26 September, 2017

  गज़ल

बेवफाई के नाम लिखती हूँ
आशिकी पर कलाम लिखती हूँ

खत में जब अपना नाम लिखती हूँ
मैं हूँ उसकी जिमाम लिखती हूँ

आँखों का रंग लाल देखूँ तो
उस नज़र को मैं खाम लिखती हूँ

ये मुहब्बत का ही नशा होगा
मैं  सुबह को जो शाम लिखती हूँ

फाख्ता होश कौन करता है
जब जमी को भी बाम लिखती हूँ

है बदौलत उसी की ये साँसें
ये खुदा का ही काम लिखती हूँ

जो सदाकत में ज़िंदगी जीए
नाम उसका मैं राम लिखती हूँ

हौसला बा कमाल रखता है
वो नहीं शख्स आम लिखती हूँ

बादशाहत सी ज़िंदगी उसकी
महलों की ताम झाम लिखती हूँ

दोस्त, दुश्मन मेरा है रहबर भी
किस्से उसके तमाम लिखती

06 September, 2017

 GAZAL

पिघल कर आँख से उसकी दिल ए पत्थर नहीं आता"
वो हर गिज़ दोस्तो मेरे जनाज़े पर नहीं आता

दिखाया होता तूने आइना उसको सदाक़त का
जो  आया करता था झुक कर, कभी तनकर  नहीं आता।


 मुझे विशवास है मेरे खुदा की राज़दारी पर 
चलूँगी जब तलक वो ले के मंज़िल पर नहीं आता


छुपा कर अपने ग़म देता है जो खुशियाँ ज़माने को
वो शिकवा दर्दका लब पर कोई रखकर नहीं आता


किनारे पर खड़ा तब तक तकेगा राह वो मेरी
सफीना जब तलक भी नाखुदा लेकर नहीं आता


सितारे गर्दिशों में लाख हैं तक़दीर के माना  
 मगर जज़्बे में कोई फर्क़ ज़र्रा भर नहीं आता


बिना उसके मुझे  ये ज़िंदगी दुश्वार  लगती  है
कोई झोका हवा का भी उसे  छूकर  नहीं  आता


 इजाज़त किस तरह देता है दिल ऎसी कमाई की
निकम्मे को  जो तिनका तोड़ कर दफ्तर नहीं आता)


ग़रीबी में वो रुस्वाई से अपनी डरता है निर्मल 
किसी के सामने यूँ शख्स वो खुलकर नहीं आता
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08 July, 2017


गज़ल 1
मुहब्बत से रिश्ता बनाया गया
उसे टूटते रोज पाया गया
मुहब्बत पे उसकी उठी अँगुलियाँ
सरे बज़्म रुसवा कराया गया
यहाँ झूठ बिकता बड़े भाव पर
मगर सच को ठेंगा दिखाया गया
दिए घी के उनके घरों में जले
मेरा घर मगर जब जलाया गया
वही वक्त है ज़िंदगी का मजा
हँसी खेल में जो बिताया गया
मैं माँ का वो झूला न भूली कभी
जो बाहों में लेकर झुलाया गया
चुनौती मिली जो निभाया उसे
मेरा हौसला आजमाया गया
गुलाबी गुलाबी सा मौसम यहाँ
चमन को गुलों से सजाया गया
मिली काफिरों को मुआफ़ी मगर
कहर बेकसूरों पे ढाया गया
गज़ल2
सर आँखों पे पहले बिठाया गया
तो काजल सा फिर मैं बहाया गया
मिली काफिरों को मुआफ़ी मगर
कहर बे कसूरों पे ढाया गया
उड़ानों पे पहरे लगाए मेरी
मुझे अर्श से यूं गिराया गया
रादीफें खफा काफ़िए से हुईं
ग़ज़ल को मगर यूं सताया गया
वचन सात फेरों में हमने लिए
वफ़ा से वो रिश्ता निभाया गया
जिसे ज़िंदगी भर न कपड़ा मिला
मरा जब कफ़न से सजाया गया
शरर नफरतों का गिरा कर कोई
यहाँ हिन्दू मुस्लिम लड़ाया गया

03 July, 2017


 गज़ल

न समझे फलसफा इस ज़िन्दगी का
कभी तू ज़िन्दगी मुझ से मिली क्या?

गरीबी में मशक्कत और अजीयत
खुदा तकदीर तूने ही लिखी क्या।

न समझी फलसफा तेरा अभी तक
कभी तू जिंदगी मुझ से मिली क्या?

थपेडे वक्त के खाकर खडी हूँ
गिरी फिर सम्भली लेकिन डरी क्या?

जमाने हो गये हैं मुस्कुराये
कहीं पर मोल मिलती है हंसी क्या?

हकीकत कागज़ी जनता न चाहे
जमीनी तौर पर राहत हुयी क्या?


30 June, 2017

गज़ल



#अंतरराष्ट्रीय_हिन्दी_ब्लॉग_दिवस की आप सब को बधाई 1दूसरी पारी पहले की पारी से भी ऊंचाई पर जाये इसी कामना के साथ सब को शुभकामनाएं1

एक गज़ल 


ख्वाहिशें मैं कैसे रक्खूँ ज़िन्दगी के सामने"
हसरतें दम तोड़ती हैं मुफलिसी के सामने

ये तिरी शान ए करम है ऐ मिरे परवरदिगार"
अब भी हूँ साबित क़दम मुश्किल घड़ी के सामने।

ज़िंदगी की मस्तियों में भूल बैठा बंदगी"
आह क्या मुँह ले के जाऊँ अब नबी के सामने।

तीलियाँ लेकर खड़े हैं लोग घर के द्वार पर
बस उठे दिल से न धूंआँ अजनबी के सामने

चींटियों से सीख ले मंजिल मिली कैसे उन्हें
अड़चनों दम तोडें क्यों रस्साकशी  के सामने

उम्र  लंबी  हो  नहीं  ख्वाहिश  मेरी ऐसी रही

 पर खुशी इक पल भी अच्छी इक सदी के सामने

राहमतों की आस किस से कर रहा बन्दे यहां
आदमी  कीड़ा     मकोड़ा   है धनी के सामने

ताब अश्कों की नदी की सह न पायेगा कभी
इक समंदर कम पडेगा इस  नदी के सामने

प्यार  में क्या हारना और क्या है निर्मल जीतना"
बस मुहब्बत हो न शर्मिंदा किसी' के सामने।

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