15 October, 2010

लघु कथा

आज की प्राथमिकता।--- लघु कथा

राजेश जैसे ही आफिस के लिये बाहर निकलने लगा , बाहर आँगन मे बैठी माँ ने आवाज़ दी'' बेटा तुम से बात करनी थी"
'माँ कितनी बार कहा कि मुझे बाहर जाते हुये पीछे से आवाज मत दिया करो।' राजेश ने नाराज़गी जाहिर की
'असल मे कल तुम्हारे पिता का श्राद्ध है यही याद दिलवाना था"
'हाँ मैं आफिस से आते हुये पंडित जी को बोल आऊँगा।"
" साथ ही अपनी बहनों को भी फोन कर देना।
"" माँ इसकी क्या जरूरत है केवल पंडित जी को खाना खिला देंगे। तुम्हें पता है कि हमारी मैरिज एनिवरसरी पर कितना खर्च आ चुका है। फिर अगले महीने बेटे का जन्म दिन है, तभी बुलायेंगे।"
'मगर बेटा वो पास रहती हैं इस लिये कहा।" माँ ने डरते हुये स्पष्टीकरण दिया। लेकिन राजेश अनसुना कर आगे बढ गया। तभी अन्दर से भागते हुये उसकी पत्नि ने पीछे से आवाज़ दी--' अजी सुनते हो? हमारी एनिवरसरी वाली एल्बम भी लाने वाली है।"
हाँ अच्छा किया याद दिला दिया। आते हुये ले आऊँगा।"  माँ ठगी सी देखती रह गयी।

10 October, 2010

 पा ती अडिये बाजरे दी मुट्ठ[पंजाबी पुस्तक लेखक श्री गुरप्रीत गरेवाल} का हिन्दी अनुवाद---- भाग दो
पहला भाग जिसने नही पढा वो यहाँ पढ सकते हैं--- www.veeranchalgatha.blogspot.com

आपकी फुरसत का अर्थ हमारी फुरसत  नहीं
पटियाला से एक प्रेमी सज्जन का फोन आया। उसने एक ही साँस मे अपनी बात कह डाली--- "परसों आ रहे हैं हम --- डैम शैंम देखेंगे--  दो दिन रहेंगे भी---- कतला मछली देख लेना अगर आचार डल जाये तो।"
सज्जन ने एक बार भी नही पूछा कि आपके पास फुरसत है या नही। मैं भी एक बार मुँह से नही फूटा कि भाई रुक ---अभी बहुत व्यस्ततायें हैं। खैर्! प्रेमी सज्जन की मेज़बानी करनी पडी। मैं अक्सर पढे लिखे लोगों के व्यवहार के बारे मे  सोच कर बहुत हैरान होता हूँ। अच्छे भले इन्सान मन मे ये भ्रम पाल लेते हैं कि जब उनकी फुरसत  होती है तो सभी लोग  फुरसत मे होते हैं। एक सज्जन रात 9-10 बजे बिना बताये ही आ गये। मस्ती मे सोफे पर पसर कर  बोले--" खाना खा कर सैर करने निकले थे सोचा महांपुरुषों के दर्शन ही करते चलें।" अगर आपके घर आया कोई आदमी आपको महांपुरुष कहे तो आप क्या करेंगे? न तो गुस्सा कर सकते हैं और न ही  उसे जाने के लिये कह सकते हैं। आप गेस्टहाऊस मे बैठे जैसे बन जाते हो। आपका खाने का समय है और आप चाय पानी तैयार करने मे लग जाते हैं। आये गये के साथ  चाय तो पीनी ही पडती है। 9-10  बजे चाय और फिर खाना मेजबान तो माथे पर हाथ मार कर ही बिस्तर मे  घुसता है। कितना अच्छा हो अगर आने वाला  आने से पहले एक फोन ही कर ले।
जब से भारत सरकार निगम लिमि. ने 311 रुपये का फोन  दिया है मेरे लिये तो मुसीबत ही बन गयी है। ये सकीम तो अच्छी है कि 311 रुपये दो और महीने भर जितनी मर्जी बातें करो।इस सहुलियत का दुरुपयोग कोई अच्छी बात नही। कई लोग तो बात ही यहाँ से शुरू करते हैं--" निट्ठले बैठे थे सोचा आपको फोन ही कर ले।" मोबाईल तो बहुत बडी सिरदर्दी है। जब से मैने मोबाइल फोन लिया है मुझे ये लगने लागा है कि मैं पत्रकार नहीं बल्कि फायर ब्रिगेड का मुलाजिम हूँ। सज्जन ठाह सोटा मारते हैं---"फटा फट चंद मिन्ट लगाओ --- आ जाओ--- आ जाओ--- आ जाओ--"\कोई कोई मोबाईल फोन करते समय पूछता है---"बहुत बिज़ी तो नहीं--- किसी-- संसकार मे तो नही खडे? ---- बाथरूम मे तो नही हो---- ड्राईविन्ग तो नही कर रहे?"
एक अखबार मे काम करते बहुत ही सूझवान उप सम्पादक मेरे जानकार है।एक बजे दफ्तर मे आते ही वो अपना मोबाईल बन्द कर्के दराज मे रख देते हैं। मैने इसका कारण पूछा तो बोले---" बताओ अब दफ्तर का काम करें या मोबाईल सुने।"
उपसम्पादक मोबाईल पर लम्बी पीँघ डालने वालों से बहुत ही तंग थे।उन्हों ने बतायअ कि अच्छे अच्छे डाक्टर,लेखक, प्रोफेसर ,बुद्धीजीवी सरकारी फोन ही घुमाते रहते है।ये बुद्धेजीवी इतना भी नही समझते कि हमारा काम का समय है--- काम की कोई बात हो तो सुन भी लें --- बस ऐसे ही पूछते रहेंगे--- और फिर---- और फिर ---।
प्रवासी भारती दोस्त भी कई बार लोटे मे सिर ही फसा देते हैं
 सीधा ही कहेंगे---" आज  हो गयी 27, 29 को आ रहे हैं हम ---- सीधे दिल्ली एयरपोर्ट पहुँच जाना।" भाई रब के बन्दे दस बीस दिन पहले बता दो। इस बन्दे का भी कोई प्रोग्राम होता है। अब किस किस से माथा पच्ची करें। कोई नही सुनता यहाँ।कई बार सोचा बर्फ सोडा मंगवाया करूँ और दो पैग लगाया करूँ और सोने से पहले गाया करूँ------ किस किस को रोईये,---- आराम बडी चीज़ है---- मुंह ढांप के सोईये। मैने ये आज तक सोचा तो है मगर किया नहीं। पर ये भी झगडे की जड है
व्यवस्था और निट्ठले पन  सभ्याचार को बदलने के लिये होश मे रह कर ही प्रयत्न करने की जरूरत है।

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