24 December, 2010

गज़ल--- [gazal]

गज़ल

वो सब को ही लुभाना जानता है
सभी के दुख मिटाना जानता है

वो भोला बन रहा है पर जमाना
हरेक उसका फसाना जानता है

करो मत शक कोई नीयत पे उस की
वो सब वादे निभाना जानता है

नहीं दो वक्त की रोटी उसे पर
महल ऊँचे बनाना जानता है

पहल करता नही वो दुशमनी मे
उठी ऊँगली झुकाना जानता है

निकम्मा क्या करेगा काम प्यारे
महज बातें बनाना जानता है

चुराते लोग खुशियाँ हैं मगर वो
फकत आँसू चुराना जानता है

22 December, 2010

सुखान्त दुखान्त--- आखिरी कडी { story}

सुखान्त दुखान्त -- आखिरी कडी

पिछली किश्त मे आपने पढा कि बाजी शुची को अपने अतीत की कहानी सुना रही थी कि किस तरह उसने किसी अमीर परिवार मे शादी के सपने देखे थी जब उसकी शादी अमीर परिवार मे हुयी तो उसे अमीरी का सच पता चला। जितना उजला अमीरी का उजाला बाहर से लगता है उतना ही अन्दर अन्धेरा होता है। उसके शराबी कबाबी पति को जब डाक्टर ने टी बी की बीमारी बताई तो घर के लोग तो खुश थे कि बला टली लेकिन बाजी को भविश्य की चिन्ता सताने लगी। बाजीपने पति के साथ सेनिटोरियम मे चली गयी वहीँ अपने जीजा की मदद से नर्स दाई की ट्रेनिन्ग लेने लगी । त्क़भी एक दिन उन्हें एक औरत मिली जिसने जो उनके ससुराल वालों का सच बताने आयी थी। उस औरत ने  बाजी बताया कि कैसे उसके पति की सौतेली माँ और सास उसके पति के खिलाफ षड्यन्त्र  रच रहे हैं।
 जिसे सुन कर उसने पति की देख भाल का पूरा जिमा खुद पर ले लिया और उसे घर ले आयी। अब बाजी की नौकरी भी लग गयी थी। अब आगे पढें------

" इनकी हालत मे बहुत सुधार होने लगा था फिर भी इनके अन्दर एक गम और हीन भावना सी रहती।कितना मुश्किल था एक करोड पति  नवाब के लिये अपने एक नौकर की हैसीयत जितनी पत्नी पर निर्भर करना। आठ वर्ष हो गये थे शादी को हमारा बच्चा भी नही हुया था। यूँ भी कोठों की रोनक बढाने वालों के अपने आँगन सूने ही रहते है।"
 "इस बीच अस्पताले मे एक औरत बच्चे को जन्म दे कर भाग गयी। मैने वो बच्चा गोद ले लिया। बेटा दो साल का हुया था कि एक दिन मेरे पति अपने भाईयों से मिलने और अपनी जमीन जायदाद का प्ता लेने अपने घर गये मगर वहाँ से उनकी मौत की खबर ही आयी। उनकी मौत भी मेरे लिये राज़ ही रही जबकि उनकी हालत पहले से बहुत अच्छी थी।  घर वालों ने बताया कि उन्हें सोते हुये अपने कमरे मे मृ्त पाया गया और मेरे पहुँचने से पहले लाश का दाह संस्कार कर दिया ग्या था। मेरा 10 साल का संघर्ष एक पल मे राख हो गया। सपनो का ऐसा ही अन्त होता है जब हम अपने पँखों के आकार से बडे सपने देखने लगते हैं।। मेरे बेटे के सिर से बाप का साया उठ गया था बेशक ये साया अपनी छाँव उसे नही दे सका था। मुझे जमीन जायदाद मे से कुछ नही मिला बोले की उसने सब कुछ बेच कर खा लिया है।  अब तो मुझे दुख झेलने की आदत सी पड चुकी थी।"
बिना पँख आकाश पर उदने का सपना लिये मैं जमीन पर भी कोई सुख नही भोग पाई।कितना अच्छा होता मै बचपन से ही अपने पाँव पर खडे होने का सपना पालती।ये टीस आज तक मुझे सालती है। शुचि, अपनी कहानी आज इस लिये तुम्हें बताई कि मै नही चाहती कि मेरी तरह कल को तुम भी धन दौलत के लालच मे अपने पाँव के नीचे की जमीन खो दो।।"
" बाजी जरूरी तो नही कि सब लोग एक जैसे होते हैं?" मैने आशंका जताई।
" हाँ , लेकिन धन दौलत की मोटी परत मे उनके जीवन मे झाँकना , उसे भेदना किसी गरीब आदमी के लिये सम्भव नही होता। रिश्ते हमेशा बराबरी मे ही सुखमय होते हैं, प्रेम प्यार मान सम्मान पाते हैं।"
बाजी कुछ देर चुप रही -- हाँ तुम कुछ बताने आयी थी मगर मैं आपनी कहानी ले कर ही बैठ गयी।" बाजी ने मेरी तरफ देख कर पूछा।
 बाजी मेरी एक सहेली है क्लासमेट मै अक्सर उसके घर जाती हूँ। उसकी माँ मुझे बहुत प्यार करती है। उसका भाई बी.य़े  के बाद पढाई छोड कर पिता के साथ अपना बिज़नेस सम्भाल रहा है। वो मुझ मे बहुत दिलचस्पी लेता है। जब भी उसके घर जाऊँ वो आस पास मँडराता रहता है।मगर मैने कभी उस से खुल कर बात नही की। 2-3 दिन पहले उसकी मम्मी ने हंसते हुये मुझसे कहा था कि क्या मेरी बहु बनोगी? मैं हंस दी थी तब उन्होंने कहा था कि सोच कर बताना। मगर आपको पता है कि मैं आपसे पूछे बिना साँस भी नही लेती। मगर मुझे भी वो लडका अच्छा लगता है। यही मन की बात आपसे करने आयी थी।" कह कर मै नज़र नीची कर के बाजी की प्रतिक्रिया सुनने को उतावली थी।
" शुचि सब से पहले तो उस औरत की बेवाकूफी  कहूँगी कि उसने बिना सोचे समझे तुम्हारे हाथ ,मे एक ख्वाव पकडा दिया। अगर उसे तुम पसंद भी हो तो उसे तुम से नही पहले तुम्हारे घर वालों से बात करनी चाहिये थी। मगर ये तो बताओ कि वो है कौन?।"
"वो वर्मा जी का बेटा जिनके तीन पैट्रोल पँप हैं।"
"ओह वो?"
"हाँ , क्या आप जानती हैं उन्हें?"
बहुत अच्छी तरह। एक बार यही लडका मेरे पास किसी लडकी को ले कर आया था उसकी एबार्शन करवाने लेकिन मैने फटकार कर भगा दिया था।"
 "क्या?" मै हैरान थी "उपर से भोला भाला और अन्दर से शैत? मुझे फंसाने की कोशिश? पर क्या उसके माँ-बाप को पता है उसके बारे मे?"
" बेटा माँ बाप को सब पता है सारा शहर जानता है उस बिगडैल लडके को। वो उस लडके की माँ है तेरी माँ नही। अगर तुझे बेटी समझती तो कभी तुम से ऐसा नही कहती। अपने स्वार्थ मे अन्धी हो कर तेरा जीवन दाँव पर लगाने की बात नही सोचती। उसने ही तो बाप से बेटे की बातें छिपा कर उसे इतना बिगडैल बनाया कि अब बाप की भी नही मानता।"
" देख शुचि इस उम्र मे प्यार महज एक स्वाभाविक आकर्षण है।इसमे उलझ कर लडके लडकियाँ अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं, अपने पथ से दूर हो जाते हैं। तुम एक मेधावी लडकी हो और मैने तुम्हारी जिम्मेदारी के लिये तुम्हारी माँ को वचन दिया है। जैसे मैने अपने बेटे  यानी तुम्हारे भाई को पढाया है वैसे ही मै चाहती होऔँ कि तुम भी आगे बढो। अगर तुम्हारे दिल मे  मेरा जरा भी सम्मान है तो मुझे एक वचन दो।"
'क्यों नही बाजी! आपने तो माँ से बढ कर मुझे प्यार दिया है कहें क्या वचन दूँ?"
आज के बाद तुम उनके घर नही जाओगी ।
" बाजी मै वचन देती होऔँ आपकी कहानी सुन कर मुझे ज़िन्दगी के मायने समझ मे आगये हैं। मै खूब पढूँगी और अपनी योग्यता के बल पर अपनी मंजिल पाऊँगी।" बाजी की कहानी ने मुझे अन्दर तक हिला दिया था। मैं बाजी वाला इतिहास दोहराना नही चाहती थी। पहले भी बाजी के पथप्रदर्शन मे ही पढ रही थी। मैने खूब मेहनत की और बाजी की प्रेरण से मै डाक्टरी के अन्तिम वर्ष मे पहुँच गयी थी। उस दिन मै और बाजी बहुत खुश थी, आज नतीजा आने वाला था ।र पिता जी और भईया अखबार जल्दी लेने चले गये थे।
 बाहर की आवाजें सुन कर हम दोनो की तन्द्रा भंग हुयी।---
" बाजी< बाहर  पिता जी और भाईया आये है।" हम दोनो बाहर गयी।  मैने पूरी यूनिवर्सिटी मे टाप किया था। देखते देखते आस पडोस की भीड बधाई देने के लिये जमा हो गयी थी। झो भी मुझे बधाई देता मैं बाजी की ओर इशारा कर देती। वही तो हकदार थी इसकी। उनके जीवन के सुखान्त दुखान्त ही मेरे लिये प्रेरणा  और सफलता के क्षितिज बने थे। बाजी के चेहरे का सकूँ और चमक बता रही थी कि अब उनके पँख कितने बडे हो गये थे और आकाश छूने को आतुर। समाप्त।

19 December, 2010

सुखान्त दुखान्त ----4-- story

सुखान्त दुखान्त --4
 पिछली किश्त मे आपने पढा कि बाजी शुची को अपने अतीत की कहानी सुना रही थी कि किस तरह उसने किसी अमीर परिवार मे शादी के सपने देखे थी जब उसकी शादी अमीर परिवार मे हुयी तो उसे अमीरी का सच पता चला। जितना उजला अमीरी का उजाला बाहर से लगता है उतना ही अन्दर अन्धेरा होता है। उसके शराबी कबाबी पति को जब डाक्टर ने टी बी की बीमारी बताई तो घर के लोग तो खुश थे कि बला टली लेकिन बाजी को भविश्य की चिन्ता सताने लगी। बाजीपने पति के साथ सेनिटोरियम मे चली गयी वहीँ अपने जीजा की मदद से नर्स दाई की ट्रेनिन्ग लेने लगी । त्क़भी एक दिन उन्हें एक औरत मिली जिसने जो उनके ससुराल वालों का सच बताने आयी थी। कौन थी वो आगे पढें---

