15 July, 2010

हम कब सुधरेंगे?

हम कब सुधरेंगे?
श्री राज कुमार सोनी जी की यह कविता पढ कर मुझे एक बात  याद आयी
आज फिर किसी
गंदी बस्ती में
सिलाई मशीन बांटेगी

विधानसभा के सामने
रोपेंगी सडियल विचार का
एक पौंधा

वृद्धों के आश्रम जाकर वे
झुर्रीदार शरीर को
ओढाएगी कंबल

कुपोषण के शिकार
बच्चों को केला थमाकर
फोटो भी खींचवाना है उन्हें.

आनन्द मेले में भजिया-पकौड़ी
बेचने के बाद
जब थक जाएंगी
बड़े घर की औरतें
तब उनके मरद
उन्हें प्रभु भक्ति का महत्व समझाएंगे
और फिर वे बड़ी सी कार में
ढोलक लेकर निकल पड़ेंगी
भजन गाने के लिए

महाराज के प्रवचन से लौटकर
जब अपने गर्भवती होने का समाचार
हर किसी को बताएंगी
बड़े घर की औरतें तब...

तब...
झाडू-पौंछा करने वाली एक औरत
बताएंगी कि
साहब ने खुश होने के बाद
दिलवाई है नई साड़ी.
और.. घर की सदस्य बोलकर
अपने हाथों से पिलाया है मजेदार शरबत.

दोस्तों.. फिलहाल
बड़े घर की औरतें
दुनिया के महत्वपूर्ण कामों में
जुटी हुई हैं.

उन्हें उनके काम में
लगे रहने दिया जाए
हम कौन होते हैं उनके
काम मे खलल डालने वाले।----- श्री राज कुमार सोनी 
सोनी जी की ये कविता पढ कर मुझे अपने अस्पताल की एक बात  याद आ गयी। अस्पताल  भाखडा ब्यास मैनेजमेन्ट बोर्ड {बी. बी. एम. बी}  का है मगर अधिकतर  कर्मचारी पंजाब सरकार के हैं। पंजाब की हिस्सेदारी होने के कारण कुछ नियम पंजाब सरकार के चलते हैं। वहाँ जो मरीजों को खाना दिया जाता है वो पंजाब सरकार के तय माणिकों के अनुसार दिया जाता है-- जिसमे सिवा दाल रोटी और एक सब्जी के कुछ नही होता। बी. बी. एम. बी अपने रेडक्रास खाते से  कुछ गरीबों के लिये सहायता करती है और उस सहायता मे टी.बी. के मरीजों के लिये रोज़ एक एक अन्डा देने का प्रावधान है|

