10 September, 2010

अति अन्त है-- बोध कथा---

अति अन्त है
एक नदिया का पानी रोज़ अपनी रवानगी मे बहता, किनारों की तरफ भागने की कोशिश करता मगर नदी से बाहर नही निकल पाता। उसके मन मे बहुत क्षोभ था कि वो स्वतन्त्र क्यों नही। सामने ऊँचे हिम शिखरों के देख कर उसका मन ललचाता कि काश वो उस शिखर पर पहुँच जाये और दुनिया के नज़ारे देखे। उसने सूरज की किरण से कहा
 "तुम मुझे भाप बना दो ताकि मैं उस हिम शिखर तक पहुँच जाऊँ।"
 किरण ने उसे समझाया " तुम पानी हो नदिया मे ही रहो यही तुम्हारी तकदीर है। दूर की चमक दमक देख कर अपने पाँव के नीचे की जमी मत छोडो"
मगर पानी नही माना। उसने कहा कि --
" ये तुम इसलिये कह रही हो कि मैं कहीं बडा न बन जाऊँ मुझ मे भी पहाड जितनी शक्ती न आ जाये।"
नही मैं इस लिये कह रही हूँ कि तुम जितनी शक्ती किसी मे नही। झुकने मे जो ताकत है वो ऊँचा सिर करने मे नही। तुम खुद को जैसे चाहो ढाल सकती हो। मगर पर्बत की तकदीर देखो वो अपना सर भी नही हिला सकता। कहीं मर्जीसे आ जा नही सकता वो भी तो अपनी सीमाओं मे से बन्धा हुआ है! रोज़ सूरज का इतना ताप सहता है फिर भी अडिग है। क्या तुम उसकी तरह सभी कष्ट सह सकती हो? तभी तो वो पर्बत है। क्या तुम उसकी तरह सभी कष्ट सह सकती हो?भगवान ने सब को कुछ न खुछ काम दे कर संसार मे भेजा है इस लिये जिसको जिस हाल मे भगवान ने रखा है उसे खुशी से स्वीकार कर सब का भला करते रहना चाहिये। तुम भी अपनी सीमा मे बन्ध कर रहना सीखो और सब की प्यास बुझा कर मानवता की सेवा करो। अगर कोई एक बार राह भटक गया तो न घर का रहता है न घाट का।"
मगर पानी ने उसकी एक नही सुनी तो सूरज की किरण कहा कि चलो मैं तुम्हें भाप बना देती हूँ तुम शिखर पर चली जाओ। पानी भाप बन कर पर्बत  पर चला गया और ठंड से बर्फ बन कर चोटी पर जम गया। वो बहुत खुश हुया कि यहाँ से खडे हो कर वो दुनिया के नज़ारे देख सकता है। आज वो भी कितना ऊँचा उठ गया है नदिया यूँ ही नाज़ करती थी कि उसने मुझे पनाह दे रखी है। सूरज की किरण रोज़ उससे मिलने आती तो झूम कर कहता कि देखों आज मैं भी पर्वत हूँ। वो मुस्कुराती और अपनी राह चल देती। मगर एक दिन  पानी का घमंड देख कर उसने कहा कि कुछ दिन ठहरो अब गर्मी आने वाली है। अभी सूरज देवता का ताप इतना बढ जायेगा कि तुम सह न पाओगी। मगर पानी तो अपनी इस सफलता पर झूम रहा था उसे किसी चीज़ की परवाह नही थी। कुछ दिनो बाद गर्मी का मौसम आया।  वहाँ रोज़ सूरज की तपता तो पानी पिघलने लगता। धीरे धीरे पानी पिघलता तो कभी किसी तालाब मे तो कभी कहीं जमीन पर बूँद बूँद टपक जाता। उसे नदिया तक जाने का रास्ता भी नही पता था वो तो सपनों के पंख लगा मदहोश हो  कर पहाड पर आया था। वैसे भी पानी के पहाड पर चले जाने के बाद नदी सूख गयी थी और अब वहां बडी बडी इमारतें खडी हो गयी थीं। पानी के लिये जगह ही कहाँ बची थी? इस तरह कुछ हिस्सा कहीं तो कुछ कहीं गया। जैसे किसी शरीर के टुकडे करके अलग अलग जगह फेंक दिये गये हों। एक दिन किरण को पानी का धडकता हुया दिल एक नाले मे दिखा तो उसने कटा़क्ष किया---
" क्या तुम्हारा दिल पर्बत पर नहीं लगा?"
 पानी दुखी मन से बोला "तुम ने सही कहा था हम दूसरों को ऊँचे उड कर देखते हैं तो सामर्थ्य ना होते हुयी भी वहाँ तक पहुँच जाना चाहते हैं। मगर जिस परिश्रम और कष्ट को उन्होंने सहा है वो सह नही सकते। मुझे आज ये शिक्षा मिली है कि दूसरों को देख कर अपनी सीमायें मत तोडो नहीं तो न घर के रहोगे न घाट के। अगर तुम मानवता की सेवा करना चाहते हो तो खुद को सीमा में बान्धना सीखो। नहीं तो बिखर जाओगे और मेरी तरह  किसी के काम के नही रहोगे।" आखिर हर चीज़ की हर ख्वाहिश की कोई न कोई तो सीमा तो होनी ही चाहिये। अति अन्त है।