"हम दोनो एक पेड के नीचे बैठ गयी।
" अभी ये मत पूछिये कि मै कौन हूँ आपको बता दूँगी। मै कसौली मे बडे नवाब यानि आपके पति को देखने आयी थी।उनकी हालत देख कर मुझ से रहा नही गया। आप चाहे कुछ भी कहें लेकिन मेरी अन्तरात्मा से रहा नही गया कि आपको सच बताये बिना जाऊँ। बात ये है कि बडे नवाब की माँ और भाई नही चाहते कि वो ठीक हों\ वो लोग आपको बताये बिना उन्हें अफीम और शराब भेजते हैं जो वो आपके जाने के बाद छुप कर पीते हैं। चोरी से पैसे भी दे जाते हैं जिनसे वो नौकर से शराब मंगवा कर पीते हैं। बडे नवाब नशे के इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि नशे के बिना रह नही सकते। वो आप से शर्मिन्दा भी हैं मगर अब बेबस हैं। इसी के कारण उनके भाई उन से कुछ जमीन के कागज़ों व कारोबार के कागज़ों पर उनके दस्तखत करवा कर ले जाते हैं। ताकि अगर बडे नवाब न भी रहें तो उनकी सम्पति मे आपका हक न रहे। इस तरह उन्होंने बडे नवाब को बर्बाद करने मे कोई कसर नही छोडी है। अगर आप चाहती हैं कि बडे नवाब ठीक हो जायें तो उन्हें कहीं और ले जायें और नौकर को वापिस भेज दें। धीरे धीरे डाक्टर से मश्विरा कर पहले इनका नशा छुडायें। दिल के अच्छे हैं मगर सौतेली माँ के  दबाब और अवहेलना से दुखी रहे। पिता की मौत के बाद टूट से गये हैं तभी से अधिक नशा लेने की आदत हो गयी है।" कह कर वो चुप कर गयी
" मगर आपको कैसे पता चला ये सब।" मै उसकी बातों से हैरान परेशान थी।
"मुझे ये बताने मे कोई संकोच नही कि मै वही कोठेवाली हूँ जिसके पास वो रोज़ आते थे। हमारा पेशा है हर आने वाले का स्वागत करना पडता है। उन्हें कई बार समझाने की कोशिश भी की। उनका नमक वर्षौ खाया है तो उनका दुख देख कर मन दुखी हुया और आपको बताने का साहस भी जुटा पाई। शायद अपना फर्ज निभा कर मै बडे नवाब के लिये कुछ कर पाऊँ।" कह कर वो उठ खडी हुयी। मैं उसे जाते हुय्ते हैरानी से देखती रही। उस समय इतना ध्यान भी नही आया कि उसका धन्यवाद करूँ या उसे चाय के लिये ही पूछ लूँ।"
मै विस्मित सी इनके अतीत के कुहासे मे छिपे रहस्य, षड्यन्त्र, एकिन्सान की पीडा और भटकाव -- पता नही और क्या क्या देख रही थी। इसका कारण?--- पैसा। पैसे की चकाचौँध के पीछे का काला इतिहास ---। इन रिश्तों ,माँ भाईयों से अच्छी तो वो औरत ही निकली जिसे कम से कम इनकी दशा देख कर रहम तो आया? मन ही मन उस औरत का धन्यवाद किया और चल पडी।"
"मैं वहाँ से सीधी अस्पताल पहुँची।नौकर पता नही कहाँ था मैं अपलक उन्हें सोते हुये निहारती रही। बिलकुल किसी अबोध बालक की तरह उनका चेहरा था जैसे माँ की गोद  के लिये रोते रोते सो गया हो। और अचानक मेरे अन्दर की औरत माँ बन गयी। कितनी देर सोचती, देखती रही।  जब से मै कोर्स करने लगी थी तब से मेरे अन्दर जीवन के लिये एक दृष्टीकोण बन गया था एक आत्मविश्वास और अपने पाँव पर खडे होने का प्रयास। आज सोच लिया कि इन्हें उन दुष्टों से बचाऊँगी।"
" इस सप्ताह मेरी इम्तिहान था। अभी 15 बीस दिन मै कोई कदम नही उठाना चाहती थी। सिवा इसके कि नौकर को वापिस भेज दूँ। अब मै अधिक समय अस्पताल मे बिताने लगी। वहीं बैठ कर पढती रहती। खुद ही मिनकी देखभाल करती। मुझे अब पहले की तरह इन पर गुस्सा नही आता। समझ गयी थी कि मन से कमजोर आदमी कितना लाचार होता है। अफीम पूरी न मिलने से इनकी बेचैनी बढने लगी। नौकर चला गया था ला कर कौन देता? मैने इन्हें बताये बिना डाक्टर को पूरी बात बताई तो उन्हों ने मश्विरा दिया कि एक दम अफीम बन्द करने से भी इन्हें बेचैनी है। नशा एक दम से बन्द नही किया जा सकता। और उस दिन मैने इन्हें सब कुछ बता कर इनसे प्रण लिया कि ये आदत छुडवाने मे मुझ से सहयोग करेंगे तो समझूँगी कि मैने आपको पा लिया है। अब मैं अफीम कहाँ से लाती? नौकर को बुलाया उससे अफीम मंगवा कर अपने पास रख ली और नौकर को फिर भेज दिया। मै इन्हें अपने हाथ से कम डोज़ देती। इनकी बेबसी और शर्मिन्दगी देख कर दुख भी होता मगर इन्हें समझाती और कुछ पुस्तकें भी पढने के लिये प्रेरित करती। हर तरह से खुश रखने की भी कोशिश करती। इस तरह अब इनकी हालत मे एक महीने मे ही सुधार नजर आने लगा। शराब बिलकुल बन्द कर दी।"
 "मेरी ट्रेनिंग समाप्त् होने के दो माह बाद ही मुझे शिमला के एक असपताल मे नौकरी मिल गयी । मै इन्हें लेकर शिमला आ गयी मगर ईलाज यहीँ का चलता रहा। अपनी माँ को अपने साथ ले आयी थी। अब मैने फैसला कर लिया था कि उनसे कोई आर्थिक सहायता भी नही लूँगी। बेशक मेरी बहन ने मेरी उस समय बहुत मदद की। इनकी दवाओं का और खुराक का ही बहुत खर्च था। अच्छी खुराक मे मीट अन्डे भी देने पडते। मैने कभी मीट को हाथ भी नही लगाया था ।ास्प्ताल के एक कर्मचारी को पैसे दे कर मीट और खरोडे बनवा लेती ।इनकी हालत मे बहुत सुधार होने लगा था फिर भी इनके अन्दर एक गम और हीन भावना सी रहती।कितना मुश्किल था एक करोड पति  नवाब के लिये अपने एक नौकर की हैसीयत जितनी पत्नी पर निर्भर करना। आठ  साल हो---    क्रमश:

16 December, 2010

sukhaant dukhaant --- 3

सुखान्त दुखान्त --3
 पिछली किश्त मे आपने पढा कि बाजी शुची को अपने अतीत की कहानी सुना रही थी कि किस तरह उसने किसी अमीर परिवार मे शादी के सपने देखे थी जब उसकी शादी अमीर परिवार मे हुयी तो उसे अमीरी का सच पता चला। जितना उजला अमीरी का उजाला बाहर से लगता है उतना ही अन्दर अन्धेरा होता है। उसके शराबी कबाबी पति को जब डाक्टर ने टी बी की बीमारी बताई तो घर के लोग तो खुश थे कि बला टली लेकिन बाजी को भविश्य की चिन्ता सताने लगी।-- अब आगे

"सच कहूँ शुचि मुझे अपने भविश्य की चिन्ता थी। पति से वो दिल का रिश्ता तो जुड नही पाया था लेकिन फिर भी पति धर्म निभाने को मैने खुद को कभी पीछे नही रखा। मुझे तो जीने की भी चाह नही थी लेकिन जीवन दर्शन के कुछ सूत्र सहेज रखे थे। मेरे पिता जी कहा करते थे "-बेटा जब कभी सब ओर से निराश हो जाओ तो सब कुछ प्रभु पर छोड दो\ मन मे एक विश्वास रखो कि वो जो भी करेगा तुम्हारे भले के लिये करेगा।" वो  तो हमे राह दिखाता है मगर हम ही अपने स्वार्थ और कामनाओं की पूर्ती के लिये आँखें मूँद रखते हैं।। आज रह रह कर मन मे एक ही बात आ रही थी कि मेरी ज़िन्दगी मे कोई नया मोड आने वाला है। एक बात की मुझे मन ही मन खुशी भी थी कि मै इन्हें सेनिटोरियम ले जाने के बहाने कम से कम इस नर्क से दूर तो रहूँगी। अपने बारे मे नये सिरे से सोचने का एक अवसर मिलेगा।  जब अचानक कोई मुसीबत आती है तो आदमी सोचता है  कि भगवान मुझे ही क्यों दुख देता है लेकिन वही दुख हमारे लिये जीनी की राह तलाशता है,जीना सिखाता है।
" मुझे पति के साथ कसौली भेज दिया गया।साथ मे इनका निज़ी नौकर भी भेजा था।मेरे कसौली जाने पर ही मेरे माँ बाप को मेरी व्यथा का पता चला था। मेरी दीदी के पति शिमला के एक सकूल मे अध्यापक थे। वो सब लोग कसौली आ गये थे। वहीं एक घर किराये पर ले लिया था। नौकर जा कर कुछ जरूरी सामान ले आया था। इलाज शुरू हो गया। धीरे धीरे मेरे जीजा जी ने मेरे पति को समझाया कि , अपनी पत्नि के भविश्य के बारे मे सोचो। भगवान न करे अगर उस पर कोई विपत्ति आ गयी तो उसे कौन रोटी देगा? उसे अपने पाँव पर खडा होने की अनुमति दो। मेरे पति की आधी अधूरी स्वीकृति मे ही मुझे से मेरे जीजा जी ने नर्स दाई की ट्रेनिन्ग के फार्म भरवा लिये तब नर्स दाई की नौकरी बहुत आसानी से मिलती थी वो चाहते थी कि अगर इन लोगों ने नौकरी न भी करने दी तो हाथ मे ऐसा हुनर तो होगा कि मुश्किल मे घर बैठे भी चार पैसे कमा सकोगी। मेरे पिता तो वापिस चले गये लेकिन माँ मेरे पास रही।"
: मेरी धन दौलत की मृग त्रिष्णा तो टूट चुकी थी।सोने चाँदी के ताले तोड कर मैं आत्मनिर्भर बन अपने पँखों परआअपने आसमां पर उडना चाहती थी। दो माह बाद मुझे दाखिला मिल गया और पढाई भी शुरू हो गयी।रोज़ इनको नहलाने धुलाने और  दवाई आदि देने के बाद मै अपनी क्लास एटेन्ड करने चली जाती थी। इनके भाई हर महीने इन्हें आ कर पैसे आदि दे जाते। वैसे मेरी पढाई से वो अन्दर ही अन्दर इस लिये खुश थे कि चलो एक जिम्मेदारी और टलेगी। इस लिये पैसे की उन्होंने कभी कमी नही होने दी। वैसे भी 6 महीनी इनका यहाँ ईलाज चलना था। नौकर सारा दिन इन्बके पास ही रहता।"
एक दिन डाक्टर ने कहा कि मुझे एक बात की समझ नही आयी कि पाँच महीने के ईलाज मे उतना फर्क नही पडा जितना पडना चाहिये था।इनके साथ के बाकी मरी इनसे स्वस्थ हो गये थे। उन्होंन्बे अभी छ: महीने और रखने के लिये कहा।"
मै भी चि9न्तित थी कि फर्क क्यों नही पड रहा। ये भेद खुला जा कर 8-9 महीने बाद । वो भी एक दिन एक औरत के कारण।
" एक दिन मै जैसे ही क्लास से बाहर आयी तो एक औरत को अपने इन्तजार मे खडे पाया।
"कृष्णा बहन ये बहिन जी आपसे मिलने आयी हैं।: बूढी चपडासिन ने उस औरत की ओर इशारा किया।
"नमस्ते।" वो औरत मेरे पास आते हुइये बोली।
:" नमस्ते। मैने आपको पहचाना नही?"
" आप मुझे नही जानती लेकिन मै आपको पहचानती हूँ। मैं आपसे एक जरूरी बात करने आयी हूँ। क्या हम कहीं अकेले मे बैठ सकते हैं?"
क्यों नही , चलो।" मै उसे बाहर ग्राऊँड मे ले गयी। हम दोनो एक बृक्ष के नीचे छाँव मे एक बैंच पर बैठ गयी। मैं हैरान थी कि ये औरत कौन है और मुझ से क्या जरूरी बात करना चाहती हैं? वो लगभग मेरी उम्र की सुन्दर औरत थी। उसका सादा लिबास और आवाज मे शह्द जैसी मिठास थी जिसने मुझे प्रभावित किया।
"आप हैरान मत होईये। मै आपको सब कुछ बता दूँगी। मुझे कुछ दिन से ही महसूस हो रहा था कि मुझे आपसे मिलना चाहिये और आपको एक सच बताना चाहिये। ैसी लिये आज चली आयी।"   क्रमश:

12 December, 2010

सुखान्त दुखान्त ---2

 सुखान्त दुखान्त --2
कल आपने पढा शुची ने अपने मन की बात अपनी बाजी से करने के लिये जैसे ही भूमिका बाँधनी चाही तो बाजी की शादी की बात जानने के लिये उसकी उत्सुकता बढ गयी। और बाजी उसे अपने अतीत मे ले चली थी- उस अतीत मे जहाँ उसके अमीरी के लिये देखे गये सब सपने बिखर गये थे।  ----- अब आगे पढें-0-

" हमारे पडोस मे एक शादी थी। उस शादी मे मेरे ससुराल वालों ने मुझे देखा तो मै उनको भा गयी। उन्होंने अपने इसी पडोसी के दुआरा मेरे रिश्ते की बात चलाई। मेरा हाथ माँगते हुये उन्होंने कहा था कि उनके पास धन दौलत की कमी नही है, बस उन्हें सुन्दर और सुशील कन्या चाहिये।माँ और मेरे जीजा जी ने इस शादी का विरोध भी किया ये कह कर कि अभी इसकी उम्र 16 साल हुयी है-- इसे आगे पढाना चाहिये। मगर पिता जी का मानना था कि घर बैठे इतना अच्छा रिश्ता आ रहा है तो हाथ से क्यों जाने दें।फिर पढ कर ये कौन सी लाट साहिब बन जायेगी? सच कहूँ तो इस रिश्ते की बात सुन कर मैं भी खुश हो गयी थी। मेरे सपने भी ऐसे ही थे जैसे आज तुम्हारे हैं।एक मध्यम परिवार की लडकी किसी रईस खानदान की बहु बन जाये तो और क्या चाहिये उसे। पति सुन्दर और खानदानी रईस थे-- मै तो जैसे आसमान पर उडने को आतुर थी। मुझे लगा मुझ जैसा खुशनसीब इन्सान इस दुनिया मे नही।
" शुची एक बात बताऊँ? इस रईसी की दहलीज के बाहर  जितनी रोशनी होती है, अन्दर उतना ही अन्धेरा होता है।मेरे पिता ने भी दहलीज ही देखी थी। अन्दर जा कर पता चला कि कि मैं एक घनघोर अन्धेरे मे आ गयी हूँ।जहाँ न तो संवेदनायें थी न प्यार न रिश्तों की गरिमा थी। शादी के दो चार दिन की गहिमा गहिमी के बाद जब सभी महमान चले गये तो मै दिन भर अकेली दीवारों का मुँह ताका करती। मेरे पति सुबह घर से जाते तो रात को देर गये घर आते। बाकी लोग अपने अपने कमरों मे अपनी अपनी ज़िन्दगी मे मस्त रहते। रातों मे अपने सपनो का आसमां ढूँढती और दिन मे खुद को यथार्थ की कठोर, पथरीली जमींन पर खडे पाती। मेरे सपने किसी रैन के कोठे की रौनक थे और मेरा यथार्थ   लाचार आँसू बहाने के लिये। किस से कहती और क्या कहती? मेरे सपनों का राज कुमार तो शराब और शबाब मे मस्त था। रात को देर से शराब के नशे मे आना कई बार तो किसी कोठे पर ही रात कटती थी।ऊपर से जूए की लत। मुझे शादी के कुछ दिन बाद ही पता चला कि उनकी पहले भी शादी हो चुकी थी पर एक साल बाद ही पत्नी ने आत्महत्या कर ली थी।मेरे पति की माँ सौतेली थी। इनकी पहली शादी के बाद इनके पिता भी चल बसे थे। उनके बाद सौतेली माँ का व्यवहार भी इनके साथ अच्छा नही था । उसके अपने भी दो बेटे थे।

" मैं धीरे धीरे महसूस कर रही थी कि वो इनकी ऎयाशी को और भी हवा देती थी। सारा कारोबार इनके अपने बेटों ने सम्भाल रखा था ये तो बस नाममात्र ही वहां जाते थे। मेरे कई बार कहने पर भी वो इन्हें कभी समझाती नही थी बल्कि उलटा कहती कि" किसी से माँग कर ऎयाशी नही करता, ये रईसी शौक ऐसे ही होते हैं। उसे क्या कमी है?"
मै बेबस न तो अपने माँ बाप को दुखी करना चाहती थी और न इस घर मे मेरी कोई सुनने वाला था। घर मे बेशक नौकर चाकर थे मगर मन लगाने के लिये किचन का काफी काम मै उनके साथ कर लेती। माँ तो सीधे मुंह बात नही करती थी देवरानियाँ भी अपनी अमीरी के दर्प मे मुझे सुना कर ताने से कसती रहती। हर बात के लिये मुझे ये एहसास करवाया जाता कि जैसे मैने जिन्दगी मे अच्छा खाया पहना ही नही। गरीब घर से जो आयी थी। मगर अब सहन करने के सिवा कोई चारा नही था।

