20 February, 2010

कविता पँखनुचा

कविता--- पंखनुचा

उसके अहं में छिपा विष
उसकी मैं में,
तू की अवहेलना,
शोषण की बुभुक्शा,
कामुक्ता कि लिप्सा,
अभिमान की पिपासा,
कर देती है आहत
तर्पिणी का अनुराग,
सहनशीलता,सहिश्णुता,त्याग
पंखनुचा की आहों से
सिसकता है
घर की दिवारों का
हर कण
क्योंकी
उन दिवारों ने
घुटते देखा है
उस आम औरत को
उस नाम की अर्धांगिनी को
जिसकी पहचान होती है
"बेवकूफ, गंवार औरत,
तुझे अकल कब आयेगी "
हाँ सच है,
उसे अभी अकल नही आयी
और सदियों से सहेजे खडी है
इस घर की चारदिवारी को
पर
जब कभी
अतुष्टी का भावोद्रेक
अत्याचार की अतिमा
हर लेगी
उसकी सहनशीलता
जगा देगी उस के
स्वाभिमान को
तो वो मीरा की तरह
इस विष को
अमृ्त नहीं बना पायेगी
सतयुग की सीता की तरह
धरती मे नहीं समायेगी
ये कलयुग है
क्या नहीं सुन रहा
दंडपाशक का अनुनाद
तडिताका निनाद
बनादेगी तुझे निरंश,पंगल
कर देगी सृ्ष्टी का विनाश
उस प्रलय से पहले
सहेज ले
घर की दिवारों को
अपना उसे
अर्धनारीश्वर की तरह
समझ उसे अर्धांगिनी

