30 May, 2009

हवा का झोँका - (कहानी )

सोचती हूँ कि लिखने से पहले तुम्हें कोई संबोधन दूँ- मगर क्या-------संबोधन तो शारीरिक रिश्ते को दिया जाता है वो भी उम्र के हिसाब से मगर जो अत्मा से बँधा हो रोम रोम मे बसा हो उसे क्या कहा जा सकता है------इसे भी शाय्द तुम नहीं समझोगे-क्यों कि इतने वर्षों बाद भी तुम्हें प्यार का मतलव समझ नहीं आया तुम प्यार को रिश्तों मे बांध कर जीना चाहते थे------शब्दों से पलोसना चाहते थे -------वो प्यार ही क्या जो किसी के मन की भाषा को न पढ सके --------खैर छोडो-------आज मै तुम्हारे हर सवाल का जवाब दूँगी------क्यों कि मुझे सुबह से ही लग रहा था क आज तुम से जरूर बातें होंगी--- बातें तो मै रोज़ तुम से करती हूँ-------अकेले मे --------पर आज कुछ अलग सी कशिश थी----फिर भी पहले काम निपटाने कम्पयूटर पर बैठ गयी---अचानक एक ब्लोग पर नज़र पडी----दिल धक से रह गया---------समझ गयी कि आज अजीब सी कशिश क्यों थी-----साँस दर साँस तुम्हारी सारी रचनायें पढ डाली-----------मगर निराशा ही हुई------उनमे मुझ से--- ज़िन्दगी से शिकवे शिकायतों के सिवा कुछ् भी नहीं था------मुझे अपने प्यार पर शक होने लगा------क्या ये उस इन्सान की रचनायें हैं जिसे मै प्यार करती थी मै जिस की कविता हुआ करती थी--------क्या मेरा रूप इतना दर्दनाक है--------नहीं नही---------मैने तो बडे प्यार से तुम्हारी कविता को जीया है ------तुम ही नहीं समझ पाये -------तुम केवल शब्द शिल्पी ही हो शब्दों को जीना नही जानते-
मैने सोचा था कि तुम मेरे जाने के बाद खुद ही संभल जाओगे --जैसे इला के जाने के बाद संभल गये थे-------तुम इला से भी तो बहुत प्यार करते थे--मगर जब तक वो तुम्हारी पत्नी थी------फिर दोनो के बीच क्या हुआ-------कि वो तुम से अलग हो गयी--------उसके बाद मै तुम्हें मिली--------तुम्हारे दर्द को बाँटते बाँटते---खुद मे ही बँट गयी-------लेकिन इतना जरूर समझ गयी थी कि जब हम रिश्तों मे बँध जाते हैं तो हमारी अपेक्षायें बढ जाती हैं----और छोटी --छोटी बातें प्यार के बडे मायने भुला देती हैं- मैने तभी सोच लिया था कि मै अपने प्यार को कोई नाम नहीं दूँगी---------
तुम ने कहा था कि मै तुम्हारी कविता हूँ----------तभी से मैने तुम्हारे लिखे एक एक शब्द को जीना शुरू कर दिया था----तुम अक्सर आदर्शवादी और इन्सानियत से सराबोर कवितायें लिखा करते थे कर्तव्य बोध से ओतप्रोत् ------समाजिक जिम्मेदारियों के प्रति निष्ठा से भरपूर रचनायें जिन के लिये तुम्हें पुरस्कार मिला करते थे----बस मै वैसी ही कविता बन कर जीना चाहती थी--------
मेरे सामने तुम्हारी कविता है---जिसकी पहली पँक्ति --तुम्हारा प्यार बस एक हवा का झौंका था---
अगर किसी चीज़ को महसूस किये बिना उसकी तुलना किसी से करोगे तो किसी के साथ भी न्याय नहीं कर पायोगे---मैने हवा के झोंकों को महसूस किया और उन मे भी तुम्हें पाया--तुमने उसे सिर्फ शब्द दिये मैने एहसास दिये----- और उसे से दिल से जीया भी----बर्सों---जीवन सँध्या तक मगर आज भी मेरा प्यार वैसे ही है खुशी और उल्लास से भरपूर--
तुम जानते हो हवा सर्वत्र है----- शाश्वत है---मगर इसे् रोका नहीं जा सकता--- इसे---बाँधा नहीं जा सकता---कैद नहीं किया जा सकता---और जब जब हम इसे बाँधने की कोशिश करते हैं ये झोंका बन कर निकल जाती है----ये झोंके भी कभी मरते हुये जीव को ज़िन्दगी दे जाते है-----इनकी अहमियत ज्येष्ठ आषाढ की धूप मे तपते पेड पौधों और जीव जन्तुयों से पूछो-----जिन्को ये प्राण देता है---बिना किसी रिश्ते मे बन्धे निस्सवार्थ भाव से---फिर तुम ये क्यों भूल गये कि ये झोँका तुम्हारे जीवन मे तब आया था जब तुम्हें इसकि जरूरत थी---इला के गम से उबरने के लिये--जब तुम उस दर्द को सह नहीं पा रहे थे--------हवा कि तरह प्यार का एहसास भी शाश्वत है ----तब जब इसे आत्मा से महसूस किया जाये शब्दो नहीं---
तुम इस झोंके को जिस्म से बाँधना चाहते थे---------- अपने अन्दर कैद कर लेना चाहते थे------कुछ शर्तों की दिवारें खडी कर देना चाहते थे-------- मगर हवा को बाँधा नहीं जा सकता---------तुम्हारी कविता स्वार्थी नहीं थी-------जैसे हवा केवल अपने लिये नहीं बहती ---कविता का सौंदर्य दुनिया के लिये होता है मै केवल उसे कागज़ के पन्नो मे कैद नहीं होने देना चाहती थी इस लिये अपने कर्तव्य का भी मुझे बोध था मै केवल अपने लिये ही जीना नही चाहती थी-------- मै उन हवा के झोंकों की तरह उन सब के लिये जीन चाहती थी जिनका वज़ूद मेरे साथ जुडा है