"मुझे नही लगता कि शादी के कुछ दिन छोड कर मैने उन्हें दिन के उजाले मे कभी देखा हो।देर रात गये घर आना कभी दिल किया तो पति का हक जता कर शरीर से खेल लेना--- बस इतना ही सम्बन्ध था हमारा। शादी के बाद  5--6 साल बाद ही शराब और शबाब ने इन्हें खोखला कर दिया। बुखार खाँसी रहने लगा। डाक्टर ने जाँच कर के बताया कि इन्हें टी.बी. है, इन्हें घर मे रखना ठीक नही। किसी सेनिटोरियम मे भेज दें। माँ और भाईयों के चेहरों पर एक सकून सा था कि चलो बला टली। लेकिन मेरा तो कलेजा मुँह को आ गया? अगर इन्हें भी कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा? जो लोग इनके जीते जी ही मेरी इतनी अवहेलना कर रहे हैं वो बाद मे मेरे साथ क्या करेंगे? क्रमश:
 

10 December, 2010

दुखान्त सुखान ---

दुखान्त-- सुखान्त

उस दिन सोच कर आयी थी --- बाजी को बता दूँगी कि मै अमन से प्यार करती  हूँ और उससे शादी करना चाहती हूँ अमन की मम्मी भी मुझ से कितना प्यार करती है और मुझे बहु बनाने के लिये कितनी उतावली हैं।
घर पहुँचते पहुँचते ख्यालों के पुलाव बनाये जा रही थी---- ये उतावलापन भी दूध के उफान सा होता है बिना सोचे समझे सब कुछ उगल देने को आतुर-----। समझ नही आ रहा था कि बात कैसे शुरू करूँ? क्या बाजी मान जायेंगी? बस फिर उफान नीचे सरक जाता---- अगर मान भी गयी तो क्या पापा को मना पायेंगी?----- कुछ आशा की झाग समेटे घर मे दाखिल हुयी। बाजी ड्राईंग रूम मे बैठी कोई किताब पढ रही थीं। कितना ओज़ था उनके चेहरे पर आत्मविश्वास के रुपहली पर्त ---- । सामने दीवार पर उनकी आदमकद फ्रेम मे जडी फोटो लगी थी। बाजी कभी अपनी शादी की कोई बात नही करती थी।मुझे उनके पति के बारे मे कुछ पता नही था बस इतना पता था कि वो विधवा हैं। मै उनकी फोटो के पास जा कर खडी हो गयी----
"बाजी मुझे आपकी ये फोटो बहुत अच्छी लगती है---- जैसे कोई महारानी खडी हो। इतनी भारी साढी और जेबर क्या ये जेबर असली हैं?" --- बात शुरू करने से पहले मैं उन्हें टटोलना चाहती थी।
"खाइस सोने और हीरे के"
"फिर तो बहुत मंहगे होंगे? कितनी कीमत होगी इनकी?"
"बेटी इनकी कीमत मत पूछ । इन जेबरों की ऋण मै आज तक नही चुका पाई।" बाजी ने ठँडी साँस भरते हुये कहा।
"ऋण? क्या ये आपने खुद बनवाये थे?" मैने हैरानी से पूछा।
" नही ससुराल वालों ने शादी मे पहनाये थे और बदले मे मेरे सारे सपने गिरवीं रख लिये थे।"
" वो कैसे?" मै विस्मित सी उनकी तरफ देख रही थी।
न जाने कितनी पीडा कितने अतीत के साये उनकी आँखों मे बदली बन कर छा गये थे। आँखों की नमी बता रही थी कि उन्होंने बहुत दुख झेले हैं।
"क्या करोगी जान कर ? जाओ अपनी पढाई करो।" बाजी जरा सोचते हुये बोली।
"बाजी आज मै जानकर ही रहूँगी। आज आपसे अपने मन की बात करने आयी थी। आपकी तस्वीर देख कर मुझे भी लगता है कि मै अपनी शादी किसी अमीर परिवार मे ही करूँगी जहाँ महाराणी की तरह राज करूँ धन दौलत बढिया कपडे,जेबर ,ऎश आराम गाडी बंगला सब कुछ हो और नौकर चाकर आगे पीछे हों------"
"अच्छा अब जमीन पर आ जाओ। जितने पँख फैला सको उतनी ऊँचाई तक ही उडान भरनी चाहिये। मगर तुम ऐसी बातें कैसे सोचने लगी?पहले खुद को इस काबिल बनाओ कि खुद इतना धन कमा सको। आत्मनिर्भरता का सुख और खुशी दुनिया की किसी भी दौलत से बडी होती है। फिर तेरे मध्यम परिवार के माँ बाप कहाँ से ऐसा घर ढूँढेंगे?"
" बाजी मेरी बात छोडो पहले आप बताओ कि  जब आपके ससुराल वाले इतने आमीर थे तो आपने इतनी छोटी सी नौकरी क्यों की और इस छोटे से घर मे क्यों रह रही हैं?"  आज उनके आतीत को जानने की उत्सुकता बढ गयी थी। हम दो साल पहले ही इस घर मे, उनके पडोस मे आये थे बस इतना ही जानती हूँ कि वो विधवा हैं और उनका एक बेटा है जो डाक्टरी की पढाई कर रहा है। दो साल मे ही बाजी हमारे घर की सदस्य जैसी हो गयी थी।
" शुची आज तुम्हें ये सब बताना जरूरी हो गया है। क्योंकि जिस आसमान के तुम सपने ले रही होउसके मैने भी सपने देखे थे। बिना पँख ऊदने की कोशिश की लेकिन धडाम से नीचे जमीन पर आ गिरी।" बाजी ने अपनी कहानी शुरू की और मैं उनका बाजू पकड कर उनसे सट कर बैठ गयी।
" हमारे पडोस मे एक शादी थी। उस शादी मे मेरे ससुराल वालों ने मुझे देखा तो मै उनको भा गयी। उन्होंने अपने इसी पडोसी के दुआरा मेरे रिश्ते की बात चलाई।------ क्रमश:

07 December, 2010

हाईकु

यहाँ देखें हिन्दी हाईकु के लिये
http://hindihaiku.wordpress.com/1

कलियाँ खिली---------
मौसम भीगा भीगा
रुत प्यार की

2 परछाई हूँ ----------
तेरी साजन मेरे
संग चलूँगी

3 दोस्त कैसे?---
गिरगिट के जैसे
रंग बदलें


5 झूमें सखियाँ
कृ्ष्णा रास रचाये----
राधिका संग

6 बाँटे रोशनी
दुनियाँ को ,घर हो -----
तेरा रोशन

7 मुद्दत बाद
 मिले जो हम तुम -----
बहार आयी

8 तन्हाई मेरी
 याद दिलाती तेरी-----
आओ साजन

9 तिलमिलाना
 छटपटाना, क्रोध 
आदत बुरी

10 सोच जिससे
 किसी को सुख मिले-------
इन्साँ है गर

02 December, 2010

आज की गज़ल [ http://aajkeeghazal.blogspot.com/2010/11/blog-post_25.html}  ब्लोग पर मुशायरा चल रहा है उस पर मेरी ये गज़ल लगी थी आखिरी दो शेर बाद मे ऎड किये हैं। पढिये-----
मन की मैल हटा कर देखो
सोच के दीप जला कर देखो

सुख में साथी सब बन जाते
दुख में साथ निभा कर देखो

राम खुदा का झगडा प्यारे
अब सडकों पर जा कर देखो

लडने से क्या हासिल होगा?
मिलजुल हाथ मिला कर देखो

औरों के घर रोज़ जलाते
अपना भी जलवा कर देखो

देता झोली भर कर सब को
द्वार ख़ुदा के जाकर देखो

बिन रोजी के जीना मुश्किल
रोटी दाल चला कर देखो

खोटे सिक्के रोज़ न चलते
सच को मात दिला कर देखो

नोटों पर पाबंदी हो गर 
फिर सरकार बचा कर देखो

26 November, 2010

ब्लाग की सालगिरह --

ब्लाग की सालगिरह 

आज मेरे ब्लाग की दूसरी सालगिरह है। 2008 मे मैने ब्लाग लेखन शुरू किया था। पहले वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष ब्लाग पर सक्रियता कुछ कम रही। इसमे से 3 माह तो अमेरिका प्रवास मे लग गये कुछ समय बाकी पारिवारिक गतिविधियों मे लग गया, इस लिये इस साल मे केवल 109 पोस्ट ही डाल सकी। 109 पोस्ट पर 4268 कमेन्ट मिले। फालोवर की संख्या 221 तक पहुँची। मेरे जैसी अल्पग्य के लिये ये उपलब्धि भी कोई कम नही। इस वर्ष परिकल्पना ब्लागोत्सव की तरफ सेवर्ष 2010 की श्रेष्ठ कहानी कार का सम्मान मिला। मुझे तो ये आभासी दुनिया बहुत रास आयी बहुत से रिश्तेमिले स्नेह मिला, मार्गदर्शन मिला। सब का नाम गिनाऊँ तो पोस्ट बहुत बडी हो जायेगी। आप सब मेरी ऊर्जा हैं।  आपसब के स्नेह और मार्गदर्शन के लिये सब की आभारी हूँ।आज अपनी सब से पहली रचना- ज़िन्दगी { कविता} पेश कर रही हूँ लेकिन कुछ शुद्धियों के साथ, तब मुझे टाईप करना नही आता था उस दिन इस कविता को टाईप करने मे मुझे 2 घन्टे लगे थे।
उन सभी का तहे दिल से शुक्रिया करती हूँ जिन्होंने कल मेरे जन्मदिन पर मुझे बधाईयाँ और शुभकामनायें भेजी।
लेकिन एक दुख की बात है कि मेरे ब्लाग की सालगिरह पर 26/11 की दुर्घटना का इतिहास जुड गया है। इस दुर्घटना मे मारे गये सभी शहीदों को मेरी विनम्र श्रद्धाँजली।



खिलते फूल सी मुसकान है जिन्दगी
समझो तो बडी आसान है जिन्दगी

खुशी से जिओ तो सदा बहार है जिन्दगी
दुख मे बस तलवार की धार है जिन्दगी

पतझड बसन्तों का सिलसिला है जिन्दगी
कभी इनयतें तो कभी गिला है जिन्दगी

कभी हसीना सी चाल सी मटकती है जिन्दगी
कभी सूखे पत्तों की तरह  भटकती है जिन्दगी

आगे बढने वालों के लिये तो पैगाम है जिन्दगी
भटकने वालों की मैयखाने मे गुमनाम है जिन्दगी

निराशा मे जी का जन्जाल है जिन्दगी
आशा मे मधुर संगीत  सी सुरताल है ज़िन्दगी

कहीं मखमली बिस्तर पर सोती है जिन्दगी
कभी फुटपाथ पर नंगी पडी रोती है जिन्दगी

कभी होती थी दिलबर-ए- यार जिन्दगी
आज चौराहे पे खडी हैशर्मसार जिन्दगी

सदिओं से माँ के दूध की पह्चान है जिन्दगी
उसी औरत की अस्मत पर बेईमान है जिन्दगी

वरदानो मे अच्छा दाऩ क्षमादान है जिन्दगी
बदले की आग मे होती शमशान है जिन्दगी

खुशी से जीओ चन्द दिन की मेहमान है जिन्दगी
इबादत करो इसकी दोस्तो  भगवान है जिन्दगी

24 November, 2010

कविता -- मन मन्थन


कविता

मेरी तृ्ष्णाओ,मेरी स्पर्धाओ,
मुझ से दूर जाओ, अब ना बुलाओ
कर रहा, मन मन्थन चेतना मे क्र्न्दन्
अन्तरात्मा में स्पन्दन
मेरी पीःडा मेरे क्लेश
मेरी चिन्ता,मेरे द्वेश

मेरी आत्मा
, नहीं स्वीकार रही है
बार बार मुझे धिक्कार रही
प्रभु के ग्यान का आलोक
मुझे जगा रहा है
माया का भयानक रूप
नजर आ रहा है
कैसे बनाया तुने
मानव को दानव
अब समझ आ रहा है
जाओ मुझे इस आलोक में
बह जाने दो
इस दानव को मानव कहलाने दो

17 November, 2010

कविता [माँ जैसा बचपन लाओ न}



कविता

मम्मी से सुनी उसके बचपन की कहानी
सुन कर हुई बडी हैरानी
क्या होता है बचपन ऐसा
उड्ती फिरती तितली जैसा
मेरे कागज की तितली में
तुम ही रंग भर जाओ न
नानी ज्ल्दी आओ ना
अपने हाथों से झूले झुलाना
बाग बगीचे पेड दिखाना
सूरज केसे उगता है
केसे चांद पिघलता है
परियां कहाँ से आती हैं
चिडिया केसे गाती है
मुझ को भी समझाओ ना
नानी जल्दी आओ ना


गोदी में ले कर दूध पिलाना
लोरी दे कर मुझे सुलाना
नित नये पकवान खिलाना
अच्छी अच्छी कथा सुनाना
अपने हाथ की बनी खीर का
मुझे स्वाद चखाओ ना
नानी जल्दी आओ ना


अपना हाल सुना नहीं सकता
बसते का भार उठा नही सकता

मेरी अच्छी प्यारी नानी
तुम ही घोडी बन कर
इसका भार उठाओ ना
नानी ज्ल्दी आओ ना


मेरा बचपन क्यों रूठ गया है
मुझ से क्या गुनाह हुअ है
मेरी नानी प्यारी नानी
माँ जैसा बचपन लाओ न
नानी ज्ल्दी आओ न !! 

