टिप्पणी व्यथा{ क्या व्यर्थ जा रहे हैं तारीफ मे लिखे कमेंन्ट}
इस से पहली पोस्ट मे मैने ज़ाकिर अली रजनीश जी का टिप्पणियों के बारे मे आलेख पोस्ट किया था और सब के कमेन्ट पढ कर iइस नतीजे पर पहुँची कि एक तो सब ने एक स्वर मे कहा कि टिप्पणियाँ तो होनी चाहिये ।इससे लेखन क्षमता बढती है और उत्साह मिलता है। कुछ ने कहा कि अलोचना भी होनी चाहिये--- गलत को गलत और सही को सही। बात सही है लेकिन क्या हम समीक्षक हैं ---क्या क्या हम मे खुद मे इतनी प्रतिभा है कि हम उसकी गलतियाँ निकाल सकें? ये काम समीक्षकों का या आलोचकों का है। दूसरा अगर बहुत लोगों के ब्लाग पर जाना है तो संक्षिप्त टिप्पणी ही का जा सकती है। अब अपना पक्ष रखना चाहती हूँ
मैने जब अपनी पहली पोस्ट लिखी थी तो उसमे कई गलतियाँ थी। आज जब वो पोस्ट पढ्ती हूँ तो खुद पर शर्म सी महसूस होती है जब्कि सभी ने प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ ही दी थी। सब से पहली टिप्पणी श्री गिरिजेश राव जी ने की थी और मेरा उत्साह वर्द्धन किया था। उसके बाद नीरज जी प्रकाश सिंह अर्श डा. अनुराग अदि कई टिप्पणियाँ आयी तो मेरी खुशी का ठिकाना नही रहा। फिर धीरे धीरे सब के ब्लाग पर जाना शुरू किया तोसब की टिप्पणियाँ प्रशंसा भरी ही होती{ लगभग} ऐसा नही है कि मै किसी की पोस्ट बिना पढे टिप्पणी देती हूँ। अगर मुझे कुछ लगे तो बजाये ब्लाग पर टिप्पणी देने के उसे मेल कर देती हूँ ताकि वो निरुत्साहित न हो। दिव्या जी ने सही कहा कई लोग केवल अपनी भडास निकालने के लिये या खुद को सर्वश्रेष्ट दिखाने के लिये बिना बजह बहस करने लगते हैं इसका कटु अनुभव हो चुका है। लेकिन कुछ ऐसे उदार लोग भी हैं जो मेल दुआरा अपनी बात या विरोध करते हैं।
ब्लाग पढना भी मै जरूरी समझती हूँ क्यों कि इसी ब्लाग जग्त से मैने बहुत कुछ सीखा है। जब पढ ही लिया तो कमेन्ट देने मे क्या हर्ज़ है?ये भी जरूरी नही कि सब लोग टिप्पणियाँ जरूर करें।क्यों कि सब के पास इतना समय भी नही होता। लेकिन कुछ लोग खुद को वरिष्ट या श्रेष्ठ समझ कर ही टिप्पणी नही करते जब कि इनका मार्ग दर्शन नये लेखकों के लिये बहुत जरूरी व उत्साहवर्द्धक होता है। एक बात ये भी है कि कुछ लोग अच्छे साहित्यकार हैं अच्छे ब्लागर हैं जो श्रम पूर्वक साहित्य साधना मे लगे हुये हैं उनके पास समय नही होता ब्लाग पढने का} लेकिन वो अपने मार्ग दर्शन से बहुत से नये साहित्यकारों को जन्म दे रहे हैं ऐसे लोगों के आगे नतमस्तक हूँ। इसके लिये एक उदाहरण दूँगी-------
सुबीर संवाद सेवा एक ऐसा ब्लाग है जिसके स्वामी श्री पंकज सुबीर जी हैं ।वो अपना व्यवसाय , घर चलाने के अतिरिक्त एक गुरूकुल चलाते हैं जिसमे गज़लें सिखाई जाती हैं मुशायरे करवाये जाते हैं फिर फिर उन्हें अपने शिष्यों की गज़लों को दुरुस्त करना होता है। मैं हैरान हूँ कि वो अपना काम कब करते होंगे इसके अतिरिक साहित्य लेखन , काव्य मंचों मे उपस्थिती और पता नही कितने काम होते हैं। इनका समझ आता है कि वो टिप्पणी नही कर सकते ।ये सच्ची साहित्य साधना और साहित्य धर्म का का निर्वाह करते हुये सब का मार्ग दर्शन कर रहे हैं। कुछ मेरे जैसे केवल टाइम पास होते हैं जो सिर्फ अपनी सुविधा के लिये ही लिखते है। अगर मैं सब ब्लाग्ज़ पर न जाती होती तो कैसे सब से परिचय होता?
