हम कब सुधरेंगे?
श्री राज कुमार सोनी जी की यह कविता पढ कर मुझे एक बात याद आयी
आज फिर किसी
गंदी बस्ती में
सिलाई मशीन बांटेगी
विधानसभा के सामने
रोपेंगी सडियल विचार का
एक पौंधा
वृद्धों के आश्रम जाकर वे
झुर्रीदार शरीर को
ओढाएगी कंबल
कुपोषण के शिकार
बच्चों को केला थमाकर
फोटो भी खींचवाना है उन्हें.
आनन्द मेले में भजिया-पकौड़ी
बेचने के बाद
जब थक जाएंगी
बड़े घर की औरतें
तब उनके मरद
उन्हें प्रभु भक्ति का महत्व समझाएंगे
और फिर वे बड़ी सी कार में
ढोलक लेकर निकल पड़ेंगी
भजन गाने के लिए
महाराज के प्रवचन से लौटकर
जब अपने गर्भवती होने का समाचार
हर किसी को बताएंगी
बड़े घर की औरतें तब...
तब...
झाडू-पौंछा करने वाली एक औरत
बताएंगी कि
साहब ने खुश होने के बाद
दिलवाई है नई साड़ी.
और.. घर की सदस्य बोलकर
अपने हाथों से पिलाया है मजेदार शरबत.
दोस्तों.. फिलहाल
बड़े घर की औरतें
दुनिया के महत्वपूर्ण कामों में
जुटी हुई हैं.
उन्हें उनके काम में
लगे रहने दिया जाए
हम कौन होते हैं उनके
काम मे खलल डालने वाले।----- श्री राज कुमार सोनी
सोनी जी की ये कविता पढ कर मुझे अपने अस्पताल की एक बात याद आ गयी। अस्पताल भाखडा ब्यास मैनेजमेन्ट बोर्ड {बी. बी. एम. बी} का है मगर अधिकतर कर्मचारी पंजाब सरकार के हैं। पंजाब की हिस्सेदारी होने के कारण कुछ नियम पंजाब सरकार के चलते हैं। वहाँ जो मरीजों को खाना दिया जाता है वो पंजाब सरकार के तय माणिकों के अनुसार दिया जाता है-- जिसमे सिवा दाल रोटी और एक सब्जी के कुछ नही होता। बी. बी. एम. बी अपने रेडक्रास खाते से कुछ गरीबों के लिये सहायता करती है और उस सहायता मे टी.बी. के मरीजों के लिये रोज़ एक एक अन्डा देने का प्रावधान है|
रेड क्रास की मेम्बर लगभग सभी बी. बी. एम . बी के अफसरों की बीवियाँ होती हैं। अपने अस्पताल मे भी रेड क्रास वाली औरतें आती थी। बेचारियों को सुबह 9 बजे अस्पताल आना होता था-- जो सब से कठिन काम था फिर भी कुछ बडा काम करने के लिये तकलीफ तो उठानी ही पडती है-- और वो 9.30 या 10 बजे तक जरूर पहुँच जाती थी। 3-4 मेम्बर्ज़ पहले घर से सरकारी गाडी मे सब को इकट्ठै करती--- फिर अस्पताल से एक दर्जा 4 कर्मचारी को लेती-- अब भला वो अफसरों की बीवियाँ है, वो खुद थोडे ही अन्डे उठायेंगी? । कर्मचारी को बुलाने मे कम से कम आधा घन्टा लग जाता-- उसे ले कर वो बाजार जाती। वहाँ खुद अपनी खरीदारी करतीं और कर्मचारी उतनी देर तक अन्डे खरीद उनका इन्तजार करता। फिर अस्पताल आ कर वो अन्डों को उबालता और वो समाज सेविकायें पी. एम ओ के वातानुकूल कक्ष मे बैठ कर इन्तज़ार करती। जब अन्डे उबल जाते तो वो कर्मचारी के साथ गाडी मे बैठ कर अधा किलो मीटर दूर टी बी वार्ड मे अन्डे बाँटने जाते। सभी रेड क्रास की मेम्बर्ज़ बाहर गाडी मे मुंह ढाँप कर बैठी रहती अखिर टी बी. के मरीजों से खुद को इन्फेक्शन होने का डर मन मे रहता और जब वो कर्मचारी सभी मरीजों को एक एक अन्डा दे कर आ जाता फिर उसे अस्पताल छोड कर किसी और जगह चली जाती। मरीज कितने होते थे--- 8 या 10। ये अफसरों की बीबियाँ ऐसे चोंचले करने मे माहिर होती हैं।ीअब आप सोचिये कि उनके रोज़ आने जाने पर कितना खर्च होता होगा ?
