों को सराय न होकर अध्यात्मिक संस्कारों के स्कूल होना चाहिए था ।
एक दिन अचानक आश्रम में कुछ साधुओं का आपत्तिजनक व्यवहार मेरे सामने आया । जिस साधू का ये कृत्य था वो भी महात्मा जी का खास शिष्य था। अगर मैं शिकायत करता तो भी शायद उन्हें विश्वास न आता। इस लिये मैने वहाँ से चले जाने का मन बना लिया। मैंने उसी समय महात्मा जी के नाम चिटठी लिखकर उनके कमरे में भेज दी जिसमें आश्रम में चल रही विसंगतियों का उल्लेख कर अपने आश्रम से चले जाने के लिए क्षमा माँगी थी । उसी समय मैं अपने दो चार कपड़े लेकर वहाँ आया । अचानक लिए फैसले से मैं ये यह निष्चय नही कर पा रहा था कि मैं कहाँ जाऊं । आखिर रहने के लिए कोई तो स्थान चाहिए ही था । मैं वहां से सीधे अपने एक प्रेमी भक्त के घर चला गया । वो बहुत बड़ा व्यवसायी था । मेरे ठहरने का बडिया प्रबन्ध हो गया । अब मैं सोचने लगा कि आगे क्या करना चाहिए । आश्रमों के माया जाल में फँसने का मन नहीं था । अगर कहीं कोई भक्त एक कमरा भी बनवा दे तो लोगों का तांता लगने लगेगा । और मैं फिर उसी चक्कर मे फंस जाऊँगा--- लोगों के अन्धविश्वासऔर धर्म पर आस्था मुझे फिर एक और आश्रम मे तबदील कर देंगे। दुनियाँ से मन विरक्त हो गया है । मेरे भक्त आजीवन मुझे अपने पास रखने के लिए तैयार है । अभी कुछ तय नही कर पाया हूँ । बस एक बार तुमसे मिलने की इच्छा हुई, घर की बच्चों की याद आयी तो चला आया । यहाँ जाकर सोचँूगां कि आगे कहाँ जाना है ये कहकर शिवदास चुप हो गया ।
‘‘इसका अर्थ हुआ जहाँ से चले थें वही हो । न मोह माया छूटी और न दुनिया के कर्मकाण्ड । अपने परिवार को छोड़कर दूसरों को आसरा देने चले थे उसमें भी दुनिया के जाल में फंस गए । तुमने वेद पुराण पढे वो सब व्यर्थ हो गए । आदमी यहीं तो मात खा जाता है । वह धर्म के रूप को जान लेता है मगर उसके गुणों को नही अपनाता । साधन को साध्य मान लेता है । धर्म के नाम पर चलने वाले जिन आश्रमों के साधु संँतों में भी राजनीति, वैर विरोध गददी के लिए लड़ाई, जमीन के लिए लड़ाई, अपने वर्चस्व के लिए षडयन्त्र, अकर्मण्यता का बोल बाला हो, वह लोगों को क्या शिक्षा दे सकते है ? आए दिन धार्मिक स्थानों पर दुराचार की खबरें, आपस में खूनी लड़ाई के समाचार पढने को मिल रहे हैं । मैं यह नही कहता कि अच्छे साधु सँत नही हैं बहुत होंगे मगर इस व्यवसाय मे सभी मजबूर होंगे । । ऐसे लोगों के कारण ही धर्म का विनाश, हो रहा है । लोगों की आस्था पर कुठाराघात हो रहा है ....।."-- रामकिशन बोल रहे थें ।
‘अच्छा छोड़ो यह विषय । अब अपने बारे में बताओ । तुम भी तो आश्रम चला रहे हो ? शिवदास ने पूछा ।
सच्ची साधना ---4
‘‘ यह आश्रम नही बल्कि एक स्कूल है जहाँ बच्चों को उनके खाली समय में सुसंस्कार तथा राष्ट्र प्रेम की षिक्षा दी जाती है । किसी को इस आश्रम के किसी कमरे में ठहरने की अनुमति नहीं है । मुझे भी नही । मेरी यह कोठरी मेरी अपनी जमीन में है । मेरा रहन--सहन तुम देख ही रहे हो । गाड़ी तो दूर मेरे पास साइकिल भी नही है ।‘‘
‘" तुम तो जानते हो स्वतंत्रता संग्राम में मन कुछ ऐसा विरक्त हुआ, शादी की ही नहीं । आजा़दी के बाद कुछ वर्ष राजनीति में रहा । पद प्रतिष्ठा की चाह नही थी । कुछ प्रलोभन भी मिले मगर मैं कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे लोंगों में राष्ट्र प्रेम और भारतीय संस्कारों की भावना जिन्दा रहे । इसके लिए मुझे लगा कि आने वाली पीढियों की जड़ें मजबूत होगी, संस्कार अच्छे होंगे तभी भारत को दुनिया के शिखर पर देखने का सपना पूरा होगा । इस सपने को पूरा करने के लिए मैंने सबसे पहले अपने गाँव को चुना । अगर मेरा यह प्रयोग सफल हुआ तो और जगहों पर भी लोगों द्वारा ऐसे प्रयास करवाए जा सकते हैं ।"
