कसौटी रिश्ते की
अगली कडी
अब तक आपने पडा कि दोनो पति पत्नि बैठे हुये हैं और पति रो रहे हैं। उनके भाईयों ने उन्हें घर मे से हिस्सा नही दिया था---- पत्नि उन्हें और रुलाना चाहती थी---- पिछली बातें याद कर के ताकि बाद मे रोने के लिये कुछ न बचे।-------
अगली कडी
"ये तो बहुत बडी बडी बातें थी हमे तो एक छोटी सी खुशी भी नसीब नही होती थी। याद है रिश्तेदारी मे एक शादी पर जब मुझे भी सब के साथ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुया था। अपनी शादी के कुछ दिनो बाद ही मैं सजना संवरना भूल गयी थी। उस दिन मुझे अवसर मिला था। जब तैयार हो कर आपके सामने आयी तो आपने शायद पहली बार इतने गौर से देखा था--- न जाने कहाँ से एक ावारा सा अरमान आपके दिल मे उठा था अवारा इस लिये कि ऐसे अरमान आपके दिल मे उठते ही नही थे अगर उठते थे तो आप छिपा लेते थे---- तभी आप बोले--
"अज हम सब से पहले घर आ जायेंगे। कुछ पल अकेले मे बितायेंगे।"
"क्या सच????" मेरी आवाज़ मे छिपा व्यंग इन्हें अन्दर तक कचोट गया था-- चाहे बोले कुछ नही मगर आँखों मे बेबसी के भाव मैने पढ लिये थे। एक दर्द की परछाई इनके चेहरे पर सिमट आयी थी।
मुझे पता था कि मुश्किल है हमे माँजी अकेले मे भेजें। वो नही चाहती थी कि हम दोनो कभी अकेले मे बैठें। मुझे पता नही क्यों उन पर कभी गुस्सा नही आता था उन्हों ने बचपन मे सौतेली माँ के हाथों इतने दुख झेले थे। मेरे ससुर जी की पकिस्तान मे अच्छी नौकरी थी वो पटवारी थी मगर आज़ादी के बाद दंगों मे उ7न्हें सब कुछ वहीं छोड कर भारत आना पडा कुछ अपनी जमीन यहां थी तो नौकरी भी फिर से यहीं मिल गयी । यहाँ भी संयुक्त परिवार था साथ भाईयों का तो मेरी सासू जी सब से छोटी थी इस लिये यहाँ भी उन्हें बहुत दुख झेलने पडे। शायद अब भी उनके मन मे एक असुरक्षा की भावना थी। मुझे कभी कुछ कहती भी नही थी। अपनी बीमारी से भी दुखी थी। इस लिये मुझे उन पर गुस्सा नही आता। उन्हें डर था कि अगर हम मे प्यार बढ गया तो मैं इन्हें शहर न ले जाऊँ। और उस दिन भी यही हुया जैसे ही हम खाना खाने के बाद चलने को हुये तो िन्हों ने कहा कि आपने तो रात को आना है हम लोग घर चलते हैं पशुयों को चारा भी डालना है-- तो माँजी एक दम से बोल पडी----" बच्चों को भी साथ ले जाओ।" और मैं एक अनजान पीडा से तिलमिला गयी। फिर अकेले कुछ समय साथ बिताने का सपना चूर चूर हो चुका था।
इनका रोना रुकने की बजाये बढ गया था यही तो मैं चाक़्हती थी----
" आपको याद है मुझे अपने मायके के सुख दुख मे भी शामिल होना नसीब नही था।मेरे जवान भाई की मौत आपकी भाभी के बाद 6-8 माह मे ही हो गयी थी---तो संस्कार के तुरन्त बाद ही आप मुझे घर ले आये थे--- मुझे अपनी माँ के आँसू भी पोंछने नही दिये थे--- आप मुझे रोने भी नही देते झट से डांट देते---" रो कर क्या भाई वापिस आ जायेगा?"---- ओह! किस तरह टुकडे टुकडे मेरे दिल को पत्थर बनाया था----: आज तक न कभी हँस पाई न रो पाई। लाडकी को ही क्यों हक नही होता कि वो अपने माँ बाप के सुख दुख मे काम आये जैसे कि आप अपने माँ बाप के काम आ रहे थे।
