19 September, 2010

लघु कथा

दहेज--{ दो चेहरे --  -2}-- लघु कथा
दो चेहरों वाले व्यक्तित्व पर कुछ सवाल उठे थे।मगर समाज मे ऐसे चेहरे हर जगह देखे जा सकते हैं उसी संदर्भ मे कुछ लघु कथायें लिखनए जा रही हूँ। नाम तो दो चेहरे ही रहेगा मगर कडी का नम्बर साथ दूँगी। 

आज जोशी जी अपने लडके के लिये लडकी देखने जा रहे थे। वो ुच्च पद से रिटायर्ड व्यक्ति थे एक ही बेटा था इस लिये चाहते थे कि शादी धूम धाम से हो। उच्च पद पर रहने से शहर मे उनकी मान प्रतिष्ठा थी। कई संस्थायें उन्हें अपने समारोह मे बुलाती जहाँ कई बार उन्हें समाज मे पनप रही बुराईओं पर वक्तव्य भी देने पडते। इस लिये लोग उन्हें समाज सुधारक भी मानते थे।
लडकी के घर पहुँचे। लडके लडकी मे बात चीत हुयी और दोनो ने एक दूसरे को पसंद कर लिया। लडकी के पिता को अन्दर से ये डर खाये जा रहा था कि पिछली बार की तरह इस बार भी दहेज पर आ कर बात न्न अटक जाये। पिछली बार लडके ने कार की माँग रख दी थी। उन्होंने अपना शक मिटाने के लिये जोशी जी से पूछा
" जोशी जी , अब आगे की बात भी हो जाये।यूँ तो हर माँ बाप अपनी बेटी को कुछ न कुछ दे कर ही विदा करता है, फिर भी अगर आपकी   कोई डिंमाँड हो तो हमे निस्संकोच बता दें ।"
" शर्मा जी आपको पता है हमारे घर मे भगवान का दिया सब कुछ है अगर फिर भी आप इतना आग्रह कर रहे हैं तो बता देना चाहता हूँ कि हमे कुछ नही चाहिये, आप कन्यादान स्वरूप  इन दोनो के नाम एक ज्वाँइट एकाउँट खुलवा कर उसमे राशी जमा करवा दें"

47 comments:

P.N. Subramanian said...

हमें तो भय है की अपवादों को छोड़ दें तो हम सब में ऐसा कुछ कुछ रहता है.

राजभाषा हिंदी said...

सटीक, सार्थक लघुकथा।

बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
कहानी ऐसे बनीं–, राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें

डॉ टी एस दराल said...

कान सीधे से पकड़ो या घुमाकर , बात तो एक ही है । सही कहा , आजकल ऐसा ही हो रहा है ।

Smart Indian said...

हाँ भई, पाप के पैसे को हाथ नहीं लगाना चाहिये न!

राणा प्रताप सिंह (Rana Pratap Singh) said...

बहुत सटीक कहानी ...आजकल यही हो रहा है ..हर इन्सान में दो चेहरे है...
ब्रह्माण्ड

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

हमारे समाज मे यह हर लडके के बाप का फ़ंडा होता है, हां जब खुद की लड्की व्याहनी होती है तो फिर यह भूल जाता है, अपने लाडले के वक्त उसने क्य किया था

राजेश उत्‍साही said...

वैसे निर्मला जी मुझे तो इसमें कोई बुराई नहीं दिखाई देती। अगर आपकी लघुकथा की बात करें तो लड़के के पिता ने केवल यह कहा कि राशि जमा करवा दें,कितनी यह वह नहीं कह रहे हैं। साथ ही वे ज्‍वाइंट एकाउंट की बात कर रहे हैं। यह खुशी से देने की बात है। इसमें कोई मांग नहीं है।

