01 August, 2009

ये गज़ल स,बलबीर सैनी जी की है जो उन्हों नेनंगल मे पिछेले दिनोंहुये साहित्यक प्रोग्राम मे सुनाई ये गज़ल पंजाबी मे है मगर हिन्दी प्रेमियों के लिये उसका अनुवाद साथ मे दे रही हूँ जो कि गज़ल के रूप मे नहीं हैइस गज़ल को भी हिन्दी मे टाईप करने से शायद इस मे मात्राओं का संयोजन सही ना हो पाये मगर पंजाबी मे ये एक मुकम्मल गज़ल है।

मैथों हसिया नहीं जाणा, मैथों रोया वी नहीं जाणा
हँजू पलकाँ ते आया ताँ लकोईया वी नहीं जाणा
अर्थात
{मुझ से हंसा भी नहीं जायेगा, मुझ से रोया भी नहीं जायेगा
आँसू पलकों पे आया तो छुपाया भे नहीं जायेगा}

जद किते रसते च ओहदे नाल हो गया जे सामणा
ओहनू मिल वी नहीं होणा ,पासे होईया वी नहीं जाणा
अर्थात
{ागर कही कभी रास्ते मे उससे सामना हो गया
उस से मिला भी नहीं जायेगा,परे हुया भी नहीं जायेगा}

साडी गली विच ,साडे घर मुहरे,मिल पिया जे ओह्
आजा कह वी नहीं होणा,बूहा ढोया वी नहीं जाणा
अर्थात
{ अगर हमारी गली मे मेरे घर के आगे वो मिल भी गया
आजा कहा भी नहीं जायेगा दरवाज़ा बन्द किया भी नहीं जायेगा}

ओहदा चन्दरा विछोडा,जिवें जढाँ वाला फोडा
ओहने जीण नहीं देणा, साथों मरिया वी नहीं जाणा
अर्थात
{उसका वियोग दुखदायी है जैसे जद वाला फोडा
उसने जीने भी नहीं देना और हम से मरा भी नहीं जायेगा}

ओहदे दीद वाला लोभ ते साडी लगणी नहीं अख
ओहतों आ वी नहीं होणा साथों जाया वी नहीं जाणा
अर्थात
{उसके दिदार के लोभ मे हमे नीन्द नहीं आयेगी
उससे आया नहीं जायेगा और हमसे जाया नहीं जायेगा}

खुशी आण दी तों वीवध झट जाण वाला दुख्
हौके भरने बरूहाँ म तेल चोया वी नहीं जाणा
अर्थात
{ने की खुशी से उसके जाने का गम अधिक होगा
दहलीज आहें भरेगी तेल चोया भी नहीं जायेगा}