--- आज मै तुम्हें बताऊँगी की मै कैसे आब् तक तुम से इतना प्यार करती रही हूँ एक पल भी कभी तुम्हें अपने से दूर नहीं पाया---जानते हो
----------क्रमश;

29 May, 2009

फर्श से अर्श तक

मुझे उन लोगोँ के बारे मे पढना सुनना और लिखना बहुत अच्छा लगता है जो विपरीत परिस्थितियों मे भी अपनी राहें तलाश लेते हैं1 अपनी मेहनत लगन और इमानदारी से अपनी मँज़िल हासिल कर लेते हैं1 महान विभूतियों को तो हम पुस्तकों पत्र पत्रिकायों अदि मे पढते रहते हैं1 मुझे लगता है जो उभरती हुयी प्रतिभायें हैं जिन्हे हम अपने आस पास देखते है1 हमे उनकी उपलब्धियों को भी समाज के सामने लाना चाहिये तकि लोगों की प्रेरणा पा कर वो उत्साह से आगे बढ सकें इसी प्रयास मे मेरा एक लेख बातचीत की कला पहले भी मेरे ब्लोग पर आ चुका है 1
आज जिस प्रतिभा से आपका परिचय करवाने जा रही हूँ उसका नाम है प्रकाश सिंह जिसे आप सब लोग अर्श के नाम से अपने ब्लोग पर टिप्पणी देते देखते हैंएक बार मै नेट्पर कुछ सर्च कर रही थी कि एक लिस्ट् पर मेरी नज़र पडी मैने सरसरी नज़र डाली तो वो एक लिस्ट थी ब्लोगर्ज़् लिस्ट उसमे लगभग पाँच हजार के करीब ब्लोगर्ज़् थे और सभी विदेशी थे एक दो प्रतिशत भारतीय थे1
तभी मेरी नज़र एक प्रोफाइल पर रुक गयी अरे -- ये तो अपना अर्श है इसका नाम ढेड सौ लोगों मे था
मैने उसी समय उसे बधाई दी और उसे लिस्ट की कापी मेल कर दी तब पता चला कि ये सिर्फ हमारे लिये ही नही बल्कि दुनिया के लिये भी खास है इसने विपरीत परिस्थितियों मे ये मुकाम हसिल किया है इस जेसे और भी बहुत से लोग होंगे मगर हम जान नहीं पाते और इस तरह अच्छे लोग देखने मे कम आते हैं 1
इसका जन्म बिहार के एक छोटे से गाँव खनानी कलां जिला आराह (भोजपुर मे हुआ था1
जहाँ आज तक भी बिजली नहीं है चार कि.मी. तक सडक नहीं है केवल एक नहर है जिसके कारण लोग खेतीबाडी कर अपनी आजीविका चलाते है1अर्श का बचपन उसी गाँव मे बीता1जब इनके घर का बंटवारा हुआ तो दादा के हिस्से मे केवल एक बैल आया था इसके दादा पहलवानी करते थे उन्होंने मेहनत की और अपनी प्रतिभा से पोलिस मे पहलवानी के आधार पर नौकरी पा ली और अपने परिवार क पेट पालने लगे अर्श के पिता भी पढने मे होश्यार थे उन्होंने भी बहुत कठिन परिश्रम् किया और उन्हें भी एक बैंक मे नौकरी मिल गयी जिस कारण उन्हें गाँव से बाहर जाना पडा1 उनकी ट्राँस्फरेबल जाब थी इस लिये अर्श गाँव मे ही अपने दादा की छत्रछाया मे पलने बढ्ने लगा1
अर्श ने प्राथमिक शिक्षा झारखँड और इन्टर और स्नातक की डिगरी एल एस कालेज मुजफ्फरपुर से ली उसके दादा पहलवान थेऔर इसे भी पहलवानी सिखाया करते थे1मगर अर्श की रुची संगीत मे थी स्कूल मे भी वो हर प्रतियोगिता मे भाग लेता था1 ये संगीतकार बनना चाहता था मगर इसके पिताजी नहीं माने1स्नातक की डिगरी के बाद इसने देहली मे एम बी ऎ मे दाखिला ले लिया1वहां इसने ठुमरी दादरा और सैमीक्लासिकल महारत हासिल कर ली 1