 रेड क्रास की मेम्बर लगभग  सभी बी. बी. एम . बी के अफसरों की बीवियाँ होती हैं। अपने अस्पताल मे भी रेड क्रास वाली औरतें आती थी। बेचारियों को सुबह 9 बजे अस्पताल आना होता था-- जो सब से कठिन काम था फिर भी कुछ बडा काम करने के लिये तकलीफ तो उठानी ही पडती है-- और वो 9.30 या 10 बजे तक जरूर पहुँच जाती थी। 3-4 मेम्बर्ज़   पहले घर से सरकारी गाडी मे सब को इकट्ठै करती--- फिर अस्पताल से एक दर्जा 4 कर्मचारी को लेती-- अब भला वो अफसरों की बीवियाँ है, वो  खुद थोडे ही अन्डे  उठायेंगी? । कर्मचारी को बुलाने मे कम से कम आधा घन्टा लग जाता-- उसे ले कर वो  बाजार जाती। वहाँ खुद अपनी खरीदारी करतीं और कर्मचारी उतनी देर तक अन्डे खरीद उनका इन्तजार करता। फिर अस्पताल आ कर वो अन्डों को उबालता और वो समाज सेविकायें पी. एम ओ के वातानुकूल कक्ष मे बैठ कर इन्तज़ार करती। जब अन्डे उबल जाते तो वो कर्मचारी के साथ  गाडी मे बैठ कर अधा किलो मीटर दूर टी बी वार्ड मे अन्डे बाँटने जाते। सभी रेड क्रास की मेम्बर्ज़ बाहर गाडी मे मुंह ढाँप कर बैठी रहती अखिर टी बी. के मरीजों से खुद को इन्फेक्शन होने का डर मन मे रहता और जब वो कर्मचारी सभी मरीजों को एक एक अन्डा दे कर आ जाता फिर उसे अस्पताल छोड कर किसी और जगह चली जाती। मरीज कितने होते थे--- 8 या 10। ये अफसरों की बीबियाँ ऐसे चोंचले करने मे माहिर होती हैं।ीअब आप सोचिये कि उनके रोज़ आने जाने पर कितना खर्च होता होगा ?
 पर गाडी बी. बी. एम. बी की है किसे परवाह है--- शायद जितना पेट्रोल खर्च होता होगा उतने मे पूरे अस्पताल के मरीजों को अन्डे मिल सकते थे। मगर ऐसे मे उनका रेडक्रास के लिये किया गया कार्य कैसे दिखता? फोटो कैसे अखबारों मे छपते?
हमारे एक अफसर ऐसे आये कि उन्हें इस से बडी कोफ्त महसूस होती उनकी बीवी भी् रेडक्रास की मेम्बर थी । उन्हें सब का रोज़ देर तक अपने दफ्तर मे बैठना अच्छा नही लगता था। मेहनती और अपने काम के प्रति बहुत सजग रहते थे। उन्हों ने खुद जा कर मैनेज मेन्ट के बडे अफसरों से बात की और रेडक्रास के अन्डे बन्द करवा कर  अस्पताल के नाम से एक फंड जारी करवा लिया और एक की बजाये हर मरीज को दो दो अन्डे मिलने लगे। शायद जब से अस्पताल बना था यही परंपरा चली आ रही थी। जब रेडक्रास का मेला लगता, तब तो इन बीवियों की पौ बारह होती। किसी और को स्टाल ऐलाट नही होते अगर होते तो नाम किसी अफ्सर की बीवी का ही होता। काम सारा का सारा कर्मचारी करते। 10 दिन पहले ही बी बी एम बी की कई गाडियाँ, कर्मचारी, मेले की तैयारी मे लग जाते।जितना पैसा इस मेले को लगाने मे लगता  है उतना शायद रेड क्रास का पूरा बजट होगा। मगर नाम अफसर की बीवी का  कैसे हो?  वो गर्व से ईनाम ले कर घर जाती। देश ाइसी समाज सेवा ,फिजूल खर्ची और अफसरों के ऐसे कामों से कब  मुक्ति पायेगा?  आखिर ये भार कौन वहन करता है? इस से अच्छा क्यों  न सरकार  अफसरों  की बीविओं के नाम एक फंड जारी कर दे मौज मस्ती के लिये या कुछ गाडियाँ अधिकारित तौर पर उनके नाम कर दे? किटी पर्टियों मे भी कहने को उनका खर्च होता है मगर इसमे भी बहुत सा खर्च सरकारी होता है जैसी शापिन्ग मे गाडियाँ, काम के लिये सरकारी कर्मचारी । ऐसी संस्थाओं या ऐसे  सहायता कार्यों, अनुदान आदि का क्या औचित्य है? कब सुधरेंगे हम।

57 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

माता जी आज यह सब हमारे समाज का हिस्सा बन चुका है जो कहीं से भी सही नही है..राजनीतिज्ञ के साथ साथ हम भी कहीं ना कहीं इसके लिए ज़िम्मेदार हैं..हमें सुधारना होगा तभी हम विकसित हो पाएँगे....बढ़िया आलेख ..राजकुमार जी क बधाई प्रणाम माता जी

अजित गुप्ता का कोना said...

निर्मला जी आपने राजकुमार जी के माध्‍यम से बहुत सटीक विषय उठाया है। एक बात मुझे लगती है कि जो भी व्‍यक्ति या वर्ग जितना समाज को लूटता है, उसकी उतनी ही आकांक्षा रहती है कि वह समाज में समाज सेवक कहलाए। इसलिए ही बड़े-बड़े सेठ टेक्‍स ना देकर दान पुण्‍य करते हैं। अधिकारियों की तो खैर दान देने की प्रवृत्ति ही नहीं होती इसलिए वे ऐसे चोंचले करके अपने मन को खुश करते हैं।

Arvind Mishra said...

आपने तो कविता पर मुहर लगा दी -हकीकत बयान किया है !