31 July, 2009

कवि राज्विन्दर से रुबरू
पंजाबी लिखारी सभा नंगल, पंजाबी रंग मंच नंगल एवं अक्षर चेतना मंच नया नंगल दुआरा संयुक्त रूप से एक भव्य साहित्यक समारोह का आयोजन नया नंगल केआनंद भवन क्लब के सभागार मे 29 जुलाई की शाम को किया गया।इसका प्रयोजन जर्मनी से पधारे वहाँ के राज कवि {पोईट लोरियल} श्री राजविन्दर का सम्मान् एवं रुबरू था।समारोह का शुभारम्भ मुख्य अतिथी स. लखबीर सिह जी{S.D.M.}एवं स.हरनीत सिंह हुन्दल{D.S.P} स.निरलेप सिंह {मुख्य अभियंता } N.F.L.nangal unit श्री राकेश नैयर प्रमुख व्यवसायी, स़ हरफूल सिंह नामवर कवि.श्री ग्यान चंद {तहसीलदार} दुआरा शमा रोशन कर के किया गया।श्री संजीव कुरालिया दुआरा कार्यक्रम की संक्षिप्त रूप रेखा बताने के बाद टी. वी.कलाकार नंगल के श्री. पम्मी हंसपाल ने श्री राजविन्दर की गज़ल गा कर महौल को शायराना बना दिया। श्री.मति अरुणा वालिया ने मधुर आवाज़ मे दो गज़लें ,`राजस्थानी मांड` एवं पंजबी गीत `सौण दा महीना` और बुल्लेशाह गा कर श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध कर दिया।तदोपराँत सुनील डोगरा जी ने शिव बटालवी की रचना` `कुझ रुख मैनू` गा कर हाजिरी लगवाई।
इस संगीतमय महफिल के बाद स्थानीय कवियों दुआरा कवि दरबार सजाया गया।जिसमे श्री.देवेन्द्र शर्मा प्रधान अक्षर चेतना मंच ने राजनीति पर कटाक्ष करती नज़्म `लोक तन्त्र` श्री बलबीर सैणी ने गज़ल `मैथों हस्या नी जाणा ते रोया वी नी जाणा,हन्जू पलकाँ ते आया ते लुकोया वी नी जाणा। स, अमरजीत बेदाग ने हास्य कविता`` आई पी सी 377 ने पनाह दी ,मोहन ने सोहन से शादी बना ली`` अजय शर्मा ने ``पीडाँ दा वोगनविलिया ,श्री.मतिसविता शर्मा ने``कालख गोरे रंग दी``सुनाई । अक्षर् चेतना मंच के सचिव श्री राकेश वर्मा ने वियना की घटना के बाद पंजाब मे हुये प्रति क्रम पर केन्द्रित नज़म ``हालात सुखन साज़ करां तां किन्झ करां``सुना कर श्रोताओं को सोचने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद अशोक राही,ने चन्द शेर एवं संजीव कुरालिया ने ``मैं पंजाब बोलदां``सुना कर तालियाँ बटोरी। निर्मला कपिला जी ने गला खराब होने के कारण अपनी असमर्थता प्रकट की।
मंच सं चालक श्री गुरप्रीत गरेवाल {पत्रकार अजीत समाचार}ने कपूरथला से पधारे स.हरफूल सिंह जी को राज कवि श्री.राजविन्दर जी का परिचय करवाने के लिये आमंत्रित किया। स़ हरफूल सिंह जी ने राजविन्दर जी की संक्षिप्त जानकारी देने के साथ साथ नंगल शहर के बारे मे लिखी अपनी कविता``रोशनियाँ दे शहर् ``सुना कर नंगल से जुडी यादें ताज़ा की।
इसके बाद तीनों संस्थाओं के पदाधिकारियों दुआरा श्री राजविन्दर को दोशाला एवं समृ्ति चिन्ह भेंट कर सम्मानित किया गया।
श्री राजविन्दर जी ने आत्म कथन करते हुये बताया कि वे वार्तालाप के कवि है ।उनकी पहली पुस्तक 19 वर्ष की आयु मे छपी थी।वो अब जर्मन भाषा मे लिखते हैं।वर्लिन युनिवर्सिटी मे पढाने के बाद 1991 मे वो स्वतंत्र कवि बने।1997 मे उन्हें प्रथम बार पोइट लोरीयट का खिताब मिला। वे प्रथम अनिवासी भारतीय हैं जिन्हें इस खिताब के फलस्वरूप किंग फेड्रिक्स के महल मे ठहरने का सम्मान मिला। उनके 10 काव्य संग्रह व एक लघु कथा संग्रह जर्मन भाषा मे छप छुका है।वे 2004 मे वर्लिन के, 2006 मे वेस्ट्फेलिया,एवं 2007 मे त्रियर के पोइट् लोरीयल {राज कवि} बने।उनकी नज़्मों को स्कूल की पाठ्य् पुस्तकों मे शामिल किया गया।एवं कुछ नज़्मे पत्थरों पर उकेर कर त्रियर शहर मे लगाया गया है ।पंजाबी मे उन की एक पुस्तक मे से तरन्नुम मे अपनी चंद गज़लें गाकर सुनाई। जिनके बोल थे--
1 ऐंवें कदे जे शौक विच सागर नूँ तर गये
अज्ज रेत दे सुक्के होये दरिया तों डर गये
2 मैं झुण्ड दरख्ताँ दा बण जावाँ
तू बण के पवन मुड मुड आवीं
3 अक्स तेरा लीकणा सी अखियाँ `च अज़ल तक
गज़ल ताहियों ना पिया ऐ बेबसी विच हिरन दा
इस अवसर पर बी बी एम बी के पूर्व मुख्य अभियंता श्री के के खोसला जी चित्रकार श्री देशरंजन शर्मा,ईज.संज्य सनन.सुरजीत गग्ग .श्रीमति निर्मला कपिला.राजी खन्ना.राकेश शर्मा पिंकी.फुलवन्त मनोचा. डाक्टर पी पी सिन्ह ..डाक्टर चट्ठा ,प्रभात भट्टी,अमर पोसवाल,अमृत सैणी, अमृत पाल धीमान, कंवर पोसवाल विजय कुमार,भोला नाथ कश्यप {स्म्पादक समाज धर्म पत्रिका },अम्बिका दत्त प्रोफेसर योगेश सूद ,इँज दर्शन कुमार,इँज.राजेश वासुदेव इंज गुलशन नैयर व श्रीमति नैयर ,अदि गणमान्य लोग उपस्थित थे।200 से उपर श्रोताओं ने इस कार्यक्रम मे भाग लिया।। देर रात 11-30 बजे तक चला ये साहित्यक समारोह शहर की संस्कृ्तिक गतिविधिउओं का एक मील पत्थर साबित हुया।

30 July, 2009

एक कतरा बचपन चाहिये (कहानी )