लेकिन इसे सीखने के लिये उसने कहीं भी दाखिला नहीं लिया बस अपनी संगीत मे रुची के कारण खुद ही अभ्यास कर कर के सीखा1 युनिवर्सिटी मे संगीत के लिये जाना जाता था इसने उत्तरी भारत की प्रतिस्पर्धाओं मे भाग लिया और अपने कालेज का नाम रोशन किया1 घर मे संगीत्त का कोई महौल ना होते हुये भी इसने इस क्षेत्र मे अपनी पहचान बनाई 1ये बालीबाल का भी बहुत अच्छा खिलाडी है1 aaaaएम बी ऎ करने के बाद अब ईँडिया बुल नामक कम्पनी मे सीनियर मैनेजर के पद पर काम कर रहा है1 मगर अब तक भी अपने गाँव के उस दालान से जुडा है जहाँ इसके बचपन की कुछ यादें ताज़ा करने जाता रहता है और अपने दादा को शर्द्धाँजली देना नहीं भूलता1अपनी माँ से बहुत प्यार करता है1 उसे माँ की एक खासियत बहुत अच्छी लगती है कि वो उधडे रिश्तों को तुरपाई करना बहुत अच्छी तरह जानती है शायद उसने भी माँ से ये गुण पाया है1
एक दिन मै उससे बात कर रही थी तो मैने पूछा कि तुम्हारी आवाज़ नही निकल रही क्या खाना नही खाया तो इसने कहा कि आज खाना नहीं खाऊँगा आज मेरे गुरूजी मुझ से नाराज़ हो गये हैं जब तक उनकी नाराज़गी दूर नही कर् लेता खाना नही खाऊँगा वो गुरू को भगवान के बराबर मानता है1
अगले दिन अपने गुरु र्जी को मना कर खाना खाया1 इतनी सँवेदनशीलता और अपनों के प्रति प्रतिबद्ध्ता है इसमे1 भविष्य मे साहित्य के प्रति समर्पित होना चाहता है1 गज़ल गीत कविता के बद समीक्षा और कहानी लेखन मे भी अपको इसकी रचनायें पढने को मिलेंगी
और एक दिन आप इसकी गज़लें इसी की आवाज़ मे सुनेंगे इसके अतिरिक्त समाज सेवा मे भी काम करना चाहता है1 उसकी लगन और सहित्य के प्रति लगाव देख कर मुझे लगता है कि एक दिन सहित्य जगत मे भी इसका नाम होगा
इसके पिता श्री हरी शंकरजी अपनी मेहनत से आज बैँक मैनेजर हैं1 इसका और एक भाई है उसको भी इसका संरक्षण और मार्गदर्शन प्राप्त है1 वो एम बी ए करने के बाद एक कम्पनी मे कार्यरत है1 अर्श अपने गाँव का पहला लडका है जिसने एम़ बी़ ए किया है इसलिये इसकी सफलता गाँव के बाकी बच्चों के लिये मार्गदर्शक ह सब से बडी बात कि इसमे अपने गाँव के लिये कुछ करने क जज़्वा है1 aअगर आज कल की युवा पीढी ऐसे सोचने लगे तो भारत जरूर दुनिय का सिरमौर होगा 1इसलिये ऐसे व्यक्तित्व को उत्साह मिलना चाहिये जो देश के लिये कुछ करने की तमन्ना रखते हैं1मुझे यकीन है आप सब इस काम मे कँजूसी नही करेंगे
इसी कडी मे अगला लेख एक और ऐसे ही व्यक्तित्व के बारे मे लिखूँगी1 मेरी सभी ब्लोगर्ज़ से ये प्रार्थना है कि वो अधिक से अधिक अच्छे लोगों के बारे मे लिखें ताकि बाकी लोगों को उनके जीवन से प्रेरणा मिल सके और हम एक अच्छे समाज की संरचना मे अपनी कलम का सार्थक प्रयोग कर सकें1 अर्श की सफलता के लिये भगवान से दुआ करती हूँ 1

