25 July, 2009

शब्दजाल -------कहानी
------- गताँक से आगे

बैंगलोर आये हुये मुझे 4--5 दिन हो गये थे । पहुँच कर इन्हें फोन कर दिया था । कि ठीक ठाक पहुँच गयी हूँ------- उसके बाद चार पाँच दिन से कोई बात नहीं हुई।मन मे चिन्ता भी थी कि पता नहीं कैसे खाते पीते होंगे----- अकेले कैसे रहते होंगे------ सोचा आज फोन करती हूँ । फोन मिलाया--
*हेलो !* फोन उठाते ही इनकी आवाज़ आई
*हेलो ! कौन\ कृष्णा ! कैसी हो तुम । *
*मैं ठीक हूँ आप कैसे हैं----- खाना वगैहरा कैसे चल रहा है \* मन मे था कि अभी कहंगे कि तुम्हारे बिना कुछ अच्छा नहीं चल रहा।
*बहुत बढिया चल रहा है--- काम वाली है ना वो बना देती है ।*
*चलो फिर ठीक है ।*-------- सुनते ही मुझे पता नहीं एक दम क्या हुया मैने फोन ही रख दिया क्या इत्ना भी नहीं कह सकते थे कि तुम्हारे बिन अच्छा नहीं लग रहा-----दिल नहीं लग रहा---कभी दूर भी नहीं रहे थे----- फिर भी जनाब मजे मे हैं----- मन फिर उलझ गया इतने सालों बाद पहली बार घर से बाहर आयी हूँ---- इन्हें काम करने की आदत भी नहीं ह। एक् चाय का कप तो कभी बनाया नहीं फिर घर के और कितने काम होते हैं--।कैसे चलते होंगे। मुझे घर मे अपना वज़ूद ही नगण्य सा लगने लगा ।क्या मैने सारी उम्र घर को बनाते संवारते य़ूँ ही गवा। दी घर तो मेरे बिना भी बढिया चल रहा है ।क्या एक नौकरानी से काम नहीं चल सकता था । बस इस शब्द जाल मे ऐसा उलझी कि पता नहीं सोचें कहाँ कहाँ अपने को तलाश करने लगीं।
जितने दिन बैंगलौर रही मन उदास ही रहा-।सोचने लगी थी कि इन्हें शायद अब मेरी जरूरत ही नहीं है~ तो मैं क्यों घर जा रही हूँ।फिर भी बेटी के पास कब तक रहती। जाना ही था ।इन्हें फोन कर दिया था कि 9 बजे दिल्ली पहुँच कर बस लूँगी----और चार बजे तक घर पहुँच जाऊँगी
चार बजे बस से उतर कर आटो लिया और घर पहुँच गयी। मगर ये क्या ! घर मे ताला \ आज पता था कि चार बजे मैं आ रही हूँ तो भी चले गये । बस आधा घन्टा पहले पहुँच गयी थी । मन ही मन कुढते हुये पर्स मे से दूसरी चाबी निकाली क्यों की दोनो नौकरी मे थे तो दो चाबियाँ रखनी ही पडती थीं ।दरवाज़ा खोला सामान अन्दर पटक कर मै पँखे के नीचे लेट गयी । प्यास भी बहुत लगी थी मगर पानी भी नहीं पीया----बस एक ही बात मन पर हावी होने लगी कि इन्हें मेरी पर्वाह नहीं है । चंचल मन जिन्दगी भर की अच्छाईँयां भूल कर कुछ शब्दों के हेर फेर को ले कर उलझ गया था ।
पाँच मिन्ट बाद ही ये आ गये और आते ही रसोई मे घुस गये ।
यह क्या \ ना दुआ ना सलाम ---- हाल चाल भी नहीं पूछा और रसोई मे घुस गये जैसे रसोई इन के बिना उदास हो गयी हो। मेरी आँखें भर आयी ये आँसू तो हमेशा औरत की पलकों पर ही बैठे रहते हैं बस मौका देखते ही छलक आते हैं -----
*लो कृष्णा जूस पीयो ---मैने सोचा तुम इतनी गर्मी मे आओगी और बस के सफर मे तुम्हें वोमिट भी आती है मुँह का स्वाद भी खराब हो जाता है इस लिये मैं ताज़ा जूस लेने चला गया । रास्ते मे सकूटर खराब हो गया उसे मकेनिक के पास छोड कर पैदल ही भागा आया।* एक ही साँस मे कह रहे थे-----
*कैसी हो तुम्\*
आँखों मे आये आँसू बह गये---- मैं ठीक हूँ आप कैसे हैं। गुस्सा कुछ ठँडा हुया और मैने जूस का गिलास ले कर पी लिया ।
*आप तो पीछे से मज़े मे थे ना ! * दिल की बात ज़ुबान पर आ ही गयी------ ।
*अरे क्या खाक ठीक था\ तुम्हारे बिना घर घर ही नहीं लगता था-। इतने दिन ना ढंग से खाया ना पीय़ा । इस घर की खुशियाँ तो तुमसे ही हैं।*
ये क्या\ क्या उस दिन फोन पर ये सब नहीं कह सकते थे । बस इनकी यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती थी--।शब्दों का मायाजाल देखिये इतने दिनों का गुस्सा परेशानी सब एक मिन्ट मे गायब----- अब अपने पर गुस्सा आने लगा---क्या मैं नहीं जानती थी कि ये मुझे कहें या ना कहें मगर मुझ से प्यार करते हैं। फिर क्यों पड जाती हूँ इस चक्कर मे। और इन्हें तो शब्दों का ये हेरफेर बिलकुल भी नहीं आता---मगर मेरे दिल की बात बिना कहे समझ लेते हैं---- और अब मैं क्या चाहती हूँ ये जान गये थे-----आपेक्षित शब्दों की फुहार तन मन भिगो गयी थी । वाह री पत्नि !
---------समाप्त्

24 July, 2009

शब्दजाल (कहानी )