मेरी छोटी की बहन की शादी 1994 के आसपास हुई थी। वरपक्ष ने कहा हमारे घर में रोजमर्रा के उपयोग की सब वस्‍तुएं हैं,कृपया वह सब न दें। उन्‍होंने मांग नहीं की थी। आप जानती हैं विवाह में घर गृहस्‍थी छोटी-छोटी चीजें दी ही जाती हैं। हम उसमें जो पैसा खर्च करने वाले थे वह राशि हमने वर'वधू के नाम एक ज्‍वाइंट एफडी बनाकर भेंट कर दी थी। उस समय यह राशि दस हजार रुपए की थी।
निर्मला जी इसका एक पक्ष और है जिस पर हम लोग ध्‍यान नहीं देते हैं। वह है कि जो लड़की घर से जा रही है उसका भी तो कोई हक बनता है। मां बाप खुशी से जो उसे दे रहे हैं, उसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हां उसमें सकारात्‍मक पक्ष यह होना चाहिए कि फिजूलखर्ची और दिखाएवे के लिए न हो। छोटे और मध्‍यमवर्गीय परिवारों में आजकल यह चेतना आ रही है कि वे मिल बैठकर यह तय कर लेते हैं कि अगर कुछ देना भी है तो किस सामान की आवश्‍यकता है ताकि वह अनावश्‍यक न हो जाए।
हां जहां यह मांग या शर्त बन जाए वह निदंनीय है सौदेबाजी है। उसका विरोध होना चाहिए। मैं उसके बिलकुल खिलाफ हूं।

ओशो रजनीश said...

दहेज़ किसी भी रूप में माँगा जाये, ये दहेज़ ही होता है फिर चाहे ये कार हो या अकाउंट में जमा राशी

बहुत बढ़िया प्रस्तुति .......

इसे भी पढ़कर कुछ कहे :-
(आपने भी कभी तो जीवन में बनाये होंगे नियम ??)
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_19.html

Sunil Kumar said...

बात एक ही है समझने का ढंग अलग है कपिला जी इस बीमारी का इलाज है मग़र मुश्किल है

शिक्षामित्र said...

कुछ ऐसी जातियां हैं जिनमें वस्तुतः,दहेज न लेने की परम्परा रही है। मगर अब उनमें भी परोक्ष रूप से ईशारा कर ही दिया जाता है। लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाना ही एकमात्र रास्ता प्रतीत होता है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दो चेहरे दिखाती अच्छी लघु कथा ..

kshama said...

Aisabhi dekha gaya ki,ladkewalon ne kuchh bhi maaang nahi kee aur peeth peechhe ilzaam ye laga ki,dheron maangen kee...!
Aapki is malika kee agli kadiyon ka intezaar rahega!

समयचक्र said...

बहुत बढ़िया सटीक कहानी... आभार

प्रवीण पाण्डेय said...

आत्म निर्भरता आवश्यक है। किसी पर कोई जोर नहीं डालना चाहिये।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

ये तो अच्छा हुआ कि उन्होंने यह नहीं बताया कि उस ज्वाइण्ट अकाउण्ट में केतना रुपया जमा करवाना है, इसलिए लगता है कि दहेज के लांछन से बच गए... हमरे परिवार में एगो दूर के रिश्तेदार की बेटी ने प्रेम विवाह कर लिया... लोग बोले कि चलो जाने दो दहेज देने से बच गए, नहीं त लड़का खोजने के परेसानी के साथ साथ दहेज भी देना पड़ता...
सादी के छः महीना के बाद ऊ लड़की जब मायके आई त बोली कि हमरे सादी के लिए जो सब आप सोचकर रखे थे देने के लिए सब हमको दे दीजिए... अऊर एतना हम गारण्टी से कह रहे हैं कि ऊ दबाव में नहीं बोल रही थी...
लघु कथा अच्छा लगा!!

निर्मला कपिला said...

rराजेश जी शायद आप लघु कथा के मूल तत्व को नही समझ रहे यहाँ चर्चा दहेज प्रथा को ले कर नही हो रही चर्चा हो रही है उन लोगो के दोहरे व्यक्तित्व को ले कर जोघते कुछ और हैं और करते कुछ और दोहरी मानसिकता को ले कर लघु कथा लिखी जा रही है। आप मूल विषय पर टिप्पणी करें और बिहारी बाबू की बात भी पढें। दहेज की बात किसी और जगह करूँगी तब आप जो मर्जी कहियेगा। धन्यवाद सभी का।

रश्मि प्रभा... said...

kya maan rakha sharma ji ka.... dohre vyaktitv ko khoob ubhaara hai

रचना दीक्षित said...

दो चेहरे दिखाती अच्छी लघु कथा. वाह कितनी सीधी बात ??????चेहरे पर शिकन आये बिना ही कैसे कह जाते हैं लोग

संजय @ मो सम कौन... said...

कुछ समय पहले एक टी.वी.चैनल पर एक कार्यक्रम देखा था, दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राओं से दहेक विषय पर इंटरव्यू लिये गये थे। हैरानी की बात है कि लगभग सभी लड़कियों ने धड़ल्ले से अपने मां बाप से विवाहोपरांत उपहार लेने की बात कही और कईयों ने तो उल्टे यह सवाल किया कि क्यों न लें, उनका हक है ये।
यह भी एक चेहरा है हमारे बदलते समाज का।

अजय कुमार said...