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सटीक बात कही है...दिखावे कि प्रवृति जो ना करा दे कम है...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सटीक बात कही है...दिखावे कि प्रवृति जो ना करा दे कम है...

वाणी गीत said...

samaj seva के naam पर kya नहीं hota , kaun नहीं jaanta ...कुछ logon के कारण sachhi samaj seva wale भी shak के dayre में aa jate हैं ..!

tansletar की gadbadi को jhel lijiye plz..

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

satya vachan!

रश्मि प्रभा... said...

सोनी जी की रचना और आपका बयान .... सत्य इतना उजागर है, पर लोग बेखबर हैं

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

निर्मला जी, ये सब हमारे समाज में सजगता का अभाव दर्शाता है ... उस अफसर को प्रणाम जिसने ये रेड क्रोस का बकवास बंद करवाया ...
आप को बधाई इस लेख के लिए ...

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

नि्र्मला जी कमोबेश अफ़सरों की बीबियों के सब जगह यही काम हैं। अगर किसी को एक केला भी देती हैं तो 16 खबरी साथ में रहते हैं। इन्ही के दम पर तो रेडक्रास चल रहा है भारत में।

"ब्रह्माण्ड भैंस सुंदरी प्रतियोगिता"

Bhavesh (भावेश ) said...

इसी तरह के दिखावे को आज के ज़माने में हमारे देश में समाजसेवा कहते है. वैसे आपने इस उदहारण से राजकुमार जी की कविता को अक्षरक्ष सही सिद्ध कर दिया.

The Straight path said...

अच्छा लेख

प्रवीण पाण्डेय said...

लगता है, नहीं सुधरेंगे हम।

राजकुमार सोनी said...

निर्मलाजी
आपने मेरी कविता को जो सम्मान दिया है उसके लिए आपका आभारी हूं.
चलिए कविता किसी काम तो आई.
आपका धन्यवाद.

shikha varshney said...

हर काम में शौ बजी है फिर समाज( शो ) सेवा क्यों पीछे रहे ...सच कहा ..हम नहीं सुधरेंगे.

Pran Sharma said...

Raj kumar Soni kee kavita ko aapne
saarthak banaa diya hai.aapkee
lekhnee ko naman.

सदा said...

कविता के सरल शब्‍दों ने कितनी सच्‍चाई से कटु सत्‍य को उजागर किया और आपने उस पर उक्‍त सत्‍यता को और भी नुकीला बना दिया, आपकी कलम का जादू हमेशा यूं ही चलता रहे, इन्‍हीं शुभकामनाओं के साथ आभार ।

डॉ० डंडा लखनवी said...

आपकी पोस्ट पढ़ कर अपने एक सहकर्मी का तकिया कलाम याद आ गया "मरें फौजी-नाम कप्तान का"। सेवा जब दिखावे के लिए होती है तो ऐसे ही दृश्य सामने आते हैं। आपने सार्थक पहल की है। साधुवाद। -सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

राज भाटिय़ा said...

नि्र्मला जी, अब क्या कहे.... भारत मै यह सब चलता है ओर शान से चलता है, शर्म नाम की चीज इन लोगो मै होती ही नही

दिगम्बर नासवा said...

कविता के इस कटु सत्य को मैने भी पढ़ा था .. कई बार इस सचाई को देखा भी है बचपन में ...
समाज जिस तेज़ी से बदल रहा है ... उतनी तेज़ी से ये संस्कृति नही बदल रही .. ये हमारा दुर्भाग्य है ...

vandana gupta said...

sach ko benakaab kar diyaa...............aakhir kab sudhrenge?

Vinay said...

बहुत सुन्दर कल्पना और कृति

डॉ टी एस दराल said...

बड़े साहब की बीबी --जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का ।
साहब से ज्यादा रुतबा साहब की बीबी का होता है ।

अनामिका की सदायें ...... said...

हाथी के दांत खाने के और दिखने के और वाली बात चरितार्थ होती है.

अच्छा लेख.


आप की रचना 16 जुलाई के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका

अजय कुमार झा said...

बिल्कुल ठीक लिखा है आपने , राजकुमार जी की बात को आगे बढाते हुए.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

राजकुमार सोनी जी के कबिता का सोने पर आपका संसमरण का सुहागा देखकर आक्रोस भी होता है अऊर तरस भी आता है...लेकिन कब तक सोचेंगे कि हम नहीं सुधरेंगे...