पति का व्यक्तित्व कितना ही सश्क्त हो़- वो कितना ही कर्तव्य़ निष्ठ हो- मगर पत्नि सुलभ मन फिर भी कुछ लुभावने- आपेक्षित शब्दों का मेहताज़ रहता है।और फिर सम्बन्धों को मजबूत बनाने के लिये ये शब्द सेतु का काम करते हैं-जिन्हें गुनगुनते हुये- दिन भर याद करते- हुये पत्नि एक नई उंमँग से भरी रहती है। आज मेरा मन भी इसी शब्दजाल के मोह मे उलझ गया था----। दस दिन हो गये थे बैंगलोर आये हुये--- आई तो घूमने फिरने और बच्चों से मिलने थी मगर मन पीछे घर मे था -उपर से कुछ अन्दर ही अन्दर मन को सताये जा रहा था ।---
कई दिन से मन उदास सा था ।बेटी का फोन आया था---हम दोनो को बैंगलोर आने के लिये कह रही थी । तभी ये आ गये और मैने जवाब देने की बजाये फोन इन्हें पकडा दिया और आप बाहर चली गयी । बच्चों के इस आग्रह को ठुकराना मेरे बस मे नहीं था-- फिर मैं बच्चों के पास जाना भी चाहती थी पर इनसे कहने की हिम्मत नहीं होती। मुझे पता था कि इन्हें घूमने फिरने का शौक नहीं था और घर को इतने दिन सूना छोड कर जायेंगे भी नहीं।
पता नहीं बच्चों से क्या बात हुई- पूछना मेरी आदत् नहीं थी और बताना इनकी फितरत नहीं थी।मैं जानती थी कि आदमी सोच समझ कर उपयुक्त समय पर बात करते हैं और औरत एक दम कहने सुनने को उतावली हो जाती है।ये कहने सुनने के समय का शून्य भी तो शब्दों का मोहताज ही तो होता है---। पत्नि यूँ भी पति से प्यार -सहानुभूति और प्रशंसा के दो शब्द सुनने के लिये लालायित रहती है। दिन भर के गिले शिकवे उन दो शब्दों की फुहार मे घुल कर बह जाते हैं।
इनसे कभी कुछ पूछो या राय माँगो तो कभी भी उसी समय जवाब नहीं देते---कुछ घन्टों य दिनो बाद इनका जवाब मिलता है तब तक उस बात का क्या औचित्य रह जाता है----++!
रात का खाना खाने के बाद मैने काम निपटाया । ये अखबार ले कर बैठ गये और मैं किताब ले कर -- दोनो मौन थे ------।
**कृ्ष्णा ! आज कल तुम भी कुछ उदास रहती हो। बच्चे आने के लिये कह रहे हैं तो कुछ दिन के लिये हो आओ़**----।
*क्या अकेले ही \**---मन मे एक सँतोष सा हुया कि इन्हें पता है कि आजकल मैं उदास रहती हूँ----।
**हाँ आज कल मुझे छुट्टी मिलना मुश्किल है फिर घर भी सूना रहेगा। तुम हो आओ** ।
**आपका खाना-घर का काम ये सब कैसे चलेगा \ मैने इनकी तरफ देखा** ।
**तुम चिन्ता मत करो काम वाली से बनवा लिया करूँगा** ।
मैने भी सोचा कि चलो ठीक है---इनकी मर्जी । इन्हें भी पता चलेगा कि मेरे बिना घर कैसे चलता है ।जनाब को चार दिन मे नानी याद आ जायेगी---- पता नहीं बच्चों से मिलने को उतावली थी या इन्हें ये दिखाने को कि मेरे बिना घर नहीं चल सकता ---क़ि मैने हाँ कर दी---
अगले दिन ये चंडीगढ चले गये कि कुछ काम है मैने पूछा नहीं कि क्या काम है और इन्होने बताया नहीं । रात को वापिस आये तो मेरे हाथ मे एक कागज़ पकडाते हुये बोले * कि ये तुम्हारा टिकेट है---- लो तुम्हारे जाने का प्रबन्ध हो गया है(* ।
**ये क्या ये तो एयर्वेज़ का टिकेट हैं**\--मैने टिकेट को देख कर हैरानी से कहा **मैने ट्रेन से ही चले जाना था इसकी क्या जरूरत थी**\मैने इनकी तरफ देखा ।
**नहीं तीन दिन का सफर म्रे मुझे यहाँ चिन्ता रहती कि तुम ठीक ठाक पहुँच गयी हो कि नहीं** ।-
फिर वही शब्द जाल ------मन फिर इनमे फंस गया ----तो अपनी चिन्ता मिटाने के लिये हवाई यात्रा का टिकेट ले कर आये हैं\---क्या इतना नहीं कह सकते थे कि आने जाने मे इस तरह छ दिन बच जाते और तुम जल्दी आ जाओगी---- तुम्हारे बिना इतने दिन कैसे रहूँगा----। जानती भी थी कि इन्हें बातें बनानी नही आती--- ना भी रह सकेंगे तो भी कहेंगे नहीं---बस यही बात मुझे चुभती---पत्नि मन इन शब्दों के बिना रीता स रह जाता है।इसी शब्दजाल मे कई बार अच्छे पल भी अच्छे नहीं लगते ।
बैंगलोर आये हुये मुझे 4--5 दिन हो गये थे । पहुँच कर इन्हें फोन कर दिया था । कि ठीक ठाक पहुँच गयी हूँ-----क्रमश

23 July, 2009

आज कुछ् टाईप नहीं कर पाई इस लिये एक कविता जो तहलका काँड पर लिखी थी आपके सामने रख रही हूँ पता नहीं इस काँड का क्या बना मगर इसके बाद तो काँड ही काँड दिखे कोई इस चक्रव्यूह के तोड पाया कि नहीं ये आप सब के सामने है

चक्रव्यूह (कविता )

