वीरबहुटी----गताँक से आगे ---कहानी
सुबह जल्दी उठना होगा ,रिती रिवाज शुरू हो जायेंगे। और पितर पूजन भी होगा इस लिये सोचा कि सो ही जाऊँ नहीं तो कल बहुत थक जाऊँगी। लेट गयी मगर नीँद कहाँ आनी थी।माँ की याद आ गयी,पता नहीं वो भी सोई होगी कि रो रही होग और पिताजी त्प किसी के चुप करवाने पर भी चुप ना हुये होंगे बहुत लाडली थी उनकी।दूसरा इन की एक झलक देखने को मन उतावला था।ये कैसे रिती रिवाज़ हैं जब शादी ही हो गयी तो उनसे मिलने पर प्रतिबंध कैसा?गाँव के जीवन का पहला झटका लगा था मुझे।फिर मेरी सोच पलट कर दीदी पर आ गयी।दूसरों के मन को कितनी जल्दी पढ लेती थी।वो पागल कैसे हो सकती है। जरूर् उनकी कोमल भावनायें जीवन के कटु यथार्थ से तालमेल नहीं बिठा पाईं। पर क्यों? ये जानना मेरी लिये भी जरूरी था । मेरे आने वाले जीवन की कुछ् कडियाँ भी इन से जुडी थी,जिनका भविश्य मैं उसकी आँखों के आईने मे तलाशना चाहती थी।नये रिश्तों के सृजन की दहलीज़ पर खडी,मैं रिश्तों की आस्थाओं को उसके अनुभव से सीँचना चाहती थी।इस लिये उसकी भावनाओं को समझना जरूरी था। उन का विश्वास जीतना जरूरी था। सहसा मुझे लगा कि मेरी जिम्मेदारी बहुत बढ गयी है।सुबह चार बजे उसने मुझे उठाया और खेतों की तरफ ले चली।घना अंधेरा था,पिछले दिन की बारिश से जमीन कुछ नरम थी।संभल संभल कर पैर रखना पडता था।मक्की के ऊँचे ऊँचे पौधों से भरे खेत मे जाते हुये डर लग रहा था। मन मे एक दूसरा भय भी था कि कहीं दीदी को पागलपन का दौरा ना पड जाये।डर के मारे टाँगें काँपने लगी थीं। दीदी आगे आगे चल रही थी वर्ना मेरे मन को पढ कर क्या सोचती? मन ही मन दआ कर रही थी कि घर सही सलामत पहुँच जाऊँ।*बहु क्या तुमने कभी वीर्बहुटी देखी है?* अचानक दीदी पूछने लगी।*नहीं* देखी तो थी मगर इस समय मैं बात करने की स्थिती मे नहीं थी।*मैं दिखाऊँगी। कितनी कोमल मखमल की तरह उसका बदन होता है सुन्दर लाल सुर्ख रंग ।लोग पता नहीं क्यों उसे पाँव के नीचे मसल देते हैं।**---------*चुप रही इस समय कहां से वीर्बहुटी का ख्याल आ गया?उसने सहजे से एक वीर्बहुती जमीन से उठा कर तार्च की रोशनी मेुअपने हाथ पर रख कर दिखाई।अनार के दाने जितनी सुर्ख मखमल जैसा जीव था।*छोड दो दीदी नहीं तो मर जायेगी* मैने नीचे रखवा दी *वैसे भी ये इतना छोटा स जीव है कई बार बिना देखे किसी के पाँव के नीचे आ जाती होगी।**फिर भी ये जमीन को नुक्सान पहुँचाने वले कीडे खा लेती है इसका इतना तो ध्यान रखना ही चाहिये।*मैं फिर चुप रही।