13 November, 2010

माँ की संदूकची [कविता]

माँ की संदूकची
माँ  तेरी सीख की संदूकची,
कितना कुछ होता था इस मे
तेरे आँचल की छाँव की कुछ कतलियाँ
ममता से भरी कुछ किरणे
दुख दर्द के दिनों मे जीने का सहारा
धूप के कुछ टुकडे,जो देते
कडी सीख ,जीवन के लिये
कुछ जरूरी नियम
तेरे हाथ से बुनी
सीख की एक रेशम की डोरी
जो सिखाती थी
परिवार मे रिश्तों को कैसे
बान्ध कर रखना
और बहुत कुछ था उसमे
तेरे हाथ से बनी
पुरानी साढी की एक गुडिया
जिसमे तेरे जीवन का हर रंग था
और गुडिया की आँखों मे
त्याग ,करुणा स्नेह, सहनशीलता
यही नारी के गुण
एक अच्छे परिवार और समाज की
संरचना करते हैं
तभी तो हर माँ
चाव से  दहेज मे
ये संदूकची दिया करती थी
मगर माँ अब समय बहुत बदल गया है
शायद इस सन्दूकची को
नये जमाने की दीमक लग गयी है
अब मायें इसे देना
"आऊट आफ" फैशन समझने लगी है
समय की धार से कितने टुकडे हो गये है
इस रेशम की डोरी के
अब आते ही लडकियाँ
अपना अलग घर बनाने की
सोचने लगती हैं
कोई माँ अब डोरी नही बुनती
बुनना सिलना भी तो अब कहाँ रहा है
अब वो तेरे हाथ से बनी गुडिया जैसी
गुडिया भी तो नही बनती
बाजार मे मिलती हैं गुडिया
बडी सी, रिमोट  से चलती है
जो नाचती गाती मस्त रहती है
ममता, करुणा, त्याग, सहनशीलता
पिछले जमाने की
वस्तुयें हो कर रह गयी हैं
लेकिन माँ
मैने जाना है
इस सन्दूकची ने मुझे कैसे
एक अच्छे परिवार का उपहार दिया
और मै सहेज रही हूँ एक और सन्दूकची
जैसे नानी ने तुझे और तू ने मुझे दी
इस रीत को तोडना नही चाहती
ताकि अभी भी बचे रहें
कुछ परिवार टूटने से
और हर माँ से कहूँगी
 कि अगर दहेज देना है
तो इस सन्दूकची के बिना नही

09 November, 2010

gazal

 दीपावली पर श्री पंकज सुबीर जी के ब्लाग पर {   http://subeerin.blogspot.com/2010/11/blog-post_02.htmlयहाँ तरही मुशायरा हुया जिस पर मेरी ये गज़ल कुछ लोगों ने पढी। बाकी सब भी पढें। धन्यवाद।
गज़ल
जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रोशनी
आयें उजाले प्यार के चलती रहे ये ज़िन्दगी

इक दूसरे के साथ हैं खुशियाँ जहाँ की साजना
तेरे बिना क्या ज़िन्दगी मेरे बिना क्या ज़िन्दगी

अब क्या कहें उसकी भला वो शख्स भी क्या चीज़ है
दिल मे भरा है जहर और  है बात उसकी चाशनी

है काम दुनिया का बिछाना राह मे काँटे सदा
सच से सदा ही झूठ की रहती ही आयी दुश्मनी

बातें सुना कर तल्ख सी यूँ चीर देते लोग दिल
फिर दोस्ती मे क्या भली लगती है ऐसी तीरगी

जब बात करता प्यार सेलगता मुझे ऐसे कि मैं
उडती फिरूँ आकाश मे बस ओढ चुनरी काशनी

सब फर्ज़ हैं मेरे लिये सब दर्द हैं मेरे लिये
तकदीर मे मेरे लिखी है बस उम्र भर आज़िजी

उसने निभाई ना वफा गर इश्क मे तो क्या हुया
उससे जफा मै भी करूँ मेरी वफा फिर क्या हुयी

जीना वतन के वास्ते मरना वतन के वास्ते
रख लें हथेली जान, सिर पर बाँध पगडी केसरी

 आदमी के लोभ भी क्या कुछ ना करायें आजकल
जिस पेड से छाया मिली उसकी जडें ही काट ली

04 November, 2010

गज़ल

गज़ल

गज़ल से पहले सजा जरूर पढें
उम्र कैद की सजा पर सुनवाई तो   30 अक्तूबर को ही हो चुकी थी। मगर इसके चलते कुछ 'अपने' घर मे जश्न मनाने को लगे हुये थे, ऊपर से दीपावली की तैयारियाँ, जिस कारण उस जजमेन्ट की कापी देर से आयी। उसे आपसे बांटना इस लिये अच्छा लगा कि ब्लागर्ज़ दिल से बहुत अच्छे हैं और सुख दुख की घडी मे सब के साथ रहते हैं । फिर झट से टिप्पणियाँ उठाये भागते हैं जैसे ये आँसू पोंछने के लिये रुमाल का काम करती हों। हाँ मेरे लिये तो करती हैं इसलिये , भले देर से ही सही उन्हें दिल की बात बतानी चाहिये।अपने अपने रुमाल यहाँ कमेन्ट बाक्स मे रख जाईये,आँसू पोंछती रहूँग सात जन्मों तक।तो अब  आप भी आनन्द लीजिये उस जजमेन्ट का।

मुजरिमा की उम्र कैद की सजा के 38 वर्ष पूरे हुये, मगर इस सजा के दौरान भी मुज़रिमा ने कोई सबक  नही सीखा। अपने व्यवहार,हुस्न और अदाओं से पती को परेशान करती रही।  घर के गृह मन्त्री की कुर्सी भी अपनी चालों से हथिया ली।  जिससे बेचारा पती केवल एक अदद "पती" बन कर रह गया और विशुद्ध भारतीय पुरुष न बन सका। अपने मौलिक अधिकार "स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति" का इतने सालों से उपयोग न कर सका। न कभी गाली गलौच की, न पत्नी पर हुक्म चलाया जा सका, न ही घर मे अपनी मनमानी कर सका। जहाँ तक की कभी एक  कश सिग्रेट या कभी एक पेग पीने की अनुमती नही दी गयी। जो कुछ वो बना कर देती वही उसे खाना पडता। ऐसे कई संगीन अपराधों को देखते हुये ये अदालत इस नतीजे पर पहुँची है कि मुज़रिमा के ये संगीन  अपराध क्षमा योग्य नही।  इस लिये उसके चाल चलन को देखते हुये अदालत मुजरिमा  की सजा को बढा कर सात जन्मों की उम्र कैद मे बदल देने का हुक्म सुनाती है। भगवान को नोटिस भेज दिया जाये कि इस हुक्म की तामील सख्ती से हो। साथ मे उसे एक गज़ल सुनाने की सजा भी दी।
पहले सोचा इस सुखद{या दुखद?}घडी { अपने अपने हिसाब से} क्या बाँटना। मगर  फिर सोचा सुख बाँटने से दोगुना होता है और दुख आधा रह जाता है, तो दोनो की मुराद पूरी हो जायेगी, मुजरिमा की भी और कुछ "अपनों" की भी । सब से बडी बात उनके बच्चे, अमेरिका जैसे खुले वातावरण से आयी बेटी ने भी इस बन्धन पर खुशी कर अपने भारतीय संस्कारों का परिचय दे डाला। क्या सीख कर आये अमेरिका से? क्या नारी कभी इस बन्धन से आज़ाद नही होगी?  दामाद जी ने तो और भी फुर्ती दिखाई, झट से  केक भी ले आये।सासू को जलाने का इस से अच्छा अवसर और कौन सा हो सकता था? इस तरह मुजरिमा की सजा पर खुशियाँ मनाई गयी। मगर उसे कोई अवसर अपनी सफाई के लिये नही दिया गया।
] गज़ल?  मुजरिमा ने भी इधर उधर से कुछ शब्द इकट्ठे किये और जो मन मे  आया सो कह दिया।खरा खोटा आप बतायें। पोस्ट लिखने की जल्दी मे अपने गुरू जी का आशीर्वाद नही लिया जा सका। जानती हूँ सजा तो माफ होने से रही। फिर भी कोई गलती निकाल सके तो आभारी हूँगी।
 सुनिये उसने क्या गज़ल कही

उसकी आँखों मे हर बार नज़र आता है
सच्चाई नज़र आती प्यार नज़र आता है

जाऊँ पल भर  को भी दूर कहीं मै घर से
सपनों मे भी बस घर बार नज़र आता है

छप्पन भोग लगाऊँ या घर  रोज़ सजाऊँ
जिस दिन वो ना हो बेकार नज़र आता है

कितने भी  सुख, दुख, चिन्ता के दिन हों चाहे
साथ उसके  हर दिन त्यौहार नज़र आता है

है मुश्किल पावन बन्धन का कर्ज़ निभाना
पर ये औरत का   शिंगार नज़र आता है

जन्मों तक  का साथ निभाऊँ? तौबा, तौबा
एक जन्म मुझे तो  सौ बार नज़र आता है

मिंयाँ बीवी का झगडा, निर्मल क्या झगडा
प्यार से भी प्यारा तकरार नज़र आता है

01 November, 2010

गज़ल ------

ग़ज़ल -- प्राण शर्मा
 
उड़ते   हैं   हज़ारों   आकाश   में   पंछी
ऊँची  नहीं  होती  परवाज़ हरिक   की
 
होना था असर कुछ इस शहर भी उसका
माना कि अँधेरी उस शहर  चली   थी
 
इक   डूबता बच्चा   कैसे   वो    बचाता
इन्सान  था  लेकिन  हिम्मत की कमी थी
 
क्या दोस्ती   उससे   क्या दुश्मनी उससे
उस शख्स  की नीयत बिलकुल नहीं अच्छी
 
सूखी जो  वो होती जल जाती ही पल में
कैसे भला जलती गीली   कोई   तीली
 
इक शोर सुना तो डर कर   सभी   भागे
कुछ मेघ थे  गरजे बस बात थी इतनी
 
दुनिया   को समझना अपने नहीं बस में
दुनिया  तो  है   प्यारे   अनबूझ   पहेली
 
बरसी तो यूँ बरसी आँगन भी न भीगा
सावन  की घटा थी खुल कर तो बरसती
 
यारी  की ही खातिर  तू   पूछता   आ कर
क्या हाल  है  मेरा  ,  क्या   चाल   है   मेरी
 
फुर्सत   जो   मिले   तो  तू   देखने    आना
इस  दिल  की हवेली अब तक है नवेली
 
पुरज़ोर   हवा  में गिरना  ही था  उनको
ए   "  प्राण  "  घरों की दीवारें थी कच्ची

29 October, 2010

मिड डे मील--- कविता

मिड -डे मील

पुराने फटे से टाट पर
स्कूल के पेड के नीचे
बैठे हैं कुछ गरीब बस्ती के बच्चे
कपडों के नाम पर पहने हैं
बनियान और मैली सी चड्डी
उनकी आँखों मे देखे हैं कुछ ख्वाब
कलम को पँख लगा उडने के भाव
उतर आती है मेरी आँखों मे
एक बेबसी, एक पीडा
तोडना नही चाहती
उनका ये सपना
उन्हें बताऊँ कैसे
कलम को आजकल
पँख नही लगते
लगते हैँ सिर्फ पैसे
कहाँ से लायेंगे
कैसे पढ पायेंगे
उनके हिस्से तो आयेंगी
बस मिड -डे मील की कुछ रोटियाँ
नेता खेल रहे हैं अपनी गोटियाँ
इस रोटी को खाते खाते
वो पाल लेगा अंतहीन सपने
जो कभी ना होंगे उनके अपने
फिर वो तो सारी उम्र
अनुदान की रोटी ही चाहेगा
और इस लिये नेताओं की झोली उठायेगा
काश! कि इस
देश मे हो कोई सरकार
जिसे देश के भविष्य से हो सरोकार

27 October, 2010

यादें ।

 यादें
बीस वर्ष का समय किसी की ज़िन्दगी मे कम नही होता मगर फिर भी कुछ यादें ऐसी होती हैं जिन्हें इन्सान एक पल को भी नही भूल सकता। आज 20 वर्ष हो गये बेटे को भगवान के पास गये मगर शायद ही कभी ऐसा दिन आया हो कि उसकी याद किसी न किसी बहाने न आयी हो। आज करवा चौथ का व्रत उसी दिन आया जिस रात को उसकी मौत हुयी थी। सोचा था कि आज उसे बिलकुल याद नही करेंगे। सुबह से ही नेट पर बैठ गयी। बेशक दिल के किसी कोने मे वो रहा । शाम को इन्हें किसी से बात करते सुना तो बाद मे पूछ लिया कि किस से इतनी लम्बी देर बात कर रहे थे तो बोले कि 'अर्श' से,समझ गयी कि बेटे की याद आ रही है। मन उदास हो गया उसके बाद चाँद निकला अर्ध्य दे कर जैसे तैसे दो कौर नम आखों से खाये।आऔर फिर याद करने लगी उस रात को। हमे पता चल चुका था कि वो अपनी आखिरी साँसें ले रहा है फिर भी मै उसका हाथ जोर से पकडे बैठी थी और जोर जोर से रो रही थी--- काश आज भगवान सुन ले मेरी जान ले ले मगर इस होनहार बेटे को बचा ले मगर भगवान कहाँ सुनता है,बस अपनी मर्जी किये जाता है और वो हमारे देखते देखते हाथों से फिसल गया। 28 वर्ष का हृष्ट पुष्ट जवान बेटा। लगता है जैसे ये आज की ही बात हो। जयप्रकाश नारायण का वो वार्ड किसी नर्क से कम नही था गन्द और बदबू आज भी नथुनो मे जैसे समाई हो। सब से कचोटने वाली बात वहाँ के स्टाफ का अमानवीय,असंवेदनशील व्यवहार।त्यौहार आते रहेंगे मनाते भी रहेंगे मगर वो खुशी और वो उल्लास शायद जीवन मे कभी नही आयेंगे।