मेरे देश का प्रजातन्त्र्
कब से
तिल तिल कर मर रहा है
भ्रश्टाचार की आग मे
जल रहा है
देश के शासक
इसकी धक्कियाँ उडा रहे हैं
भूखे भेडियों की तरह खा रहे हैं
और आज जब
एक और अभिमन्यू ने
इन दुर्योधनों के चक्रव्यूह मे
सेँध लगायी
प्रजातँत्र् क बलात्कारी साँसदों की
काली करतूत टी वी पर दिखाई
देश की प्रजा ने
शर्म से सिर झुकाया
प्रजातँत्र भी ना सह पाया
लडखडाते हुये कराहा और बोला
अरे! है कोई अर्जुन् तो आये
मुझे इन दुर्योधनों के
चंगुल से बचाये
और मैं लाचार खडी देख रही हूँ
इसका हाहाकार व्यर्थ जायेगा
इस चक्रव्यूह को
कोई नहीं भेद पायेगा
फिर इतिहास
खुद को दोहरायेगा
और एक दिन
ये अभिमन्यूं भी मारा जायेग


22 July, 2009

यही नसीब है------------कहानी

मैने जिन्दगी से कभी कुछ माँगा नहीं था जो भी मिला जैसा भी मिला अगर अच्छा लगा तो उसमे अपने को ढाल लिया नही भी लगा तो उसको अपने मुताबिक ढाल लिया अगर कभी शिकवा हुया भी तो होठों तक नही आया------ हमेशा कुछ कर दिखाने का जज़्वा लिये साहस से चलती रही------- मगर जब से तुम्हें तिल तिल मरते देखा है साहस टूटता सा नज़र आने लगा था----- जिन्दगी से गिले करने लगी थी----- फिर भी जीना नहीं छोडा था----- लेकिन तुम्हारी मौत ने----- मुझे पूरी तरह तोड दिया है------- जिस दुख को तुम ने वर्शों सहा है मैं कुछ पल के लिये भी जी नहीं पा रही हूँ------ पस्त हो गयी हूँ------ इस लिये आज तुम से दो बातें करने आई हूँ-----तुम्हारे जीते जी तो नहीं कह सकी ------- मगर मरने के बाद ------ क्यों कि जानती हूँ तुम अब भी मुझे भूलना नहीं चाहते------- नहीं चाहिये मुझे तुम्हारा ये जनून------ ये कैसा प्यार था तुम्हारा------ जो मुझ से भी मेरी जिन्दगी छीन लेना चाहते हो------- तुम ने कभी एक बार भी मुझे बताया होता--- तो शायद्--- दुख इसी बात का है कि तुम अपने भ्रम पाले बैठे रहे------ किसी दूसरे के दिल से बेखबर------ मैने तो तुम से प्यार नहीं किया था फिर मुझे सजा किस बात की-------
पता नहीं क्यों---अज किसी कन्धे की जरूरत महसूस हो रही है----- एक ऐसे कन्धे की जो मेरे कुछ गम अपने कन्धे पर उठा सके---------- मेरे आँसूओं की नमी अपनी आँखों मे समेट सके-------- मेरी टीस को अपने दिल की गहराईयों मे महसूस कर सके --- अकेली कब तक इस बोझ को ऊठाऊँगी--------- कितना असहाय हो जाता है कई बार आदमी------- कितना भी जीवट हो मगर किसी ना किसी समय और किसी ना किसी बात पर किच्चर किच्चर बिखर जाता है------- मगर मै भी कितनी नादान हूँ जब मै अपना ही बोझ नहीं उठा पा रही हूँ तो कोई कैसे मेरा बोझ उठा सकता है----वो भी आज की दुनिया मे-------- सभी रिश्तों की तरफ नज़र दौडाती हूँ------- जिनके आँसूओं की नमी ही नहींपूरे के पूरे दरिया को अपनी आँखों से बहाया है----- जिनकी टीस को खुद जीया है-------- जिनको किसी दुख तकलीफ का एहसास नहीं होने दिया-------उनको सिर्फ अपना कन्धा ही नही दिया बल्कि अपने जीवन का हर सुख सौँप् दिया-------- वो भी आज मेरे दुख को महसूस नहीं कर सकते ------ क्यों करें----- मेरे दुख से उनका नाता भी क्या है -------- और---- तुम ------- जो सारी उम्र मेरे लिये ही जीने का दम भरते रहे------ और मुझे सुख देने की बजाये दुख दे गये----- ये कैसा प्यार था------ शायद ये तुम्हारा प्रतिशोध था------- या शायद ये तुम्हारी आखिरी कोशिश कि तुम मुझे अपने प्यार का एहसास करवा सको-------- विश्वास दिला सको------- या शायद तुम भी थक गये थे मुझे विश्वास दिलाते दिलाते-------- तुम्हें भी तो कई बार तलाश रही होगी किसी न किसी कन्धे की ------- किसी ने तुम्हारी नहीं सुनी----- मैने भी नहीं तो फिर अब मैं क्यों रो रही हूँ-------- वैसे भी हर कन्धा इतना सश्क्त तो नहीं होता ना कि उस पर अपना सिर रख दिया जाये-------- शायद हम दोनो के लिये कोई कन्धा बना ही नहीं-------- तुम ने झूठ कहा था कि तुम मुझ से प्यार करते हो---- अगर ऐसा होता तो तुम मुझे छोड कर नहीं जाते------- कम से कम मरते नहीं चाहे कहीं दूर चले जाते----------मुझे ये अपराधबोध दे कर नहीं जाते कि तुम्हारी मौत का कारण मैं हूँ-------- मेरे कारण तुम ने अपनी दुनिया नहीं बसाई----- मैने कोई बेवफाई नहीं की थी--------- मैने तो तुमसे प्यार नहीं किया था ------- तुम ने समय पर एक बार कहा होता------- मुझे सुना होता ------ मैने तो वही किया जो बचपन से सुना देखा और समझा------ और तुम ही तो सिखाया करते थे ये बडी बडी बातें------ तुम भी तो महान बनने का मोह नहीं त्याग पाये----