मेरा बचपन बहुत सुखमय रहा किसी राज कुमारी कि तरह घर मे किसी चीज़ की कमी नहीं थी ।सब की लाडली थी। मगर बचपन कितनी जल्दी बीत जाता है ।जवानी मे तो इन्सन के पास फुर्सत ही नहीं होती कि अपने बारे मे कुछ सोच सके। ये सफर तो हर इन्सान के लिये कठिनाईयों से भरा रहता है।ाउर जब होश आता है तो बारबार बचपन याद आता है बचपन से जुडी यादें फिर से अपनी ओर खींचने लगती हैं--- लगता है बहुत थक गयी हूँ । क्यों ना कुछ बचपना कर लिया जाये---- क्यों ना कुछ पल फिर से जी लिया जाये ----- जब इस तरह सोचती हूं तो----- उदास हो जाती हूँ------- बात बात पर परेशान होना ---- जीवन से निराश होना ----- उससे तो अच्छा है बच्ची ही बन जाऊँ------- मगर ----- सब ने मिल कर मुझे इतनी बडी बना दिया है कि अब कभी बच्ची नहीं बन पाऊँगी----- नहीं जी पाऊँगी उन गलियों मे जहाँ कोई चिन्ता दुख नहीं था ---- नहीं मिल पाऊँगी उन सखियों सहेलियों से जो मेरी जान हुया करती थी------ नहीं बना पाऊँगी रेत के घर] नहीं खेल पाऊँगी लुकन मीटी----- नहीं तोड पाऊँगे जामुन अमरूद बेर और शह्तूत ----कैसे हो गयी बडी ----- मैने तो कभी नहीं चाहा था---- मुझे तो बच्ची सी बने रहना अच्छा लगता था---- जहाँ ना कोई रोक ना टोक------ ना बन्धन------ बस एक निश्छल प्यार---- प्रेम---- खेल--- हंसी----- मुक्त आकाश की उडान ।----- मै कभी बडी होना नहीं चाहती थी ------
अब समझ आता है कि अपने आप नहीं हुई मुझे बडा बनाया गया है। पहले मेरे पिता जी ने फिर पति ने फिर मेरे बच्चों ने ------उन लोगों ने मै जिन के दिल के बहुत करीब थी------ खुद बडा कहलाने के लिये मुझे मोहरा बनाया गया शायद----- जिम के नाम के साथ मेरा नाम जुडा था । पल पल मुझे ये एहसास करवाया गया कि अब मैं बच्ची नहीं हूँ।-- मगर शायद अंदर से वो मेरे दिल को बदल नहीं पाये अब तक भी बच्ची बनी रहने की एक छोटी सी अभिलाशा कहीं जिन्दा है।
जीवन मे हर आदमी के सामने चुनौतियाँ तो आती ही रहती हैं मगर हर कोई उनका सामना अपने ही बलबूते पर करे ये हर किसी के लिये शायद सँभव नहीं होता।कुछ जीवन के किरदार दिल के इतने करीब होते हैं कि चाहे वो दुनिया मे ना भी हों तो भी हर पल दिल मे रहते हैं। मगर उनका नाम लेते इस लिये डरती हूँ कि कहीं नाम लेते ही वो जुबान के रास्ते बाहर ना निकल जायें।
बचपन से एक आदत सी पड गयी थी कि कोई ना कोई मेरे सवाल के जवाब के लिये मौज़ूद रहता। और मै बडी होने तक भी बच्ची ही बनी रही। उसके बाद जीवन शुरू हुया तो अचानक मुसीबतों ने घेर लिया। मगर तब भी मेरी हर मुसीबत मे जो मेरे प्रेरणा स्त्रोत और मुझे चुनौतियों से जूझना सिखाया वो मेरे पिता जी थे।जब तक जिन्दा रहे मैं कभी जीवन से घबराई नहीं। बाकी सब रिश्ते तो आपेक्षाओं से ही जुडे होते हैं।और फिर उन रिश्तों से मिली परेशानियों का समाधान तो कोई और ही कर सकता है।
