13 April, 2011

लघु कथा
लगभग 24 -25 दिन ब्लाग से दूर रहना--- पहले पहले तो कितना तकलीफ देह लगता था मगर फिर इसकी जगह बच्चों [नाती नातिनों की किलकारिओं ने ले ली और मै  ब्लाग से दूर जाने का दुख भूल गयी। कल। अब जब वापिस आ गयी हूँ तो ब्लाग मेरे सामने है मगर अब कानों मे बच्चों की किलकारियाँ गूँज रही हैं़ मन नही कर रहा कि नेट पर बैठूँ। जैसे कोई बच्चा छुट्टिओं के बाद स्कूल जाने से कतराता है कुछ वैसा ही मेरा भी हाल है। लगता है दिमाग बिलकुल साफ हो गया है कोई शब्द नही सूझ रहा कि क्या लिखूँ कहाँ से शुरू करूँ। कोशिश करती हूँ। जब तक कुछ नही लिख पाती आप सब को पढती हूँ। लेकिन एक बात तय है कि ब्लागजगत से मोह टूट गया है। कितना भी प्यार बाँटो मगर आप गये तो कोई नही पूछेगा कि आप कहाँ हो जिन्दा भी हो या नही। ये आभासी रिश्ते ऐसे ही होते हैं। चलो इसी बहाने ब्लाग मोह तो टूटा। मार मार करने से आराम से जितना होता है करते रहेंगे। --- चलिये आज एक लघु कथा पढिये------

लघु कथा

विकल्प


रामू मालिक को सिग्रेट के धूँयें के छल्ले बनाते हुये देखता तो अपनी गरीबी और बेबसी का गुबार सा उसके मन मे उठने लगता। क्यों मालिक अपने पैसे को इस तरह धूयें मे उडाये जा रहे हैं? माना कि दो नम्बर का बहुत पैसा है मगर फिर भी----- उसके घर मे आज चुल्हा नही जला है--- उसके मन मे ख्याल आता है। अगर साहिब चाहें तो इसी धूँएं से उसके घर का चुल्हा जल सकता है। फिर सिगरेट शराब से घुड घुड करती छाती के लिये दवाओं का खर्च  क्या मेरे बुझे चुल्हे का विकल्प नही हो सकता??----

जिस बख्शिश मे मिले अवैध धन की मैं सारा दिन चौकसी करता हूँ क्या किसी के काम नही आ सकता ---- मालिक कभी ये क्यों नही सोचते।

--- ये सब बातें उसके दिमाग मे तब आती जब वो भूखा होता या घर मे चुल्हा नही जलता----  नही तो मालिक से माँग कर वो भी सिग्रेट और शराब पी ही लेता था। आज ये सोचें उसे परेह्सान कर रही थी। जैसे ही मालिक ने उसे आवाज़ दी वो चौंका और मालिक के पास जा खडा हुया

* जा दो बोतल व्हिस्की और दो सिग्रेट की डिब्बी ले आ* मालिक ने उसे पैसे थमाते हुये कहा। और वो थके से कदमो से जा कर सामान ले आया।

वो जब घर जाने लगा तो मालिक ने कहा* लो 50 रुपये बख्शिश के*

बख्शिश मिलते ही उसके मरे हुये से पाँवों फुर्ती आ गयी।और वो भूल गया घर का बुझा चुल्हा,भूख से बिलखते बच्चे,पत्नि की चिथडों से झाँकती इज्जत, भूख से पिचका बूढी मा का पेट  और चल पडा मालिक की तरह बख्शिश मे मिले पैसों को धूँयें मे उडाते हुये वैसे भी ऐसे ख्याल उसे तभी आते जब जेब खाली होती थी । शायद ऐसी कमाई बच्चों की भूख का विकल्प नही हो सकती।


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