23 October, 2010

पदचिन्ह
नंगे पाँव चलते हुये
जंगल की पथरीली धरती पर
उलीक दिये कुछ पद चिन्ह
जो बन गये रास्ते
पीछे आने वालों के लिये
समय के साथ
चलते हुये जब से
सीख लिया उसने
कंक्रीट की सडकों पर चलना
तेज़ हो गयी उसकी रफ्तार
संभल कर, देख कर चलने की,
जमीं की अडचने, दुश्वारियाँ. काँटे कंकर
देखने की शायद जरूरत नही रही शायद
जमी पर पाँव टिका कर चलने का
शायद समय नहीं उसके पास
तभी तो वो अब
उलीच  नही पाता
अपने पीछे कोई पद चिन्ह
नहीं छोड पाता अपनी पीढी के लिये
अपने कदमों के निशान

50 comments:

Anonymous said...

बहुत ही ख़ूबसूरत रचना...आज हमलोगों के लिए हमारे बड़ों के पदचिह्नो की जरूरत है..

Patali-The-Village said...

बहुत ही खुबसूरत रचना.... आने वाली पीढ़ी के लिए रास्ता बनाना तो जरुरी है|.

अजय कुमार said...

ये आज का मानव है ।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बेहतरीन सन्देश देती रचना !

शिक्षामित्र said...

आधुनिकता और पारंपरिकता के द्वंद्व के बीच मूल्यक्षरण की विडंबना।

Randhir Singh Suman said...

nice

Yashwant R. B. Mathur said...

Bahut hi Gambhir bhaav liye hue ek khubsurat kavita,

दीपक 'मशाल' said...

इंसान को सचेत करती लगी कविता... सम्हलने की जरूरत है हमें...

S.M.Masoom said...

बहुत ही सुंदर रचना है निर्मला जी. बहुत कम लोग इतनी गहरी सोंच रखते हैं. आप को मैं बार बार पढना चाहूँगा

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सन्देश परक रचना..... मन को छूने वाले भाव लिए......

उस्ताद जी said...

6.5/10

सशक्त व सार्थक पोस्ट.
सीधे स्वर की ठोस रचना जो आने वाली पीढ़ी के भविष्य के प्रति आगाह करती है.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बेहद प्रभावशाली रचना...

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

एकल परिवारों के बावजूद...
अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद...
नई पीढ़ी के लिए संस्कार और संस्कृति के पद चिन्ह छोड़ पाने का समय निकालना ही होगा...
अच्छी रचना के माध्यम से बहुत बड़ा संदेश दिया है आपने.

Shah Nawaz said...

बेहद खूबसूरत!

शारदा अरोरा said...

कुछ सोचने को विवश करती ये रचना

P.N. Subramanian said...

काश कंक्रीट का आविष्कार ही न हुआ होता!

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत ही सुंदर और संदेशात्मक रचना के लिये बधाई.

रामराम.

vandana gupta said...

जमी पर पाँव टिका कर चलने का
शायद समय नहीं उसके पास
तभी तो वो अब
उलीच नही पाता
अपने पीछे कोई पद चिन्ह
नहीं छोड पाता अपनी पीढी के लिये
अपने कदमों के निशान

एक बेहद सुन्दर और गम्भीर संदेश देती सकारात्मक रचना…

कडुवासच said...

... सार्थक अभिव्यक्ति ... भावपूर्ण रचना !!!

रंजना said...

तभी तो वो अब
उलीच नहीं पाता
अपने पीछे कोई पद चिन्ह....

दी, एक शंशय है...
उपर्युक्त पंक्तियों में जो "उलीच" शब्द का प्रयोग आपने किया है, वह सही है ???
असल में उलीच का मतलब होता है "उडेलना"....
कृपया मेरे शंका का समाधान कीजियेगा...

बाकी आपके लेखन की क्या कहूँ...अद्बुद लिखती हैं आप...

प्रवीण पाण्डेय said...

पदचिन्ह छोड़ने के लिये अपने सिद्धान्तों पर टिकना आवश्यक है, इतना समय कहाँ है आज किसी के पास।

रंजना said...

'उलीच' के स्थान पर 'उकेर' का प्रयोग कैसा रहेगा ??

rashmi ravija said...

बहुत कुछ सोचने को विवश करती रचना....
आज का मनुष्य पाँव जमा कर चल ही नहीं रहा...एक अंधी दौड़ में भागे जा रहा है...कदमों के निशान बनेंगे कहाँ...जो वो आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाए कुछ .

Asha Lata Saxena said...

बहुत सुंदर रचना |बधाई
आशा

उस्ताद जी said...

रंजना जी का कहना सही है. मैंने भी जब रचना पढ़ी थी तो यह शब्द खटका था. लेकिन भाव उकेरने का ही आया था. अक्सर रचनाकार को रचना लिखते समय उचित शब्द न सूझने पर ऐसा हो जाता है.

डॉ टी एस दराल said...

विकास की भी कीमत चुकानी पड़ती है । आज वही हो रहा है ।

राज भाटिय़ा said...

बहुत खुब सुरत कविता जी धन्यवाद

Ria Sharma said...

durust farmaya ...Nirmalaji !

निर्मला कपिला said...

रंजना जी धन्यवाद उलीचना उडेलना या बिछाना को एक ही भाव मे रख कर उलीचना लिखा है अगर आपको और उस्ताद जी कुछ संशय है तो इसे बदल देती हूँ। जरूर बतायें। मुझे उत्साहित करने और परामर्श के लिये धन्यवाद। आगे भी आपसे इसी सहयोग की आशा रहेगी।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

मेरे विचार से.. जंगल की पथरीली धरती पर.. के स्थान पर ...
जंगल की कंटीली राहों पर..होता तो अधिक अच्छा लगता।...मैं गलत भी हो सकता हूँ..
..आधुनिकता की दौड़ में, छूट रहे मुल्यों का चित्रण करती अच्छी कविता के लिए बधाई।

निर्मला कपिला said...