कभी कभी ऐसा क्यों होता है कि इन्सान को अपनी मान्यतायें संस्कार जिन से उम्र भर नाता जोडे् रखता है------ वो झूठे लगने लगते हैं------- वो उन के खिलाफ वगावत करने पर आमदा हो जाता है-------शायद यही मेरे साथ हो रहा है------- आज सोचती हूँ कि मैने अपनी ज़िन्दगी को क्यों रुस्वा किया----- क्यों इसे इतने दुख सहने दिये----- इसके लिये कुछ तो खुशियाँ तलाशनी चाहिये थीं------- फिर से एक बार उन गलियों मे लौट जाना चाहिये था जहॉ---रिश्तों के बन्धन नहीं होते ----बस होता है बचपन ----- मन एक आज़ाद पँछी की तरह उडता है अपनी अपनी उडान ----- निश्छल प्रेम ---- उमँग ---- कोई दुख नहीं कोई दर्द नहीं------- अगर समय नहीं भी ठहरा तो भी----- जब तुमने मेरे दिल को छूने की कोशिश की थी---- मुझे अपने दिल के कवाड खोल लेने चाहिये थे------तब भी शायद ज़िन्दगी को कुछ ऐसे पल मिल जाते जो आज मेरे जख्मों को सहलाने के काम आते------- शायद अब इन सब बातों का कोई फायदा नहीं है-------- मुझे तो ये भी समझ नहीं आ रहा कि मेरे दुख का कारण क्या है जब तुम से प्यार ही नहीं किया तो दर्द क्यों------- यही तो वजह है कि काश तुम्हीं से किया होता ----- हां यही वजह है------- और अब जब तुम दुनिया से चले गये हो तो मुझे तुम्हारी याद आ रही है----- यही तो दुनिया का दस्तूर है और मै दुनिया की भीड का एक हिस्सा हूँ----- तुम्हारी तरह भीड से हट कर नहीं-----
फिर भी आज एक बार तुम्हारा दर्द महसूस करना चाहती हूँ------- क्यों कि आसमान मे तारों के बीच आज तुम्हारा पहला दिन है------ बाहर लान मे आ कर बैठ जाती हूँ-------तारे निकलने का इन्तज़ार है-----मगर ये क्या देखते ही देखते घटायें छाने लगी हैं-------जान जाती हूँ-----तुम्हारा दिल वहाँ नहीं लग रहा -----जरूर तुम्हारी आँखों मे उदासी के साये लहराये होंगे-------मुझे देख लिया होगा आसमान की ओर देखते------ कि मैं कितनी दुखी हूँ बेचैन हूँ------ दूर बादलों मे तुम्हारा साया देख रही हूँ-------- तुम्हारी बडी बडी आँखें------अज भी बादलों मे बनी तुम्हारी तस्वीर मे वैसी ही दिखाई पड रही हैं------- कुछ बून्दें टपकने लगी हैं------- शायद आज तुम खुद को रोक नहीं पा रहे हो कितनी देर रोके इन्सान पूरी ज़िन्दगी ----एक शून्य मे जीते रहे---- हाँ आज रोकना भी मत---- बहने दो ये आँसू------- वहाँ तो दुनिया का डर नहीं है----- कम से कम अपनी मर्ज़ी से रो तो सकते हो--------अज मैं भी तुम्हें निराश नहीं करूँगी मैने वो बून्दें हाथ पर सहेज ली हैं-------इन को पी भी लिया------ ओह इतनी जलन ----कितना दर्द हुया पीते पीते------ कैसे सहा होगा तुमने पूरा बादल --- मै तो एक टुकडा भी सह नहीं पा रही हूँ----- शायद अब तुम भी सह नहीं पा रहे थे तभी तो चल दिये------- बस इससे अधिक मै तुम्हारा साथ नहीं दे सकती----- अब लगता है कि मैं तुम से प्यार करने लगी हूँ------ और तुम्हारे प्रतिशोध की सजा काट कर ही आऊँगी तुम्हारी तरह तिल तिल कर मरूँगी----- मगर मिल तो फिर भी ना सकेंगे------- किसी के साथ सात जन्म के वचन जो लिये हैं अग्निपथ पर ------ मगर ये अग्निपथ के रिश्ते बहुत बेरहम होते हैं वो तुम्हारे लिये मुझे कभी कन्धा नहीं देंगे----- तुम ने चाहे उन की मर्यादा के लिये अपना जीवन दे दिया मगर वो रिश्ते क्यों कि शरतों पर टिके होते हैं----- आत्मा तो शर्तों पर प्यार नहीं करती इस लिये वो रिशते प्यार का अर्थ नहीं जानते------ असंवेदनशील हो जाते हैं भावनाओं के प्रति------ अब तुम जाओ------रहना तो होगा वही----- जैसे यहाँ रहते थे------- और मुझे भी जीने दो----- कभी मत आना मेरी यादों मे------- यही तो नसीब होता है जिसे हम चाह कर भी बदल नहीं सकते--------

