23 October, 2009

क्यों दर्द होता है (कहानी )

एक बार पूछा था तुम ने ------- रुद्र तुम्हारी आँखों मे दर्द क्यों रहता है------ क्यो तुम्हारी आँखें बुझी बुझी सी रहती हैं------ तुम्हारी आवाज़ जैसे कहीं गहरे कूयें से आ रही हो ------ एक बार मे इतने सवाल ------ मै हमेशा की तरह चुप कर गया था------- अपने दर्द मे किसी को शामिल करना मुझे मँजूर नहीं था फिर उसे------- जिस की खुशी के लिये मैने इतने दर्द पाल लिये थे------- सोचा था कि तुम्हें कभी नहीं बताऊँगा-------- मगर ---- आज जरा स्वार्थी हो गया हूँ------- पता नहीं क्यों, शायद जानता हूँ कि अब जीवन के कुछ दिन ही बाकी हैं--- चाहता हूँ कि तुम्हें बताऊँ------ पर शायद ये मेरे पन्नों मे ही कैद रह जाये------ फिर भी बता दूँ------- मुझे कब दर्द होता है क्यों होता है--------
मुझे इन विरान दिवारों मे अकेले लेटे हुये दर्द नहीं होता------ ये रेत की दिवारें मेरे सारे गम सोख लेती हैं------- ये मेरा कमरा मेरे हर पल का साथी है-------- मैं जब इन दिवारों से बातें करता हूँ------ तो कहीं से एक तस्वीर इन पर उभरने लगती है------ एक सुन्दर सी छोटी सी लडकी------- धीरे धीरे वो मेरे पास आ कर खडी हो जाती है------ और मेरा हाथ पकड कर मुझे बाहर की ओर खींचती है मेरे बेजान शरीर मे पता नहीं कहाँ से इतनी ताकत आ जाती है कि मैं उसके पीछे पीछे चल पडता हूँ ------ इस आशा मे कि शायद अब ये मुझे कहेगी कि बाहर देखो जामुन का पेड जामुन से भरा पडा है मुझे तोड कर दो या फिर आम के लिये कहेगी------ फिर से एक सपना आँखों मे तैरने लगता है------- बाहर जाते ही पता नहीं मेरा हाथ छोड कर वो कहाँ गायब हो जाती है------ और मैं खुद को लम्बे लम्बे घने चीड के पेडों के बीच अकेले पाता हूँ जरा सी कसक होती है तो उसे दिल से बाहर फेंकने की कोशिश करता हूँ------- फिर मुझे लगता है कि शायद वो इन पेडों के पीछे छुप गयी है और छुपा छुपी खेलना चाहती है मैं---- इन पहाडों पर पेडों के बीच बनी पगडँडिओं पर चल पडता हूँ------ चलता जाता हूँ----- पहाडों का घना अँधेरा------ सर्द हवा------ मगर उसे ढूँढते हुये पसीन पसीना हो जाता हूँ------ नहीं ढूँढ पाता------ थक हार कर वहीं बैठ जाता हूँ कदम साथ नहीं देते------- दूर दूर तक एक अजीब सा सन्नाटा------ और तब दर्द होता है------- जब उसे ढूँढ नहीं पाता ----शायद तुम्हें इस मे कोई दर्द की वजह ना लगे पर मेरे दर्द की वजह वो छोटी सी मासूम लडकी है------ जिसे जितना भूलना चाहता हूँ उतना ही वो याद् आती है-----
फिर भी चलती जाती है ज़िन्दगी----- कहीं गहरे मे छुपा लेता हूँ अपना ये दर्द------ फिर कई बार इन दिवारों से भी तंग आ जाता हूँ तो बाहर बगीचे मे आ कर बैठ जाता हूँ------ अभी सूरज छिपा ही होता है----- फिर दूर कहीं लम्बे घने पेडों के पीछे से लगता है कि कोई साया सा मेरी तरफ चला आ रहा है------- ये तुम्हारा आँचल है शायद तुम कब बडी हो गयी जान ही नहीं पाया------- आज पहली बार देखा है दुपट्टा ओढे हुये या शायद आगे भी लिया हो मैं ही नहीं देखना चाहता था तुम्हें बडी होते हुये------ फिर कसक होती है हम बडे क्यों हो जाते हैं------- लगता है किसी ने मेरे कन्धे पर हाथ रखा है ------