पर गाडी बी. बी. एम. बी की है किसे परवाह है--- शायद जितना पेट्रोल खर्च होता होगा उतने मे पूरे अस्पताल के मरीजों को अन्डे मिल सकते थे। मगर ऐसे मे उनका रेडक्रास के लिये किया गया कार्य कैसे दिखता? फोटो कैसे अखबारों मे छपते?
हमारे एक अफसर ऐसे आये कि उन्हें इस से बडी कोफ्त महसूस होती उनकी बीवी भी् रेडक्रास की मेम्बर थी । उन्हें सब का रोज़ देर तक अपने दफ्तर मे बैठना अच्छा नही लगता था। मेहनती और अपने काम के प्रति बहुत सजग रहते थे। उन्हों ने खुद जा कर मैनेज मेन्ट के बडे अफसरों से बात की और रेडक्रास के अन्डे बन्द करवा कर अस्पताल के नाम से एक फंड जारी करवा लिया और एक की बजाये हर मरीज को दो दो अन्डे मिलने लगे। शायद जब से अस्पताल बना था यही परंपरा चली आ रही थी। जब रेडक्रास का मेला लगता, तब तो इन बीवियों की पौ बारह होती। किसी और को स्टाल ऐलाट नही होते अगर होते तो नाम किसी अफ्सर की बीवी का ही होता। काम सारा का सारा कर्मचारी करते। 10 दिन पहले ही बी बी एम बी की कई गाडियाँ, कर्मचारी, मेले की तैयारी मे लग जाते।जितना पैसा इस मेले को लगाने मे लगता है उतना शायद रेड क्रास का पूरा बजट होगा। मगर नाम अफसर की बीवी का कैसे हो? वो गर्व से ईनाम ले कर घर जाती। देश ाइसी समाज सेवा ,फिजूल खर्ची और अफसरों के ऐसे कामों से कब मुक्ति पायेगा? आखिर ये भार कौन वहन करता है? इस से अच्छा क्यों न सरकार अफसरों की बीविओं के नाम एक फंड जारी कर दे मौज मस्ती के लिये या कुछ गाडियाँ अधिकारित तौर पर उनके नाम कर दे? किटी पर्टियों मे भी कहने को उनका खर्च होता है मगर इसमे भी बहुत सा खर्च सरकारी होता है जैसी शापिन्ग मे गाडियाँ, काम के लिये सरकारी कर्मचारी । ऐसी संस्थाओं या ऐसे सहायता कार्यों, अनुदान आदि का क्या औचित्य है? कब सुधरेंगे हम।
आज फिर किसी
गंदी बस्ती में
सिलाई मशीन बांटेगी
विधानसभा के सामने
रोपेंगी सडियल विचार का
एक पौंधा
वृद्धों के आश्रम जाकर वे
झुर्रीदार शरीर को
ओढाएगी कंबल
कुपोषण के शिकार
बच्चों को केला थमाकर
फोटो भी खींचवाना है उन्हें.
आनन्द मेले में भजिया-पकौड़ी
बेचने के बाद
जब थक जाएंगी
बड़े घर की औरतें
तब उनके मरद
उन्हें प्रभु भक्ति का महत्व समझाएंगे
और फिर वे बड़ी सी कार में
ढोलक लेकर निकल पड़ेंगी
भजन गाने के लिए
महाराज के प्रवचन से लौटकर
जब अपने गर्भवती होने का समाचार
हर किसी को बताएंगी
बड़े घर की औरतें तब...
तब...
झाडू-पौंछा करने वाली एक औरत
बताएंगी कि
साहब ने खुश होने के बाद
दिलवाई है नई साड़ी.
और.. घर की सदस्य बोलकर
अपने हाथों से पिलाया है मजेदार शरबत.
दोस्तों.. फिलहाल
बड़े घर की औरतें
दुनिया के महत्वपूर्ण कामों में
जुटी हुई हैं.