05 September, 2010

   बहुत दिन से कुछ अच्छा लिखा नही गया। मूड बनाने के लिये कुछ यत्न करते हैं। चलो आज आपको प्राण भाई साहिब के साथ मेले मे घुमाते हैं। पढिये उनकी गज़ल मेले मे।
मेले में -- प्राण शर्मा
                  
घर वापस जाने की सुधबुध बिसराता है मेले में
लोगों की रौनक में जो भी   खो   जाता है मेले में
 
किसको याद  आते हैं घर के दुखड़े,झंझट और झगड़े
हर कोई खुशियों में खोया   मदमाता    है   मेले में
 
नीले -  पीले लाल- गुलाबी   पहनावे   हैं   लोगों     के
इन्द्रधनुष   का  सागर    जैसे   लहराता    है   मेले   में
 
सजी   -  सजाई    हाट - दुकानें   खेल - तमाशे  और झूले
कैसा  -  कैसा   रंग    सभी   का भरमाता  है   मेले   में
 
कहीं  पकौड़े  , कहीं   समोसे ,  कहीं   जलेबी   की महकें
मुँह   में   पानी   हर   इक  के  ही भर आता है मेले   में
 
जेबें   खाली  कर   जाते हैं   क्या   बच्चे   और क्या  बूढ़े
शायद    ही    कोई      कंजूसी      दिखलाता   है मेले   में
 
तन    तो क्या मन भी मस्ती में झूम उठता है हर इक का
जब   बचपन    का   दोस्त अचानक मिल जाता है मेले में
 
जाने  -  अनजाने   लोगों   में   फर्क   नहीं    दिखता    कोई
जिससे     बोलो    वो    अपनापन    दिखलाता   है   मेले  में
 
डर  कर   हाथ   पकड़   लेती   है हर माँ अपने   बच्चे    का
ज्यों    ही    कोई    बिछुड़ा   बच्चा   चिल्लाता   है   मेले में
 
ये दुनिया   और   दुनियादारी    एक    तमाशा    है     भाई
हर    बंजारा    भेद     जगत   के     समझाता    है    मेले   में
 
रब    न   करे    कोई    बेचारा    मुँह   लटकाए    घर     लौटे
जेब    अपनी   कटवाने    वाला     पछताता     है     मेले    में
 
राम   करे  ,  हर   गाँव -  नगर   में   मेला  नित दिन लगता हो
निर्धन   और  धनी   का    अंतर    मिट  जाता    है   मेले    में
 
 

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