मैं जब भी परेशान होती या किसी मुसीबत मे होती तो झट से उनके पास चली जाती। और जाते ही उनके कन्धे पर अपना सिर रख देती । उन्हों ने कभी मुझ से ये नहीं पूछा था कि मेरी लाडाली बेटी किस बात से परेशान है। शायद मेरा आँसू जब उनके कन्धे पर गिरता तो वो उसकी जलन से मेरे दुख का अंदाज़ लगा लेते---- हकीम थे ---मर्ज ढूँढना उन्हें अच्छी तरह आता था। बस वो मेरे सिर पर हाथ फेरते अगर उन्हें लगता कि समस्या बडी है तो मेरे सिर को उठा कर ध्यान से मेरा चेहरा देखते और मुस्करा देते तो ~--- तो आज मेरी मेरी बेटी फिर से छोटी सी बच्ची बन गयी है\------- अच्छा तो चलो अब बडी बन जाओ------ ।और फिर कोई ना कोई बोध कथा या जीवन दर्शन से कुछ बातें बताने लगते । और इतना ही कहते कि मैं तुम्हें कमज़ोर नहीं देखना चाहता । तुम्हें पता है कि तुम्हारे दोनो भाईयों की मौत के बाद तुम ही मेरा बेटा हो और तुम्हें देख कर ही मै जी रहा हूँ । क्या मेरा सहारा नहीं बनोगी\-- और मै झट से बडी हो जाती \ मुझे लगता कि क्या इस इन्सान के दुख से भी बडा है मेरा दुख \ जीवन मे दुख सुख तो आते ही रहते हैं फिर वो मुझे याद दिलाते कि अपना सब से बडा दुख याद करो जब वो नहीं रहा तो ये भी नहीं रहेगा ! और उनकी बात गाँठ बान्ध लेती । सच मे जब कोई परेशानी आती है तो हमे वही बडी लगती है जैसे जीवन इसके बाद रुक जायेगा । आज लगता है कि उन्होंने ही मुझे बडा बना दिया। मै तो बचपन मे ही रहना चाहती थी।
उनकी मौत के बाद भी उन्हीं के सूत्र गाँठ बान्ध कर चलती रही हूँ । वो बडी बना गये थे सो बडी बनी रही मगर अब भी कहीं एक इच्छा जरूर थी कि कभी एक बार बच्ची जरूर बनुंम्गी जिमेदारियों से मुक्त हो कर अपना बचपन एक बार वापिस लाऊँगी शरीर से क्या होता है-----बूढा है तो--- रहे दिल मे तो बचपन बचा के रखा है ना------ इस उम्र मे श्रीर से यूँ भी मोह नहीं रहता बस आत्मा से दिल से जीने की तमन्ना रहती है।
पिता के बाद पति --- फिर तो दिल जिस्म दिमाग कुछ भी मेरा नहीं रहा------ सब पर उनका ही हक था ---- क्यों कि वो भी मेरे दिल के करीब थे इस लिये उन्हों ने भी सदा यही एहसास करवाया कि तुम अब बच्ची नहीं हो उनकी मर्यादा अनुसार----- उनकी जरूरत मुताबिक बडी बनो---और तब तो पिता की तरह कोई सिर पर हाथ फेरने वाला भी नहीं होता। उनके बाद बच्चे बच्चों के लिये तो तब तक बडे बने रहना पडता है जब तक वो जवान नहीं हो जाते----- उनके जवान होते ही वो अपने अपने जीवन मे व्यस्त हो गये ----- अब जब भी अकेली होती तो बचपन फिर याद आता मन होता बचपन मे लौट जाऊँ------ बिलकुल अब बच्चों की तरह व्यव्हार करने लग जाती------- फिर कभी परेशान होती तो पिता की जगह बेटे का कन्धा तलाश करने लगती------।कुछ दिन से पता नहीं क्यों मन परेशान सा रहता था । अपने किसी बच्चे से कहा तो उसने जवाब दिया कि----- माँ तुम्हें क्या हो गया है क्यों बच्चों जैसी बातें करने लगी हो\ वो भी सही था अब बच्चे तो माँ को सदा महान या बडी ही देखना चाहते हैं न। वो कैसे समझ सकते हैं कि इस उम्र मे अक्सर बूढे बच्चे बन जाते हैं। शायद बच्चों मे रह कर---- और उस दिन मुझे लगा कि आज सच मुच मेरे पिता जी चले गये हैं।सदा के लिये बडी बना कर् । क्या बच्चे अपने माँ बाप को थोडा सा बचपन भी उधार नहीं दे सकते\ आज मन फिर से बचपन मे लौट जाने को है ---- मगर जा नहीं सकती पहले पिता जी ने नहीं जाने दिया अब बच्चे भी मेरे पिता का किरदार निभा रहे हैं । काश कि जीवन के कुछ क्षण उस बचपन के लिये मिल जायें ------ तो शायद जीवन संध्या शाँति से निकल जाये। बस कुछ दिन बचपन के उधार चाहिये------ मैं बडी नहीं बनी रहना चाहती अब --- शायद इसका जवाब भी पिता जी के पास था मगर अब वो लौट कर नहीं आयेंगे ------- तब उनके पास जाने की जल्दी लग जाती है । क्यों कि अब मुझे फिर से बचपन चाहिये--------

