05 March, 2010

गज़ल कविता नज़्म

इसे गज़ल कविता नज्म कुछ भी कह लीजिये बस मेरा मन्तव आज के ज्वलन्त मुद्दे पर कुछ कहने का है। आज कल टी वी पर आप देख रहे हैं इन साधू सन्तों की करतूतें अभी पता नही और कितने भेडिये साधुयों की खाल मे छुपे बैठे हैं हम केवल अपनी आस्था के चलते आस्तीन मे साँ पाल रहे हैं जो हमे धर्म से कोसों दूर ले जा रहे हैं। खुद को भगवान कह कर और खुद के नाम की आर्तियाँ गवा कर हमे भगवान से दूर ही नही ले जा रहे बल्कि धर्म का विनाश भी कर रहे हैं। मै यहाँ किसी की भावनाओं को ठेस नही पहुँचाना चाहती मगर इस कडवे सच पर चुप रहूँ तो भगवान की अपराधी भी हूँ। चन्द पँक्तियाँ रात की खबरें सुन कर लिखी थी हाजिर हैं ।--

धर्म कैसी आस्था है जो लडाये आदमी को
तू बुरा है और अच्छा मैं बताये आदमी को

सादगी से दूर करते ऐश और आराम साधू
मोह माया है बुरी फिर क्यों बताये आदमी को

हो शनाख्त साधू की जो ए.सी  कार से जब
ये तरीका साधुयों का क्या सिखाये आदमी को

सोच कर देखो जरा यह  धर्म का है रूप कैसा
खुद को कह भगवान अपना नाम रटवाए आदमी को

04 March, 2010

गज़ल

इस गज़ल को भी प्राण भाई साहिब ने संवारा है।उनके आशीर्वाद के लिये धन्यवादी हूँ। इसे होली के दिन पोस्ट नही कर सकी। सोचा होली का महौल कुछ दिन और चलता रहे तो अच्छा है।
गज़ल 
आज होली के बहाने से बुलाया था मुझे
गाल छू मेरा गुलाबी सा बनाया था मुझे

भाभियाँ क्या सालियाँ सब ढूँढती इनको फिरें
रंग मेरे साजना ने पर लगाया था मुझे

खूब खेले रंग होली के हमारे सामने
देख सखियाँ शोख मेरी फिर भुलाया था मुझे

काश होली पे न जाते उस गली हम शान से
उस फरेबी ने वहाँ जोकर बनाया था मुझे

उड रहे थे लाल पीले रंग चारों ओर ही
दिन ये खुशियों से भरा उसने दिखाया था मुझे

चाहते थे रंगना हम रंग मे अपने उसे
फेंक कर तीरे नज़र पर बुत बनाया था मुझे

02 March, 2010

सच्ची साधना
{आखिरी किश्त }
pपिछली किश्तों मे आपने पढा कि शिव दास कैसे साधू बना और उसे फिर भी सँतुष्टी नही मिली तो वापिस अपने गाँव लौटा। जहाँ उसे राम किशन { अपने बचपन के दोस्त} का जीवन और लोक सेवा देख कर उसे कैसे बोध हुया कि सच्ची साधना वो नही जो वो कर रहा था सच्ची साधना तो वो है जो रामकिशन कर रहा है। वो ध्यान से देख रहा है रामकिशन की दिनचर्या को अब  आगे पढिये-------

शिवदास तुम हाथ मूंह धोलो तुम्हारा खाना आता ही होगा ।‘‘रामकिशन बोले

आठ बजे वही लडका  कर्ण खाना लेकर आ गया । वह बर्तन उठा कर खाना डालने लगा था कि रामकिशन ने रोक दिया ।

‘‘ तुम जाओ मैं डाल लूँगा । रामकिशन ने उसे जाने के लिये कहा।

‘‘ गुरू जी, माँ ने कहा है कि आप भी खीर जरूर खाना, हवन का प्रसाद है । कर्ण ने जाते हुए कहा ।

‘‘ठीक है, खा लँूगा । वो हंस पड़े । हर बार जब खीर भेजती है तो यही कहती है ताकि मैं खा लूँ ।

रामकिशन ने नीचे दरी के उपर एक और चटाई बिछाई, दो पानी के गिलास रखें और दो थालियों में खाना डाल दिया। एक मे  सब्जी, दाल, दही तथा खीर थी  दूसरी मे खिचडी । शिवदास चटाई पर आकर बैठ गए तो राम किषन ने बड़ी थाली उसके आगे सरका दी ।

