11 September, 2009

गीत
आज ये मेरी 150 वीं पोस्ट जो मेरे श्रद्धेय दुरूदेव श्री प्राण शर्मा जी को समर्पित है
मेरा ये गीत मेरे गुरूदेव श्रद्धेय प्राण शर्मा जी को समर्पित है। गुरू जी ने लिखने के लिये तो गज़लें दी थी मगर मुझ अल्पग्य ने गीत रच दियेौर गुरू जी ने इन्हें संवार कर और मेरी गलतियाँ निकाल कर इन्हें भी सुन्दर बना दिया । उनमे से ये पहला गीत अपके सामने प्रस्तुत करने का आदेश दिया।

मैं गिरधर के घर जाऊँगी
उसकी जोगन बन जाऊँगी

मैं तेरे नाम की प्यासी कृ्ष्णा
अब अपनी प्यास बुझाऊँगी

मन मे मेरे तू ही तू है
तेरे दर्शन को आऊँगी

तू मेरी अर्ज़ सुने न अगर
प्राणों का भोग लगाऊँगी

अब कर लो मेरा वरन प्रभू
मै भटक भटक मर जाऊँगी

तुझ बिन मुझ को ना भावे कुछ्
हर पल ही तुझ को ध्याऊँगी

ये मेरा वादा रहा तुझ से
इक पल न तुझे विसराऊँगी

मुरली को बजाओ फिर कान्हा
मै मीरा बन कर गाऊँगी

तेरे बिन कोई ना मेरा
मै किस घर को जाऊँगी

09 September, 2009

सुनो मेरी वेदना

सूरजमुखी सी
समर्पित्
दिन भर ताकती हूँ
करती हूँ
तेरी किरणो से
अठखेलियाँ
पलकों मे सजा कर
कुछ सपने
तेरे मिलन के
तुझ मे
आत्मसात हो जाने के
मगर तुम निष्ठुर
चले जाते हो फिर भी
नहीं जान पाते
मेरा अनुराग
नहीं देख पाते मेरी वेदना
चाँद भी पिघल जाता है
देखकर मेरा
कुम्हलाया चेहरा
और टपका देता है
कुछ बूँदें मेरी पलकों पर
हे प्राणाधार
सारी रात तेरे इन्तज़ार मे
मेरे आँसूओं से
सुबह तक भीग जाती है
सारी धरती
तुम सुबह आते हो
और हंस देते हो
समझ कर इसे ओ
क्या तुम् 
नहीं जान पाते ?
ये ओस नहीं मेरे आँसू हैं
तुझ से मिलन की
चाह लिये बहाये हैं रात भर्
हे प्राणेश्वर आओ
स्वीकार करो
मेरा समर्पण
और ले जाओ
अपनी दिव्य किरणो मे
आत्मसात कर
दूर अपनी दुनिया मे