आइना वही रहता है
चेहरे बदल जाते हैं

दिगम्बर नासवा said...

दोहरे व्यक्तित्व के लोग भरे पड़े हैं हमारे समाज में .... ऊपर से कुछ अंदर से कुछ .... अच्छा लिखा है ....

Unknown said...

दो रंग दुनिया के और दो रास्ते...........

ये गाना याद आ गया आज आपकी पोस्ट बाँच कर........

बहुत उम्दा लघु कथा..बधाई !

अनामिका की सदायें ...... said...

हैरान हूँ की अब तक मैंने कमेन्ट नहीं लिखा...जबकि कहानी तो मैं सोमवार ही पढ़ चुकी थी...और ये कहानी इतनी याद रही की की दोस्तों के साथ गप-शाप में इसका जिक्र भी किया.

हमेशा की तरह आपकी ये छोटी सी लघु कथा भी मुझे याद रहेगी.

शुक्रिया.

अनामिका की सदायें ...... said...

ऊपर लिखा कमेन्ट आपकी पहली लघु कथा के लिए माना जाये.

ये कहानी भी अच्छी लगी.
एक बार फिर से शुक्रिया.

pran sharma said...

Nirmlaa jee , aapkee laghu katha
sanket mein sab kuchh kah jaatee
hai.Isee ko " gaagar mein saagar
bharna kahte hain. Badhaaee aur
shubh kamnaa.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

लघुकथा बहुत ही रोचक ओर सार्थक रही!

rashmi ravija said...

ओह्ह,अक्सर ऐसे ही दो चेहरे होते हैं,लोगों के...दिखाने को कुछ और...सच में कुछ और

Khushdeep Sehgal said...

निर्मला जी,
लघुकथा समाज का एक चेहरा दिखाती है...यहां तो लड़की का बाप समर्थ नहीं लगता...लेकिन अगर बाप समर्थ है और वो बिना किसी दबाव के लड़की के नाम कुछ राशि बैंक में जमा करा सकता है तो बुराई भी नहीं है...आज मैंने किसी और विषय पर पोस्ट लिखनी थी, लेकिन इस लघुकथा को पढ़ने के बाद इसी पर पोस्ट लिखने जा रहा हूं...

जय हिंद...

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

सही बात है आजकल भीख कटोरों में नहीं अकाउंटों में भी मांगी जा सकती है. भिखारियों की तो इस नए आइडिये से बल्ले बल्ले हो गई जी

देवेन्द्र पाण्डेय said...

समाज सुधारक दहेज लेने का आदर्श तरीका ढूंढ ही लेते हैं। समाज उनके झांसे में आ ही जाता है। यही वो बात है जिसके कारण हम इस बुराई को नहीं मिटा पा रहे हैं।
..प्रेरक व आदर्शवादिता के खोखले चेहरों को बेनकाब करती उम्दा लघुकथा।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

निर्मला जी, जमाना बेशक कितना भी बदल जाए...लेकिन सोच बदलने में सदियाँ बीत जाती है..
बहरहाल आपकी लघुकथा बेहद पसन्द आई.....
आभार्!

shikha varshney said...

सही बात है उन्हें तो कुछ नहीं चहिये अब बच्चे तो आपके ही हैं :)

वाणी गीत said...

मांगने के अलग- अलग तरीके ...!

सदा said...

बहुत ही सटीक बात कही आपने ।

राजेश उत्‍साही said...

क्षमा करें निर्मला जी। मैं ही शायद गलत हूं। आपका लिखने का अपना तरीका है और उसका पाठक वर्ग भी तय है। आप जो लिखती हैं वे समझ भी लेते हैं। मैं उसकी रचना प्रक्रिया में उतरने की कोशिश करने लगता हूं। इसीलिए भटक जाता हूं। माफ करें बिहारी बाबू भी मेरी ही बात का समर्थन कर रहे हैं।
चलिए आप लिखती रहिए। मैं अब यहां नहीं आऊंगा। आपके पाठक बहुत हैं,एक मेरे नहीं होने से कुछ बनता बिगड़ता नहीं है। शुभकामनाएं।

रंजना said...