25 October, 2010

आखिरी पडाव -- कविता

आखिरी पडाव पर

डोली से अर्थी तक के सफर मे
अग्नि के समक्ष लिये
सात वचनो को हमने निभाया
ज़िन्दगी के तीन पडाव तक
सात वचनो को पूरा करते हुये
आज हम जीवन के आखिरी पडाव पर हैं
मगर जब देखती हूँ तुम्हें
उधडी दीवारों के पलस्तर
पर आढी तिरछी आकृतियों को
सूनी आँखों से निहारते
विचलित हो जाती हूँ
तुम्हें दर्द सहते हुये देखना
मेरे दर्द को दोगुना कर देता है
हमने जिन्हें पाँव पर खडे होना सिखाया
उसी ने खींच लिये पाँव
हमने जिसे खुशियाँ दी
उसी ने छीन ली हमारी खुशियाँ
जिसे अपना हाथ पकडाया
उसी ने मिटा दी हमारे हाथ की लकीरें
लेकिन आखिरी पडाव पर
आओ एक वचन और लें
चलें फिर से उस मोड पर
जहाँ से शुरू किया था जीवन
अब चलेंगे विपरीत दिशा मे
सिखायेंगे सिर्फ एक दूसरे को
अपने पाँव पर खडे होना
कदमे से कदम मिला कर चलना
एक दूसरे का हाथ पकड कर
उकेरेंगे एक दूसरे के हाथ पर
कुछ नई लकीरें
खुशियों की प्यार की
जीयेंगे सिर्फ अपने लिये
इस लिये नही कि
इसमे मेरा अपना कुछ स्वार्थ है
या दुनिया से शिकवा है
बल्कि इस लिये कि
कहीं हमारे आँसू और दर्द देख कर
लोग ये न मान बैठें
कि कर्तव्यनिष्ठा और सच का फल
हमेशा दुखदायी होता है
इन्सानियत को
शर्मिन्दा नही करना चाहती
इसलिये आखिरी पडाव पर
चलो जीयें जीवट से
आँसू पोंछ कर
तभी पू्रे होंगे
सात्त फेरों के सात वचन
और
डोली से अर्थी तक का सफर

23 October, 2010

पदचिन्ह
नंगे पाँव चलते हुये
जंगल की पथरीली धरती पर
उलीक दिये कुछ पद चिन्ह
जो बन गये रास्ते
पीछे आने वालों के लिये
समय के साथ
चलते हुये जब से
सीख लिया उसने
कंक्रीट की सडकों पर चलना
तेज़ हो गयी उसकी रफ्तार
संभल कर, देख कर चलने की,
जमीं की अडचने, दुश्वारियाँ. काँटे कंकर
देखने की शायद जरूरत नही रही शायद
जमी पर पाँव टिका कर चलने का
शायद समय नहीं उसके पास
तभी तो वो अब
उलीच  नही पाता
अपने पीछे कोई पद चिन्ह
नहीं छोड पाता अपनी पीढी के लिये
अपने कदमों के निशान

21 October, 2010

ापनी बात

सभी से क्षमा चाहती हूँ। लगभग एक सप्ताह से कम्प्यूटर खराब था। मोनीटर की सप्लाई जल गयी थी । किसी मेकेनिक से ठीक नही हुया। मुझे लगने लगा जैसे मै बीमार हो गयी हूँ। ये ब्लागिन्ग का बुखार था।मेरी परेशानी को देखते हुये मेरे छोटे दामाद प्रिय ललित सूरी को रहम आ गया और उसने ट्रेन के टी, टी के, हाथ मेरे लिये नई एल सी डी भेज दी। ललित जी का धन्यवाद करती हूँ भगवान ऐसे दामाद सब को दे। 8 बजे एल.सी डी मिला और 10 बजे आपके सामने हूँ। मेल बाक्स भरा पडा है। एक दो दिन मे सब कलीयर कर के सब के ब्लाग पर आती हूँ। इतने दिन मे बहुत से लोग मेरे ब्लाग पर आये उनका धन्यवाद करती हूँ। ललित को बहुत बहुत आशीर्वाद।

15 October, 2010

लघु कथा

आज की प्राथमिकता।--- लघु कथा

राजेश जैसे ही आफिस के लिये बाहर निकलने लगा , बाहर आँगन मे बैठी माँ ने आवाज़ दी'' बेटा तुम से बात करनी थी"
'माँ कितनी बार कहा कि मुझे बाहर जाते हुये पीछे से आवाज मत दिया करो।' राजेश ने नाराज़गी जाहिर की
'असल मे कल तुम्हारे पिता का श्राद्ध है यही याद दिलवाना था"
'हाँ मैं आफिस से आते हुये पंडित जी को बोल आऊँगा।"
" साथ ही अपनी बहनों को भी फोन कर देना।
"" माँ इसकी क्या जरूरत है केवल पंडित जी को खाना खिला देंगे। तुम्हें पता है कि हमारी मैरिज एनिवरसरी पर कितना खर्च आ चुका है। फिर अगले महीने बेटे का जन्म दिन है, तभी बुलायेंगे।"
'मगर बेटा वो पास रहती हैं इस लिये कहा।" माँ ने डरते हुये स्पष्टीकरण दिया। लेकिन राजेश अनसुना कर आगे बढ गया। तभी अन्दर से भागते हुये उसकी पत्नि ने पीछे से आवाज़ दी--' अजी सुनते हो? हमारी एनिवरसरी वाली एल्बम भी लाने वाली है।"
हाँ अच्छा किया याद दिला दिया। आते हुये ले आऊँगा।"  माँ ठगी सी देखती रह गयी।

10 October, 2010

 पा ती अडिये बाजरे दी मुट्ठ[पंजाबी पुस्तक लेखक श्री गुरप्रीत गरेवाल} का हिन्दी अनुवाद---- भाग दो
पहला भाग जिसने नही पढा वो यहाँ पढ सकते हैं--- www.veeranchalgatha.blogspot.com

आपकी फुरसत का अर्थ हमारी फुरसत  नहीं
पटियाला से एक प्रेमी सज्जन का फोन आया। उसने एक ही साँस मे अपनी बात कह डाली--- "परसों आ रहे हैं हम --- डैम शैंम देखेंगे--  दो दिन रहेंगे भी---- कतला मछली देख लेना अगर आचार डल जाये तो।"
सज्जन ने एक बार भी नही पूछा कि आपके पास फुरसत है या नही। मैं भी एक बार मुँह से नही फूटा कि भाई रुक ---अभी बहुत व्यस्ततायें हैं। खैर्! प्रेमी सज्जन की मेज़बानी करनी पडी। मैं अक्सर पढे लिखे लोगों के व्यवहार के बारे मे  सोच कर बहुत हैरान होता हूँ। अच्छे भले इन्सान मन मे ये भ्रम पाल लेते हैं कि जब उनकी फुरसत  होती है तो सभी लोग  फुरसत मे होते हैं। एक सज्जन रात 9-10 बजे बिना बताये ही आ गये। मस्ती मे सोफे पर पसर कर  बोले--" खाना खा कर सैर करने निकले थे सोचा महांपुरुषों के दर्शन ही करते चलें।" अगर आपके घर आया कोई आदमी आपको महांपुरुष कहे तो आप क्या करेंगे? न तो गुस्सा कर सकते हैं और न ही  उसे जाने के लिये कह सकते हैं। आप गेस्टहाऊस मे बैठे जैसे बन जाते हो। आपका खाने का समय है और आप चाय पानी तैयार करने मे लग जाते हैं। आये गये के साथ  चाय तो पीनी ही पडती है। 9-10  बजे चाय और फिर खाना मेजबान तो माथे पर हाथ मार कर ही बिस्तर मे  घुसता है। कितना अच्छा हो अगर आने वाला  आने से पहले एक फोन ही कर ले।
जब से भारत सरकार निगम लिमि. ने 311 रुपये का फोन  दिया है मेरे लिये तो मुसीबत ही बन गयी है। ये सकीम तो अच्छी है कि 311 रुपये दो और महीने भर जितनी मर्जी बातें करो।इस सहुलियत का दुरुपयोग कोई अच्छी बात नही। कई लोग तो बात ही यहाँ से शुरू करते हैं--" निट्ठले बैठे थे सोचा आपको फोन ही कर ले।" मोबाईल तो बहुत बडी सिरदर्दी है। जब से मैने मोबाइल फोन लिया है मुझे ये लगने लागा है कि मैं पत्रकार नहीं बल्कि फायर ब्रिगेड का मुलाजिम हूँ। सज्जन ठाह सोटा मारते हैं---"फटा फट चंद मिन्ट लगाओ --- आ जाओ--- आ जाओ--- आ जाओ--"\कोई कोई मोबाईल फोन करते समय पूछता है---"बहुत बिज़ी तो नहीं--- किसी-- संसकार मे तो नही खडे? ---- बाथरूम मे तो नही हो---- ड्राईविन्ग तो नही कर रहे?"
एक अखबार मे काम करते बहुत ही सूझवान उप सम्पादक मेरे जानकार है।एक बजे दफ्तर मे आते ही वो अपना मोबाईल बन्द कर्के दराज मे रख देते हैं। मैने इसका कारण पूछा तो बोले---" बताओ अब दफ्तर का काम करें या मोबाईल सुने।"
उपसम्पादक मोबाईल पर लम्बी पीँघ डालने वालों से बहुत ही तंग थे।उन्हों ने बतायअ कि अच्छे अच्छे डाक्टर,लेखक, प्रोफेसर ,बुद्धीजीवी सरकारी फोन ही घुमाते रहते है।ये बुद्धेजीवी इतना भी नही समझते कि हमारा काम का समय है--- काम की कोई बात हो तो सुन भी लें --- बस ऐसे ही पूछते रहेंगे--- और फिर---- और फिर ---।
प्रवासी भारती दोस्त भी कई बार लोटे मे सिर ही फसा देते हैं
 सीधा ही कहेंगे---" आज  हो गयी 27, 29 को आ रहे हैं हम ---- सीधे दिल्ली एयरपोर्ट पहुँच जाना।" भाई रब के बन्दे दस बीस दिन पहले बता दो। इस बन्दे का भी कोई प्रोग्राम होता है। अब किस किस से माथा पच्ची करें। कोई नही सुनता यहाँ।कई बार सोचा बर्फ सोडा मंगवाया करूँ और दो पैग लगाया करूँ और सोने से पहले गाया करूँ------ किस किस को रोईये,---- आराम बडी चीज़ है---- मुंह ढांप के सोईये। मैने ये आज तक सोचा तो है मगर किया नहीं। पर ये भी झगडे की जड है
व्यवस्था और निट्ठले पन  सभ्याचार को बदलने के लिये होश मे रह कर ही प्रयत्न करने की जरूरत है।

06 October, 2010

गज़ल

आदरणीय प्राण भाई साहिब ने आपकी खिदमत मे ये गज़ल भेजी है पढिये और दाद दीजिये। धन्यवाद।
माना कि आदमी को हँसाता  है आदमी
इतना नहीं कि जितना रुलाता है आदमी

माना  गले से सबको लगाता  है आदमी
दिल में किसी- किसी को बिठाता है आदमी

कैसा सुनहरा  स्वांग  रचाता है आदमी
खामी को अपनी खूबी बताता है आदमी

सुख में लिहाफ़ ओढ़ के सोता है चैन से
दुःख में हमेशा शोर  मचाता है आदमी

हर आदमी की  ज़ात  अजीबोगरीब  है
कब आदमी को दोस्तो भाता  है आदमी

आक्रोश, प्यार, लालसा  नफ़रत, जलन, दया
क्या - क्या न जाने दिलमें जगाता है आदमी


दिल का अमीर हो तो कभी  देखिए  उसे
क्या  क्या  खजाने सुख के लुटाता है आदमी
 
दुनिया से खाली हाथ कभी लौटता  नहीं
कुछ राज़ अपने साथ ले जाता है आदमी

अपने को खुद ही दोस्त उठाने का यत्न कर
मुश्किल से आदमी  को उठाता  है आदमी

02 October, 2010

गज़ल ------

बहुत दिनों से हाथ पाँव  पटक रही थी कि मुझे गज़ल सीखनी है। मगर ये उम्र और मन्द बुद्धि! कहीं से बहर की नकल कर लेती और टूटी फूटी गज़ल लिख लेती हूँ।अब तक  ये इल्म नही था कि बहरें  क्या होती हैं। नाम जरूर सुन लिया करती। बडे भाई साहिब श्री प्राण शर्मा जी को इस्सलाह के लिये भेज देती। अब उनके पास भी इतना तो समय नही कि मुझे गज़ल की ए बी सी विधीवत रूप से सिखा सकें। उनसे सवाल भी तो ही कर सकती हूँ अगर मुझे पहले गज़ल के बारे मे कुछ पता हो। फिर भी अब तक उनसे बहुत कुछ सीखा है और सीखती रहूँगी, और श्री तिलक राज कपूर जी, सर्वत भाई साहिब को भी काफी तंग किया है। तिलक भाई साहिब ने पहले पहल मुझे कुछ नोट्स भेजे थे उन से भी बहुत कुछ सीखा उनका भी धन्यवाद करना चाहूँगी। फिर ये अल्प बुद्धि मे बहुत कुछ पल्ले नही पडा।मगर गज़ल के सफर { श्री पंकज  सुबीर जी का गज़ल का ब्लाग} से और उनसे पूछ कर बहुत कुछ सीखा। फिर भी अभी बहुत कुछ सीखना है अभी तो ए बी. सी ही हुयी है।  तो  आज मै अपने सब से छोटे भाई श्री पंकज सुबीर जी से लड पडी। कि मुझे अपने गुरूकुल मे दाखिला दें। मगर उनकी  --- क्या कहूँ--- स्नेह ही कह सकती हूँ, कि "दी" का मोह नही त्याग रहे।  मुझे "निम्मो दी" कह कर टाल रहे हैं।  अभी अर्ज़ी पूरी स्वीकार नही हुयी। मगर मै भी कहाँ पीछे हतने वाली हूँ। आज से जब भी मै गज़ल की बात करूँगी तो उन्हें गुरू जी ही कहूँगी। गज़ल के सफर मे उनके ब्लाग से ही गज़ल के बारे मे विधिवत रूप से जान सकी हूँ । इसके लिये गुरूदेव की आभारी हूं। आज उनके आशीर्वाद से ये गज़ल आपके सामने रख रही हूँ। आज कल वो कुछ मुश्किल दौर मे हैं कामना करती हूँ कि उनकी सभी मुश्किलें जल्दी दूर हों और वो अपने गुरूकुल वापिस लौटें। गुरू जी का धन्यवाद। मिसरा उनका ही दिया हुया है---- नहीं ये ज़िन्दगी हो पर मेरे अशआर तो होंगे,