07 September, 2009

पिँजरे का दर्द ----
कितनी कोशिश करती हूँ--- बस अब और नहीं मगर फिर भी बेसब्री से सुबह का इन्तज़ार रहता है---- उठते ही खिडकी से झाँकती हूँ--- उस पर नज़र पडते ही जैसे मन को एक स्कून सा मिलता है -- तपती रेत पर बारिश की दो बून्दें ----एक आशा मन मे जागने लगती है---- शायद---- पंख फडफडाता है और चीं चीं करने लगता है जैसे पूछ रहा हो-- मा कैसी हो?-- हाथ उठाती हूँ उसे आशीर्वाद देने के लिये और फिर जलदी से खिडकी की ओट मे हो जाती हूँ---- कहीं मेरी तृ्श्णा फिर से ना सर उठाने लगे---- मेरी आँख नम ना हो जाये वो चाहे कितना ही दूर दूर भागे मगर जानती हूँ मेरे आँसू देख कर आँख उसकी भी नम हो जायेगी ---- कम से कम उसे कोई तकलीफ नहीं पहुँचाना चाहती।---- वो जाते जाते फिर चीँ चीं करता है, जैसे कह रहा हो * अपना ध्यान रखना--- और मैं उदास हो कर अपने बिस्तर पर लेट जाती हूँ---- फिर बुझे से मन से काम मे लग जाती हूँ । काम के बाद फिर से उस खिडकी मे आ कर बैठ जाती हूँ --- एक झलक उसे देखने की चाह मिटा नहीं पाती --- दिखता नहीं है मगर जानती हूँ कि इसी कालोनी के किसी पेड पर बैठा है--- शायद मेरी खिडकी के सामने हो मगर पत्तों मे छिप जाता है देख लेती हूँ उसके पँखों की एक झलक ---- और दिन भार याद करती रहती हूँ उसकी मीठी 2 बातें---- उसका चहकना, उसकी उडान, खाना खाते हुये मुझे भी अपने साथ खिलाने का उसका अन्दाज़ याद कर के आँखें भर आती हैं अपनी चोंच मे रोटी का टुकडा उठा कर खिडकी के पास आ जाता जैसे बुला रहा हो कि मा आप भी खाओ न ! ----
उस दिन मैं खिडकी पर बैठी थी कि अचानक पास की एक डाली पर आ कर चीं चीं करने लगा जैसे पूछ रहा हो आप इतनी उदास क्यों हैं और मुझे अपनी प्यारी प्यारी शरारतों से लुभाने लगा--- और मैं उससे एक दो दिन मे इतना घुलमिल गयी कि मुझे लगा कि मेरे घर मे फिर से बहार लौट आयी है मेरे बच्चों के जाने के बाद ये घर एक दम सुनसान सा हो गया था जिस घर मे हर दम सन्नाटा पसरा रहता वहाँ अब रउनक ही रउनक थी---- फिर एक दिन जब वो खिडकी मे आया मैने उसे बाहर जाने ही नहीं दिया --- खिडकी पर बारीक जाली लगवा दी---- वो घर के कोने कोने मे घूमता--- खुशी से पंख फैलाता और मैं उसके साथ बच्ची सी बनी सारा दिन जैसे हवा मे ुडती फिरती--- कितना खुशनुमा हो गया था जीवन उससे अपने सारे गम कह लेती वो मेरे एक एक पल का साक्षी बन गया था मुझे लगता वो इस दुनिया से अलग है किसी भीड का हिस्सा नहीं ., काश कि ये इन्सान होता। मैं हैरान थी कि मेरे जीवन मे इतनी खुशियाँ कहाँ से आ गयी? अब जीवन मे कुछ नहीं चाहिये इस के सहरे जी लूँगी--- मगर कुछ दिन मे ही जैसे सब कुछ बदलने लगा था -- वो इस घर से उब गया । शायद बाहर बाकी पक्षियों की आवाज़ सुन कर उसे उनकी याद आती थी---- वो खिडकी से बाहर देखते देखते उदास हो जाता --- मैं अन्दर से डर जाती मुझे लगता अब इसके बिना जी नहीं पाऊँगी--- बच्चों की तरह उसे लुभने की कोशिश करती --- शायद अपने घर की जिम्मेदारियों के चलते अपने बच्चों का बचपन भी अच्चे से जी नहीं पाई थी ---- उसी को जीने की चाह ने इसके करीब कर दिया--- एक दिन उसे उदास देख कर मैने खिडकी से जाली उठा दी---- और वो एक पल गवाये बिना उड गया---- बहुत रोई थी उस दिन --- वो मुझे समझाना चाहता था कि कुछ दुनियादारी सीखो --- इतना मोह अच्छा नहीं फिर उसे अभी दुनिया देखनी है सब समझती थी जानती थी मगर समझ कर भी अनजान बनी रही---- कितने दिन रो रो कर उसे आवाज़ लगाती रही मगर उसका दिल ना पसीजा
चाहती हूँ घर बदल लूँ सामने खिडकी पर बैठा हो और मुझ से बात ना करे--- दिल से टीस सी उठती है--- बहुत दर्द होता है--- मगर
मेरे दुख मेरी तन्हाई से उसे क्या लेना उसका अपना जीवन है जब अपने ही अपने नहीं होते तो दूसरे से कैसे अपेक्षा की जा सकती है?--- मगर वो ये नहीं जानता था कि मै उसे इस भीड का हिस्सा नही समझती थी--- और ना ही मैं खुद इस भीड का हिस्सा हूँ---- सीख जाऊँगी धीरे धीरे जीना---- कितने हादसे सहे तब भी तो जिन्दा रही हूँ अब भी रह लूँगी---- कितना मुश्किल होगा जब कि पता हो वो सामने किसी पेड पर बैठा होगा---- अब उसका सुबह पेड पर आना भी एक दर्द दे जाता है, कितना परायापन होता है उसकी चीं चीं मे-- शायद उसे रहम आता है मेरी दशा पर और देखने आता हो कि जिन्दा हूं या नहीं उसके बिना?--- आखिर चाहता तो वो भी मुझे था---- इस बात को कैसे भूल सकती हूँ--- मेरा दिल कहता है|--- वो मेरे पास आ कर एक छोटा सा अबोध बालक सा बन जाता था----- इस का एहसास मेरी ममता ने किया है--- और ममता कैसे झूठ बोल सकती है----- शायद बच्चे उस ममता की मृगतृिश्ना को नहीं समझ सकते--------
जो उधार की खुशी के पल उसने दिये थे उनका कर्ज ज़िन्दगी भर चुकाती रहूँगी--- शायद उधार मे मिले प्यार, और रिश्तों का यही हश्र होता है----- और फिर जब उधार देने वाला पल पल सामने हो--- ओह कितना तक्लीफदेह है ---- आसमान से जब कोई जमीन पर धडाम से गिरता है---- चाहती हूँ खिडकी बन्द ही कर लूँ मगर-- अभी नहीं कर पा रही---- जब तक - ये आँसू सूख नहीं जाते--- पता नहीं कितने जीवन चाहिये इन्हें सूखने मे-- या शायद आशा की एक किरण बचा कर रखना चाहती हूँ---- कभी मन करे तो खिडकी खुली देख कर आ ही जाये या फिर --- बस उसकी एक झलक देखने के लिये ताकि दिन भर तन्हाई मे एक टीस तो साथ हो जिससे उसे महसूस कर सकूँ----- जीने का एक ये भी अंदाज़ है----- मुझे अच्छा लगता है---- पिँजरे का दर्द ऐसा ही होता है--- कोई उसमे है तो भी उसे कैद करने का अपराधबोध ---- उसे आज़ाद होने के लिये तडपते देखना भी तो दर्द देता है----- अगर पिंजरे ने उसे रिहा कर दिया तो भी विरह का दर्द--- उसे तो हर हाल मे दर्द सहेजना ही है------ ।
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