29 July, 2009

माँ की पहचान ---गतान्क से आगे ---कहानी

``देखिये जिस लडके की शिनाख्त के लिये आपको बुलाया है पता नेहीं कि वो आपका बेटा है या नहीं मगर हमारी जानकारी के अनुसार ये आपका बेटा ही लगता है।इसे किसी आतंकवादी घटना के जुर्म मे पकडा गया है ।अजकलातंकवादी और नशों के सौदागरऐसे भोले भाले लडकों को अपने जाल मे फंसा लेते हैं। एक मुठ्भेड मे उसे गोली लगी है।
``नहीं नहीं ---अपको कोई गलत फैहमी हुई है---मेरा बेटा ऐसा हो ही नहीं सकता। वो बहुत भोला है।``
``आज कल इन संगठ्नों का निशाना ये भोले भाले बच्चे ही हैं।यह सब काम इतने गुपचुप तरीके से होता है किकिसी को कानो कान खबर भी नहीं होती।अपका बेटा भी आर्थिक तंगी का शिकार था पकले नशे मे लगाया फिर संगठन के लिये उससे काम लेने लगे।अज भी एक वारदात को अंजाम देते हुये पोलिस की गोली लगी है।अप जाईये उसे पहचान लीजिये।``
ये मेरे साथ क्या हो गया?क्या माँ इतनी गयी गुजरी चीज़ हो गयी कि उसने एक बार भी उसके बारे मे नहीं सोचा माँ के दिये संस्कार भूल कर वोकिसी बेगाने के पीछे लग गया! मैं उसकी खातिर इतना संघर्ष करती रही वो क्या खुद के लिये भी जरा सा संघर्षना कर सका?
जो ढंग से अपने जीवन को ना संवार सकावो आतंकवादी बन कर किसी कौम,या महजब के लिये क्या कर सकता है? मन क्षोभ और दुख से भर गया।ान्दर से घृणा का एक लावा स उठा। तभी खून से लथपथ उसका शरीर आँखों के सामने घूम गया।खून ने खून को आवाज़ दी,उसे देखने को बेताब हो उठी एक पल के लिये घृणा का स्थान ममता ने ले लिया।ये ममता भी क्या चीज़ है?मगर कदम क्यों नहीं उठ रहे थे?-----
लडखडाते कदम,दम तोडती ममता, अपने माँ होने पर पश्चाताप करते आँसू,लोगों की भेदती नज़रों से झुकी गर्दन लिये चल पडी एक आशा लिये --शायद वो मेरा बेटा ना हो!
उसके साथ वाले बेड के पासेक औरत विलाप कर रही थी। किसी ने उसके बेटे को गोली मार दी थी। मैं धक से रह गयी--- कहीं ये मेरा बेटा हे तो नहीं था जिसने गोली मारी? मन और भी क्रोध से भर गया--।
सामने बेड पर लेटा था-- मेरा बेटा-- कलेजा मुँह को आ गया।अँखों पर सिर और टागों पर पट्टियाँ बन्धी थी। देखते ही मन छटपटा गया--- तडप उठी-- कितना खून बह गया था? चेहरा जर्द पड गया था ।अपने हाथ मे उसका हाथ पकडा---- काँपती थरथराती--- ममता कहाँ मानती है?--उसका हाथ जरा सा हिला शायद उसने मुझे पहचान लिया था--माँ थी ना! बिना देखे उसका एक सपर्श ही काफी होता है-- मगर कुछ बोल ना सका ।
अच्छा है नहीं देख सका नहीं तो उसकी याचना भरी निगाहें देख कर मैं और भी पिघल जाती---- माफ कर देती?---अगर वो आतंकवादी है तो मै भी उसकी माँ हूँ मुझे भी उसकी तरह कठोर बनना आता है---
``अच्छा हुया तेरी आँखों पर पट्टी बन्धी हैवर्ना जब तू मेरी तरफ देखता तो मैं शर्म से तुझ से नज़रें ना मिला पाती। क्यों कि मैने तुम्हें सिर्फ ममता प्यार दिया है धन दौलत ऐशो आराम ना दे पाई।``
``बेटा!जब तू इस दुनिया मे आया था तो मैने अपने ऐशो आराम और धन दौलत की बजाये तुम्हें ही अपनी दौलत और खुशी समझ लिया था। तुझी डाक्टर बनने भेजा तो तेरी माँ होने पर मैं गर्व करने लगी थी।पर आज मेरा सिर शर्म से झुक गया है क्यो?``
``तेरे नन्हें नन्हें कोमल हाथों को अपने हाथों मे ले कर ऐसे सहलाती तो अपने सारे दुख दर्द भूल जाती पर आज तेरे ये हाथ मुझे काटों की तरह जलन दे रहे हैं। मेरी टीस बढ गयी है।``