‘‘ यह क्या ? तुम केवल खिचड़ी खाओगे ?‘‘

‘‘ हाँ, में रात को फीकी खिचड़ी खाता हूँ। ‘‘

‘‘ मैं भी यही खिचड़ी खा लेता ।‘‘

‘‘ अरे नहीं .... बड़े-बडे भक्तों के यहाँ स्वादिष्ट भोजन कर तुम्हें खिचड़ी कहाँ स्वादिष्ट लगेगी । फिर मैं किसी के हाथ से खाना बनवा कर नही खाता । अपना खाना खुद बनाता हूँ । मगर क्या तुम अपनी पत्नि के हाथ का बना खाना नही खाओगे ?‘‘

‘‘ पत्नी के हाथ का ?‘‘

‘‘ हां, जब भी मेरा कोई मेहमान आता है तो भाभी ही खाना बनाकर भेजती है ।‘‘

शिवदास के मन में बहुत कुछ उमड़ घुमड़ कर बह जाने को आतुर था । क्या पाया उसने घर बार छोड़कर ? शायद इससे अधिक साधना वह घर की जिम्मेदारी निभाते हुए कर लेता या फिर शादी ही न करता .... एक आह निकली । पत्नी के हाथ का खाना खाने का मोह त्याग न पाया .....वर्षों बाद इस खाने की मिठास का आनन्द लेने लगा ।

खाना खाने के बाद दोनों बाहर टहलने निकल गए । रामकिशन ने उसे सारा आश्रम दिखाया । रात के नौ बज चुके थे । बहुत से बच्चे अभी लाईब्रेरी में पढ रहें थे । दूसरे कमरे में कुछ बच्चों को एक अध्यापक पढा रहे थे । वास्तव में रामकिशन ने बच्चों व युवकों के सर्वांगीण विकास व कर्मशीलता का विकास किया है। वह प्रशसनीय कार्य है।

साढे नौ बजे दोनो कमरे में वापिस आ गए । रामकिशन ने अपना बिस्तर नीचे फर्ष पर लगाया और पुस्तक पढने बैठ गए ।

‘‘तुम उपर बैड पर सो जाओ, मैं नीचे सो जाता हूंँ ।‘‘ रामकिशन  बोले,
" नहीं नहीं, मैं नीचे सो जाता हूँ" शिवदास ने कहा
" नही शिवदास मैं रोज़ नीचे ही सोता हूँ। तुम्हें आदत नही होगी आश्रम मे तो गद्देदार बिस्तर होंगे।" 

सच में रामकिशन हर बात में उससे अधिक सादा व त्यागमय जीवन जी रहा है । मैने तो भगवें चोले के अंदर अपनी इच्छाओं को दबाया हुआ है मगर रामकिशन ने सफेद उज्जवल पोषाक की तरह अपनी आत्मा को ही उज्जवल कर लिया है ।

‘‘ अब तुम्हारा क्या प्रोग्राम है ?‘‘

‘‘प्रोग्राम?‘‘ वह सोच से उभरा.....‘‘ कुछ नही। कल चला जाऊँगा ।‘‘

‘यहीं क्यों नही रह जाते ? मिल कर काम करेंगे ।‘‘

‘‘ नही दोस्त, मैं अपने परिवार को कुछ दे तो न सका अब उन्हेने  स्वयं अर्जित सुख का सासँ लिया है उसमें खलल नहीं डालूँगा, उनकी शाँति भंग नही करूँगा । किस मुँह से जाऊँगा उनके सामने? जाने -अनजाने किए पापों का प्रायष्चित  करना चाहता हूँ । याद है मैने तुमसे कहा था कि जब जीवन को समझ  न पाऊँगा तो तुम्हारे पास ही आऊँगा । जो कुछ मैं इतने वर्षों मे न  सीख पाया वह आत्मबोध वो ग्यान  मुझे तुम्हारा जीवन देखकर मिला है । मैं तो योगी बनने का कर भगवान को याद करता रहा मगर उनके उद्देश्य को भूल गया और साधु वाद के मायाजाल में फँसा रहा या यूँ कहें कि जहाँ से चला था वहीं खडा हूँ।

‘‘लेकिन तुम जाओगे कहाँ ? आश्रम भी तुमने छोड़ दिया है ? जीवन - यापन के लिए भी तुम्हारे पास कुछ नही ।‘‘

‘‘ तुम से जो कर्मशीलता और आत्मबल की सम्पति लेकर जा रहा हूँ उसी से तुम्हारे अभियान को आगे ले जाऊँगा । इस दुनियाँ में अभी बहुत अच्छे लोग है जो मानवता के लिए कुछ करना चाहते हैं, उनकी सहायता लँूगा ।‘‘