17 February, 2010

रिटायरी कालोनी {अपनी बात}

रिटायरी कालोनी
शायद अपना घर सब का ही सपना होता है। फिर जब आदमी अपने जीवन का सुनहरी समय सरकारी मकान मे रह कर गुज़ार दे तो उसके लिए तो अपना घर और भी अहम बात हो जाती है। फिर जब आदमी रिटायर होने के करीब आता है तो लोग अक्सर ये सवाल करने लगते हैं * अपना घर बना लिया *--- कहाँ बना रहे हैं अपना घर?* आदि आदि
मुझे भी जब एक साल रिटायर होने मे रह गया तो हम ने भी अपना घर बनाने की सोची। नंगल शहर मे तकरीबन पूरी जमीन भाखडा ब्यास मैनेजमेन्ट बोर्ड ने आकुपाई कर रखी है ,बस एक आध प्राईवेट आबादी है| बाकी प्राईवेट आबादियां साथ लगते गाँवों से जमीन ले कर बनाई जा रही हैं साथ ही नया नंगल की पूरी जमीन नेशनल फर्टेलाईजेशन कम्पनी ने ले रखी है। वहां भी आस पास के गाँवों से जमीन ले कर ही आबादियां बन रही हैं। नंगल मे जो कुछ वर्ष रह लिया उसका नंगल से जाने का मन नही होता। हम ने भी सोच लिया कि नया नंगल के पास जो कालोनी बनी है,वहीं घर बनायेंगे बडी साफ सुथरी है और रेल्वे स्टेशन , बस स्टैंड आदि की बडी सुविधा है।
 जब मुझ से कोई पूछता कि घर कहाँ बना रहे हो तो मैं बडे गर्व से  कहती शिवालिक एवन्यू मे। क्यों की वहाँ घर बहुत अच्छे बने हुये हैं। सुनते ही उनके चेहरे का रंग बदल जाता * अच्छा वो रिटायरी कालोनी मे* और मुस्कुरा देते, कई तो यहाँ तक कह देते वहाँ मत बनाओ आपका दिल नही लगेगा।। मुझे समझ नही आती कि उस कालोनी मे ऐसा क्या है? आखिर रिटायर हुये लोग भी कहीं तो रहेंगे ही। भाखडा डैम  से और एन. एफ. एल. से ही रिटायर लोग वहाँ अधिकतर रहते हैं। रिटायर होते होते बच्चे पढने या नौकरी करने बाहर निकल जाते हैं। बहुत तो अभी कही पर्मानेन्ट सेट नही हुये होते इस लिये माँ बाप को अपना बसेरा बनाना ही पडता है। खैर मैने किसी की बात पर कभी अधिक ध्यान नही दिया। जब अपना घर बन गया तो वहाँ शिफ्ट हो गये। नंगल मे अपना पास पडोस बहुत अच्छा था। लगभग हर उम्र के लोग उस कालोनी मे थे। ाक्सर ही किसी न किसी के घर कोई न कोई उत्सव आदि होते रहते। बच्चों  के जन्म दिन ,किसी की शादी की वर्षगाँठ, किसी के मुन्डन, कभी किट्टी पार्टी कुछ न कुछ चला ही रहता।अगर और कुछ नही तो सब मिल कर पिकनिक का  प्रोग्राम  बना लेते।     इस कालोनी मे जब आये तो सभी लगभग अकेले पति पत्नि किसी किसी के साथ बच्चे रहते थे। यहाँ हाल ये है कि आये दिन  किसी की मौत हो गयी, किसी की बारखी है किसी के चवर्ख है ,कोई बिमार है। मतलव कहीं न कहीं अफसोस पर जाना ही पडता है। या अधिक से अधिक हुया तो कीर्तन आदि होता है। इन लोगों के लिये मनोरंजन केवल कीर्तन या धार्मिक उत्सव ही है। हर घर का एक अलग गुरू है मतलव बाबाओं की खूब चाँदी है। उन मे से कुछ एक दो ऐसे बाबा हैं जिनकी बाबा बनने से पहले की कुछ करतूतें  अस्पताल मे नौकरी के दौरान देख चुकी थी। इन के बारे मे एक अलग पोस्ट मे लिखूँगी।बहुत लम्बी लिस्ट है। 2 साल से उपर हो गये केवल गली मे एक समारोह, हमारी बेटी की शादी हुयी। मगर पुराने शहर से अब भी शादी व्याह आदि के बहुत निमन्त्रण आते हैं।
अब मुझे पता चला है कि लोग इसे रिटायरी कालोनी कह कर क्यों नाक मुँह चढाते थे। दूसरा सभी उम्र के आखिरी पडाव पर हैं अपना खाना ही मुश्किल से बनता है अगर पडोसी बिमार हो जाये तो कौन उसकी मदद करे। वहां जरा सा बुखार भी हुया कि सभी देख भाल मे लग जाते थे। आपस मे मिलने जुलने का भी कम ही रिवाज है, किसी के घुटने दर्द कर रहे हैं तो किसी को कोई न कोई बिमारी है। वैसे सभी एक ही शहर के होने के नाते एक दूसरे को जानते हैं। भगवान का शुक्र है कि मेरा पडोस बहुत अच्छा है। आस पास दोनो घरों मे बेटे बहुयें हैं उनकी। बाकी पूरी दोनो गलियों मे केवल बूढे पति पत्नि रहते हैं । ये तो भला हो इस ब्लागिन्ग का कि मुझे व्यस्त रहने के लिये एक काम मिल गया है । खूब दिल लगा हुया  है । अगर रिटायरी कालोनी मे बिना ब्लागिन्ग के रहना पडता तो शायद मैं भी अब तक बिमार हो जाती। वैसे मेरी कालोनी बहुत अच्छी है। हर जगह का अपना अपना महत्व होता है। सोच मे पड जाती हूँ कि कैसा समय आ रहा है जहाँ आज माँ बाप को अकेले रहने को मजबूर होना पड रहा है । शायद हर छोटे शहरों मे जहाँ बच्चों के लिये अच्छी नौकरियाँ नहीं हैं वहाँ ऐसी ही रिटायरी कालोनीस जगह जगह बन जायेंगी।  तो ब्लागवुड  की जय बोलिये। कहीं यहाँ ही कोई रिटायरी कालोनी तो नही़ बन जायेगी? हम बुढों के ब्लाग जरूर देख लिया कीजिये उत्साह बना रहता है। कम से कम ये तो नही लगेगा कि हम रिटायरी कालोनी मे रहते हैं।

14 February, 2010

गज़ल

इस गज़ल को भी आदरणीय प्राण भाई साहिब ने संवारा है। उन का बहुत बहुत धन्यवाद ।

गज़ल 

ज़ख़्मी हैं चाहतें, खार सी ज़िन्दगी
क्यों लगे मुझको दुश्वार सी ज़िन्दगी

लाल रुखसार पर प्यारा सा काला तिल
और है प्यारी गुलनार सी ज़िन्दगी

सांवला  चेहरा  मुस्कराते हैं लब
मांग ले आज उपहार सी ज़िन्दगी

बच के रहना सदा तेज तुम धार से
दोस्तो,ये है तलवार सी ज़िन्दगी

चांदनी रात है मस्तियों से भरी
आज दो एक पल उधार सी ज़िन्दगी



सोएँ फूटपाथ पर जब ठिकाना नही
बद नसीबी भी बेकार सी जिन्दगी

छेद दे नाव को  लोग जो  हास में
जी रहें सब वे मझधार सी ज़िन्दगी

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