सच्ची साधना
{आखिरी किश्त }
pपिछली किश्तों मे आपने पढा कि शिव दास कैसे साधू बना और उसे फिर भी सँतुष्टी नही मिली तो वापिस अपने गाँव लौटा। जहाँ उसे राम किशन { अपने बचपन के दोस्त} का जीवन और लोक सेवा देख कर उसे कैसे बोध हुया कि सच्ची साधना वो नही जो वो कर रहा था सच्ची साधना तो वो है जो रामकिशन कर रहा है। वो ध्यान से देख रहा है रामकिशन की दिनचर्या को अब आगे पढिये-------
शिवदास तुम हाथ मूंह धोलो तुम्हारा खाना आता ही होगा ।‘‘रामकिशन बोले
आठ बजे वही लडका कर्ण खाना लेकर आ गया । वह बर्तन उठा कर खाना डालने लगा था कि रामकिशन ने रोक दिया ।
‘‘ तुम जाओ मैं डाल लूँगा । रामकिशन ने उसे जाने के लिये कहा।
‘‘ गुरू जी, माँ ने कहा है कि आप भी खीर जरूर खाना, हवन का प्रसाद है । कर्ण ने जाते हुए कहा ।
‘‘ठीक है, खा लँूगा । वो हंस पड़े । हर बार जब खीर भेजती है तो यही कहती है ताकि मैं खा लूँ ।
रामकिशन ने नीचे दरी के उपर एक और चटाई बिछाई, दो पानी के गिलास रखें और दो थालियों में खाना डाल दिया। एक मे सब्जी, दाल, दही तथा खीर थी दूसरी मे खिचडी । शिवदास चटाई पर आकर बैठ गए तो राम किषन ने बड़ी थाली उसके आगे सरका दी ।
‘‘ यह क्या ? तुम केवल खिचड़ी खाओगे ?‘‘
‘‘ हाँ, में रात को फीकी खिचड़ी खाता हूँ। ‘‘
‘‘ मैं भी यही खिचड़ी खा लेता ।‘‘
‘‘ अरे नहीं .... बड़े-बडे भक्तों के यहाँ स्वादिष्ट भोजन कर तुम्हें खिचड़ी कहाँ स्वादिष्ट लगेगी । फिर मैं किसी के हाथ से खाना बनवा कर नही खाता । अपना खाना खुद बनाता हूँ । मगर क्या तुम अपनी पत्नि के हाथ का बना खाना नही खाओगे ?‘‘
‘‘ पत्नी के हाथ का ?‘‘
‘‘ हां, जब भी मेरा कोई मेहमान आता है तो भाभी ही खाना बनाकर भेजती है ।‘‘
शिवदास के मन में बहुत कुछ उमड़ घुमड़ कर बह जाने को आतुर था । क्या पाया उसने घर बार छोड़कर ? शायद इससे अधिक साधना वह घर की जिम्मेदारी निभाते हुए कर लेता या फिर शादी ही न करता .... एक आह निकली । पत्नी के हाथ का खाना खाने का मोह त्याग न पाया .....वर्षों बाद इस खाने की मिठास का आनन्द लेने लगा ।
खाना खाने के बाद दोनों बाहर टहलने निकल गए । रामकिशन ने उसे सारा आश्रम दिखाया । रात के नौ बज चुके थे । बहुत से बच्चे अभी लाईब्रेरी में पढ रहें थे । दूसरे कमरे में कुछ बच्चों को एक अध्यापक पढा रहे थे । वास्तव में रामकिशन ने बच्चों व युवकों के सर्वांगीण विकास व कर्मशीलता का विकास किया है। वह प्रशसनीय कार्य है।
साढे नौ बजे दोनो कमरे में वापिस आ गए । रामकिशन ने अपना बिस्तर नीचे फर्ष पर लगाया और पुस्तक पढने बैठ गए ।
‘‘तुम उपर बैड पर सो जाओ, मैं नीचे सो जाता हूंँ ।‘‘ रामकिशन बोले,
" नहीं नहीं, मैं नीचे सो जाता हूँ" शिवदास ने कहा
" नही शिवदास मैं रोज़ नीचे ही सोता हूँ। तुम्हें आदत नही होगी आश्रम मे तो गद्देदार बिस्तर होंगे।"