रगर एक एक दिन और रात का आपको हिसाब दूँ तो शायद आज आप भी सकते मे आ जायेंगे। आपने केवल अपनी नज़र से ज़िन्दगी को देखा है आज मेरी नज़रों से देखोगे तो आपका दर्द बह जायेगा और मुझे भी शायद कुछ सकून मिलेगा।
इसी लिये मैं आपको रो लेने देना चाहती हूँ। आपको रोने से नही रोकूँगी--- आपको पत्थर नही बनने दूँगी--- भुक्तभोगी हूँ--- जानती हूँ पत्थर बना हुया दिल ज़िन्दगी पर बोझ बन जाता है--- दुनिया के लिये अपने लिये निर्दयी हो जाता है।
राम सीता के लिये कठोर हो सकते हैं मगर दुनिया के लिये तो भगवान ही हैं क्या राम के बिना दुनिया की कल्पना की जा सकती है? मैं सीता कि तरह उदार तो नही हो सकती कि आपको माफ कर दूँ मगर फिर भी चाहती हूँ कि आप दुनिया के लिये ही जीयें_। मैं दुनिया को एक कर्तव्यनिष्ठ इन्सान से वंचित नही करना चाहती।काश भगवान मुझे भी आप जैसाबनाता कामनाओं से मुक्त--- स्वार्थ से परे--- मेरा अपने सुख के लिये शायद स्वार्थ ही था जो आपको कभी माफ नही कर पाई। हाँ लेकिन एक बात का स्कून ज़िन्दगी भर रहा कि मैने वो किया है जो शायद आज तक किसी ने नही किया। अपना दर्द तब भूल जाती हूँ जब गाँव के लोग कहते हैं कि ऐसी बहु न कभी आयी थी न शायद आयेगी। बस इसी एक बात ने मुझे विद्रोह करने से रोके रखा। हाँ जमीन बाँटे जाने तक सब के लिये मैं महान थी मगर जब अपना घर बनाने की बारी आयी तो मैं बुरी हो गयी। जो औरत शादी के पच्चीस साल तक घर मे सब के लिये वरदान थी वो बाद मे कैसे बुरी हो गयी? शायद मतलव निकल जाने के बाद ऐसे ही होता है। मुझे हमेशा बहला फुसला कर ही सब ने अपना मतलव निकाला और मै अपने सभी दुख इसी लिये भूल जाती थी।
मेरे वो पल जब मैं अपने पँखों से दूर आकाश तक उडना चाहती थी आपके संग हवाओं फूलों,पत्तियों से ओस की बूँदों तितली के पँखों से रिमझिम कणियों सेआपके संग भीगना चाहती थी लेकिन भीगने के लिये क्या मिला उम्र भर आँसू!--- अपके दिल की धुन से मधुर संगीत सुनना चाहती थी--- आपकी आँखों मे डूब जाना चाहती थी आपकी छाती पर सिर रख कर सपने बुनना चाहती थी--पता नहीं कितने अरमान पाल रखे थे दिल मे क्या मेरे वो सपने कोई लौटा सकता है? आप? आपके भाई? या फिर वो बच्छे जिन्हें अंगुली पकड कर चलना सिखाया। 2 साल का था सब से छोटा --- 9 साल का सब से बडा। क्या कभी उन्हों ने आ कर पूछा है आपका हाल बल्कि सारी उम्र मेरे पास रहे और जब नौकरियां लग गयी शादियाँ हो गयी तो अपने बाप के पास चले गये। अब रास्ते मे देख कर मुँह फेर लेते है।
कैर हम दिल का रिश्ता तो कभी बना नही पाये। सपने जो दिल के रिश्तों के साक्षी थी कब के टूट गये हैं रिश्ता केवल आपने रखा अपने पति होने का। बिस्तर तक सिमटे रिश्ते की उम्र दूध के उफान की तरह होती है बिस्तर छोड और रिश्ता खत्म। एक अभिशाप की तरह था मेरे लिये वो रिश्ता। मगर आज सब कुछ भूल कर हम एक नया रिश्ता तो कायम कर सकते हैं--- एक दूसरे के आँसू पोंछने का रिश्ता---- सुख के साथी तो सभी बन जाते हैं मगर सच्चा रिश्ता तो वही है जो दुख मे काम आये--- निभे-- । और मैने उनका आखिरी आँसू अपनी हथेली पर समेट लिया एक नये अटूट रिश्ते को सींचने के लिये। समाप्त।