21 July, 2009

मेरी नज़र से देखो---गताँक से आगे----कहानी

अनु-------- और वो अचानक अनुजी से अनु पर आ गया था------ मैं फिर असहज हो गयी----- मैं तुम्हरे दुख को समझ सकता हूँ----तुम्हारी भावनाओं की कद्र करता हूँ---महसूस कर सकता हूंम------मैं जानता हूँ कि मुझे देख कर तुम्हें सुमित की याद आती है------- बीते दिनों की यादें------मगर क्या करूँ मैं कितना दुखी हूँ----शायद तुम नहीं समझ सकती------- सुमित ने मुझे आँखें दे कर इस घर से बाँध दिया है------ उसकी आँखें उसके परिवार को ना देखें उसके माँ-बाप को ना देखेंतो ये अपराधबोध मैं सह नहीं सकता------ वरुण के लिये कितने सपने थे इन आँखों मे------ फिर इन आँखों के सपनों का क्या करूँ-------मेरी बातों का बुरा मत मनना मैं किसी परिस्थिति का कोई अनुचित लाभ उठाना नहीं चाहता------- मैं बस ये जानना चाहता हूँ कि क्या तुम इन आँखों के सपनो क्प छीन लेना चाहती हो?------क्या तुम्हें अच्छा नहीं लगता कि मैं उसकी इच्छा पूरी करूँ------ तुम क्यों मुझ से बात करना नहीं चाहती----हम इकठे कितना चहका करते थे-------- ऐसा तो नहीं कि तुम पहले मुझ से बात नहीं करती थी------ बल्कि सुमित से भी अधिक हम दोनो बातें करते थे----- हँसते खेलते थे------- फिर इन आँखों ने क्या कसूर कर दिया-------
नहीं---- सुजान ऐसी कोई बात नहीं है ---तुम समझते क्यों नहीं ------- सुमित के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता---
सुमित की आँखे?------क्या ये भी नहीं------ सुजान एक दम मेरी आँखों मे झाँक रहा था-------
मै सामने दरिया की ओरे देखने लगी------- सुजान सामने दरिया मे उठती लहरों को देख रहे हो?------ागर ये दरिया के किनारे तोड कर् बाहर बहने लगेंगी तो तबाही मचा देंगी-----सच कहूँ तुम से बात करते हुये मुझे तुम से नहीं इन आखों से डर लगता है------
अगर इन लहरों को मजबूत किनारों से बाँध दिया जये तो ये शाँत दरिया मे बहने लगेंगी------- तुम्हें पता है मम्मी पापा तुम्हारे और वरुण के लिये कितने चिन्तित रहते हैं------- वो तुम से खुल कर कोई बात नहीं कर सकते------- सच कहूँ तो उन्होंने मुझे सुमित की जगह स्वीकार कर लिया है-------क्या तुम ऐसा नहीं कर सकती-----
ये क्या कह रहे हो-------क्या तुम नहीं जानते कि सुमित के बाद मै ाउर वरुण ही मम्मी पापा का सहारा हैं----- मैं उन्हें छोड दूंम्गी ये तुम ने कैसे सोच लिया-------मैं उसकी बातों से कुछ विचलित सी हो गयी थी--------
ये मैने नहीं सोचा मम्मी पापा ने सोचा है---------वो चाहते हैं कि तुम वरुण और उन की खुशी के लिये मुझ से शादी कर लो तो उनकी चिन्ता समाप्त हो जायेगी और इस तरह हम सब एक ही घर मे इकठे रह लेंगे--------
सुजान बस करो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती------सुमित के बिना कुछ भी नहीं ------
मै कब कहता हूँ कि तुम उसके लिये ना सोचो----बल्कि तुम ऐसे सोचो कि जिन आँखों मे तुम्हारी तस्वीर रहती थी वो तुम्हारी इस बेरुखी से आहत नहीं होंगी------- ये आँखें तुम्हारे इन्तज़ार मे बैठी हैं---- मान लो अगर इसके विपरीत आज मेरी आँखें सुमित् के लगी होती तो क्या तुम इन आँखों मे ना देखती------ तुम्हें मुझ से डर नहीं लगता तो फिर इन आँखों से क्यों ----- वो मेरा दोस्त ही नही--- मेरी जान था--- आज जहान भी वही है मेरा----- मैं और तुम मिल कर उसे याद किया करेंगे दुख बाँट लिया करेंगे ---सब जिम्मेदारियां मिल कर निभा सकेंगे --मै तुम्हें एक दम फैसला लेने को नहीं कहता----तुम नहीं चाहती तो कोई बात नहीं मगर सहज व्यवहार तो करो मुझे क्यों सज़ा देती हो-------मुझे इस दर्द से मुक्त करो-----कहते कहते सुजान रो पडा-------
मैं चाय बना कर लाती हूँ----- मैं रसोई मे चली गयी------चाय का पानी खौल रहा था मगर मेरा दिल बेचैन हो रहा था सोच मे खडी रही-------
खैर चाय बना कर बालकनी मे आ गयी