सच में रामकिशन हर बात में उससे अधिक सादा व त्यागमय जीवन जी रहा है । मैने तो भगवें चोले के अंदर अपनी इच्छाओं को दबाया हुआ है मगर रामकिशन ने सफेद उज्जवल पोषाक की तरह अपनी आत्मा को ही उज्जवल कर लिया है ।
‘‘ अब तुम्हारा क्या प्रोग्राम है ?‘‘
‘‘प्रोग्राम?‘‘ वह सोच से उभरा.....‘‘ कुछ नही। कल चला जाऊँगा ।‘‘
‘यहीं क्यों नही रह जाते ? मिल कर काम करेंगे ।‘‘
‘‘ नही दोस्त, मैं अपने परिवार को कुछ दे तो न सका अब उन्हेने स्वयं अर्जित सुख का सासँ लिया है उसमें खलल नहीं डालूँगा, उनकी शाँति भंग नही करूँगा । किस मुँह से जाऊँगा उनके सामने? जाने -अनजाने किए पापों का प्रायष्चित करना चाहता हूँ । याद है मैने तुमसे कहा था कि जब जीवन को समझ न पाऊँगा तो तुम्हारे पास ही आऊँगा । जो कुछ मैं इतने वर्षों मे न सीख पाया वह आत्मबोध वो ग्यान मुझे तुम्हारा जीवन देखकर मिला है । मैं तो योगी बनने का कर भगवान को याद करता रहा मगर उनके उद्देश्य को भूल गया और साधु वाद के मायाजाल में फँसा रहा या यूँ कहें कि जहाँ से चला था वहीं खडा हूँ।
‘‘लेकिन तुम जाओगे कहाँ ? आश्रम भी तुमने छोड़ दिया है ? जीवन - यापन के लिए भी तुम्हारे पास कुछ नही ।‘‘
‘‘ तुम से जो कर्मशीलता और आत्मबल की सम्पति लेकर जा रहा हूँ उसी से तुम्हारे अभियान को आगे ले जाऊँगा । इस दुनियाँ में अभी बहुत अच्छे लोग है जो मानवता के लिए कुछ करना चाहते हैं, उनकी सहायता लँूगा ।‘‘
बातें करते-करते दोनो कुछ देर बाद सो गए । सुबह तीन बजे ही शिवदास की आँख खुली । वह चुपके से उठा नहा-धोकर तैयार होता तो राम किशन की आँख खुल जाती । वह रामकिशन के उठने से पहले निकल जाना चाहता था । एक बार उसका मन हुआ कि अगर आज रूक जाए तो किसी बहाने अपनी पत्नि और छोटे बेटे को भी देख लेता ...... मगर उसने विचार त्याग दिया... यह तड़प ही उसकी सजा है.... । उसने चुपके से अपना सामान उठाया और धीरे से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया ।
बाहर खुले आसमान चाँद तारों की -झिलमिल रोशनी में वह पगडण्डी पर बढा जा रहा था । पाँव के नीचे पेड़ों के -झडे सूखे पत्तों की आवाज आज उसे संगीतमय लगी । इस धुन से उसके पैरों में गति आ गई ... और वह अपने साधना के उज्जवल भविष्य के कर्तव्य-बोध से भरा हुआ चला जा रहा था ..... सच्चा साधू बनने ---- सच्ची साधना के लिये।-------- समाप्त
शिवदास तुम हाथ मूंह धोलो तुम्हारा खाना आता ही होगा ।‘‘रामकिशन बोले
आठ बजे वही लडका कर्ण खाना लेकर आ गया । वह बर्तन उठा कर खाना डालने लगा था कि रामकिशन ने रोक दिया ।
‘‘ तुम जाओ मैं डाल लूँगा । रामकिशन ने उसे जाने के लिये कहा।
‘‘ गुरू जी, माँ ने कहा है कि आप भी खीर जरूर खाना, हवन का प्रसाद है । कर्ण ने जाते हुए कहा ।