``और जब् तुमने आँखें खोल कर मुझे देखना शुरू किया था तो वारी न्यारी हो जाती---इनमे सपनों के रंग भरने लग जाती कि तू एक बडा आदमी बनेगा।राज करेगा दुनिया पर--ाउर तू बन्दूक के बल पर दुनिया पर राज करने चला है--- लानत है तेरे इस राज पर।
``जानता है तू पहला शब्द क्या बोला था?,'माँ``। मैं सुन कर धन्य हो गयी थी। तेरे तुतले स्वरों से ताल बनाती सुर सजाती और उन्हीं सुरों की सरगम पर लोरियाँ सुनाती।--ापनी बाहों के झूले झुला कर तुम्हें सुलाती-- तेरी ऊआँ ऊआँ सुनने के लिये अकेली ही तुझ से बतियाती रहती।तेरे स्वर मेरे कानों मे शह्द घोल देते। मुझ पर सू सू करते छी छी करते मैं हँस कर लँगोती पहनाती रहती तेरा गँद प्रसाद समझ कर कबूल करती ।तुम्हें सुन्दर कपडे पहनाती और तुम्हारी छोटी 2 शरारतों पर बलिहारी जाती भरी जवानी मे विधवा होने का गम तेरी हंसी मे भूल जाती
``तेरा एक एक पल खुद जी कर तुझीतना बडा किया।तू चाहे सो भी रहा होता मेरे कदमों की आहट से पहचान लेता आज तू इतना निष्ठुर हो गया कि माँ को ही भूल गया? क्यों पहचानेगा तू मुझे! अब तो तू आतँकवादी है एक बेटा नहीं--- कठोर,भावना रहित,जिसकी कोई माँ नहीं होती--कोई रिश्तेदार नहीं होता,बेत! जो दिल्दुख दर्द से ना पिघले,जो रिश्तों की पहचान भूल जाये,उसका धडकना किस काम का?
``तुम जानते हो कितुम्हें जरा सी तकलीफ होती,मैं तडप उठती।याद है एक दिन्तुम्हारी उँगकी मे चाकू लग गया था। मैने जल्दी से पट्टी बान्धी और रो पडी थी ।क्या तब भी तुम्हें समझ नहीं आयी कि मा को खून बहना बहाना अच्छा नहीं लगता!मैने तुम्हें केवल प्यार करना ही सिखाया था--पए उन जालिमों दुआरा सिखाई गयी नफरत क्या माँ के प्यार से बडी हो गयी?़``
``तू छोटे होते मेरी आँखों मे आँसू नहीं देख सकता था।अज कितनी माँओंकी कोख सूनी कर तू चुपचाप पडा है! माँ तो माँ ही होती है,तेरी हो या किसी और की--किसी भी देश जाती और मजह्ब की हो माँ --माँ ही होती है। माँ की पहचान प्यार और ममता है ।प्यार बिना मजहब देश जाति या धर्म कैसा?``
``जो बेटा माँ की कोख की रक्षा नहीं कर सकता वो किसी देश जाति या मजह्ब की क्या रक्षा कर सकता है?नफरतों के सौदागार तो सब के दुश्मन होते हैं।``बेटा जब से तुम ने मुझे पहचानना शुरू किया था मै अपनी पहचान भूल गयी थी।जीवन के हर लम्हें पर तेरा ही नाम लिख लिया था।मगर आज मैं तुम्हें अपने जीवन से अलग करती हूँअज तू मेरा बेटा नहीं है मै फिर से अपनी पहचान पा गयी हूँ।``
``जानते हो मेरी पहचान क्या है?मेरा कर्म क्या है़?````मेरी पहचान है
'माँ' 'वात्सल्य की देवी'। मेरा कर्म है 'सृ्ष्टी- सृजन' । जीवन देना मेरी 'पहचान' है फिर मैं जीवन लेने वाले को कैसे बेटा मान सकती हूँ-- कैसे अपना सकती हूँ?
तू मुझे चुनौती देने चला है़?तू एक माँ के सृजन का संहार करने चला है? ऐसे बेटे को जन्म देने वाली माँ के मुँह पर संसार थूकेगा।मुझे देख कर कोई भी माँ बेटे को जन्म देते हुये डर से काँप जायेगी।````जा भगवान के पास अपने गुनाहों की सजा पाने।``
``मैं एक मा--सृ्ष्टि की सृजन कर्ता किसी हत्यारे को माफ नहीं कर सकती। मेरे आँ सू भी अब तेरे लिये नहीं बल्कि उन निर्दोश लोगों के लिये हैं जोतेरी बन्दूक से मारे गये।--- कह कर मैने आँखें पोँछी और बाहर आ गयी।
``एस पी साहिब ! वो मेरा बेटा नहीं है।! बाहर आ कर मैने कहा और दृ्ढ कदमों से अस्पताल से बाहर निकल गयी।-----
समाप्त