बातें करते-करते दोनो कुछ देर बाद सो गए । सुबह तीन बजे ही शिवदास की आँख खुली । वह चुपके से उठा नहा-धोकर तैयार होता तो राम किशन की आँख खुल जाती । वह रामकिशन के उठने से पहले निकल जाना चाहता था । एक बार उसका मन  हुआ कि अगर आज रूक जाए तो किसी बहाने अपनी पत्नि और छोटे बेटे को भी देख लेता ...... मगर उसने विचार त्याग दिया... यह तड़प ही उसकी सजा है.... । उसने चुपके से अपना सामान उठाया और धीरे से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया ।

बाहर खुले आसमान चाँद तारों की -झिलमिल रोशनी में वह पगडण्डी पर बढा जा रहा था । पाँव के नीचे पेड़ों के -झडे सूखे  पत्तों की आवाज आज उसे संगीतमय लगी । इस धुन से उसके पैरों में गति आ गई ... और वह अपने साधना के उज्जवल भविष्य के कर्तव्य-बोध से भरा हुआ चला जा रहा था  ..... सच्चा साधू बनने ---- सच्ची साधना के लिये।-------- समाप्त

28 February, 2010

हज़ल

हज़ल
होली की आप सब को हार्दिक शुभकामनायें
आज कहानी की आखिरी किश्त  बीच मे रोक कर  अपने छोटे भाई पंकज सुबीर के आदेश पर ये हज़ल पेश कर रही हूँ आप जानते हैं कि रिटायरी कालोनी मे तो होली मनाई नही जाती, तो हमने सोचा कि  पंकज सुबीर के मुशायरे मे चलते हैं लेकिन वहाँ जा कर क्या हाल हुया ये आप सब देख लें । इस भाई ने तो मुझे वो जूते पडवाये कि बस पूछो न। लेने के देने पड गये । कहते कि हज़ल लिखो बाप रे इतनी मुश्किल बहर दे दी मगर हम भी कहाँ कम थे---दे तडा तड वो जूते बरसाये कि होली का आनन्द आ गया हमे कहा कि खूब गोबर जूतों का इस्तेमाल करो। तो आप देखिये कैसे खेली हम ने होली।  पहली बार हज़ल लिखी है बुरा न मानो होली है। मिसरा था-----

उतारो जूतों से आरती अब सनम जी आये गली हमारी
छोटे भाई  ने पता नही किस जन्म का बदला लिया। पतिदेव ने पढ कर हमारे जूते से ही हमारी होली मना दी--- हा हा हा।और सब से बडी खुशखबरी कि उन्हें  उनके उपन्यास  पर नवलेखन ग्यान पीठ पुरुस्कार मिला है जिस के लिये उन्हें बहुत बहुत बधाई।
हज़ल
बहार ले कर है आयी होली खुशी मनाये गली हमारी
उतारो जूते से आर्ती अब सजन हैं आये गली हमारी

सखी ले आना तगारी गोबर गुलाल ले कर उसे सजाना
करो सुवागत जु शान से वो ठहर न पाये गली हमारी

अबीर कीचड मिला बनायें जरा सा उबटन लगे सजीला
खिलाऊं घी गुड चुरी उसे जो पकड के लाये गली हमारी

बना सखी  हार चप्पलों से सडे टमाटर पिरोना उपले
है चाहता तो गधे पे चढ कर चला वो आये गली हमारी

निगाह उसकी मुझे है ढँढे मै बचती छुप छुप सखी के पीछे
बने वो छैला कहे है लैला मुझे सताये गली हमारी

करूँ विनय लो न भाँग धतूरा अभी है मेरी नज़र शराबी
सजी धजी सजनी ले के डंडा तुझे बुलाये गली हमारी

बहुत सताया मुझे है पर अब मै गिन के बदले करूँगी पूरे
बुरा न मानो शुगल करें जो होली मनाये गली हमारी

मुझे सताये बना बहाने बता भला ये उमर है कोई
चखाऊँ उसको बना के भुर्ता मजे से खाये गली हमारी

हैं दाँद नकली चढा है चश्मा झुकी कमर है बने जवाँ वो
ले धूल मिर्ची बुरक उसे जो ये छब बनाये गली हमारी

करो पिटाई करो ठुकाई बुढू को देखो बना मजाजी
मजा चखाऊँ उसे बताऊँ कभी जु आये गली हमारी

निरा ही लम्पट न शक्ल सूरत मलो तो चून औ चाक मुँह पर
बना के जोकर नमूना उसको उठा दिखाये  गली हमारी

ये ब्लाग दुनिया हुयी चकाचक बिखर रही है खुशी जहाँ मे
सुबीर लाये रंगीन होली हसे हसाये गली हमारी

सजे ये होली सजें नशिश्तें सभी तरफ हो खुशी मुहब्बत
मुबारकें है सलाम भी है यूँ खिलखिलाये गली हमारी।

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