‘‘ठीक है, खा लँूगा । वो हंस पड़े । हर बार जब खीर भेजती है तो यही कहती है ताकि मैं खा लूँ ।
रामकिशन ने नीचे दरी के उपर एक और चटाई बिछाई, दो पानी के गिलास रखें और दो थालियों में खाना डाल दिया। एक मे सब्जी, दाल, दही तथा खीर थी दूसरी मे खिचडी । शिवदास चटाई पर आकर बैठ गए तो राम किषन ने बड़ी थाली उसके आगे सरका दी ।
‘‘ यह क्या ? तुम केवल खिचड़ी खाओगे ?‘‘
‘‘ हाँ, में रात को फीकी खिचड़ी खाता हूँ। ‘‘
‘‘ मैं भी यही खिचड़ी खा लेता ।‘‘
‘‘ अरे नहीं .... बड़े-बडे भक्तों के यहाँ स्वादिष्ट भोजन कर तुम्हें खिचड़ी कहाँ स्वादिष्ट लगेगी । फिर मैं किसी के हाथ से खाना बनवा कर नही खाता । अपना खाना खुद बनाता हूँ । मगर क्या तुम अपनी पत्नि के हाथ का बना खाना नही खाओगे ?‘‘
‘‘ पत्नी के हाथ का ?‘‘
‘‘ हां, जब भी मेरा कोई मेहमान आता है तो भाभी ही खाना बनाकर भेजती है ।‘‘
शिवदास के मन में बहुत कुछ उमड़ घुमड़ कर बह जाने को आतुर था । क्या पाया उसने घर बार छोड़कर ? शायद इससे अधिक साधना वह घर की जिम्मेदारी निभाते हुए कर लेता या फिर शादी ही न करता .... एक आह निकली । पत्नी के हाथ का खाना खाने का मोह त्याग न पाया .....वर्षों बाद इस खाने की मिठास का आनन्द लेने लगा ।
खाना खाने के बाद दोनों बाहर टहलने निकल गए । रामकिशन ने उसे सारा आश्रम दिखाया । रात के नौ बज चुके थे । बहुत से बच्चे अभी लाईब्रेरी में पढ रहें थे । दूसरे कमरे में कुछ बच्चों को एक अध्यापक पढा रहे थे । वास्तव में रामकिशन ने बच्चों व युवकों के सर्वांगीण विकास व कर्मशीलता का विकास किया है। वह प्रशसनीय कार्य है।
साढे नौ बजे दोनो कमरे में वापिस आ गए । रामकिशन ने अपना बिस्तर नीचे फर्ष पर लगाया और पुस्तक पढने बैठ गए ।
‘‘तुम उपर बैड पर सो जाओ, मैं नीचे सो जाता हूंँ ।‘‘ रामकिशन बोले,
" नहीं नहीं, मैं नीचे सो जाता हूँ" शिवदास ने कहा
" नही शिवदास मैं रोज़ नीचे ही सोता हूँ। तुम्हें आदत नही होगी आश्रम मे तो गद्देदार बिस्तर होंगे।"
सच में रामकिशन हर बात में उससे अधिक सादा व त्यागमय जीवन जी रहा है । मैने तो भगवें चोले के अंदर अपनी इच्छाओं को दबाया हुआ है मगर रामकिशन ने सफेद उज्जवल पोषाक की तरह अपनी आत्मा को ही उज्जवल कर लिया है ।
‘‘ अब तुम्हारा क्या प्रोग्राम है ?‘‘
‘‘प्रोग्राम?‘‘ वह सोच से उभरा.....‘‘ कुछ नही। कल चला जाऊँगा ।‘‘
‘यहीं क्यों नही रह जाते ? मिल कर काम करेंगे ।‘‘