गज़ल

नहीं ये ज़िन्दगी हो पर मेरे अशआर तो होंगे,
मुहब्बत मे किसी के वास्ते उपहार तो होंगे |

रहे आबाद घर यूं ही, सदा खुशियाँ यहाँ बरसें,
न होंगे हम तो क्या, अपने ये घर परिवार तो होंगे|

ये ऊंचे नीचे रस्‍ते जिंदगी जीना सिखाते हैं
नहीं हो कुछ भी लेकिन तजरुबे दो चार तो होंगे

बिना कारण नही ये दौर नफरत का जमाने मे
कहीं फेंके गये नफरत के कुछ अंगार तो होंगे

यूं ही मरती रहेगी हीर अपनों के ही हाथों से
रहेंगे मूक जब तक लोग अत्याचार तो होंगे

नहीं उत्‍साह अब मन में मनाएं जश्‍ने आज़ादी
कहीं हम आप सब भी इसके जिम्‍मेदार तो होंगे

कहां हिम्‍मत है गैरों में, तबाही कर चले जाएं
छुपे  कुछ अपने ही घर में कहीं ग़द्दार तो होंगे

28 September, 2010

गज़ल

इस गज़ल को आदरणीय प्राण भाई साहिब ने संवारा है। उनका बहुत बहुत धन्यवाद।
गज़ल
कसक ,ग़म ,दर्द बिन ये ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
मुझे अब आँसुओं  से  दुश्मनी  अच्छी  नहीं लगती

किनारा  कर गये हैं हम नवाला लोग मुश्किल में
मुझे  ऐसी  खुदाया दोस्ती  अच्छी  नहीं लगती

भला लगता है मुझको रोज ही रब  की इबादत पर
फरेबों से भरी  सी बंदगी अच्छी   नहीं   लगती

खुशी में भी उसे हंसना कभी अच्छा नहीं लगता
मुझे उसकी यही संजीदगी अच्छी नहीं  लगती

रुला  कर फिर मनाने की बुरी आदत उसे क्यों है
मुहब्बत में मुझे ये दिल्लगी अच्छी  नहीं  लगती

न काटो डाल जिस पर बैठ कर खुशियाँ  मनाते हो
तुम्हारे हाथों अपनी खुदकशी अच्छी  नहीं  लगती 

किसी से बात दिल की बांटना उसको  नहीं भाता
मेरे यारो  मुझे उसकी  खुदी  अच्छी नहीं  लगती

किसी रोगी को दूं खुशियाँ मुझे अच्छा ये लगता है
चुराऊँ उसके जीवन की खुशी अच्छी  नहीं  लगती

पड़ोसी को  पड़ोसी  की खबर ही अब नहीं  रहती
मुझे"  निर्मल " ये उसकी बेरुखी अच्छी नहीं लगती

26 September, 2010

पा ती अडिये बाजरे दी मुठ

कृप्या मेरी आज की पोस्ट यहाँ पढें। मै अपने इस ब्लाग को अपडेट कर रही हूँ। धन्यवाद।http://veeranchalgatha.blogspot.com/
धन्यवाद्।

23 September, 2010

गज़ल्

आज गज़ल उसताद श्री प्राण शर्मा जी की एक गज़ल पढिये

ग़ज़ल - प्राण शर्मा

क्यों न हो मायूस मेरे राम जी अब आदमी
इक सुई की ही तरह है लापता उसकी खुशी

माना कि पहले कभी इतनी नहीं ग़मगीन थी
गीत दुःख के गा रही है हर घड़ी अब ज़िन्दगी

कितना है बेचैन हर इक चीज़ पाने के  लिए
आदमी को  चाहिए अब चार घड़ियाँ चैन की

झंझटों में कौन पड़ता है जहां में  आजकल
क़त्ल होते देख कर छुप जाते हैं घर में सभी

बात मन की क्या सुनायी जान कर अपना उसे
बात जैसे पर लगाकर हर तरफ उड़ने   लगी

दोस्ती हो दुश्मनी ये बात मुमकिन है मगर
बात ये मुमकिन नहीं कि दुश्मनी हो स्ती

दिन  में चाहे बंद कर लो खिड़कियाँ ,दरवाज़े तुम
कुछ न कुछ तो रहती ही है सारे घर  में रोशनी

कोई कितना भी  हो  अभ्यासी मगर ए दोस्तो
रह ही जाती है सदा अभ्यास में थोड़ी   कमी

हमने सोचा था  करेंगे काम अच्छा रोज़  हम 
सोच इन्सां की ए यारो एक सी कब है  रही

गर कहीं मिल जाए तुमको मुझसे मिलवाना  ज़रूर
एक मुद्दत से नहीं देखी  है  मैंने  सादगी

हो भले ही शहर कोई " प्राण "  लोगों से भरा
सैंकड़ों में मिलता  है पर संत जैसा आदमी 


21 September, 2010

दहेज्-- अपनी बात।

क्या सामर्थ्यवान लोगों को दहेज देना चाहिये?
 मेरे ब्लाग www.veerbahuti.blogspot.com/ पर एक लघु कथा-- दो चेहरे पढ कर खुशदीप सहगल जी ने अपने ब्लाग http://deshnama.blogspot.com/ पर अपने विचार दिये और कई लोगों ने भी अपने अपने विचार दिये। आज उन से ही मन मे कुछ सवाल उठे।किसी का उन से सहमत होना न होना जरूरी नही जरूरी है हम फिर भी संवाद करें और अपने अपने विचार दें तो शायद कोई बीच का रास्ता हमे भी सूझ जाये।
मेरी लघु कथा का जिक्र हुया मुझे खुशी हुयी।लेकिन उस लघु कथा मे विषय ये नही था कि दहेज लिया दिया जाये य नही मै तो बस ये कहना चाहती थी कि लोग  दोहरी नीति अपनाते हैं, जब समाज की बात आती है तो ये कुरीति बन जाती है जब अपने घर की बात आती है तो ये जायज़ है। लेकिन दहेज के बारे मे आज कुछ बातें करना चाहूँगी। कुछ लोगों ने दहेज के लिये कहा कि अगर कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से दहेज देना चाहता है तो उसमे कोई बुराई नही। इस बात पर मन मे कुछ सवाल और भ्रम से उत्पन हुये जिन्हें आपके साथ बाँटना चाहती हूँ। िस व्यवस्था के लचीले पन मे कुछ सवाल उभरते हैं।  जिस जगह भी कुछ लचीला पन रहा है वहाँ लोग अपने स्वार्थ के लिये राह तलाश लेते हैं। हर पक्ष के दो पहलू होते हैं,देखने वाली बात ये है कि दोनो मे कौन सा समाज के लिये हानिकारक है और कौन सा सिर्फ कुछ लोगों के खुद के लिये। जो समाज के लिये हनिकारक हो।
 सब से पहले तो हमे ये तय करना चाहिये कि क्या हम लडकियों को समान अधिकार देने के हक मे हैं या नही।
अगर हैं तो लडकी को जब लडकों की तरह पढाया लिखाया जाता है और पिता की सम्पति पर बेटी का भी बेटे के बराबर हक होता है तो फिर दहेज किस बात के लिये। उपर से लडकी ने अगर नौकरी करनी है तो उसकी पूरी कमाई ससुराल मे ही तो जायेगी। फिर भी लडकी वालों को ये मजबूरी क्यों कि वो दहेज दें। अगर सच कहें तो अधिकतर दहेज केवल मजबूरी मे दिया जाता है। वो मजबूरी चाहे समाज की रीत हो या फिर  अपने  मान सम्मान की। ये भावना दहेज की कुरीति से ही पनपी है कि इस पवित्र बन्धन को आज केवल पैसे से तौला जाने लगा है। इसे अपने सम्मान और प्रतिष्ठा से जोडा जाने लगा है।
दूसरी बात जो कुछ लोगों ने उठाई है वो है कि जो समर्थ है वो अगर अपनी मर्जी से अपनी बेटी को कुछ देता है तो उसमे कोई नुकसान नहीं। हाँ सही है, लेकिन इसी लेन देन से बाकी लोगों के लिये एक लकीर खींच दी जाती है कि उसने अपनी लडकी को इतना दिया और हम ने क्या दिया? या हमे क्या मिला?  फिर जब एक ही घर मे दो बहुयें आती हैं एक को माँ बाप ने कैश या दहेज दिया दूसरी बहु बिना कुछ लिये आयी तो घर मे ही दो लकीरें खिंच जाती हैं। हमारा समाज इतना भी उदार नही हुया कि ऐसी बहुयों मे फर्क करना छोड दे।  अपनी एक रिश्तेदारी की बात बताती हूँ।  उन्होंने जब लडकी का रिश्ता किया तो शादी से पहले ही बात हो गयी कि दहेज नही लेंगे। लडकी  बहुत अच्छी जाब कर  रही थी। एक महीने मे 60 हजार रुपये तन्ख्वाह लेती थी। शादी धूम धाम से हो गयी और उसके दो माह बाद ही दूसरे बेटे की शादी की तो उसके माँ बाप ने अपनी लडकी के नाम दहेज  के रूप मे 10 लाख रुपये जमा करवा दिये। अब धीरे धीरे छोटी बहु तो सब की आँखों का तारा बन गयी वो भी जाब करती थी, मगर घर का कोई काम काज आदि नही करती थी और ऐश से रहती। वहाँ दूसरी बहु को पूरा घर भी सम्भालना पडता, मगर घर के लोग दूसरी को कुछ नही कहते।अब बडी बहु के माँ बाप रिटायर हो चुके थे जो धन मिला उससे घर बनाया और तीनों बच्चों को अच्छी तालीम भी दी। कोई सरकारी नौकरी मे कितना धन जोड सकता है आखिर जब लडकी को ताने मिलने लगे तो उन्होंने कुछ राशी लडकी के नाम दे दी।। वो राशी ये सोच कर भी दी कि  दी कि उनके कोई बेटा नही मरने के बाद भी इसी का होगा। उसके बाद मजबूरी मे दूसरी लदकी को भी उतना ही देना पडा। और सारी जमा पूँजी समाप्त हो गयी।लेकिन कुछ समय बाद घर मे बीमारी ने ऐसे पाँव फैलाये कि वो लोग पैसे के अभाव मे आ गये।
आज वो उस की पूर्ती अपने खाने दाने मे और अपनी जरूरतों मे कटौती कर के कर रहे हैं जबकि ससुराल वाले उस बहु की इतनी बडी कमाई से शाही जीवन जी रहे हैं । ऐसे कितने उदाहरण अपने आस पास के दे सकती हूँ।
 अब अगर वो लाखों न दिया होता तो शायद अब उनके काम आता लडकियाँ चाहे कमाती हों मगर इतनी भी आज़ाद नही हुयी कि वो अपने माँ बाप पर अपनी मर्जी से कोई बडा खर्च कर सकें। फिर ऐसे हालात मे जहां बहु की कद्र सिर्फ पैसे से होती हो। इन्सान का मन बहुत विचित्र है। पैसा बडे बडों का ईमान गिरा देता है ये तो आपने देखा ही होगा जैसे इस परिवार का गिराया है। पहले चाहे उन्हों ने इसे कुरीति ही मान कर दहेज नही लिया मगर जब अपने आप आ गया तो लालच बढ गया। अगर आप गौर करें तो देहेज प्रथा मे  लचीलापन उन लोगों की सोच है जिनके लडके हैं। लडकी वालों मे बहुत कम लोग होंगे जो समर्थ होते हुये भी दहेज देना चाहेंगे। ये प्रथा है इस लिये उन्हें ये अपनी बेटी का मान सम्मान लगता है, तो इसे बुरा नही मानते। मगर ये बाकी समाज के असमर्थ लोगों के लिये मजबूरी बन जाता है।
मेरा मानना है कि जिस जगह लचीनापन होता है वहाँ अपने अपने स्वार्थ के लिये रास्ते जरूर खुल जाता हैं।  अगर यही लचीलापन हम केवल लडकियों को बराबरी का हिस्सा देने मे रखें तो शायद बाकी असमर्थ लोगों को कुछ राहत मिले।हिस्सा देने मे जो कुछ विसंगतियाँ आती हों उनके लिये हल खोजे जा सकते हैं।
एक सवाल और पूछना चाहती हूँ कि क्या जो लोग दहेज की हिमायत करते हैं वो इस बात की भी हिमायत करेंगे कि उनका बहु जो कमाती है उसमे से आधा अपने माँ बाप को दे कम से कम बुढापे मे उनके गुजर बसर का जिम्मा ले? कहने को तो हर कोई कह देगा लेकिन होगा नही। जिन के बेटे नही होते उन माँ बाप से तो लडके वालों की और भी आपेक्षायें बढ जाती हैं। कि बाद मे भी तो लडकी को ही मिलेगा इस लिये पहले ही उनकी आँखें लडकी वालों की सम्पति पर लग जाती हैं। इससे पहले कि वो अपना पैसा कहीं और न लुटा दें उन्हे मिल जाये। फिर हर तौहारों पर लेन देन केवल लडकी वालों की जिम्मेदारी होती है। इस प्रथा मे यही काफी नही कि दहेज दिया और छुट्टी मिल गयी। हर त्यौहार पर ससुराल वालों की आपेक्षायें बढती ही जाती हैं, जैसे बेटी को जन दे कर उन्हों ने कोई गुनाह किया है जिस की सजा उन्हें उम्र भर मिलती रहेगी।
 कुछ दिन पहले ही किसी के घर मे ऐसा वाक्या हुया कि लडकी को  अपने माँ बाप के पास जमीन खरीदने के लिये पैसे लेने भेजा गया।  लेकिन लडकी के बाप के पास जो था उसी मे से अपना गुजर बसर करते थे। जब इन्कार किया तो लडकी  को मायके भेजना बन्द कर दिया। अब मरता क्या न करता कुछ पैसे दे कर अपनी बेटी से मिलने का हक लिया।
  कि बाद मे भी तो लडकी को ही मिलेगा इस लिये पहले ही उनकी आँखें लडकी वालों की सम्पति पर लग जाती हैं।
 बहुत कुछ इस विषय पर लिखा जा सकता है। मगर पोस्ट बडी नही करना चाहती। बस एक बात कहना चाहती हूँ कि अपनी सामर्थ्य और अपने मान सम्मान के लिये दिया गया दहेज क्या असमर्थ लोगों के लिये मजबूरी तो नही बन रहा? क्योंकि कई बार ससुराल वाले ताने दे देते हैं देखों फलाँ के घर कितना कुछ आया और तुम्हारे माँ बाप ने क्या दिया। और दिये गये समान मे मीन मेख निकलनी शुरू हो जाती है जिस से सास बहु मे या बाकी सब के दिलों मे मन मुटाव शुरू हो जाता है।अगर ये सब जायज़ है तो समान अधिकारों की बात छोडो।ऎसे कानून का विरोध करो जो लडकी को समान अधिकार देता है।
आज जिस समाज मे लोगों की सोच ये है कि पडोसी को देख कर अपना रहन सहन उनसे ऊँचा रखने की रेस लग जाती है, उस समाज मे ये लचीलापन एक अभिशाप से कम नहीं। फिर भी ये सब होता रहेगा हम और आप केवल बहस करते रहेंगे। बस ।सब की अपनी अपनी भावनायें अपनी अपनी सोच है।
किसी व्यवस्था मे उसके प्रबन्धन मे लचीलापन उस व्यवस्था के लिये घातक होता है, जैसे एक बाप घर की व्यवस्था मे  कई बार सख्ती से काम लेता बच्चों की बेहतरी के लिये  लेकिन माँ का व्यवहार लचीला  होता है जब माँ बच्चों की गलतियाँ  बाप से छुपाती है तो बच्चों को मनमर्जी करने की आदत पड जाती है। और कई बार आपने सुना होगा अकसर ये कहा जाता है इसे माँ ने बिगाडा है। मेरे कहने का तात्पर्य है कि जहाँ लचीलपन होता है वहीं से लोग अपने स्वार्थ का रास्ता तलाश लेते हैं। इन्सान के आपसी व्यवहार  और रिश्तों मे लचीनापन उस व्यवस्था को मजबूत करता है, लेकिन बुनियादी ढाँचे मे हानिकारक होता है। घर की नींव मजबूत हो लेकिन उपर की सज्जा अपनी सामर्थ्य के अनुसार हो यहाँ लचीलापन चलेगा लेकिन नींव मे नही। । अगर आज हमारे संविधान मे लचीलापन न होता तो शायद आज देश का ये हाल न होता। स्वतन्त्रता जब अभिशाप बन जाये तो स्वतन्त्रता के क्या मायने? पंजाबी की कहावत है कि
"भट्ठ पिया सोना जेहडा कन्ना नूँ खावे"  अर्थात उस सोने का क्या फायदा जो कानो को नुकसान दे।
 एक बात और जैसा हमारी हिन्दू संस्कृ्ति व जीवन दर्शन मे[बाकी धर्मों मे भी}, हमारे लिये रहन सहन के नियम  तय किये गये हैं क्या हम उनके अनुसार अपना रहन सहन या व्यव्हार करते हैं। नही!  हम उन्हें रूढीवादी कह कर अपने हिसाब और सुविधा से जीते हैं। तो फिर उस समय के हिसाब से चली व्यवस्था अगर समाज को हानि पहुंचा रही है तो उसे बदलने की जरूरत क्यों नही। लेकिन होगा तब जब हम अपनी सोच को इस जमाने के हिसाब से बदलेंगे। न कि लडकी को अभी भी निरीह प्राणी समझेंगे । शादी सामाजिक व्यवस्था का एक   जरूरी अंग ,इसे सार्थक और सुन्दर बनाने के लिये हमे ऐसी कुरीतियों का विरोध करना ही होगा।  इसकुरीति के चलते  न तो भ्रूण हत्यायें रुकेंगी और न दहेज हत्यायें। धन्यवाद।