देवेन्द्र जी धन्यवाद। पथरीली धरती इस लिये लिखा है कि पदचाप तो धरती पर ही छोडी जा सकती है। झाडियों या काँटों पर नही। बाकी लोग क्या कहते हैं ये देखते हैं क्यों कि मै भी गलत हो सकती हूँ। धन्यवाद इसे आपने दिल से पढा।

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

निर्मला जी !!! बहुत ही सुन्दर रचना आपकी, कितने सुन्दर भाव... वाकई में आज हमारे पास ना तो फुर्सत है ..हम आज विकास की होड़ में अपने ठोस धरातल को भूल चुके है और ऊपर ऊपर उड़ रहे है .. जल्दी से आगे बढने के लिए shortcut अपनाते है और हमारी आने वाली पीडी ये भी ना जान पायेगी की उन्होंने क्या खो दिया.. ... .. वटवृक्ष में मेरी कविता " खुद से खुद की बातें " आपने पसंद कीं और टिपण्णी की - धन्यवाद

Sunil Kumar said...

सीधी साधी भाषा में गंभीर बात कहने का ढंग , अच्छा लगा बधाई

कुमार राधारमण said...

अपनी संस्कृति,पुरखों की धरोहर को विरासत की तरह संभालकर रखा जा सके,तो अच्छा है। मगर,यह चिन्ता वंशजों को ज्यादा होनी चाहिए-बनिस्पत पुरखों के। अग्रजों ने अगर अपने पुरखों की मौलिकता को बचाए रखा है,तो वह किंचित अंशों में ही सही,किंतु पीढ़ियों को हस्तांतरित होता ही है।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

गोवा में बिग फुट एक जगह है,जहाँ एक राजा के पैरों के निशान हैं... सदियों से पत्थर की चट्टान पर अंकित,उलीचे या उकेरे हुए.. स्वतः... संतोष की मिसाल वह राजा एक ऐसे निशान छोड़ गया जिसपर हाथ रकहकर कितने लोग मन्नतें माँगते हैं और जिनकी मुरादें पूरी होती हैं.
निम्मो दी! सच पत्थर दिल वाले इंसानों से पत्थर पर नक़्शेक़दम छोड़ जाने की उम्मीद फ़िज़ूल है!!

रश्मि प्रभा... said...

is adbhut rachna ke liye main aapka jaighosh kerti hun.....

Udan Tashtari said...

बहुत प्रभावशाली रचना.

Arvind Mishra said...

सामयिक बोध की बेहतरीन कविता -आज का यक्ष प्रश्न यही है हम पदचिह्न के अभाव में करें भी तो किसका अनुसरण करें ?

प्रतिभा सक्सेना said...

प्रभावशाली कथ्य और कुशल अभिव्यक्ति का सुन्दर संयोजन ,बधाई स्वीकारें निर्मला जी .

Khushdeep Sehgal said...

वो जो दावा करते थे खुद के अंगद होने का,
हमने एक घूंट में ही उन्हें लड़खड़ाते देखा है...

जय हिंद...

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...

इस रचना में सोच का नयपन, एक ताज़ग़ी झलक रही है! एक अलग सोच अलग क़िस्म के कवि/कवयित्री को जन्म देती है।

सुधीर राघव said...

बहुत ही सुंदर कविता है। आभार।

Manish Kumar said...

तभी तो वो अब
उलीच नही पाता
अपने पीछे कोई पद चिन्ह
नहीं छोड पाता अपनी पीढी के लिये
अपने कदमों के निशान..

सही कहा आपने आज के युग में रोल मॉडलों की कमी है जिसको देख कर लोग प्रेरित हो सकें। कष्ट सह कर, विपरीत परिस्थितियों में जो आगे बढ़ता है वही असली मिसाल दे सकता है..

हरकीरत ' हीर' said...

समय के साथ
चलते हुये जब से
सीख लिया उसने
कंक्रीट की सडकों पर चलना
तेज़ हो गयी उसकी रफ्तार
संभल कर, देख कर चलने की,

निर्मला जी रचना तो सशक्त है ही ...पर आपने जो शब्दों से ये गुलदान बनाया है उसके लिए भी बधाई .....
आप गद्य भी लिखती हैं पद्य भी लिखती हैं और इतने ब्लोगों पे टिपण्णी भी ...
सच्च में कितनी उर्जा है आप में .....
दुआ है आपके लिए रब्ब आपको और हुनर दे ....!!

shikha varshney said...

बहुत खूबसूरत और प्रेरक रचना.

संजय भास्‍कर said...

कितने सुन्दर भाव... वाकई में आज हमारे पास ना तो फुर्सत है
एक बेहद सुन्दर और गम्भीर संदेश देती सकारात्मक रचना…

Shikha Kaushik said...

bahut yatharthvadi rachna.

निर्मला कपिला said...

शिखा जी आपके ब्लाग पर कमेन्ट पोस्ट नही हो रहा। देखें।

दिगम्बर नासवा said...

शशक्त और प्रभावी रचना है .... आज की पीडी अपना कर्तव्य भूल रही है ... उनको भी आने वाली पीडी को रास्ता दिखाना है ... रुक कर इस बात को सोचना बहुत ज़रूरी है ....

संगीता पुरी said...

बहुत ही खूबसूत रचना !!

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