एक नई गज़लें
1
किसी को दर्द हो सहती नहीं मैं
हो खुद को दर्द पर कहती नहीं मैं
थपेडे ज़िन्दगी के तोड़ देते
नहीं इतनी भी तो कच्ची नहीं मैं
सलीका जानने का फायदा क्या
अमल उस पे अगर करती नहीं मैं
मुकद्दर के तसीहे नित सहे पर
यूं हाहाकार भी करती नहीं मैं
वफ़ा उनको न आये रास चाहे
जफ़ा लेकिन कभी करती नहीं मैं
न मेरे साथ तुलना हो किसी की
सुनो मैं भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ
जताऊँ जो किया उसके लिए था
मगर उनकी तरह हल्की नहीं मैं
मैं खुद की सोच पर चलती हूँ निर्मल
किसी के जाल में फंसती नहीं मैं
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इसी बह्र पर एक पुरानी गज़ल
कमी हिम्मत में कुछ रखती नहीं मैं
बहुत टूटी मगर बिखरी नहीं मैं
बड़े दुख दर्द झेले जिंदगी में
गो थकती हूँ मगर रुकती नहीं मैं
खरीदारों की कोई है कमी क्या
बिकूं इतनी भी तो सस्ती नहीं मैं-
रकीबों की रजा पर है खुशी अब
कहें कुछ भी मगर लडती नहीं मैं
बडे दिलकश नजारे थे जहां में
लुभाया था मुझे भटकी नहीं मैं
मुहब्बत का न वो इजहार करता
मगर आँखों में क्यों पढती नहीं मैं
अगर चाहूँ फलक को छू भी लूँगी
बिना पर के मगर उड़ती नहीं मैं
नहीं इतनी भी तो कच्ची नहीं मैं
सलीका जानने का फायदा क्या
अमल उस पे अगर करती नहीं मैं
मुकद्दर के तसीहे नित सहे पर
यूं हाहाकार भी करती नहीं मैं
वफ़ा उनको न आये रास चाहे
जफ़ा लेकिन कभी करती नहीं मैं
न मेरे साथ तुलना हो किसी की
सुनो मैं भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ
जताऊँ जो किया उसके लिए था
मगर उनकी तरह हल्की नहीं मैं
मैं खुद की सोच पर चलती हूँ निर्मल
किसी के जाल में फंसती नहीं मैं
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इसी बह्र पर एक पुरानी गज़ल
कमी हिम्मत में कुछ रखती नहीं मैं
बहुत टूटी मगर बिखरी नहीं मैं
बड़े दुख दर्द झेले जिंदगी में
गो थकती हूँ मगर रुकती नहीं मैं
खरीदारों की कोई है कमी क्या
बिकूं इतनी भी तो सस्ती नहीं मैं-
रकीबों की रजा पर है खुशी अब
कहें कुछ भी मगर लडती नहीं मैं
बडे दिलकश नजारे थे जहां में
लुभाया था मुझे भटकी नहीं मैं
मुहब्बत का न वो इजहार करता
मगर आँखों में क्यों पढती नहीं मैं
अगर चाहूँ फलक को छू भी लूँगी
बिना पर के मगर उड़ती नहीं मैं