बिहारी बलागर साहब ने जो बात कही...मैं भी वही कहना चाहूंगी...
देखा जाय तो वर के पिता की शराफत ही है यह....नहीं तो एक से बढ़कर एक सम्मानित समाजसेवी देखें हैं,जो कि लाखों में रकम कैश में मांगते हैं,ताकि वे किसी चक्कर में न पड़ जाएँ..

Pratik Maheshwari said...

शब्दों से खेल कर भावों को व्यक्त करने का इससे बेहतर उदाहरण कहाँ मिलेगा?
दहेज की रीति चली आ रही है और तब तक चलती रहेगी जब तक इंसान साक्षरता के लिए तत्पर नहीं होगा..

निर्मला कपिला said...

राजेश जी अपने बीच संवाद को व्यक्तिगत तौर पर न लें जैसे आपने अपने विचार रखे मैने उनका जवाब दिया है। लेकिन आपको भी इन्हें उसी तरह लेना चाहिये जैसे मैने आपके सुझाव के लिये धन्यवाद कहा। मै तो एक लघु कथा लिख रही हूँ न कि दहेज पर चर्चा इस लिये आपको बताना जरूरी था। हाँ कल दहेज पर चर्चा के लिये पोस्ट लिख रही हूँ मेरा आग्रह है कि उस पर जरूर अपनी बात कहें। पाठक तय है से आपका मतलव नही समझी? मेरे ब्लाग पर सभी लोग आते हैं इसमे तय करने जैसा क्या है? अगर तय करने से लोग आते हों तो सभी को तय कर लेने चाहिये। जितने सक्रिय ब्लागरज़ हैं उन्हें मे से ही तो आयेंगे लोग आपके ब्लाग पर कौन लोग आते हैं इन्हीं मे से ना? तो क्या आपने उनसे तय कर रखा है? मै भी आपके ब्लाग पर आरी हूँ आपने क्या मुझ से भी तय कर रखा है? ऐसी बातें हमे शोभा नही देती। मै अपने ब्लाग पर आने वालों को क्यों रोकू?
आप बिना वजह नाराज़ मत होईये। अगर आपको कुछ बुरा लगा तो बतायें कि क्या बुरा लगा? मुझे तो आपकी प्रतिक्रिया का बुरा नही लगा केवल अपना पक्ष रखा है आपकी प्रतिक्रिया पर। आप समझदार हैं आगे आपकी मर्जी। लेकिन फिर भी आपकी टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा। धन्यवाद। धन्यवाद।

vandana gupta said...

दोहरा चरित्र आज हर इंसान जी रहा होता है और उस ओर आपने बिल्कुल सही कटाक्ष किया है।

Aruna Kapoor said...

वाह क्या बात है!....दहेज तो मांग ही नहीं रहे जोशी जी!....बहुत सुंदर लघुकथा!...बधाई!

Jyoti Verma said...

nirmala ji apki prastuti ko padhkar achchha laga...ladek ke maa baap aise dekhate hai ki jaise wo ladki walon par upkaar kar rhe hai. jab tak ladki shadi karke ghar nhi aati tab yak to bade pyar se bolte hai par jaise hi ladki ko ghar le aate hai bas atyachaar shuru kar dete hai. pata nhi kab logo ko samjh aayegi......

संजीव गौतम said...

जय हो जोषी जी। अच्छी लघु कथा।

HBMedia said...

बहुत बढ़िया प्रस्तुति .......

अच्छी लघु कथा।

ज्योति सिंह said...

main bahar gayi rahi is karan nahi aa pai ,aapki laghu katha bahut badi siksha de rahi hai aur chehre ke asli rang bhi darsha rahi hai .uttam .

Rohit Singh said...

पोस्ट की असली बात है दोहरा चरित्र। यहीं पर आकर कहानी खत्म हो जाती है। इसके आगे सोच इसलिए चली जाती है कि समाज में वो बहुतायत से होता है। यहीं पर हम गलती कर जाते हैं..लघु कथा नाम के अनुरुप छोटी मगर गंभीर समस्या की तरफ इशारा करती है। ऐसे में कुछ लोगों ने इस लघु कथा को पढ़ा तो पर उनके मन ने आगे जाकर सोचा जिससे मन में जाकर कथा लंबी हो गई और टिप्पणी उस बड़ी कथा पर हो गई, आपकी लघुकथा पर नहीं। ऐसी गलती हम भी करते हैं कई बार।

Urmi said...

बहुत सुन्दर और शानदार लघुकथा! उम्दा प्रस्तुती!

रश्मि प्रभा... said...

dahej lene ke dhang alag alag hain ....

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