उन्हें उनके काम में
लगे रहने दिया जाए
हम कौन होते हैं उनके
काम मे खलल डालने वाले।----- श्री राज कुमार सोनी
सोनी जी की ये कविता पढ कर मुझे अपने अस्पताल की एक बात याद आ गयी। अस्पताल भाखडा ब्यास मैनेजमेन्ट बोर्ड {बी. बी. एम. बी} का है मगर अधिकतर कर्मचारी पंजाब सरकार के हैं। पंजाब की हिस्सेदारी होने के कारण कुछ नियम पंजाब सरकार के चलते हैं। वहाँ जो मरीजों को खाना दिया जाता है वो पंजाब सरकार के तय माणिकों के अनुसार दिया जाता है-- जिसमे सिवा दाल रोटी और एक सब्जी के कुछ नही होता। बी. बी. एम. बी अपने रेडक्रास खाते से कुछ गरीबों के लिये सहायता करती है और उस सहायता मे टी.बी. के मरीजों के लिये रोज़ एक एक अन्डा देने का प्रावधान है|
रेड क्रास की मेम्बर लगभग सभी बी. बी. एम . बी के अफसरों की बीवियाँ होती हैं। अपने अस्पताल मे भी रेड क्रास वाली औरतें आती थी। बेचारियों को सुबह 9 बजे अस्पताल आना होता था-- जो सब से कठिन काम था फिर भी कुछ बडा काम करने के लिये तकलीफ तो उठानी ही पडती है-- और वो 9.30 या 10 बजे तक जरूर पहुँच जाती थी। 3-4 मेम्बर्ज़ पहले घर से सरकारी गाडी मे सब को इकट्ठै करती--- फिर अस्पताल से एक दर्जा 4 कर्मचारी को लेती-- अब भला वो अफसरों की बीवियाँ है, वो खुद थोडे ही अन्डे उठायेंगी? । कर्मचारी को बुलाने मे कम से कम आधा घन्टा लग जाता-- उसे ले कर वो बाजार जाती। वहाँ खुद अपनी खरीदारी करतीं और कर्मचारी उतनी देर तक अन्डे खरीद उनका इन्तजार करता। फिर अस्पताल आ कर वो अन्डों को उबालता और वो समाज सेविकायें पी. एम ओ के वातानुकूल कक्ष मे बैठ कर इन्तज़ार करती। जब अन्डे उबल जाते तो वो कर्मचारी के साथ गाडी मे बैठ कर अधा किलो मीटर दूर टी बी वार्ड मे अन्डे बाँटने जाते। सभी रेड क्रास की मेम्बर्ज़ बाहर गाडी मे मुंह ढाँप कर बैठी रहती अखिर टी बी. के मरीजों से खुद को इन्फेक्शन होने का डर मन मे रहता और जब वो कर्मचारी सभी मरीजों को एक एक अन्डा दे कर आ जाता फिर उसे अस्पताल छोड कर किसी और जगह चली जाती। मरीज कितने होते थे--- 8 या 10। ये अफसरों की बीबियाँ ऐसे चोंचले करने मे माहिर होती हैं।ीअब आप सोचिये कि उनके रोज़ आने जाने पर कितना खर्च होता होगा ?
पर गाडी बी. बी. एम. बी की है किसे परवाह है--- शायद जितना पेट्रोल खर्च होता होगा उतने मे पूरे अस्पताल के मरीजों को अन्डे मिल सकते थे। मगर ऐसे मे उनका रेडक्रास के लिये किया गया कार्य कैसे दिखता? फोटो कैसे अखबारों मे छपते?
हमारे एक अफसर ऐसे आये कि उन्हें इस से बडी कोफ्त महसूस होती उनकी बीवी भी् रेडक्रास की मेम्बर थी । उन्हें सब का रोज़ देर तक अपने दफ्तर मे बैठना अच्छा नही लगता था। मेहनती और अपने काम के प्रति बहुत सजग रहते थे। उन्हों ने खुद जा कर मैनेज मेन्ट के बडे अफसरों से बात की और रेडक्रास के अन्डे बन्द करवा कर अस्पताल के नाम से एक फंड जारी करवा लिया और एक की बजाये हर मरीज को दो दो अन्डे मिलने लगे। शायद जब से अस्पताल बना था यही परंपरा चली आ रही थी। जब रेडक्रास का मेला लगता, तब तो इन बीवियों की पौ बारह होती। किसी और को स्टाल ऐलाट नही होते अगर होते तो नाम किसी अफ्सर की बीवी का ही होता। काम सारा का सारा कर्मचारी करते। 10 दिन पहले ही बी बी एम बी की कई गाडियाँ, कर्मचारी, मेले की तैयारी मे लग जाते।जितना पैसा इस मेले को लगाने मे लगता है उतना शायद रेड क्रास का पूरा बजट होगा। मगर नाम अफसर की बीवी का कैसे हो? वो गर्व से ईनाम ले कर घर जाती। देश ाइसी समाज सेवा ,फिजूल खर्ची और अफसरों के ऐसे कामों से कब मुक्ति पायेगा? आखिर ये भार कौन वहन करता है? इस से अच्छा क्यों न सरकार अफसरों की बीविओं के नाम एक फंड जारी कर दे मौज मस्ती के लिये या कुछ गाडियाँ अधिकारित तौर पर उनके नाम कर दे? किटी पर्टियों मे भी कहने को उनका खर्च होता है मगर इसमे भी बहुत सा खर्च सरकारी होता है जैसी शापिन्ग मे गाडियाँ, काम के लिये सरकारी कर्मचारी । ऐसी संस्थाओं या ऐसे सहायता कार्यों, अनुदान आदि का क्या औचित्य है? कब सुधरेंगे हम।