28 July, 2009

माँ की पहचान ---- गताँक से आगे ---कहानी

``माँ मै जिले भर मे फर्स्ट आया हूँ।``कहते हुये मेरे गले लग गया था।खुशी के मारे आँखें छलछला आईं थी।
``ये क्या माँ! खुशी मे भी रो रही हो? मुझे मालूम है तुम्हें अब ये दुख है कि मैं तुम से दूर चला जाऊँग। तो ठीक है मै पढने ही नहीं जाऊँगा। मेरी माँ की आँखों मे आँसू आयें मै ऐसा कोई काम नहीं करूँगा।``
```न--न-- बेटा ऐसा मत बोल । तुम्हारा जीवन संवारने के लिये मैं कुछ भी करूँगी।``
और वही बेटा आज मुझे छोड कर कैसे जा सकता है। जरूर उसके साथ कोई अनहोनी हो गयी होगी।
उसे एम -ब- बी- एस् मे दाखिला मिला तो मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा था।मै ही नहीं सारा मोहल्ला खुश था।इस गरीब आबादी मे कोई डाक्टर तो क्या दसवीं बाहरवीँ से आगे कोई पढ ही नही पाया था।मोहल्ले मे जो मुझे मेरे नाम से जानते थे वो मुझे अब नीरज की माँ से जानने लग गये थे।
मेरा बेटा मेरी पहचान बन गया था।
जब से वो लापता हुया है मोहल्ले मे सन्नाटा सा पसरा रहता है। हर कोई खौफ ज़दा है कि कहीं कोई हादसा ना हो गया हो उसके साथ। उसके ख्यालों मे गुम पता नहीं कब नीद आ गयी। रोज़ का यही तो नियम था चारपाई पर पडे रहना और उसे याद करना।
हफ्ता हो गया था एस पी से मिले। आज सोच ही रही थी कि एक बार फिर मिल आऊँ , बेटे के लिये तडप अब सहन नहीं होती थी।। तभी बाहर घन्टी की आवाज़ सुन कर उठी ,दरवाज़ा खोला ----
``नमस्ते बहिन जी! मैं पोलिस स्टेशन से आया हूँ एस -पी साहिब ने आपको बुलाया है। आपके गुमशुदा बेटे की शिनाख्त करने के लिये।``
``क्या हुया उसे?`` मेरे तो जैसे प्राण ही निकल गये थे।
``घबराईये नहीं कुछ चोटें आयी हैं ,अप सरकारी अस्पताल पहुँच जाईये।`` कह कर वो चला गया।
मैं मा को घर मे ही ठहरने को कह कर अस्पताल के लिये चल पडी।ास्पताल ढेड दो कि मी था।अटो से निकल कर गेट के अँदर पहुँची तो सामने एस पी साहिब ,जाँच अधिकारी और कुछ सिपाही खडे देख मैं उनकी तरफ बढ गयी--
``कहाँ है मेरा बेटा ?क्या हुया है उसे?`` मै बेटे को देखने के लिये बैचैन थी।
``बहिन जी धीरज रखिये। अभी अपको कुछ देर इन्तज़ार करना पडेगा। डाक्टर उसे चैक कर रहे हैं।`` कहते हुये उन्हों ने अस्पताल के ग्राऊँड की ओरिशारा करते हुये मुझे वहां आने को कहा। मन अग्यात भय से काँप उठा मगर उनके पीछे पीछे चल पडी।
``सर मुझे ये बताईये कि कहाँ से मिला मेरा बेटा ? आखिर बात क्या है? मेरी बेचैनी बढ रही थी मैने बेसब्री से पूछा।
``घबराईये नही मुझे मुझे कुछ बातों का जवाब दीजिये । क्या आपका बेटा कोई नशा भी करता था?इससे पहले भी वो घर से गायब हो जाता थ?`` एस पी ने बडी गौर से मेरी तरफ देखते हुये पूछा।
``नहीं मैने उसे कभी नशे मे नहीं देखावो हास्टल मे रहता था।वहाँ से कहीं आता जाता हो ये मुझे पता नहीं मगर उसकी ऐसी शिकायत कभी नहीं मिली।``
``क्या हास्टल जाने के बाद आपने उसमे कोई बदलाव देखा?``
मैं सोच मे पड गयी। ओह मै इतनी ना समझ कैसे हो गयी? मैने इस बात को क्यों गम्भीरता से नहीं लिया कि एक ढेड वर्श से उसमे काफी बदलाव आने लगा था। मै इसे उम्र के साथ और पढाई के बोझ के कारण स्वाभाविक समझने लगी थी।
``साहिब नीरज बचपन भावुक शरारती लडका था मगर बहुत भोला भी था।कालेज जाने के बाद लगभग वो एक साल ऐसा ही रहा। हर हफ्ते घर आता। सब से मिलता जुलता। उसे खाने का बहुत शौक था।छुट्टियों मेउसकी खाने की फरमाईश पूरी करते करते मैं थक जाया करती थी। धीरे धीरे उसका घर आना कम होता गया। आता भी तो कमरे मे घुसा रहता था। अब कोई शरारत भी नहीं करता था। या तो सोता रहता या फिर किताब ले कर बैठ जाता था। खामोश सा रहता मैं पूछती तो झुँझला ऊठता---- एक दिन मैने फिर बडे प्यार से पूछा तो उसने बताया----
``माँ, तुम्हें पता नहीं कि पढाई कितनी मुश्किल है!पैसों की तंगी के चलते मै पूरी किताबें भी नहीं खरीद सकता अच्छा खा पहन नहीं सकता,यहाँ तक कि कालेज और अस्पताल भी पैदल ही जाना पडता है। कह कर वो उठा और दराज से कोई दवा निकाल कर खाई मैने पूछा तो बोला कि पेट दर्द है डाक्टर से ले कर आया था।
मैं उसकी बातें सुन कर चिन्तित हो गयी थी। मैने उस से कहा कि मै बैंक से कर्जा ले लूँगी तुम्हें बाईक भी ले दूँगी और बाकी खर्च के लिये भी दूँगी। मगर उस ने मना कर दिया था।उसने कहा कि मै खुद ही इन्तजाम कर लूँगा।यह छ: महीने पहले की बात है। तब से वो घर नहीं आया। जितने पैसे मै भेजती थी भेजती रही उसने बताया था कि एक दोस्त ने उसकी मदद की है। हाँ उसका कभी कभी टेलिफोन पडोसियों के घर आ जाता तब उस से बात हो जाती थी।
``देखिये जिस लडके की शिनाख्त के लिये आपको बुलाया गया है पता नहीं वो आपका बेटा है भी या नहीं।``
क्रमश:

27 July, 2009

माँ की पहचान
(कहानी )
चपरासी ने अंदर जाने की अनुमति दी।मन मे एक आशा लिये मै एस-पी साहिब के सामने जा खडी हुई।
