04 November, 2010

गज़ल

गज़ल

गज़ल से पहले सजा जरूर पढें
उम्र कैद की सजा पर सुनवाई तो   30 अक्तूबर को ही हो चुकी थी। मगर इसके चलते कुछ 'अपने' घर मे जश्न मनाने को लगे हुये थे, ऊपर से दीपावली की तैयारियाँ, जिस कारण उस जजमेन्ट की कापी देर से आयी। उसे आपसे बांटना इस लिये अच्छा लगा कि ब्लागर्ज़ दिल से बहुत अच्छे हैं और सुख दुख की घडी मे सब के साथ रहते हैं । फिर झट से टिप्पणियाँ उठाये भागते हैं जैसे ये आँसू पोंछने के लिये रुमाल का काम करती हों। हाँ मेरे लिये तो करती हैं इसलिये , भले देर से ही सही उन्हें दिल की बात बतानी चाहिये।अपने अपने रुमाल यहाँ कमेन्ट बाक्स मे रख जाईये,आँसू पोंछती रहूँग सात जन्मों तक।तो अब  आप भी आनन्द लीजिये उस जजमेन्ट का।

मुजरिमा की उम्र कैद की सजा के 38 वर्ष पूरे हुये, मगर इस सजा के दौरान भी मुज़रिमा ने कोई सबक  नही सीखा। अपने व्यवहार,हुस्न और अदाओं से पती को परेशान करती रही।  घर के गृह मन्त्री की कुर्सी भी अपनी चालों से हथिया ली।  जिससे बेचारा पती केवल एक अदद "पती" बन कर रह गया और विशुद्ध भारतीय पुरुष न बन सका। अपने मौलिक अधिकार "स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति" का इतने सालों से उपयोग न कर सका। न कभी गाली गलौच की, न पत्नी पर हुक्म चलाया जा सका, न ही घर मे अपनी मनमानी कर सका। जहाँ तक की कभी एक  कश सिग्रेट या कभी एक पेग पीने की अनुमती नही दी गयी। जो कुछ वो बना कर देती वही उसे खाना पडता। ऐसे कई संगीन अपराधों को देखते हुये ये अदालत इस नतीजे पर पहुँची है कि मुज़रिमा के ये संगीन  अपराध क्षमा योग्य नही।  इस लिये उसके चाल चलन को देखते हुये अदालत मुजरिमा  की सजा को बढा कर सात जन्मों की उम्र कैद मे बदल देने का हुक्म सुनाती है। भगवान को नोटिस भेज दिया जाये कि इस हुक्म की तामील सख्ती से हो। साथ मे उसे एक गज़ल सुनाने की सजा भी दी।
पहले सोचा इस सुखद{या दुखद?}घडी { अपने अपने हिसाब से} क्या बाँटना। मगर  फिर सोचा सुख बाँटने से दोगुना होता है और दुख आधा रह जाता है, तो दोनो की मुराद पूरी हो जायेगी, मुजरिमा की भी और कुछ "अपनों" की भी । सब से बडी बात उनके बच्चे, अमेरिका जैसे खुले वातावरण से आयी बेटी ने भी इस बन्धन पर खुशी कर अपने भारतीय संस्कारों का परिचय दे डाला। क्या सीख कर आये अमेरिका से? क्या नारी कभी इस बन्धन से आज़ाद नही होगी?  दामाद जी ने तो और भी फुर्ती दिखाई, झट से  केक भी ले आये।सासू को जलाने का इस से अच्छा अवसर और कौन सा हो सकता था? इस तरह मुजरिमा की सजा पर खुशियाँ मनाई गयी। मगर उसे कोई अवसर अपनी सफाई के लिये नही दिया गया।
] गज़ल?  मुजरिमा ने भी इधर उधर से कुछ शब्द इकट्ठे किये और जो मन मे  आया सो कह दिया।खरा खोटा आप बतायें। पोस्ट लिखने की जल्दी मे अपने गुरू जी का आशीर्वाद नही लिया जा सका। जानती हूँ सजा तो माफ होने से रही। फिर भी कोई गलती निकाल सके तो आभारी हूँगी।
 सुनिये उसने क्या गज़ल कही

उसकी आँखों मे हर बार नज़र आता है
सच्चाई नज़र आती प्यार नज़र आता है

जाऊँ पल भर  को भी दूर कहीं मै घर से
सपनों मे भी बस घर बार नज़र आता है

छप्पन भोग लगाऊँ या घर  रोज़ सजाऊँ
जिस दिन वो ना हो बेकार नज़र आता है

कितने भी  सुख, दुख, चिन्ता के दिन हों चाहे
साथ उसके  हर दिन त्यौहार नज़र आता है

है मुश्किल पावन बन्धन का कर्ज़ निभाना
पर ये औरत का   शिंगार नज़र आता है

जन्मों तक  का साथ निभाऊँ? तौबा, तौबा
एक जन्म मुझे तो  सौ बार नज़र आता है

मिंयाँ बीवी का झगडा, निर्मल क्या झगडा
प्यार से भी प्यारा तकरार नज़र आता है

01 November, 2010

गज़ल ------

ग़ज़ल -- प्राण शर्मा
 
उड़ते   हैं   हज़ारों   आकाश   में   पंछी
ऊँची  नहीं  होती  परवाज़ हरिक   की
 
होना था असर कुछ इस शहर भी उसका
माना कि अँधेरी उस शहर  चली   थी
 
इक   डूबता बच्चा   कैसे   वो    बचाता
इन्सान  था  लेकिन  हिम्मत की कमी थी
 
क्या दोस्ती   उससे   क्या दुश्मनी उससे
उस शख्स  की नीयत बिलकुल नहीं अच्छी
 
सूखी जो  वो होती जल जाती ही पल में
कैसे भला जलती गीली   कोई   तीली
 
इक शोर सुना तो डर कर   सभी   भागे
कुछ मेघ थे  गरजे बस बात थी इतनी
 
दुनिया   को समझना अपने नहीं बस में
दुनिया  तो  है   प्यारे   अनबूझ   पहेली
 
बरसी तो यूँ बरसी आँगन भी न भीगा
सावन  की घटा थी खुल कर तो बरसती
 
यारी  की ही खातिर  तू   पूछता   आ कर
क्या हाल  है  मेरा  ,  क्या   चाल   है   मेरी
 
फुर्सत   जो   मिले   तो  तू   देखने    आना
इस  दिल  की हवेली अब तक है नवेली
 
पुरज़ोर   हवा  में गिरना  ही था  उनको
ए   "  प्राण  "  घरों की दीवारें थी कच्ची

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