* और ये देखो,छल्ली भुट्टा} है *उसने छल्ली पर भी टार्च से रोशनी की * इसके दाने कितने सुन्दर हैं जसे मोटी जडे हों{ जरा सी छल्ली छील कर दिखाई और हंस पडी,--- उन्मुक्त हंसी---- * मगर सुबह कोई आयेगा और जो सब से कोमल होगी उसे तोड कर ले जायेगा उसकी खाल खींचेगा और आग पर रख देगा अपना स्वाद और भूख मिटाने के लिये----कोई किसी को अपनी मर्जी से जीने क्यों नहीं देता?*मैं डर गयी। ये सुबह सुबह दीदी को क्या हो गया?कैसी बातें कर रही है।मुझे लगा इन चीज़ों का तो बहाना है असल मे मुझे अपने दिल की बात बताना चाहती है आज मुश्किल से तो उस बेचारी की बात सुनने वाला मिला है।मुझे लगा ये भी वीरबहुटी की तरह कोमल और असहाय है।*दीदी आप सोचती बहुत हैं।भगवान ने एक विधा बना रखी है., सभी को उसमे बन्ध कर चलना पडता है। इस सृष्टी का हर जीव हर पदार्थ एक दूसरे पर आश्रित है। अच्छा बताओ अगर हर जीव अपनी ही मर्ज़ी से जीने लगे,एक दूसरे के काम ना आये एक दूसरे पर आश्रित ना हों तो ये संसार कैसे चलेगा? अगर नदी उन्मुक्त बहती रहे उसके किनारों को बान्धा ना जये तो क्या वो तबाही नहीं मचा देगी?भूख के लिये इन्सान इन पेड पौधों पर आश्रित है अगर इन्हें खाये नहीं तो क्या जिन्दा रह सकता है इन्हें काँटे छाँटे नही तो क्या ये जंगल नहीं बन जायेगा? ऐसे ही वीरबहुटी जीनी के लिये जमीन के कीडे मकौडे खा कर जीवित रहती है।**हाँ ये तो ठीक है।* वो कुछ सोच मे डूब गयीं।* दीदी जीवन सिर्फ भावनाओं मे बह कर ही नहीं जीया जाता। उसे यथार्थ के धरातल पर उतर कर ही अपना रास्ता तलाश करना पडता है।*बहु तुम्हारी बातें तो पते की हैं।* वो फिर से सोचने लगी।मुझे आशा की एक और किरण दिखाई देने लगी। मुझे लगा कि मैं उसे जरूर एक दिन इस संवेदनशील मानसिक उल्झन से बाहर ले आऊँगी।उसके दिल की चोट की मैं थाह पा गयी थी।नारी ही क्यों इतना आहत होती है़? ऐसी बात नहीं कि पुरुश आहत नहीं होता है , जब उसके अहँ पर चोट लगती है।नारी तब आहत होती है जब उसके कोमल एहसासों पर कुठाराघात होता है।पुरुश जिस्म के समर्पण को सरवोपरि मान लेता है जब की औरत रूह तक उतर जाना चाहती है।उसका समर्पण तब तक अधूरा्रहता है जब तक कोई उसकी भावनाओं को ना समझे उसके दिल मे ना उतर जाये।कहते हैं पुरुष का सम्बन्ध मंगल ग्रह से होता है कठोर, अग्नि तत्व, अहं,अपना अस्तित्व और जीत की कामना। मगर औरत का सम्बन्ध चन्द्रमा से होता है जो भावनाओं भावुकता कोमलता का प्रतीक है। जिसे खुद रोशन होने के लिये सूरज की रोशनी पर निर्भर होना पडता ह, फिर भी खुश है ----समर्पित है प्रकृति को रिझाने मे---शीतलता देने मे। औरत को तो रोने के लिये भी एक कन्धे की तलाश होती है।शायद उसकी ये तलाश खत्म हो ही नहीं सकती।जीवन नदी के दो किनारे हैं । स्त्री और पुरुष, साथ साथ तो चलते हैं----- ,समानाँतर रेखाओं की तरह------ मगर एक नहीं हो सकते।----- क्रमश