आँखें बन्द कर लेता हूँ ------- सायँ सायँ की आवाज़ सुन रहा हूँ------- शायद तुम्हारी साँसों की आवाज़ है------- मगर ऐसी तो नहीं थी तुम्हारी साँसों की आवाज़ ---- दिल की धडकन सुनाई दे रही थी------ इतने ज़ोर से तो नहीं धडकता था तुम्हारा दिल------ और टीस उठती है जब देखता हूँ कि तुम नहीं हो ये तो पेडों की सरसराहट ह--- धडकन नहीं---- पत्तों की खडखडाहट है----- फिर उदास हो जाता हूँ----- याद आ जाता है वो दिन जब आखिरी बार तुम बैठी थी मेरे पास ------ तुम तब बडी हो गयी थी------- कितनी चमक थी तुम्हारी आँखों मे ये बताते हुये कि तुम्हारी शादी तय हो गयी है---- तब मैने ऐसी ही धडकन सुनी थी तुम्हारे दिल की------ और तुम्हारी ये धडकन मेरे लिये दर्द बन गयी थी ------ ये घाव इतना गहरा है कि इसे अभी नहीं दिखाऊँगा------ कभी दिखाऊँगा जरूर कि वो रात मेरे लिये कितनी दर्दनाक थी-- अब जब बताने पे आ ही गया हूँ तो सब कुछ धीरे धीरे एक एक कर के बताऊँगा ------ हाँ तो मै क्या बता रहा था---- हां उस दिन्-- तुम पर नहीं खुद पर क्रोध आ रहा था या शायद तरस आ रहा था कि ----- काश ये धडकन मेरे लिये होती ------ काश कि ये चमक मेरे लिये होती---- इसी का तो इन्तज़ार करता रहा था मै------ काश कि तुम्हें बता पाया होता------ क्यों नही बता पाया----- मुझे लगता था कि तुम्हें खुद समझ जाना चाहिये ------ मगर ये जानते हुये कि तुम बहुत नादान और मासूम हो------ बचपना नहीं छोड् पाइ हो------- मै तुम्हारे बडे होने का इन्तज़ार करता रहा------- उस दिन भी तुम्हारी ेआँखों मे खुशी की चमक देख कर मै हमेशा के लिये चुप रह गया------ तुम्हारे चेहरे पर उदासी देख ही नहीं सकता था------
मुझे वो दिन याद करके बहुत दर्द होता है बहुत्त पीडा होती है-------- तुम नहीं समझोगी------
फिर तब और भी दर्द होता है------ जब मैं अपनी किताबें ले कर बैठता हूँ------- तुम चुपके से स्लेट् ले कर मेरे सामने आ जाती हो सवाल पर सवाल पूछती रहती हो------ फिर मै एक बडा सा मुश्किल सवाल दे देता हूँ ताकि तुम्हें इसे हल करते हुये काफी समय लग जाये और मै उतनी देर तुम्हें देख सकूँ------ तुम्हारे चेहरे के एक एक रोम से मै वाकिफ था ----- मगर तुम जान ही नही पाई----- शायद तुम्हें डाँट देता था और तुम मुझ से डरती भी थी------ डाँट इस लिये देता कि तुम सिर उठा कर ना देख सको कि मैं तुम्हें देख रहा हूँ------- इस तरह मै तुम्हें हर पल अपनी आँखों मे बसाये रखता------ हम दूर दूर भी चले गये मगर मै तुम्हारा वो चेहरा नहीं भूल पाया ----- तुम्हें सब कुछ पढा कर भी जैसे कुछ नहीं पढा पाया ----- मेरा एक सवाल तुम कभी हल नहीं कर पाई---- या शायद उस सवाल की इबारत ही मैने गलत लिखी थी ----- ज़िन्दगी के सवाल को भी गणित के सवाल की तरह ही समझा था इस गलफहमी मे रहा कि आखिर तुम हल पूछने तो मेरे पास ही आयोगी-----
मगर अब तुम बडी हो गयी थी अपने सवाल खुद हल करने लगी थी------ और रोज़ जब भी कोई किताब ले कर बैठता हूं तो उन पन्नों पर तुम्हारी तस्वीर देखता हूँ------ और वही मेरे दर्द का कारण् बन जाती है। किस किस बात को कैसे भूलूँ------ मुझे दर्द तब होता है जब इन सब के लिये मै खुद को जिम्मेदार समझने लगता हूँ ----- क्यों नहीं बता पाया तुम्हें ------ कोई देखते देखते मुझ से मेरी जान छीन कर ले गया और मैं---- कुछ नहीं कर पाया मेरी बुजदिली मेरी व्यथा बन गयी-------- तब से आज तक तुम एक पल के लिये भी मुझ से दूर नहीं ----- अब भी कई बार लगता है कभी ना कभी शायद कोई ज़िन्दगी से जुडा सवाल ले कर तुम मेरे पास आओ------- और इसी इन्तज़ार मे जी रहा हूँ-------।
बाकी कल ------ अब कागज़ पर फिर तुम्हारी तस्वीर उभरने लगी है ----- इससे बातें करते करते सो जाऊँगा------ इस दर्द की इन्तहा तक पहुँच कर ही नींद आती है------ कल फिर सुनाऊँग कि मुझे दर्द क्यों होता है-------