‘‘ नही दोस्त, मैं अपने परिवार को कुछ दे तो न सका अब उन्हेने स्वयं अर्जित सुख का सासँ लिया है उसमें खलल नहीं डालूँगा, उनकी शाँति भंग नही करूँगा । किस मुँह से जाऊँगा उनके सामने? जाने -अनजाने किए पापों का प्रायष्चित करना चाहता हूँ । याद है मैने तुमसे कहा था कि जब जीवन को समझ न पाऊँगा तो तुम्हारे पास ही आऊँगा । जो कुछ मैं इतने वर्षों मे न सीख पाया वह आत्मबोध वो ग्यान मुझे तुम्हारा जीवन देखकर मिला है । मैं तो योगी बनने का कर भगवान को याद करता रहा मगर उनके उद्देश्य को भूल गया और साधु वाद के मायाजाल में फँसा रहा या यूँ कहें कि जहाँ से चला था वहीं खडा हूँ।
‘‘लेकिन तुम जाओगे कहाँ ? आश्रम भी तुमने छोड़ दिया है ? जीवन - यापन के लिए भी तुम्हारे पास कुछ नही ।‘‘
‘‘ तुम से जो कर्मशीलता और आत्मबल की सम्पति लेकर जा रहा हूँ उसी से तुम्हारे अभियान को आगे ले जाऊँगा । इस दुनियाँ में अभी बहुत अच्छे लोग है जो मानवता के लिए कुछ करना चाहते हैं, उनकी सहायता लँूगा ।‘‘
बातें करते-करते दोनो कुछ देर बाद सो गए । सुबह तीन बजे ही शिवदास की आँख खुली । वह चुपके से उठा नहा-धोकर तैयार होता तो राम किशन की आँख खुल जाती । वह रामकिशन के उठने से पहले निकल जाना चाहता था । एक बार उसका मन हुआ कि अगर आज रूक जाए तो किसी बहाने अपनी पत्नि और छोटे बेटे को भी देख लेता ...... मगर उसने विचार त्याग दिया... यह तड़प ही उसकी सजा है.... । उसने चुपके से अपना सामान उठाया और धीरे से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया ।
बाहर खुले आसमान चाँद तारों की -झिलमिल रोशनी में वह पगडण्डी पर बढा जा रहा था । पाँव के नीचे पेड़ों के -झडे सूखे पत्तों की आवाज आज उसे संगीतमय लगी । इस धुन से उसके पैरों में गति आ गई ... और वह अपने साधना के उज्जवल भविष्य के कर्तव्य-बोध से भरा हुआ चला जा रहा था ..... सच्चा साधू बनने ---- सच्ची साधना के लिये।-------- समाप्त
30 comments:
एक बेहतरीन सन्देश दिया है आपकी कहानी नें,आभार.
Ek bahut uchch koti ki kahani lagee ye Maasi.. na jane kitne sandesh deti hui see..
Jai Hind...
प्रयाश्चित ही हो पायेगा....
सुन्दर कहानी...अच्छी लगी. बधाई.
एक सुंदर आदर्श कथा है। ये समझाने में कामयाब रही है कि जीवन में स्वयं के आनंद से अधिक आनंद परिवार और समाज को आगे बढ़ाने के काम में मिलता है। सच्चा पथ वही है।
आखिर साधू ने जान ही लिया सच्चे साधूपन को ...
कमेन्ट लिखते हुए अभी दिल्ली में जो साधू बाबा पकडे गए हैं ... उनका ख्याल आ गया है ...जब तक जनता इन ढोंगी बाबाओं के फेर में रहेगी ...उनकी ऐसी ही चाँदी कटेगी ...
Bahut accha sandesh de rahee hai aapkee ye kahanee.apane kartavyo se bhag kar koi shanti nahee pa sakta ye aapkee kahanee bhee kah gayee........
ant aapne bahut accha likha ..........
Behad preranadayi sundar kahani bahut pasand aai....Aabhar!!
mazaa aa gaya padh ke...
kahaani padhne ka asli mazaa aapki rachnaao ko dekh kar hee aata hai...!!
puri khani padh ke bahut accha laga ........