19 September, 2010

लघु कथा

दहेज--{ दो चेहरे --  -2}-- लघु कथा
दो चेहरों वाले व्यक्तित्व पर कुछ सवाल उठे थे।मगर समाज मे ऐसे चेहरे हर जगह देखे जा सकते हैं उसी संदर्भ मे कुछ लघु कथायें लिखनए जा रही हूँ। नाम तो दो चेहरे ही रहेगा मगर कडी का नम्बर साथ दूँगी। 

आज जोशी जी अपने लडके के लिये लडकी देखने जा रहे थे। वो ुच्च पद से रिटायर्ड व्यक्ति थे एक ही बेटा था इस लिये चाहते थे कि शादी धूम धाम से हो। उच्च पद पर रहने से शहर मे उनकी मान प्रतिष्ठा थी। कई संस्थायें उन्हें अपने समारोह मे बुलाती जहाँ कई बार उन्हें समाज मे पनप रही बुराईओं पर वक्तव्य भी देने पडते। इस लिये लोग उन्हें समाज सुधारक भी मानते थे।
लडकी के घर पहुँचे। लडके लडकी मे बात चीत हुयी और दोनो ने एक दूसरे को पसंद कर लिया। लडकी के पिता को अन्दर से ये डर खाये जा रहा था कि पिछली बार की तरह इस बार भी दहेज पर आ कर बात न्न अटक जाये। पिछली बार लडके ने कार की माँग रख दी थी। उन्होंने अपना शक मिटाने के लिये जोशी जी से पूछा
" जोशी जी , अब आगे की बात भी हो जाये।यूँ तो हर माँ बाप अपनी बेटी को कुछ न कुछ दे कर ही विदा करता है, फिर भी अगर आपकी   कोई डिंमाँड हो तो हमे निस्संकोच बता दें ।"
" शर्मा जी आपको पता है हमारे घर मे भगवान का दिया सब कुछ है अगर फिर भी आप इतना आग्रह कर रहे हैं तो बता देना चाहता हूँ कि हमे कुछ नही चाहिये, आप कन्यादान स्वरूप  इन दोनो के नाम एक ज्वाँइट एकाउँट खुलवा कर उसमे राशी जमा करवा दें"

16 September, 2010

दो चेहरे- लघु कथा

दो चेहरे
"पापा आज  आप स्टेज पर हीर राँझा गाते हुये रो क्यों पडे थे?"
"समझाईये न पापा"
'तुम नहीं समझोगी"
"समझाईये न पापा"
रनबीर की सात साल की बेटी अचानक अपनी नौकरानी के बेटे गोलू के साथ  खेलती हुयी पापा से आ कर पूछने लगी।
'नहीं पापा मुझे बताओ ना" वैसे ये हीर राँझा क्या होते हैं?"
रनबीर ने बेटी की तरफ देखा और उसे बताने लगा
'बेटी हीर राँझा दो प्रेमी थे दोनो एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे मगर दोनो की शादी नहीं हुयी और और दोनो एक दूसरे के लिये तडपते रहे" ये गीत ये गीत हीर राँझा की प्रेम कथा  है, उसका दर्द देख कर किसी के भी आँसू निकल जाते हैं। बहुत दर्दनाक प्रेम कहानी है।' रनबीर सिंह अपने ही ख्याल मे डूबा हुया बेटी को बता रहा था।
"पापा उनके माँ बाप कितने बुरे थे?"
'हाँ बेटी बहुत बुरे"। रनबीर ने बेध्यानी मे जवाब दिया
" पापा1 मेरे पापा तो बहुत अच्छे हैं जब मैं गोलू से शादी करूँगी तो आप हमे कुछ नहीं कहेंगे ना?" बेटी ने भोलेपन से कहा
'चटाक' तभी उसके गाल पर एक ज़ोर से चाँटा पडा और बेटी अवाक पिता की तरफ देख रही थी।
उसे क्या पता था कि इन्सान के दो चेहरे होते हैं एक घर मे एक बाहर।

10 September, 2010

अति अन्त है-- बोध कथा---

अति अन्त है
एक नदिया का पानी रोज़ अपनी रवानगी मे बहता, किनारों की तरफ भागने की कोशिश करता मगर नदी से बाहर नही निकल पाता। उसके मन मे बहुत क्षोभ था कि वो स्वतन्त्र क्यों नही। सामने ऊँचे हिम शिखरों के देख कर उसका मन ललचाता कि काश वो उस शिखर पर पहुँच जाये और दुनिया के नज़ारे देखे। उसने सूरज की किरण से कहा
 "तुम मुझे भाप बना दो ताकि मैं उस हिम शिखर तक पहुँच जाऊँ।"
 किरण ने उसे समझाया " तुम पानी हो नदिया मे ही रहो यही तुम्हारी तकदीर है। दूर की चमक दमक देख कर अपने पाँव के नीचे की जमी मत छोडो"
मगर पानी नही माना। उसने कहा कि --
" ये तुम इसलिये कह रही हो कि मैं कहीं बडा न बन जाऊँ मुझ मे भी पहाड जितनी शक्ती न आ जाये।"
नही मैं इस लिये कह रही हूँ कि तुम जितनी शक्ती किसी मे नही। झुकने मे जो ताकत है वो ऊँचा सिर करने मे नही। तुम खुद को जैसे चाहो ढाल सकती हो। मगर पर्बत की तकदीर देखो वो अपना सर भी नही हिला सकता। कहीं मर्जीसे आ जा नही सकता वो भी तो अपनी सीमाओं मे से बन्धा हुआ है! रोज़ सूरज का इतना ताप सहता है फिर भी अडिग है। क्या तुम उसकी तरह सभी कष्ट सह सकती हो? तभी तो वो पर्बत है। क्या तुम उसकी तरह सभी कष्ट सह सकती हो?भगवान ने सब को कुछ न खुछ काम दे कर संसार मे भेजा है इस लिये जिसको जिस हाल मे भगवान ने रखा है उसे खुशी से स्वीकार कर सब का भला करते रहना चाहिये। तुम भी अपनी सीमा मे बन्ध कर रहना सीखो और सब की प्यास बुझा कर मानवता की सेवा करो। अगर कोई एक बार राह भटक गया तो न घर का रहता है न घाट का।"
मगर पानी ने उसकी एक नही सुनी तो सूरज की किरण कहा कि चलो मैं तुम्हें भाप बना देती हूँ तुम शिखर पर चली जाओ। पानी भाप बन कर पर्बत  पर चला गया और ठंड से बर्फ बन कर चोटी पर जम गया। वो बहुत खुश हुया कि यहाँ से खडे हो कर वो दुनिया के नज़ारे देख सकता है। आज वो भी कितना ऊँचा उठ गया है नदिया यूँ ही नाज़ करती थी कि उसने मुझे पनाह दे रखी है। सूरज की किरण रोज़ उससे मिलने आती तो झूम कर कहता कि देखों आज मैं भी पर्वत हूँ। वो मुस्कुराती और अपनी राह चल देती। मगर एक दिन  पानी का घमंड देख कर उसने कहा कि कुछ दिन ठहरो अब गर्मी आने वाली है। अभी सूरज देवता का ताप इतना बढ जायेगा कि तुम सह न पाओगी। मगर पानी तो अपनी इस सफलता पर झूम रहा था उसे किसी चीज़ की परवाह नही थी। कुछ दिनो बाद गर्मी का मौसम आया।  वहाँ रोज़ सूरज की तपता तो पानी पिघलने लगता। धीरे धीरे पानी पिघलता तो कभी किसी तालाब मे तो कभी कहीं जमीन पर बूँद बूँद टपक जाता। उसे नदिया तक जाने का रास्ता भी नही पता था वो तो सपनों के पंख लगा मदहोश हो  कर पहाड पर आया था। वैसे भी पानी के पहाड पर चले जाने के बाद नदी सूख गयी थी और अब वहां बडी बडी इमारतें खडी हो गयी थीं। पानी के लिये जगह ही कहाँ बची थी? इस तरह कुछ हिस्सा कहीं तो कुछ कहीं गया। जैसे किसी शरीर के टुकडे करके अलग अलग जगह फेंक दिये गये हों। एक दिन किरण को पानी का धडकता हुया दिल एक नाले मे दिखा तो उसने कटा़क्ष किया---
" क्या तुम्हारा दिल पर्बत पर नहीं लगा?"
 पानी दुखी मन से बोला "तुम ने सही कहा था हम दूसरों को ऊँचे उड कर देखते हैं तो सामर्थ्य ना होते हुयी भी वहाँ तक पहुँच जाना चाहते हैं। मगर जिस परिश्रम और कष्ट को उन्होंने सहा है वो सह नही सकते। मुझे आज ये शिक्षा मिली है कि दूसरों को देख कर अपनी सीमायें मत तोडो नहीं तो न घर के रहोगे न घाट के। अगर तुम मानवता की सेवा करना चाहते हो तो खुद को सीमा में बान्धना सीखो। नहीं तो बिखर जाओगे और मेरी तरह  किसी के काम के नही रहोगे।" आखिर हर चीज़ की हर ख्वाहिश की कोई न कोई तो सीमा तो होनी ही चाहिये। अति अन्त है।


05 September, 2010

   बहुत दिन से कुछ अच्छा लिखा नही गया। मूड बनाने के लिये कुछ यत्न करते हैं। चलो आज आपको प्राण भाई साहिब के साथ मेले मे घुमाते हैं। पढिये उनकी गज़ल मेले मे।
मेले में -- प्राण शर्मा
                  
घर वापस जाने की सुधबुध बिसराता है मेले में
लोगों की रौनक में जो भी   खो   जाता है मेले में
 
किसको याद  आते हैं घर के दुखड़े,झंझट और झगड़े
हर कोई खुशियों में खोया   मदमाता    है   मेले में
 
नीले -  पीले लाल- गुलाबी   पहनावे   हैं   लोगों     के
इन्द्रधनुष   का  सागर    जैसे   लहराता    है   मेले   में
 
सजी   -  सजाई    हाट - दुकानें   खेल - तमाशे  और झूले
कैसा  -  कैसा   रंग    सभी   का भरमाता  है   मेले   में
 
कहीं  पकौड़े  , कहीं   समोसे ,  कहीं   जलेबी   की महकें
मुँह   में   पानी   हर   इक  के  ही भर आता है मेले   में
 
जेबें   खाली  कर   जाते हैं   क्या   बच्चे   और क्या  बूढ़े
शायद    ही    कोई      कंजूसी      दिखलाता   है मेले   में
 