खामोशी ----- बाहर खामोशी मगर दोनो के दिल मे आँधियाँ चल रही थी------ सुजान किनारे मजबूत करना चाहता था-----मगर मैं इन आँखों से डर रही थी----- कैसे बताऊँ सुजान को कि इन आँखों मे झाँकने की उस की कितनी तमन्ना है-----वो तो आँख खुलते ही सुबह पहले इन आँखों मे झाँका करती थी------ जब से इस घर मे आयी थी ----ेआज भी मन होता है------- मगर-------
क्या तुम्हें इन आँखों को देखने की चाह नहीं होती----- अचानक जैसे सुजान ने मेरी चोरी पकड ली थी मेरे दिल की बात जान ली थी------- शायद्
अच्छा तो मैं चलता हूं----- मै यहां इस समय इस लिये आया था कि पापा चाहते थे कि मै तुम से बात करूँ------ वरुण की ज़िन्दगी-------- शहीद बेटे के माँ बाप का सकून------ जो उन्हें ये आँखें देख कर मिलता है--------इन सब के लिये तुम कुछ कर सकती हो मै कर सकता हूँ-------- मै किसी और लडकी से शादी कर के पता नहीं ये जिम्मेडारियाँ निभा पाऊँगा कि नहीं ----- और फिर लोगों को बातें बनाते देर नहीं लगती-------- मैं नही चाहता कि कल को लोग मेरे यहाँ आने पर उँगली उठायें ------ सोच लो फैसला तुम्हारा है अगर फिर भी तुम्हारी ना है तो मैं कहीं दूर चला जाऊँगा-------- कहते हुये सुजान बाहर निकल गया-------
क्या सोचूँ मै------- सुमित तुम कहाँ हो-------- आँखें बह रही थी-------- इस दरिया की तरह----- सुजान ठीक ही तो कहता है सब का सपना टूट जायेगा-------- मम्मी पापा ने तो सुजान की आँखों मे सुमित को पा लिया हओ इसके जाने से वो टूट जायेंगे------- मैं----- हाँ मुझे भी तो सुजान का जाना अच्छा नहीं लगेगा--------कैसे देख पाऊँगी इन आँखों को---
धीरे धी दिन चल रहे हैं-------शाँत हूँ इस दरिया की तरह उसने इस दान से कितने जनों को जीने की राह दिखाई है और मै उसके इस दान को शर्मिन्दा करने जा रही हूँ-------- इस घर को इन आँखों की जरूरत है-------
सुजान रोज़ उसी तरह आता है------- वरुण से खेलता है------- मैं छुप छुप कर उन आँखों को देखती हूँ----वही चमक------वही कशिश् ------- दिल धडक उठता है------ सब की कोशिश रहती है कि जब सुजान आये तो मै उन सब के बीच बैठूँ -------- हाँ सच कहूँ अब मुझे भी उन आँखों का इन्तजार रहता है--------
एक दिन मम्मी पापा बाज़ार गये थे------दिन के 11 बजे थे पापा पैटोल पँप चले गये और मै वरुण को सुला रही थी--------
क्या कर रहे हैं माँ बेटा------- असमय सुजान की आवाज़ सुन कर मै चौँक पडी-------वरुण सो गया था उसे लिटा कर मै बालकनी मे सुजान के पास आ कर खडी हो गयी-------
आज इस वक्त कैसे आयी------- मैने धीरे से पूछा -------
क्या अब इस घर मे आने के लिये मुझे इजाज़त लेनी पडेगी-------- सुजान हंसा
नहीं नहीं ---मैने सोचा कोई काम है-------
बैठौ ------- शुक्र है मुझे देख कर कुछ सोचने भी लगी हो-------- उसने मेरी आँखों मे देखा------ अनु तुम कुछ भी कहो----- मगर ये आँखें तुम्हारी अन्दर तक झाँक लेती हैं------- ये जानती हैं कि तुम चोरी चोरी इन्हें देखती हो----- उसकी नज़र मेरे चेहरे पर थी------
हाँ सुजान------- सुमित शायाद इसी लिये इन्हें तुम्हें दे गया कि मैं इन्हें देख कर जी सकूँ------- उसके होने का एहसास पा सकूँ------- मगर मुझे डर है कि क्या मै तुम से इन्साफ कर पाऊँगी----- तुम मे सुमित को पा सकूँगी-----
अरे सुमित को क्यों भूलेंगे हम दोनो मिल कर उसे ज़िन्दा रखेंगे-------वैसे भी शहीद हो कर अमर हो गया है वो------
हाँ शायद सच कहता था सुमित कि ------ अनु ये आँखें तुम्हें जीनी की शक्ति देंगी ---- इन आखों से तुम्हे बाँध रखूँगा------- और मैने अपना हाथ सुजन के हाथ पर रख दिया------
धूप मे लहरों पर किरणो का नृ्त्य ------झिलमिल करता दरिया---उछलती कूदती लहरें किरणो से गले मिलती----- और दरिया मे हलचल मचा देती------- आज आसपास के पेड फिर से झूमने लगे थे----- इन आंखों ने मेरे दिल मे हलचल मचा दी थी------- वो लौट आया है------ जिन्दा है------ और मै बहे जा रही थी दरिया के साथ साथ ------ समाप्त्