21 October, 2009

गज़ल

ये गज़ल भी आदरणीय प्राण भाई साहिब के आशीर्वाद से और उनके हाथों सजी संवरी है। तो पढिये और बताईये कि मेरी ये कोशिश कैसी रही?

1222 1222 1222 1222



रहे तालिब सदा तेरे
दीदार-ए-नूर के जानम
न आया तू न कोई भी
पता तेरा मिला मुझ को

वफा को ही मिले धोखा
बता ऐसी रवायत क्यों
मैं हैराँ हूँ उजाले मे
भी अंधेरा मिला मुझ को

हज़ारों रोनकें होती रहें
होते रहें उत्सव्
उजडता सा सदा मेरा
जहाँ डेरा मिला मुझ को

सदा जीता रहा मर मर
के मैं यारो ख्यालों मे
मिला ये तोहफा देखो
जो गम तेरा मिला मुझ को

तिरे कन्धे पे सिर रख कर
लगा कोई मेरा भी है
चलो जीने को कोई साथ
ही मेरा मिला मुझ को

करे कोई गिला तो क्या?
बताओ तो सही *निर्मल*
मुहब्बत में बना बन कर
खुदा मेरा मिला मुझ को


19 October, 2009

गज़ल

गज़ल से पहले एक सूचना देना चाहती हूँ

क्यों सिर्फ दौलू है, हिन्दी विज्ञान कथा लेखक?


[कल्किआन् हिंदी मे प्रकाशित ] गॉवों में एक कहावत प्रचलित है, "माया तेरे तीन नाम, दौलू, दौलत, दौलत राम", यानि कि किसी के स्टेट्स के साथ उसका नाम भी बदलता जाता है। आज हिन्दी विज्ञान कथा के लेखकों पर विचार करते समय अनायास ही ये बात मुझे याद आई। ---डा. अरविन्द दुबे {पूरा आलेख हिन्दी कल्किआन ब्लोग पर पढें}

कल हिन्दी कल्कियान ब्लोग पर ये आलेख पढ रही थी तो विग्यान कथा मे रुची जागी। यहाँ तक मुझे लगता है कि बहु गिनती के लेखक इस बारे मे अधिक सचेत नहीं हैं । न ही पत्र पत्रिकाओं मे इसके बारे मे अधिक प्रचार प्रसार होता है। अगर कोई नया लेखक लिखने की कोशिश भी करता होगा तो पत्रिकाओं मे छपना बहुत कठिन है । अगर आप लोग विग्यान मे रुची रखते हैं और विग्यान पर साहित्य सृजन करना चाहते हैं तो आप कल्कियोन ब्लोग के लिये लिखें और वहाँ आपका मार्ग दर्शन करने के लिये और विग्यान साहित्य को नयी दिशा देने के लिये एक प्रयासरत टीम है। आप नीचे दिये गये लिन्क पर देख सकते हैं। और वहाँ से पूरी जानकारी ले सकते हैं।
इस आलेख को भी इसी ब्लोग पर पढें।

http://hindi.kalkion.com/articles




गज़ल

मेहरबानी का इजहार न कर
यूँ महफिल मे तु शर्मसार न कर

दोस्त को कुछ भी कह ले मगर
दोस्ती पर भूले से वार न कर

प्यार अगर तू जाने ही नहीं क्या है
यूँ बढ चढ के तो तकरार न कर्

जो *निर्मल * वक्त पे काम न आये
ऐसे दोस्त पर एतबार न कर

जो इन्साँ को हैवान बना दे खुद मे
तू आदत वो शुमार न कर

कौन किसी का साथ निभाए सदा
जाने वाले का इन्तज़ार न कर

इन्साँ है तो इन्सानियत निभा
महरूम वफा से संसार न कर

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