अगली कडी
"ये तो बहुत बडी बडी बातें थी हमे तो एक छोटी सी खुशी भी नसीब नही होती थी। याद है रिश्तेदारी मे एक शादी पर जब मुझे भी सब के साथ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुया था। अपनी शादी के कुछ दिनो बाद ही मैं सजना संवरना भूल गयी थी। उस दिन मुझे अवसर मिला था। जब तैयार हो कर आपके सामने आयी तो आपने शायद पहली बार इतने गौर से देखा था--- न जाने कहाँ से एक ावारा सा अरमान आपके दिल मे उठा था अवारा इस लिये कि ऐसे अरमान आपके दिल मे उठते ही नही थे अगर उठते थे तो आप छिपा लेते थे---- तभी आप बोले--
"अज हम सब से पहले घर आ जायेंगे। कुछ पल अकेले मे बितायेंगे।"
"क्या सच????" मेरी आवाज़ मे छिपा व्यंग इन्हें अन्दर तक कचोट गया था-- चाहे बोले कुछ नही मगर आँखों मे बेबसी के भाव मैने पढ लिये थे। एक दर्द की परछाई इनके चेहरे पर सिमट आयी थी।
मुझे पता था कि मुश्किल है हमे माँजी अकेले मे भेजें। वो नही चाहती थी कि हम दोनो कभी अकेले मे बैठें। मुझे पता नही क्यों उन पर कभी गुस्सा नही आता था उन्हों ने बचपन मे सौतेली माँ के हाथों इतने दुख झेले थे। मेरे ससुर जी की पकिस्तान मे अच्छी नौकरी थी वो पटवारी थी मगर आज़ादी के बाद दंगों मे उ7न्हें सब कुछ वहीं छोड कर भारत आना पडा कुछ अपनी जमीन यहां थी तो नौकरी भी फिर से यहीं मिल गयी । यहाँ भी संयुक्त परिवार था साथ भाईयों का तो मेरी सासू जी सब से छोटी थी इस लिये यहाँ भी उन्हें बहुत दुख झेलने पडे। शायद अब भी उनके मन मे एक असुरक्षा की भावना थी। मुझे कभी कुछ कहती भी नही थी। अपनी बीमारी से भी दुखी थी। इस लिये मुझे उन पर गुस्सा नही आता। उन्हें डर था कि अगर हम मे प्यार बढ गया तो मैं इन्हें शहर न ले जाऊँ। और उस दिन भी यही हुया जैसे ही हम खाना खाने के बाद चलने को हुये तो िन्हों ने कहा कि आपने तो रात को आना है हम लोग घर चलते हैं पशुयों को चारा भी डालना है-- तो माँजी एक दम से बोल पडी----" बच्चों को भी साथ ले जाओ।" और मैं एक अनजान पीडा से तिलमिला गयी। फिर अकेले कुछ समय साथ बिताने का सपना चूर चूर हो चुका था।
इनका रोना रुकने की बजाये बढ गया था यही तो मैं चाक़्हती थी----
" आपको याद है मुझे अपने मायके के सुख दुख मे भी शामिल होना नसीब नही था।मेरे जवान भाई की मौत आपकी भाभी के बाद 6-8 माह मे ही हो गयी थी---तो संस्कार के तुरन्त बाद ही आप मुझे घर ले आये थे--- मुझे अपनी माँ के आँसू भी पोंछने नही दिये थे--- आप मुझे रोने भी नही देते झट से डांट देते---" रो कर क्या भाई वापिस आ जायेगा?"---- ओह! किस तरह टुकडे टुकडे मेरे दिल को पत्थर बनाया था----: आज तक न कभी हँस पाई न रो पाई। लाडकी को ही क्यों हक नही होता कि वो अपने माँ बाप के सुख दुख मे काम आये जैसे कि आप अपने माँ बाप के काम आ रहे थे।