पंकज मिश्रा said...

निर्मला जी
बिल्कुल ठीक लिखा है आपने
धन्यवाद.

Sadhana Vaid said...

आपने बहुत ही सारगर्भित आलेख लिखा है ! सोनी जी की कविता भी बहुत सामयिक ओर चुटीली है ! अफसरों की बीबियों के ये चोचले यदि बंद हो जाएँ तो बहुत सी फिजूलखर्ची भी बंद हो जाए और धन का उपयोग किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिये करने का मौक़ा मिल सके ! लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सुनता कौन है ? आँखें खोलने वाला आलेख ! काश अफसरों की वे बीबियाँ इसे पढ़ कर आत्मचिंतन कर पातीं जिन्हें इसकी सख्त ज़रूरत है !

कडुवासच said...

.... बेहतरीन व प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!

अजय कुमार said...

दिखावा और छल यही तो हो रहा है आजकल, सार्थक लेख ।

rashmi ravija said...

बिलकुल सही हालात बयाँ किए हैं...यही हाल है,इन बड़े अफसरों की बीवियों का ..घर में बैठे बोर होती रहती हैं...और समाज सेवा के नाम पर ऐसे दिखावे करती हैं.

Smart Indian said...

ऐसे लोग देश और समाज को घुन की तरह चाट रहे हैं.

HBMedia said...

bahut achhi baat uksayee hai..sahmat hoon.

गौरतलब पर आज की पोस्ट पढ़े ... "काम एक पेड़ की तरह होता है."

Udan Tashtari said...

राजकुमार जी की वजनदार रचना में आपकी स्पष्ट बयानी ने एक और जबरदस्त वजन रखा..बहुत बढ़िया.

राम त्यागी said...

बिलकुल सही कहा ये तथाकथित सेवा ही आज की हकीकत है ...

कविता रावत said...

Maa Ji Soni ji kee rachna aur aapka lekh samaj sewa ke naam par sare aam dhakosale karte tathakathit logon ka yatharth hai... sach mein jis tarah samaj badal raha hai hamari sanskrit us raftaar mein kaafi peeche hai...

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

सोनी जी द्वारा कविता के माध्यम से रखी गई बात को आपने बहुत अच्छे से ओर आगे विस्तार दे दिया....दरअसल ये हिन्दुस्तानी मध्यम-उच्च वर्गीय समाज की तल्ख हकीकत है..जो सिर्फ निरा दिखावा करना जानता है.

संजीव गौतम said...

आपने बहुत अच्छी बात उठाई है. ये बात यहां ही नहीं हर विभाग में है. जिसे अपने पद का जरा सा भी फायदा कहीं से मिल सकता है वह उसे हर हाल में उठा लेना चाहता है. मैंने तो ऐसे एक अधिकारी के बारे में सुना जो अपने रिटायरमैन्ट से कुछ वर्ष पूर्व से ही काम के लिए आने वाले अधीनस्थों से सूट सिलवाता था. एक दिन उसके बाबू ने पूछा कि साहब आप इतने सूटों का क्या करेंगे तो उन्होंने जवाब दिया कि जब रिटायर हो जाऊंगा तब कौन सिलवायेगा. अब आप बतायें सोच के घटियेपन का इससे घटिया नमूना आप को कहीं मिल सकता है.

सुधीर राघव said...

निर्मला जी आपने बहुत सटीक विषय उठाया है।

Razi Shahab said...

satya vachan!

रचना दीक्षित said...

सोनी जी कि कविता और उस पर आपका ये लेख सोने पे सुहागा, पर सच तो ये ही है

Asha Joglekar said...

जितनी चुटीली सोनीजी की कविता उतना ही स्पष्ट और तीखा आपका लेख ।
सुनने में तो ये भी आता है कि सरकारी कर्मचारी के काम करने से सरकार का बिजली पानी पेपर, कम्प्यूटर इंटरनेट टाइम का जितना खर्च बैठता है उतने का तो वे काम भी नही करते ।

Science Bloggers Association said...

हम कभी नहीं सुधरेंगे।
जीवन के सच को उघाडती एक सार्थक रचना।
................
नाग बाबा का कारनामा।
महिला खिलाड़ियों का ही क्यों होता है लिंग परीक्षण?

Aruna Kapoor said...