लेकिन हम जैसे लोगों को टिप्पणी जरूर करनी चाहिये मेरा तो यही मानना है। सब से परिचय होने से उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है। जब मै ब्लागजगत मे आयी थी तो मुझे कविता, गज़ल या नज़्म मे फर्क पता नही था। लेकिन सुबीर जी से गज़ल सीखी नवीन जी से परिचय हुया तो दोहे सीखे, श्री रामेश्वर कम्बोज हिमाँशू जी से परिचय हुया तो हाईकु और आजकल ताँका गीत सीख रही हूँ। । इतनी लम्बी चौडी बात का अर्थ यही निकला कि टिप्पणी जरूर करनी चाहिये । जो गलती निकालने की सामर्थ्य रखते हैं जरूर संतुलित शब्दों मे निकालें, \ कम से कम मै आलोचक या समीक्षक नही हूँ। हाँ अगर लगे तो मेल जरूर करती हूँ। समयाभाव के कारण संक्षिप्त टिप्पणी ही हो पाती है। समीर लाल जी की तरह । वो सब को कमेन्ट देते हैं उत्साह वर्द्धन करते हैं तो अच्छा लगता है। वैसे भी बुढापे मे , बेटिओं के चले जाने से व्यस्त रहने का ये जरिया है समय बिताने के लिये। । कमेन्ट करती हूँ धर्म राजनिती बहस से दूर रहती हूँ हाँ कई बार रोचक बहस हो तो हिस्सा भी बन जाती हूँ। मुझे मेल दुआरा प्रप्त पोस्ट पर टिप्पणी करने से गुरेज होता है जिन को सबस्क्राईब किया है उन्ही मेल वाली पोस्ट पर जाती हूँ या एक दो बार किसी की मेल मिले तो देख लेती हूँ लेकिन हर बार वो मेल करके ही कमेन्ट लें ये अच्छा नही लगता। मेल करने का ये तरीका कमेन्ट के लिये मुझे इसलिये अच्छा नही लगता कि कितना समय तो मेल बाक्स क्लीयर करने मे लग जाता है। ब्लाग का काम ब्लाग पर ही होना चाहिये। बेशक टिप्पणी लेन देन ही हो लेकिन ये दुनिया के किस रिश्ते या व्यवसाय मे नही होता? हम किसी के घर 4 बार जाते हैं लेकिन वो एक बार भी न आये तो कब तक आप जाते रहेंगी?टिप्पणी की परंपरा जीवित रहेगी तभी हम सब को समझ और पढ पायेंगे ।
डा, नलिन चक्रधर महोपाध्याय[ लखनऊ, उन्होंने मुझे कहानियाँ लिखने के लिये उत्साहित किया था। पत्रिका मे मेरा पता देख कर मुझे पत्र लिखा जब कि मै उन्हें जानती नही थी। जब मैने उन्हें धन्यवाद दिया [पत्र मे] तो उनका जवाब आया कि मै अपनी साहित्य धर्मिता का निर्वाह कर रहा हूँ। । उनकी वो बात आज भी मेरे जहन मे है\ इस लिये
टिप्पणी कीजिये लेकिन उत्साहवर्द्ध, अगर गलती निकालनी है तो बेहतर है मेल करें, नही तो विनम्र शब्दों मे गलत को गलत कहें और सही को सही।मेरा मानना है कि तारीफ मे लिखे कमेन्ट कभी व्यर्थ नही जाते बल्कि उत्साहित करते हैं और उत्साह ही आगे बढने के लिये प्रेरित करता है।जब आप खुद टिप्पणी का मोह रखते हैं तो फिर खुद टिप्पणी करने से परहेज क्यों? दूसरे भी आपसे यहीआअपेक्षा करें तो गलत क्या है?
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