हवा का झोँका - (कहानी )
सोचती हूँ कि लिखने से पहले तुम्हें कोई संबोधन दूँ- मगर क्या-------संबोधन तो शारीरिक रिश्ते को दिया जाता है वो भी उम्र के हिसाब से मगर जो अत्मा से बँधा हो रोम रोम मे बसा हो उसे क्या कहा जा सकता है------इसे भी शाय्द तुम नहीं समझोगे-क्यों कि इतने वर्षों बाद भी तुम्हें प्यार का मतलव समझ नहीं आया तुम प्यार को रिश्तों मे बांध कर जीना चाहते थे------शब्दों से पलोसना चाहते थे -------वो प्यार ही क्या जो किसी के मन की भाषा को न पढ सके --------खैर छोडो-------आज मै तुम्हारे हर सवाल का जवाब दूँगी------क्यों कि मुझे सुबह से ही लग रहा था क आज तुम से जरूर बातें होंगी--- बातें तो मै रोज़ तुम से करती हूँ-------अकेले मे --------पर आज कुछ अलग सी कशिश थी----फिर भी पहले काम निपटाने कम्पयूटर पर बैठ गयी---अचानक एक ब्लोग पर नज़र पडी----दिल धक से रह गया---------समझ गयी कि आज अजीब सी कशिश क्यों थी-----साँस दर साँस तुम्हारी सारी रचनायें पढ डाली-----------मगर निराशा ही हुई------उनमे मुझ से--- ज़िन्दगी से शिकवे शिकायतों के सिवा कुछ् भी नहीं था------मुझे अपने प्यार पर शक होने लगा------क्या ये उस इन्सान की रचनायें हैं जिसे मै प्यार करती थी मै जिस की कविता हुआ करती थी--------क्या मेरा रूप इतना दर्दनाक है--------नहीं नही---------मैने तो बडे प्यार से तुम्हारी कविता को जीया है ------तुम ही नहीं समझ पाये -------तुम केवल शब्द शिल्पी ही हो शब्दों को जीना नही जानते-
मैने सोचा था कि तुम मेरे जाने के बाद खुद ही संभल जाओगे --जैसे इला के जाने के बाद संभल गये थे-------तुम इला से भी तो बहुत प्यार करते थे--मगर जब तक वो तुम्हारी पत्नी थी------फिर दोनो के बीच क्या हुआ-------कि वो तुम से अलग हो गयी--------उसके बाद मै तुम्हें मिली--------तुम्हारे दर्द को बाँटते बाँटते---खुद मे ही बँट गयी-------लेकिन इतना जरूर समझ गयी थी कि जब हम रिश्तों मे बँध जाते हैं तो हमारी अपेक्षायें बढ जाती हैं----और छोटी --छोटी बातें प्यार के बडे मायने भुला देती हैं- मैने तभी सोच लिया था कि मै अपने प्यार को कोई नाम नहीं दूँगी---------
तुम ने कहा था कि मै तुम्हारी कविता हूँ----------तभी से मैने तुम्हारे लिखे एक एक शब्द को जीना शुरू कर दिया था----तुम अक्सर आदर्शवादी और इन्सानियत से सराबोर कवितायें लिखा करते थे कर्तव्य बोध से ओतप्रोत् ------समाजिक जिम्मेदारियों के प्रति निष्ठा से भरपूर रचनायें जिन के लिये तुम्हें पुरस्कार मिला करते थे----बस मै वैसी ही कविता बन कर जीना चाहती थी--------
मेरे सामने तुम्हारी कविता है---जिसकी पहली पँक्ति --तुम्हारा प्यार बस एक हवा का झौंका था---
अगर किसी चीज़ को महसूस किये बिना उसकी तुलना किसी से करोगे तो किसी के साथ भी न्याय नहीं कर पायोगे---मैने हवा के झोंकों को महसूस किया और उन मे भी तुम्हें पाया--तुमने उसे सिर्फ शब्द दिये मैने एहसास दिये----- और उसे से दिल से जीया भी----बर्सों---जीवन सँध्या तक मगर आज भी मेरा प्यार वैसे ही है खुशी और उल्लास से भरपूर--
तुम जानते हो हवा सर्वत्र है----- शाश्वत है---मगर इसे् रोका नहीं जा सकता--- इसे---बाँधा नहीं जा सकता---कैद नहीं किया जा सकता---और जब जब हम इसे बाँधने की कोशिश करते हैं ये झोंका बन कर निकल जाती है----ये झोंके भी कभी मरते हुये जीव को ज़िन्दगी दे जाते है-----इनकी अहमियत ज्येष्ठ आषाढ की धूप मे तपते पेड पौधों और जीव जन्तुयों से पूछो-----जिन्को ये प्राण देता है---बिना किसी रिश्ते मे बन्धे निस्सवार्थ भाव से---फिर तुम ये क्यों भूल गये कि ये झोँका तुम्हारे जीवन मे तब आया था जब तुम्हें इसकि जरूरत थी---इला के गम से उबरने के लिये--जब तुम उस दर्द को सह नहीं पा रहे थे--------हवा कि तरह प्यार का एहसास भी शाश्वत है ----तब जब इसे आत्मा से महसूस किया जाये शब्दो नहीं---
तुम इस झोंके को जिस्म से बाँधना चाहते थे---------- अपने अन्दर कैद कर लेना चाहते थे------कुछ शर्तों की दिवारें खडी कर देना चाहते थे-------- मगर हवा को बाँधा नहीं जा सकता---------तुम्हारी कविता स्वार्थी नहीं थी-------जैसे हवा केवल अपने लिये नहीं बहती ---कविता का सौंदर्य दुनिया के लिये होता है मै केवल उसे कागज़ के पन्नो मे कैद नहीं होने देना चाहती थी इस लिये अपने कर्तव्य का भी मुझे बोध था मै केवल अपने लिये ही जीना नही चाहती थी-------- मै उन हवा के झोंकों की तरह उन सब के लिये जीन चाहती थी जिनका वज़ूद मेरे साथ जुडा है
--- आज मै तुम्हें बताऊँगी की मै कैसे आब् तक तुम से इतना प्यार करती रही हूँ एक पल भी कभी तुम्हें अपने से दूर नहीं पाया---जानते हो
----------क्रमश;