यही सब हो रहा है... लेकिन इसे रोकना भी तो संभव नहीं है!...सुंदर रचना, बधाई!

ज्योति सिंह said...

mujhe yahi pasand nahi ,par har jagah isi ki jhalak hai ,kya wo inme khush rah paate hai ,dono hi rachna behtrin lagi .main bahar rahi is karan nahi aa saki .

Parul kanani said...

sahi aur galat....anbigy nahi hum..bas malum nahi kyon maun swikriti hai..aapka prashan niruttar nahi hai..!

Anonymous said...

मैं पिछले बाईस सालों से इन सब कामों से जुडी हूं.........
'डीज़र्विंग' बच्चों की पढाई को जारी रखने के लिए....
मजा तब आता है जब जिस स्कूल में मदद पहुंचाई गाई उनके प्रिंसिपल,स्थानीय नेता का फोटो अगले दिन न्यूज़ पेपर में देखती हूं. खूब हंसती हूं.इतने बड़े अखबार में इतने फोटोज के बीच आपका फ़ोटो? कौन पहचान रहा है? क्या मिलना है?मिलना क्यों नही है यही अक्तारने उन्हें राज्य और राष्ट्रीय स्टार के पुरस्कार दिलवाएगी ना कि 'इन' ने समाज कल्याण हेतु इतने काम किये.
हा हा हा
पर क्या उन्हें आत्मिक शांति मिलती होगी? निस्वार्थ भाव से क्या वो सचमुच किसी कि सेवा या मदद कर रही हैं?
अपने सुकून के लिए ये सब किया जाये तो ये एक पवित्र काम हैं,करना भी चाहिए पर.....
रात के अँधेरे में बांटी गाई कम्बलों के फ़ोटो सुबह अखबार में कैसे छप जाती है? ऐसे ही और 'इन्हें' ही सच्चा समाज सेवक कहते हैं भई.आप हम लाख कूदें.

पंकज मिश्रा said...

निर्मला जी
सच है
सुंदर रचना, बधाई!

हिन्दीवाणी said...

देर से पढ़ पाया हूं लेकिन आपने मुद्दा शानदार ढंग से उठाया है। बधाई।

पूनम श्रीवास्तव said...

aadarniy mam jyada kya likhun.jo nahi hona chahiye hamaare samaaj me wahi ho raha hai.ek haqikat ko aapne ujaagar kiya hai aapne jo axharshah sach hai.
poonam

अंजना said...

बिलकुल सही कहा है |

शोभना चौरे said...

निर्मला दी
आपने तो सोनी जी की कविता को सार्थक कर दिया |वैसे सच्चे लोगो का इस दिखावे की समाज सेवा से विश्वास उठ गया है और जो काम कर रहे है सच में उनका कही जिक्र ही नहीं होता |
वैसे एकवाकया आज ही मुझे मालूम पड़ा लायंस क्लब या रोटरी क्लब वाले सरकारी स्कूलों में कम्प्यूटर ,सिलाई मशीन आदि दे जाते है और टीचर उन्हें अपने घर ले जाते है और बच्चो से कह देते है जब कोई अदिकारी पूछने आये तो कह देना सब चीजे मिल गई है |दरअसल मैअपने आसपास के मजदूरों चोकिदारो के बच्चो को एक साल घर में पढ़ाकर सरकारी स्कूल में भरती करा देती हूँ और समय समय पर वहां जाती भी हूँ तो टीचर मुझे कहती है बच्चो के माता पिता को भेजिए आप क्यों परेशान होती है | जिन बच्चियों को सबसे पहले पढ़ाया था वो अब सातवी कक्षा में है और हमेशा मुझसे मिलने आती है |

hemant said...

ummid karte hain ki afsaron ki bibiyan bhi ise padhen aur kuchh shiksha grahan karen

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

पुरानी बात सौ में निन्यानवे बेईमान फिर भी मेरा भारत महान..

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बड़ी बेबाकी से आपने सच उजागर किया.
..उम्दा पोस्ट.

Anonymous said...

hi dear, u have a nice blog..
pls check mine too n share ur thoughts with me.......
thanx

keep bloging..

Dr. Sudha Om Dhingra said...

आप ने बहुत सटीक विषय उठाया. राज कुमार सोनी जी की कविता के माध्यम से बहुत सच कह दिया.

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