27 June, 2011

गज़ल


गज़ल
ये गज़ल --http://subeerin.blogspot.com/{ गज़ल गुरुकुल} के मुशायरे मे शामिल की गयी थी\ गुरूकुल की छात्रा न होते हुये भी मुझे सुबीर जी जो सम्मान देते हैं और मुझे इन मुशायरों मे शामिल करते हैं उसके लिये उनकी हृदय से आभारी हूँ।उनके ब्लाग गज़ल का सफर से ही गज़लों की तकनीकी जानकारी मिली है। पहले तो बस तुकबन्दी कर लेती थी। जो साहित्य की निश्काम सेवा वो कर रहे हैं उसके लिये गज़ल के इतिहास मे ही नही बल्कि कहानी उपन्यास और कविता के इतिहास मे भी उनका नाम अग्रनी होगा।एक बार फिर से तहे दिल से उनका शुक्रिया करती हूँ। हाँ इस गज़ल के आखिरी 4  शेर अपनी  मर्जी से पोस्ट करने की हिमाकत कर रही हूँ। क्षमा चाहती हूँ।

डर सा इक  दिल मे उठाती गर्मिओं की ये दुपहरी  ====
घोर सन्नाटे मे डूबी गर्मियों की ये दुपहरी


चिलचिलाती धूप सी रिश्तों मैं भी कुछ तल्खियाँ हैं  =====
आ के  तन्हाई बढाती गर्मिओं की ये दुपहरी


हाँ वही मजदूर जो डामर बिछाता है सडक पर   ======
मुश्किलें उसकी बढाती गर्मिओं की ये दुपहरी


है बहुत मुश्किल बनाना दाल रोटी गर्मिओं मे=======
 औरतों पर ज़ुल्म ढाती गर्मिओं की ये दुपहरी


आग का तांडव  कहीँ  और हैं कहीं उठते बवंडर,   ======
यूँ लगे सब से हो रूठी गर्मिओं की ये दुपहरी


तैरना तालाब मे कैसे घडे पर पार जाना  =====
याद बचपन की दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी


रात तन्हा थी मगर कुछ ख्वाब तेरे आ गये थे
पर भला कैसे कटेगी गर्मियों की ये दुपहरी  +=====


बर्फ मे शहतूत रख,तरबूज खरबूजे खुमानी
मौसमी सौगात लाती गर्मियों की ये दुपहरी


चमचमाते रंग  लिये चमका तपाशूँ  आस्माँ पर
 धूप की माला पिरोती गर्मिओं की ये दुपहरी


दिल पे लिखती नाम  तेरा ज़िन्दगी की धूप जब 
ज़ख्म दिल के है तपाती गर्मिओं की ये दुपहरी


जब से  छत पर काग बोले आयेगा परदेश से वो
तब शज़र सी छाँव देती गर्मिओं की ये दुपहरी


याचना करती सी आँखें प्यार के लम्हें बुलाती
बिघ्न आ कर डाल जाती गर्मिओं की ये दुपहरी






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