28 May, 2009

तुम थे हम हैं
जीत उसकी नहीं जिसने किसी को ठुकराया
जीता वो जिसने हार कर भी ना इमान भुलाया

वो तुम थे जो मेरी नज़र से दुनिया देखा करते थे
अज मेरे सामने हो कर भी दुनिया को देख रहे हो

वो तुम थे जो मेरी जरा सी चुभन से रो देते थे
आज भी तुम हो जो जिगर मे तीर चुभो कर हंसते हो

वो तुम थे जो मेरी साँस से अपनी नब्ज़ देखा करते थे
आज भी तुम हो जो मेरी टूटी साँसों से राहत ले रहे हो

इस फर्क को समझो तो जीत इमान की हुई
तुम कभी हुअ करते थे हम अब भी वहीं हैं

27 May, 2009

( बाल कविता )

बिटिया रानी
आसमान से उतरी है वो
ज्यों परियों की रानी
ठुमक ठुमक कर चलती है वो
जैसे गुडिया जापानीAlign Center

छोटी सी वो गोल मटोल
प्यारे मीठे उसके बोल्
बातें करते तुतलाती है
फिर मँद मँद मुस्काती है

हँसे खेले धूम मचाये
है वो बडी सयानी
जब खाने की बारी आये
तो करती है मनमानी

दाल भात उसे ना भाये
फल सब्जी से मुँह चुराये
जब देखे वो दूध की बोतल
झट से पुस्सी कैट बन जाये

हँसती है वो फूलों जैसे
कलियों जैसे मुस्काती है
नयी शरारत कर के वो
बुलबुल से इतराती है

नेट पर देख के नाना नानी
उसकी प्यारी सी अदायें
सात समन्दर पार वो बैठे
देख उसे बहुत हर्षायेँ

मम्मी की वो लाडली
पापा की है मानो जान
ऐसी प्यारी से बेटी को
सब खुशियाँ देना भगवान

बच्चो दूध मलाई खाओ
फल सबजी से ना मुँह चुराओ
अगर अच्छा होगा खान पान
तभी बनोगे तुम महान

26 May, 2009

( कविता )

तुझे ढूँढाते रहे
तेरे साथ दिवाली थी घर आँगन क्या
मेरे दिल के दिये भी जलते रहे
तेरे बाद दिवाली पे किसी कोने में
इक छोटी सी किरण को तरसते रहे

तू मेरे घर का चिराग था
तेरे दम से था ये घर रोशन्
तेरे बाद जरा सी खुशी के लिये
दूसरों का मुँह तकते रहे

तेरे देश मे दिवाली पे
यूँ दिये जलते नहीं क्या
हम उठा के मुँह सारी रात
आसमाँ मे तेरा घर ढूँढते रहे

ऎ खुदा इक माँ पे तो रहम खाया करो
उसके चिराग को दिवाली पे तो जलाया करो
इसी इन्तज़ार मे अंधेरी ज़िन्दगी के
सहकते से पहर कटते रहें

24 May, 2009


( कविता )

जड
धरती के अन्दर
आँख खोलते ही
वो इठलाती है
बाह्यें फैलाती है
और गर्व से
फूल जाती है
कि उस से ही है
पेड का जीवन
पर उसका अपना
वज़ूद क्या है
आसमान से कम
क्या होगा!
बाहें पसारती है
फल फूल पत्तों से
खुद को सजाती
संवारती है
फिर इन्तज़ार करती है
कोई आयेगा उसे सराहेगा
उसके गुण गायेगा
हाँ बहुत लोग आते हैं
फूलों की महक
फलों के स्वाद्
पत्तों की घनी छाया के
गीत सुनाते हैं
मंदिरों तक मे यही
पूजे जाते हैं
और वो धरती मे
सिकुडी सिमटी
पेड का बोझ उठाये
जमीन से बाहर आने को अधीर
क्यों बोझ उठाये
क्यों अपनी आज़ादी गंवाये
तभी कहीं से आती है
एक आवाज़
जड़ है तो पेड है
बस इतने मे ही
पा लेती है अपना अस्तिव
जब हो जाता है ये बोध्
तब अपना कर्तव्य्
नही लगता बोझ
औरये जड माँ है
वो है तो जहाँ है

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