रगर एक एक दिन और रात का आपको हिसाब दूँ तो शायद आज आप भी सकते मे आ जायेंगे। आपने केवल अपनी नज़र से ज़िन्दगी को देखा है आज मेरी नज़रों से देखोगे तो आपका दर्द बह जायेगा और मुझे भी शायद कुछ सकून मिलेगा।
इसी लिये मैं आपको रो लेने देना चाहती हूँ। आपको रोने से नही रोकूँगी--- आपको पत्थर नही बनने दूँगी--- भुक्तभोगी हूँ--- जानती हूँ पत्थर बना हुया दिल ज़िन्दगी पर बोझ बन जाता है--- दुनिया के लिये अपने लिये निर्दयी हो जाता है।
राम सीता के लिये कठोर हो सकते हैं मगर दुनिया के लिये तो भगवान ही हैं क्या राम के बिना दुनिया की कल्पना की जा सकती है? मैं सीता कि तरह उदार तो नही हो सकती कि आपको माफ कर दूँ मगर फिर भी चाहती हूँ कि आप दुनिया के लिये ही जीयें_। मैं दुनिया को एक कर्तव्यनिष्ठ इन्सान से वंचित नही करना चाहती।काश भगवान मुझे भी आप जैसाबनाता कामनाओं से मुक्त--- स्वार्थ से परे--- मेरा अपने सुख के लिये शायद स्वार्थ ही था जो आपको कभी माफ नही कर पाई। हाँ लेकिन एक बात का स्कून ज़िन्दगी भर रहा कि मैने वो किया है जो शायद आज तक किसी ने नही किया। अपना दर्द तब भूल जाती हूँ जब गाँव के लोग कहते हैं कि ऐसी बहु न कभी आयी थी न शायद आयेगी। बस इसी एक बात ने मुझे विद्रोह करने से रोके रखा। हाँ जमीन बाँटे जाने तक सब के लिये मैं महान थी मगर जब अपना घर बनाने की बारी आयी तो मैं बुरी हो गयी। जो औरत शादी के पच्चीस साल तक घर मे सब के लिये वरदान थी वो बाद मे कैसे बुरी हो गयी? शायद मतलव निकल जाने के बाद ऐसे ही होता है। मुझे हमेशा बहला फुसला कर ही सब ने अपना मतलव निकाला और मै अपने सभी दुख इसी लिये भूल जाती थी।
मेरे वो पल जब मैं अपने पँखों से दूर आकाश तक उडना चाहती थी आपके संग हवाओं फूलों,पत्तियों से ओस की बूँदों तितली के पँखों से रिमझिम कणियों सेआपके संग भीगना चाहती थी लेकिन भीगने के लिये क्या मिला उम्र भर आँसू!--- अपके दिल की धुन से मधुर संगीत सुनना चाहती थी--- आपकी आँखों मे डूब जाना चाहती थी आपकी छाती पर सिर रख कर सपने बुनना चाहती थी--पता नहीं कितने अरमान पाल रखे थे दिल मे क्या मेरे वो सपने कोई लौटा सकता है? आप? आपके भाई? या फिर वो बच्छे जिन्हें अंगुली पकड कर चलना सिखाया। 2 साल का था सब से छोटा --- 9 साल का सब से बडा। क्या कभी उन्हों ने आ कर पूछा है आपका हाल बल्कि सारी उम्र मेरे पास रहे और जब नौकरियां लग गयी शादियाँ हो गयी तो अपने बाप के पास चले गये। अब रास्ते मे देख कर मुँह फेर लेते है।
कैर हम दिल का रिश्ता तो कभी बना नही पाये। सपने जो दिल के रिश्तों के साक्षी थी कब के टूट गये हैं रिश्ता केवल आपने रखा अपने पति होने का। बिस्तर तक सिमटे रिश्ते की उम्र दूध के उफान की तरह होती है बिस्तर छोड और रिश्ता खत्म। एक अभिशाप की तरह था मेरे लिये वो रिश्ता। मगर आज सब कुछ भूल कर हम एक नया रिश्ता तो कायम कर सकते हैं--- एक दूसरे के आँसू पोंछने का रिश्ता---- सुख के साथी तो सभी बन जाते हैं मगर सच्चा रिश्ता तो वही है जो दुख मे काम आये--- निभे-- । और मैने उनका आखिरी आँसू अपनी हथेली पर समेट लिया एक नये अटूट रिश्ते को सींचने के लिये। समाप्त।