"मेरे पास मेरी - इस झोंपडी के अतिरिक्त पँद्रह कनाल जमीन और थी जो मेरे बाप दादा मेरे नाम पर छोड़ गए थे । मैंने दो कनाल जमीन बेचकर कुछ पैसा जुटाया और आठ कनाल जमीन पंचायत के नाम कर दी । पंचायत की सहायता से एक कनाल जमीन पर चार हाल कमरे बनवाए । वहाँ मैं सुबह शाम गाँव के बच्चों को इक्ट्ठा करता । गाँव के कुछ युवकों की एक संस्था बना दी जो बच्चों को सुबह व्यायाम, प्रार्थना, खेलकूद तथा राष्ट्र प्रेम और सुसंस्कारों की षिक्षा दें । धीर धीरे यह सिलसिला आगे बढा। गाँव के लोग बच्चों की दिनचर्या और आचरण देखकर इतने प्रभावित हुए कि बड़े छोटे सब ने उत्साह पूर्वक इसमें सहयोग किया । बच्चों को हर अपना कार्य स्वयं करने का प्रषिक्षण दिया जाता । आश्रम की बाकी जमीन में फल-सब्जियाँ उगाए जाते इसके लिए बच्चों में सब को एक-एक क्यारी बाँट दी जाती । जिस बच्चे की क्यारी सब से अधिक फलती फूलती उसे ईनाम दिया जाता । इससे बच्चों में खेती बाड़ी के प्रति रूची बढती और मेहनत करने का जज्बा भी बना रहता । फसल से आश्रम की आमदन भी होती जो बच्चों पर ही खर्च की जाती । आश्रम मे पाँच दुधारू पशू भी है जिनका दूध बच्चों को ही दिया जाता है । पूरा गांव इस आश्रम को किसी मंदिर से कम नही समझता । गाँव के ही शिक्षित युवा बच्चों को मुफ्त टयूषन पढाते हैं। खास बात यह है कि इस आश्रम में न कोई प्रधान है न नेता, न कोई बड़ा न छोटा । सभी को बराबर सम्मान दिया जाता है । इसके अन्दर बने मंदिर में जरूर एक विद्धान पुजारी जी रहते हैं जो बच्चों को वेदों व शास्त्रों का ज्ञान देते है । हर धर्म में उनका ज्ञान बंदनीय है । जब तक ज्ञान के साथ कर्म नहीं होगा तब तक लोगों पर प्रभाव नहीं पडता, सुधार नही होता । इसलिए अध्यात्म, योग, संस्कार ज्ञान विज्ञान की शिक्षा के साथ साथ कठिन परिश्रम करवाया जाता है ।"
पाँच छः वर्षों में इस आश्रम की ख्याति बढने लगी । सरकारी स्कीमों का लाभ बच्चों व गाँव वालों को मिलने लगा । आस पास के गाँव भी इस आश्रम की तर्ज पर काम करने लगे हैं इस गाँव का अब कोई युवा अनपढ नही है, नशाखोरी से मुक्त है । इन पच्चीस वर्षों में कितने युवक -युवतियाँ पढ लिखकर अच्छे पदों पर ईमानदारी से काम तो कर ही रहें हैं । साथ-साथ जहाँ भी वो कार्यरत है वहीं ऐसे आश्रमों की स्थापना मे भी कार्यरत हैं । अगर हर गाँव -ेऔर शहर में कुछ अच्छे लोग मिलकर ऐसे समाज सुधारक काम करें तो भारत की तसवीर बदल सकते है ं । आज बदलते समय के साथ कर्मयोग की षिक्षा का महत्व है । अगर शुरू से ही चरित्र निर्माण के लिए युद्धस्तर पर काम होता तो आज भारत विष्व गुरू होता । जरूरत है उत्साह, प्रेरणा और दृढ निष्चय की । बस मुझे इस मशाल को जलाए रखना है, जब तक जिन्दा हूँ । इसके लिए हर विधा में अन्तर्राजीय प्रतिस्पर्धाएँ हर वर्ष करवाई जाती हैं जिसका खर्च लोग, पंचायतें व सरकार के अनुदान से होता है ।" राम किषन की क्राँति गाथा को शिवदास ध्यान से सुन रहे थें ।
शाम के पाँच बज गए थे । रामकिशन उठे "शिवदास तुम आराम करो मैं बच्चों को देखकर और मंदिर होकर आता हूं । शिवदास ने दूध का गिलास गर्म करके उसे दिया और अपना गिलास खाली कर आश्रम की तरफ चले गए । शिवदास के आगे रखी फलों की प्लेट वैसे की वसे पड़ी थी । राम किशन के जोर देने पर उन्होंने दो केले खाए और लेट गए ।
लेटे-लेटे शिवदास आत्म चिंतन करने लगा । उन्हें लगा कि साधु बन कर उन्होंने जो साधना की है उसका लाभ लोगों को उतना नही मिला जितना रामकिशन की साधना का फल लोगों को मिला है । रामकिशन के व्यक्तित्व के आगे उन्हें अपना आकार बौना लगने लगा ।म न अशाँत हो गया । दोनों ने त्याग किया मगर रामकिशन का त्याग, कर्मठता, मानवतावादी आदर्ष उन्हें साधु-संतों के आचरण से ऊँचे लगे । वो तो मोह माया के त्याग की केवल शिक्षा ही देते हैं और खुद भक्तों के धन से अपने भौतिक प्रसार में ही लगे रहे । आत्मचिन्तन में एक घंटा कैसे बीत गया उल्हें पता ही नही चला । तभी रामकिशन लौट आए । आते ही उन्होंने रसोई में गैस जलाई और पतीली में खिचड़ी पकने के लिए रख दी ।