Bhagwa kapde pahanne se hi koi sadhu nahi ban jata..
sacchi sadhna vakai sacchi hai..
sacchi sadhna vakai sacchi hai..
प्रयाश्चित ही हो पायेगा,एक सुंदर आदर्श कथा .
एक आदर्शात्मक कथा......और आपकी लेखनी का जादू!
bilkul yatharth ka chitran karti huyi........sachcha sadhu to wo hi hai jisne apne aap par apni ichchon par niyantran kar liya aur apne tatha samaj ke kalyan ke liye uchit karya kiya ...........ek bahut hi prerak sandesh deti hai kahani........aabhar.
अपने लिए जिए तो क्या जिए,
तू जी, ऐ दिल ज़माने के लिए...
एक मां से ही जीवन का इतना बड़ा संदेश मिल सकता है...
जय हिंद...
बहुत सार्थक कहानी एक अच्छे सन्देश के साथ.पर देखें हम पर इसका कितना प्रभाव पड़ता है
सुन्दर कहानी...अच्छी लगी. बधाई
बहुत प्रभावशाली , संदेशात्मक कहानी। प्रवाह तो ऐसा जैसे कोई आँखों देखा वर्णन कर रहा हो।
शिवदास को आत्मबोध होना एक सकारात्मक सोच।
निर्मला जी , हज़ल का क्या मतलब होता है , ज़रा यह भी बताएं।
डाक्तर दराल मैने भी पहली बार ही हज़ल पंकज सुबीर जी के ब्लाग पर देखी है इस बार उनके ब्लाग पर जो मुशायरा हुया वो हज़ल का ही था शाब्दिक अर्था या इसके बारे मे विस्तार से अभी जानना है मुझे लगता है कि ये गज़ल का व्यंगात्मक रूखै अगर हज़ल, और गज़ल का आनन्द लेना है तो यहाँ देखें
http://subeerin.blogspot.com/
और ये भी देखें मेरी क्या गत बनाई है होली पर
http://subeerin.blogspot.com/2010/02/blog-post_24.html
आप सब जान जायेंगे।
माँ जी हमेशा की तरह सन्देश के साथ खत्म किया आपने , बहुत बढ़िया लगा पढ़कर , अब तो आपने आदत खराब करवा दी है बढ़िया कहानी पढ़ने की ।
बहुत सटीक और सार्थक संदेश.
रामराम.
बहुत सुंदर अंत, शिबदास ने सही रास्ता ़चुना. धन्यवाद
सुखान्त कथा बहुत ही प्रभावशाली रही!
this is really the 'true sadhna' of life which is mentioned here..
इतने दिनों तक साधु बने रहने के बाद भी जो बात शिवदास की समझ में नही आ पाई वहीं बात एक दिन रामकिशुन के साथ रह कर समझ गये की सच्ची साधना क्या है....बहुत बढ़िया कहानी...
आदरणीय निर्मला जी प्रणाम।
आपकी रचनाएं प्रेरणा देती हैं और आपकी टिप्पणियां उत्साह।
पर इन दिनों आप शायद नाराज चल रहीं हैं
बड़े लोग तो कहतें हैं
क्षमा बड़न का चाहिए छोटन का उत्पात
कहानी का अंत संदेशात्मक है.....कम से कम इन बाबा को सच्ची साधना का ज्ञान तो हो गया....अच्छी कहानी.
निर्मला जी,पहले तो आपसे क्षमा मांगती हूँ...2 दिन से इस कहानी का अंत पढने की कोशिश कर रही हूँ,पर पता नहीं क्यूँ ब्लॉग पूरा नहीं खुल रहा था...आज पढ़ा....और आशानुकूल एक सुन्दर सन्देश देती हुई कहानी समाप्त की आपने....आपकी कहानी में हमेशा एक सन्देश छुपा हुआ होता है और वह कहानी की सुन्दर बुनावट के बीच ही होता है....\
सुन्दर रचना
कुछ अलग हट कर लिखी कहानी के माध्यम से दिया .... बहुत ही अच्छा संदेश देती ... अच्छी कहानी ....
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