20 July, 2009

मेरी नज़र से देखो------- कहानी------ गताँक से आगे

मैं सुबह उठते ही पहले अखबार देखती थी----- एक दिन अखबार पढते 2 एक खबर पर नज़र अटक गयी------- तो आँखों के आगे अँधेरा छा गया सुमित सुमित कारगिल मे शहीद हो गये थे------- मेरी दुनिया लुट गयी थी माँ बाप के घर का चिराग बुझ गया था------- मगर अभी यकीन करने का मन नहीं था------ उनकी युनिट से कोई खबर नहीं आई थी----अभी तो सुजान के सदमे से नहीं उभरे थे-----

किसी से बात करबे की स्थिती मे नहीं थी------ बेटा उठ गया था पर मुझे होश ही नहीं था मा बाहर आयी मुझे अखबार पकडे सदमे मे देखा तो मुझ से अखबार ले कर देखने लगी----फिर क्या था घर मे कोहराम मच गया ------ एक घन्टे बाद सिपाही भी खबर ले कर आ गया-------मुझे कुछ पता नहीं फिर क्या हुआ-------जब होश आया तो मेरे सामने सुमित की लाश थी------- तिरंगे मे लिपटी हुई------- कोई मुझे लाश से कपडा नहीं उठाने दे रहा था-----मैं बस एक बार सिर्फ एक बार सुमित का चेहरा देखना चाहती थी मुझे यकीन था कि ये सुमित नहीं हो सकता वो मेरे साथ इतना बडा धोखा नहीं कर सकता--------उसकी आँखों को देखना चाहती थी------ जिन्हें देख कर मेरे दिल की धडकन बढ जाती थी----- जिन्हें देख कर मैं खुद पर काबू नहीं रख पाती थी------ मैं सुमित से कहती ऐसे मेरी तरफ मत देखा करो ये आंम्खे किसी दिन मेरी जान ले लेंगी-------तो सुमित हँस पडते------- नहीं अनु---ये आँखें तो तुम्हें जीने की शक्ति देंगी------बस इब आंम्खों से बान्ध रखूँगा तुमको-------
आज उन आँखों की एक झलक देखना चाहती थी-------मगर वो आंम्खें तो सुमित दान कर गया था---- सुजान के लिये-------तो क्या सुजान मुझ से भी प्यारा था------ तो क्या मै फिर देख सकूँगी सुमित की आँखें------- आखिरी बार मुझे सुमित का चेहरा भी नहीं दिखाया गया------ पापा के कन्धे से लगी देख रही थी सारा शहर और युनिट के लोग----- सलामी के लिये फौज़ की टुकडी------- युनिट के साथी उस की बहादुरी की गाथा सुना रहे थे ---मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था ----- मेरा संसार उजड गया ये बडी बडी बातें मुझे सकून नहीं दे रही थी------पता नहीं क्या क्या हो रहा था------ कुछ याद नहीं मेरे तो दिन रात सूने हो गये थे--------
सुजान को सुमित की आँखे मिल गयी थी------ बहुत रोया था वो----- उसके दुख को कौन जान सकता था----- सब ने कहा कि रोना नहीं ये सुमित की आँखें हैं इन्हें कोई तकलीफ ना हो------- सुजान और उसकी मा हमारे घर मे ही थे----- सुजान ने तो जैसे अपने आप को इस घर के लिये समर्पित सा कर दिआ था दोनो मा बेटा रात को घर जाते थे मम्मी बीमार रहने लगी------ मैने तो अपने को कमरे मे जैसे कैद कर लिया था---- सुजान के मम्मी सरा काम करते वरुण को सम्भालते बाहर का सारा काम धीरे धीरे आँखें ठीक होते ही सुजान ने अपने जिम्मे ले लिया था------- मै बस शाम को कुछ देर उन लहरों को देखने लान मे आती उन से सुमित के बारे मे पूछती------ मगर कहीं से कोई जवाब नहीं मिलता---------वो मेरी हालत से आहत हो कर दरिया मे समा जाती-------
सुजान बहुत कोशिश करता मुझ से बातें करने की-------मेरा मन बहलाने की------ मगर ना जाने क्यों मुझे सुजान की तरफ देखते डर लगता था------ये सुमित की आँखें------- कहीं मुझे-------- नहीं नहीं-------ये सुजान की आँखें हैं------कई बार मन होता कि उन आँखों मे झाँक कर देखूँ---------- मगर हिम्मत नहीं होती------इन आँखों मे तो मैं रहती थी------ ओह सुमित ये क्या कर दिया तुमने/-------
एक वर्ष हो गया था सुमित को गये-------- मम्मी पापा जब मुझे बहलाते तब मै सोचती कि मुझे तो इन का सहारा बनना चाहिये-----सुमित की निशानी--- वरुण की जिम्मेदारी भी मुझे पर है-----कितने सपने थे सुमित के अपने बच्चे को ले कर मुझे जीना होगा----- वरुण के लिये मम्मी पापा के लिये-------
वरुण ढेड साल का हो गया था------ सुजान से काफी हिलमिल गया था पापा ने और सुजान ने मिल कर पैट्रोल पम्प खोल लिया था------ दोनो व्यस्त हो गये थे------सुजान शाम को पापा को घर छोड कर थोडी देर वरुण के साथ खेलता फिर अपने घर चला जाता --- सुबह फिर पापा को लेने आ जाता------ मै और मम्मी सुमित की बातें ले कर बैठ जाती------ पापा चाहते थे कि मैं कहीं नौकरी ज्वाईन कर लूँ---ताकि मेरा ध्यान बँट सके----- मगर सुमित के बिना मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता था-------
पिछले दो तीन महीने से देख रही थी कि सुजान मुझ से बार करने की बराबर कोशिश करता-----उस दिन कह रहा था------- अनुजी मुझे जाने क्यों एक अपराधबोध सा रहता है----अप मुझ से बात नहीं करती तो लगता है कि आप मुझ से नाराज़ हैं------- क्या आपको अच्छा नहीं लगा कि सुमित की आँखें मुझे मिल गयी हैं--------
नहीं नहीं ---- ऐसी बात नहीं है-----बस सुमित के बिन कुछ अच्छा नहीं लगता------ आपसे कोई नाराज़गी क्यों होगी------ मै उसे कैसे बताती कि मैं इन आँखों की तरफ नहीं देख सकती------- ये आँखें तो मुझे बेकाबू कर देती हैं-----
मैं समझ सकता हूँ------ मुझे देख कर आपको सुमित की याद आती होगी------
मैं क्या जवाब दूँ------हाँ चोर नज़रों से उन आँखों को देखने की हसरत बनी रहती-------
आज सुमित की बहुत याद आ रही थी------ मम्मी पापा गाँव गये हुये थे-------शाम ढलने लगी थी----- चाय का कप ले कर बालकनी मे आ कर बैठ गयी वरुण सो रहा था-------सूरज की किरणे धीरे धीरे जा रही थी------मगर दो चार किरने अभी भी लहरों के साथ खेल रही थी कितना कठिन होता है बिछुडना------- इन का भी मन लहरों से दूर जाने का नहीं है मगर समय को कौन बान्ध सका है ------ सब चलायमान है -------
अनु देख रही हो ना इन किरणो को मेरा मन भी इन किरणो की तरह तुम से दूर जाने का नहीं होता------- सुमित मेरा हाथ पकड कर अक्सर कहते----
हाँ मै भी तुम्हारे जाने पर उदास हो जाती हूँ----- इन लहरों की तरह------ सुमित हसरत भरी निगाह से देखते और मैं उनकी बाहों मे समा जाती------
अनुजी कहाँ खोई हैं आप----- मैं यहाँ कब से खडा हूँ-----सुजान की आवज़ सुन कर चौँक पडती हूँ ------
ओह तुम आओ बैठो-----मैने कुरसी की तरफ इशारा करते हुये कहा-------सुमित की यादों मे खोई सुजान के आने की आहट सुन ही ना पाई थी-------बैठो मैं पानी लाती हूँ-------मैं उठते हुये बोली-----
पानी नहीं मै आज आपके हाथ की चाय पीना चाहता हूँ------- बहुत दिन से आपके हाथ की बनी चाय नहीं पी---- सुजान ने सीधा मेरी आँखों मे देखते हुये कहा---तो अन्दर से काँप गयी ------ वही चमक थी आँखों मे------ मैं कैसे धोखा खा सकती हूँ -------
अभी बन कर लाती हूँ मुझे तो वहाँ से उठने का बहाना चाहिये था------ मै तो सुजान की आँखों से दूर रहना चाहती थी------- उस के आते ही मै असहज हो उठी थी
नहीं पहले बैठो मै आपसे कुछ बात करना चाहता हूँ------ बैठो-----
मै उठते उठते बैठ गयी------
क्रमश:

19 July, 2009

तुम ज़िन्दा हो------- कहानी

जाने क्यों इस सुरमई शाम का अब भी मुझे इन्तज़ार रहता है--- जब सूर्य देवता दूसरी दुनिया को रोशन करने चल पडते हैं तो इस दुनिया को अलविदा कहती किरणों की विरह से आत्मसात होना एक सकून देता है-------- देखती रहती हूँ तब तक --- जब तक कि आखिरी किरण विदा नहीं ले लेती------- फिर सुबह की पहली किरण का इन्तज़ार ------- तो और भी------ अच्छा लगता------ सतलुज दरिया पर जैसे ही सुबह की पहली किरन अपनी झलक दिखाती-----शांन्त बहते दरिया मे लहरें मचलने लगती------ शोख किरणो की सरगम पर अठखेलियाँ करती लहरों का नृत्य देखते ही बनता था------- सारा दिन किरणो और लहरों की आँख मिचौली चलती रहती------ शाम होते ही लहरें शाँत हो दरिया मे समा जाती------- बिलकुल मेरी तरह-----उदास---जीवन है तो बस जीना है------ सुमित के बिना---- जीवन की उमँग के बिना-------झरों की तो अगली सुबह फिर आयेगी------- कहीँ और--- पर मैं------- बस यादें ही तो रह गयी हैं-------- प्यार और आदर्शों से सनी इस घर की एक एक ईँट ----इस सुर्मई शाम मे उदास हो उठती है-----अब सुमित के ठहाके जो नहीं गूँजते------- जब पूरा परिवार शाम को इस लान मे चाय पीता तो सुमित की हँसी शरारतों से लहरें भी मचलने लगती आसपास के पेद पौधेलहरा कर उसे और बहका देते----- सुमित की आँखों की चमक तब देखते ही बनती थी------ीनहीं आँखों की दिवानी थी मैं--------- एक अजीब कशिश थी उन आँखों मे---
छ्ह वर्ष हुये थे मुझे व्याह कर इस घर मे आये ---- मैं सुमित के साथ इस परिवार को पा कर धन्य हो गयी थी--- इन के पापा एस डी ओ रिटायर हुये थे और मम्मी सुघड गृहणी थी------ एक बहन थी जिसकी शादी हो चुकी थी ----- छोटा सा पढा लिखा परिवार था सुमित डेफेंस मे थे ----- जब हमारी शादी हुई तो सुमित अम्बाला मे थे------ शादी के 6 माह् के अन्दर ही इन्हे परिवार को साथ रखने की स्वीकृती मिल गयी थी------ सुजान इनका बचपन का सब से प्यारा दोस्त था सगे भाईयों से भी बढ कर प्रेम था दोनो मे------- सुजान की पोस्टिँग भी अम्बाला मे इनकी युनिट मे ही थी------ दोनो गाते बहुत अच्छा थे और सारी युनिट के चहेते थे------- संयोगवश दोनो की पोस्टिंम्ग एक साल बाद लखनऊ हो गयी-------- दोनो कैप्टन बन गयी थे------- एक माह बाद सुमित मुझे भी साथ ले गये -----मौज मस्ती मे ढाई साल कैसे गुजर गये पता हे नहीं चला------- घूमना फिरना ----पार्टियाँ क्लब क्या जीवन था सुजान भी अकसर रोज़ आ जाता था--------
शायद हमारी खुशियों को किसी की नज़र लग गयी थी------- सुजान की ट्राँसफर काश्मीर हो गयी------- सुमित कई दिन उदास रहे-------- उसके बिना पार्टियों मे भी इनका दिल ना लगता था------ तीन महीने बाद ही मनहूस खबर आ गयी कि सुजान उग्रवादियों के साथ मुठभेद मे घायल हो गया है--------ये सुन कर सुमित घबरा गये------- मुझे नंगल भेज कर खुद छुट्टी ले कर काश्मीर चले गये--- पूरा एक महीना सुजान के पास रहे----- इस हादसे मे सुजान की आँखें चली गयी थी--- सरी युनिट के लोग ही क्या सरा शह्र उदास था सुमित का और हम सब का बुरा हाल था सुमित अपनी मा का अकेला बेटा था पिता छोटी उम्र मे छोड कर चले गये थे ----- उसकी मा को हम लोग अपने घर ले आये थे------- सुमित तो जैसे सुजान की परछाई बन गये थे इनके चार दोस्तों ने प्रतिग्याली कि अगर किसी हादसे मे इनकी आँखें चली जायें तो मरणोपरान्त उनकी आँखे सुजान को लगा दी जायें------- सुजान तो अभी चाहते थे कि उसकी एक आंम्ख उसे लगा दें मगर किसी ने इस की इज़ाजत ना दी------- इसी दौरान सुमित की गुहार और दोनो की दोस्ती और सुजान की लाचारी को देखते हुये सुमित की ट्रांम्सफर भी काश्मीर मे हो गयी ---कश्मीर फैमिली स्टेशन नहीं था------ वैसे भी मै माँ बनने वाली थी------ इस लिये मुझे घर ही रहना पडा------ मैने चान्द से बेटे को जन्म दिया था------ लेकिन अभी सुजान अस्पताल मे थे इसलिये सुमित आ नहीं सके थे------ तीन माह बाद जब उसको अस्पताल से छुट्टी मिली तब् उसे घर ले कर ही आये ----- सुजान का गाँव भी नंगल से दो कि मी पर था मगर इन्होंने फैसला किया कि सुजान नंगल मे हमारे घर ही रहेगा और उसके मम्मी को भी अपने घर ले आये------ गाँव मे सुजान खुश ना रह सकेगा -----मगर उसके मम्मी ने केवल एक हफ्ता तक उसे यहाँ रखा छुटी खत्म होते ही ये चले गये-- और मुझे और पापा को कह कर गये कि कभी क्भी सुजान को घर ले आया करें------ मुझे कहते----अनु तुम जानती हो सुजान मेरी जान है------- उसे कभी उदास ना होने देना------ मैं जल्दी ही उसकी आँखों का प्रबन्ध करूँगा--------
सुमित चले गये------- सब उदास थे इन दोनो की वजह से------ कश्मीर की सीमा पर भी हालात खराब थे अखबारों से ही कुछ पता चलता था------ किसी को घर मे कुछ बता नहीं सकते थे------- और एक दिन-----क्रमश:

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