```बैठिये।``एस पी साहिब की शाँत आवाज़ सुन कर उनके सामने पडी कुर्सी पर बैठ गयी और अपना परिचय दिया।
``सर् मैं आपके पास बडी उमीद ले कर आयी हूँ। तीन महीने हो गये हैं मेरे बेटे का कोई सुराग नहीं मिला। हर तरफ से निराश हो चुकी हूँ। अब आप पर ही आखिरी उमीद टिकी है।`` आँसू बरबस बहने लगे।
``रोईये मत मैने आपका केस अपने सब् से काबिल अफसर को सौँप दिया है। हम बहुत जलदी आपके बेटे का पता लगा लेंगे।``
सुना था कि एस पी साहिब बहुत अच्छे इन्सान हैं।अज बडी कोशिश से उन्हें मिल पाई थी। उनके आश्वासन से टाँगों को खडे होने की ताकत मिल गयी थी। आशा की एक किरण लिये घर तक पहुँची। आते ही औँधे मुँह चारपाई पर गिर गयी। माँ पानी का गिलास ले कर आयी।
``बेटी सुबह से मारी मारी फिर रही हो एसे कब तक भटकती रहोगी? अपनी सेहत का भी थोडा ध्यान रखो। कुछ खा पी लो। भगवान के घर देर है अँधेर नहीं है- हमारा नीरज जरूर लौटेगा। माँ पास बैठ कर मेरा माथा सहलाने लगी।
``माँ।`` मैं माँ से लिपट कर रो पडी। एक माँ का आँचल ही तो है जो दुनिया भर के गम समेटने की सामर्थय रखता है।
``मैं थोडा आराम करना चाहती हूँ। ठहर कर खाती हूँ । आप खा लो।`` मैं लेट गयी और माँ खाली गिलास ले कर चली गयी।
मेरी कितनी चिन्ता करता था नीरज्!उस दिन मैं सिले हुये कपडे धूप मे ग्राहक के घर देने गयी थी ---घर आ कर चार्पाई पर लेटी ही थी कि नीरज आ गया था। आते ही मेरे माथे पर हाथ रखा-
``माँ अपको तो बुखार है?``और भाग कर दवा ले आया। मेरे माथे पर ठँडी पट्टी करता रहा।
``माँ मैं अपनी पढाई छोड दूँ? मेरे कारण आपको इतना काम करना पडता है,लोगों की बातें सुननी पडती हैं। जरा सा काम खराब हो जाये तो ये पैसे वाले लोग कैसे आपकी बेईज़ती करते हैं। मुझे ये सब अच्छा नहीं लगता।``
``ना बेटा ना ऐसी बात भूल कर भी नहीं करना।ामीर के नखरे सहना गरीब की नियति है।तभी तो मैं चाहती हूँ कि तू खूब पढे-- अच्छा डाक्टर बने तो ये सब कष्ट कट जायेंगे।``
``डाक्टर बन कर भी आज नौकरी कहाँ मिलती है। स्पैशलाईजेशन करनी पडती है। पढाई का खर्च भी इतना बढ गया है तुम कैसे चला पाओगी।``उसके मन मे निराशा से थी।
``मैं सब कर लूँगी तू चिन्ता मत कर ।ाइसी निराशा भरी बातें मत किया कर।चल जा कर पढ।`` मैने उसके सि्र पर हाथा फेरते हुये कहा।
नीरज एक बरस का ही था कि सडक हादसे मे उसके पिता की मौत हो गयी थी। बेटे के सिर से बाप का साया उठ गया । ससुराल वालों के लिये अब मैं मनहूस हो गयी थी।पति प्राईवेट फैक्टरी मे मकैनिक थे। कोई पैसा धेला भी नहीं मिला था। ससुराल वलों के ताने सुनने की ताकत ना रही तो मायके आ गयी। घर मे एक माँ और पोलियो ग्रस्त भाई था। जो चल फिर नहीं सकता था। माँ एक स्कूल मे आया थी उपर से मेरा बोझ पड गया । रिश्तेदारों ने सलाह दी कि मेरी दूसरी शादी कर दी जाये। मगर मै जानती थी कि एक विधवा को कैसा पति मिल सकता है । मै अपने बेटे की ज़िन्दगी बरबाद नहीं करना चाहती थी। इस लिये शादी के लिये मना कर दिया। उसके भविश्य को ध्यान मे रखते हुये मैने किसी की नहीं सुनी। मैं सिर्फ दसवीं पास थी ऐसे मे नौकरी कहाँ मिलती? मैने सिलाई कढाई सीख ली और लोगों के कपडे सीने लगी। काम ठीक चल पडा था।
बेटा स्कूल जाने लायक हुया तो उसे एक प्राईवेट स्कूल मे दाखिल करवा दिया। बेटा मेधावी था ज़िन्दगी ढर्रे पर चलने लगी थी। वो हर जमात मे प्रथम ही आता था।इस लिये मैं भी उसके जीवन के लिये बडे बडे सपने देखने लगी थी।कैसे भी हो उसे डाक्टर बनाऊँगी। मैं उसे घर से बाहर अकेले नहीं जाने देती ताकि वो कोई बुरी आदत ना सीख ले। इस लिये वो बहुत भोला भाला था। दुनियादारी से कोसों दूर । मैने कभी सोचा ही नहीं कि कल जब वो बाहर पढने जायेगा तो अच्छे बुरे की पहचान कैसे करेगा ! उसके भोले पन के कारण उसे कोई फुसला सकता था।माँ की आवाज़ सुन कर ख्यालों से निकली।
``बेटी ! एस -पी साहिब ने क्या कहा?`` माँ काम निपटा कर मेरे पास आ कर बैठ गयी थी
कहते तो हैं कि सब से काबिल अफ्सर को नीरज का केस सौंपा है। आगे भगवान जाने ! मेरा बात करने का मन ना देख कर माँ चुप कर गयी और फिर खाना ले कर आ गयी ।
मैने खाना खाया और् फिर लेट गयी। जीवन थम सा गया था। जब से नीरज गया था मैने कपडे सिलने बन्द कर दिये थे। हिम्मत ही नहीं थी। बस उसकी यादों मे खोई रहती। पता नहीं मेरे बेटे के साथ कैसा हादसा हुया था ।वो ऐसे मुझे छोड कर जा ही नहीं सकता था। मुझे याद है जिस दिन उसका बाहरवीं का नतीजा निकला था वो सुबह सात बजे गज़ट देखने गया था और बारह बजे घर आया था।मेरे तो प्राण सूखे जा रहे थे। इतनी देर भी बेटे को आँखों से दूर देखना भारी पड रहा था --लेकिन जब वो शहर पढने जायेगा तो कैसे रह पाऊँगी? पर अब तो दिल पर पत्थर रखना ही पडेगा।
क्रमश:

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