तन    तो क्या मन भी मस्ती में झूम उठता है हर इक का
जब   बचपन    का   दोस्त अचानक मिल जाता है मेले में
 
जाने  -  अनजाने   लोगों   में   फर्क   नहीं    दिखता    कोई
जिससे     बोलो    वो    अपनापन    दिखलाता   है   मेले  में
 
डर  कर   हाथ   पकड़   लेती   है हर माँ अपने   बच्चे    का
ज्यों    ही    कोई    बिछुड़ा   बच्चा   चिल्लाता   है   मेले में
 
ये दुनिया   और   दुनियादारी    एक    तमाशा    है     भाई
हर    बंजारा    भेद     जगत   के     समझाता    है    मेले   में
 
रब    न   करे    कोई    बेचारा    मुँह   लटकाए    घर     लौटे
जेब    अपनी   कटवाने    वाला     पछताता     है     मेले    में
 
राम   करे  ,  हर   गाँव -  नगर   में   मेला  नित दिन लगता हो
निर्धन   और  धनी   का    अंतर    मिट  जाता    है   मेले    में
 
 

03 September, 2010

आज कल कुछ लिख नही पा रही हूँ। अनूप की मौत के बाद उसके ब्लाग पर कुछ पँक्तियाँ लिखी थी वही लिख रही हूँ। कुछ सवाल उठे हैं उसके जाने से क्योंकि उसने पुराने जख्म फिर से हरे कर दिये हैं । आजकल बस उसी पर लिख रही हूँ।   ब्लाग बन्द करना भी नही---- चाहती कोशिश करूँगी जल्दी से उसी फार्म मे आऊँ।
कुछ सवाल 
सच मानो-- तुम्हारे जाने से दुखी नही हूँ
दुखी हूँ उस आसमान को देख कर
 जो इस रात के अन्धेरे मे
हम सब को0 आँसू दे कर खुद
जगमगा रहा है
चाँद इतरा रहा है
तारे जैसे मस्ती मे झूम रहे हैं
तुम्हारे उन के पास लौट जाने का जश्न
मगर धरती पर सब ओर सन्नाटा
गहरी उदासी सबकी शब्द भी मूक से हैं
अनुभूतियाँ, अभिव्यक्तियाँ, संवेदनायें
त्रस्त हैं ,कौन किस से क्या कहे?
 कुछ भी नही छोडा तुम्ने कहने को
और मेरा मन कुछ सवालों की
सलीब पर लटक गया है?
सब से पहला सवाल तुम से है
क्या तुम नही जानते थे
कि इन्सान को रोने के लिये भी
एक कन्धा चाहिये होता है
और तुम ने कितनी आसानी से,
या कहूँ कि बेरहमी से
अपना कन्धा खींच लिया
शायद तुम भी आजकल के हिसाब से
प्रैक्टीकल हो गये थे-- यही तो दुख है
 जो दिल से अपने होते हैं
उनका दुख की घडी मे कन्धा खींच लेना
कितना दर्द देता है
दिल की किचरें सम्भाले नही सम्भलती
काश! तुम ये महसूस कर पाते
बाकी सवाल फिर कभी-----

ये सवाल जब तक हम ज़िन्दा रहेंगे उठेंगे
शायद इतना दर्द उस मसीहे को भी
सलीब पर लटक कर नही हुया होगा
तभी तो वो उपदेश दे कर चले गये
मगर हम तो एक दूसरे को
सान्तवना भी नही दे सकते
फिर भी उसे जी कर दिखाना ही होगा

18 August, 2010

शोक समाचार्

शोक समाचार
दुखी हृदय से सूचित कर रही हूँ कि मेरे छोटे दामाद ललित सूरी के छोटे भाई अनूप सूरी का देहान्त हो गया है। वो टी सी एस कम्पनी मे इन्जनीयर थे और फरवरी 2010 से कम्पनी की तरफ से अमेरिका मे थे। वहाँ उनकी एक कार दुर्घटना मे मौत हो गयी उनके साथ भारत से अभी चार दिन पहले कम्पनी से एक दोस्त गया था, उसकी भी उसी के साथ मौत हो गयी। गाडी चलाने वाला लडका बच गया। हंसते खेलते परिवार की खुशियाँ भगवान ने छीन ली। दिसम्बर मे वापिस आने पर उसकी शादी करनी थी।ाभी दोनो की लाश भारत नही आयी, शायद शुक्रवार शाम तक पहुँच जायेगी।
कुछ दिन से पता नही क्यों मन बहुत उदास था, बिना किसी कारण के ।मुझे लग रहा था कि फिर से कुछ होने वाला है। मेरे साथ ऐसा ही होता है। हमारा तो पहले ही पोर पोर दुख से भरा हुया है, ऐसी मौतों की वजह से। मुझे बस सकून इस बात का था कि मेरी बेटियाँ अपने घरों मे बहुत खुश हैं। बस यही रहता मन मे कि ये घर यूँ ही हंसते खेलते रहें। मगर भगवान के आगे किस की चलती है। मेरी बेटी को वो अपनी माँ से भी अधिक सम्मान देता था। मेरे साथ हर दो तीन दिन बाद चैट पर बात होती तो यही कहता कि मैं तो आपका बेटा हूँ,ललित आपका दामाद है। शायद अच्छे लोगों की भगवान को हम से अधिक जरूरत है। उसके माँ बाप को अभी नही बताया हुया इस लिये हम भी अभी वहाँ नही गये।  मन कहीं टिक नही रहा तो आप सब से दुख बाँटने आ गयी। मेरे बच्चों को आशीर्वाद दें कि इस दुख की घडी मे भगवान उनको हौसला दे। बस यही विनती है । आज रात की गाडी से दिल्ली  जा रहे हैं। कुछ दिन फिर नेट से दूर रहूँगी।

13 August, 2010

कसौटी रिश्ते की--- कहानी

कसौटी रिश्ते की
अगली कडी
अब तक आपने पडा कि दोनो पति पत्नि बैठे हुये हैं और पति रो रहे हैं। उनके भाईयों ने उन्हें घर मे से हिस्सा नही दिया था---- पत्नि उन्हें और रुलाना चाहती थी---- पिछली बातें याद कर के ताकि बाद मे रोने के लिये कुछ न बचे।-------
अगली कडी


"ये तो बहुत बडी बडी बातें थी हमे तो एक छोटी सी खुशी भी नसीब नही होती थी। याद है रिश्तेदारी मे एक शादी पर जब मुझे भी सब के साथ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुया था। अपनी शादी के कुछ दिनो बाद ही मैं सजना संवरना भूल गयी थी। उस दिन मुझे अवसर मिला था। जब तैयार हो कर आपके सामने आयी तो आपने शायद पहली बार इतने गौर से देखा था--- न जाने कहाँ से एक ावारा सा अरमान आपके दिल मे उठा था अवारा इस लिये कि ऐसे अरमान आपके दिल मे उठते ही नही थे अगर उठते थे तो आप छिपा लेते थे---- तभी आप बोले--
"अज हम सब से पहले घर आ जायेंगे। कुछ पल अकेले मे बितायेंगे।"
"क्या सच????"  मेरी आवाज़ मे छिपा व्यंग इन्हें अन्दर तक कचोट गया था-- चाहे बोले कुछ नही मगर आँखों मे बेबसी के भाव मैने पढ लिये थे। एक दर्द की परछाई इनके चेहरे पर सिमट आयी थी।
मुझे पता था कि मुश्किल है हमे माँजी अकेले मे भेजें। वो नही चाहती थी कि हम दोनो कभी अकेले मे बैठें। मुझे पता नही क्यों उन पर कभी गुस्सा नही आता था उन्हों ने बचपन मे सौतेली माँ के हाथों इतने दुख झेले थे। मेरे ससुर जी की पकिस्तान मे अच्छी नौकरी थी वो पटवारी थी मगर आज़ादी के बाद दंगों मे उ7न्हें सब कुछ वहीं छोड कर भारत आना पडा कुछ अपनी जमीन यहां थी तो नौकरी भी फिर से यहीं मिल गयी । यहाँ भी संयुक्त परिवार था साथ भाईयों का तो मेरी सासू जी सब से छोटी थी इस लिये यहाँ भी उन्हें बहुत दुख झेलने पडे। शायद अब भी उनके मन मे एक असुरक्षा की भावना थी। मुझे कभी कुछ कहती भी नही थी। अपनी बीमारी से भी दुखी थी। इस लिये मुझे उन पर गुस्सा नही आता।  उन्हें डर था कि अगर हम मे प्यार बढ गया तो मैं इन्हें शहर न ले जाऊँ।  और उस दिन भी यही हुया जैसे ही हम खाना खाने के बाद चलने को हुये तो िन्हों ने कहा कि आपने तो रात को आना है हम लोग घर चलते हैं पशुयों को चारा भी डालना है-- तो माँजी एक दम से बोल पडी----" बच्चों को भी साथ ले जाओ।" और मैं एक अनजान पीडा से तिलमिला गयी। फिर अकेले कुछ समय साथ बिताने का सपना चूर चूर हो चुका था।
 इनका रोना रुकने की बजाये बढ गया था यही तो मैं चाक़्हती थी----
" आपको याद है मुझे अपने मायके के सुख दुख मे भी शामिल होना नसीब नही था।मेरे जवान भाई की मौत आपकी भाभी  के बाद 6-8 माह मे ही हो गयी थी---तो संस्कार के तुरन्त बाद ही आप मुझे घर ले आये थे--- मुझे अपनी माँ के आँसू भी पोंछने नही दिये थे--- आप मुझे रोने भी नही देते झट से डांट देते---" रो कर क्या भाई वापिस आ जायेगा?"---- ओह! किस तरह टुकडे टुकडे मेरे दिल को पत्थर बनाया था----: आज तक न कभी हँस पाई न रो पाई। लाडकी को ही क्यों हक नही होता कि वो अपने माँ बाप के सुख दुख मे काम आये जैसे कि आप अपने माँ बाप के काम आ रहे थे।
रगर  एक एक दिन और रात का आपको हिसाब दूँ तो शायद आज आप भी सकते मे आ जायेंगे। आपने केवल अपनी नज़र से ज़िन्दगी को देखा है आज मेरी नज़रों से देखोगे तो आपका दर्द बह जायेगा और मुझे भी शायद कुछ सकून मिलेगा।
इसी लिये मैं आपको रो लेने देना चाहती हूँ। आपको रोने से नही रोकूँगी--- आपको पत्थर नही बनने दूँगी--- भुक्तभोगी हूँ--- जानती हूँ पत्थर बना हुया दिल ज़िन्दगी पर बोझ बन जाता है--- दुनिया के लिये अपने लिये निर्दयी हो जाता है।
राम सीता के लिये कठोर हो सकते हैं मगर दुनिया के लिये तो भगवान ही हैं क्या राम के बिना दुनिया की कल्पना की जा सकती है? मैं सीता कि तरह उदार तो नही हो सकती कि आपको माफ कर दूँ मगर फिर भी चाहती हूँ कि आप दुनिया के लिये ही जीयें_। मैं दुनिया को एक कर्तव्यनिष्ठ इन्सान से वंचित नही करना चाहती।काश भगवान मुझे भी आप जैसाबनाता कामनाओं से मुक्त--- स्वार्थ से परे--- मेरा अपने सुख के लिये शायद स्वार्थ ही था जो आपको कभी माफ नही कर पाई। हाँ लेकिन एक बात का स्कून ज़िन्दगी भर रहा कि मैने वो किया है जो शायद आज तक किसी ने नही किया। अपना दर्द तब भूल जाती हूँ जब गाँव के लोग कहते हैं कि ऐसी बहु न कभी आयी थी न शायद आयेगी। बस इसी एक बात ने मुझे विद्रोह करने से रोके रखा। हाँ जमीन बाँटे जाने तक सब के लिये मैं महान थी मगर जब अपना घर बनाने की बारी आयी तो मैं बुरी हो गयी। जो औरत शादी के पच्चीस  साल तक घर मे सब के लिये वरदान थी वो  बाद मे कैसे बुरी हो गयी? शायद मतलव निकल जाने के बाद ऐसे ही होता है। मुझे हमेशा बहला फुसला कर ही सब ने अपना मतलव निकाला और मै अपने सभी दुख इसी लिये भूल जाती थी।
मेरे वो पल जब मैं अपने पँखों से दूर आकाश तक उडना चाहती थी आपके संग हवाओं फूलों,पत्तियों से ओस की बूँदों तितली के पँखों से रिमझिम कणियों सेआपके संग भीगना चाहती थी लेकिन भीगने के लिये क्या मिला उम्र भर आँसू!--- अपके दिल की धुन से मधुर संगीत सुनना चाहती थी--- आपकी आँखों मे डूब जाना चाहती थी आपकी छाती पर सिर रख कर सपने बुनना चाहती थी--पता नहीं कितने अरमान पाल रखे थे दिल मे क्या मेरे वो सपने कोई लौटा सकता है? आप? आपके भाई? या फिर वो बच्छे जिन्हें अंगुली पकड कर चलना सिखाया। 2 साल का था सब से छोटा --- 9 साल का सब से बडा। क्या कभी उन्हों ने आ कर पूछा है आपका हाल बल्कि सारी उम्र मेरे पास रहे और जब नौकरियां लग गयी शादियाँ हो गयी तो अपने बाप के पास चले गये। अब रास्ते मे देख कर मुँह फेर लेते है।
कैर हम दिल का रिश्ता तो कभी बना नही पाये। सपने जो दिल के रिश्तों के साक्षी थी कब के टूट गये हैं रिश्ता केवल आपने रखा अपने पति होने का। बिस्तर तक सिमटे रिश्ते की उम्र दूध के उफान की तरह होती है बिस्तर छोड और रिश्ता खत्म। एक अभिशाप की तरह था मेरे लिये वो रिश्ता। मगर आज सब कुछ भूल कर हम एक नया रिश्ता तो कायम कर सकते हैं--- एक दूसरे के आँसू पोंछने का रिश्ता---- सुख के साथी तो सभी बन जाते हैं मगर सच्चा रिश्ता तो वही है जो दुख मे काम आये--- निभे-- । और मैने उनका आखिरी आँसू अपनी हथेली पर समेट लिया एक नये अटूट रिश्ते को सींचने के लिये। समाप्त।

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