04 July, 2009

पृथ्वि आहत है --भाग-- 3

संवेदनाओं की ज़ुबाँ नहीं होती
कोई कोई आकार
या रूप नहीं होता
मगर उमड पडती हैं
करा देती हैं एहसास
अपने अस्तित्व का
और ढल जाती हैं
परिस्थिती के अनुसार
वो जात पात रंग भेद नहीं करती
आती हैं सब मे बराबर
दुख मे ेआँसू बन कर
बहा ले जाती हैं पीडा
सुख मे समा जाती हैं पाँव मे
थिरकन बन कर
और दे जाती हैं हो्ठ पर्
सुन्दर मुस्कान
वात्सल्य मे माँ
गरीब के लिये करुणा
मगर इन्सान
अपने सुख के लिये
मार देता है इन्हें भी
और बन जाता है
मानव से दानव
नहीं सहेज पाता
इन संपदाओं को
क्या प्रकृति आहत नहीं होगी
अपनी इन संपदाओं के तिरस्कार से
निश्चित ही होगी

29 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

"बन जाता है
मानव से दानव
नहीं सहेज पाता
इन संपदाओं को
क्या प्रकृति आहत नहीं होगी
अपनी इन संपदाओं के तिरस्कार से
निश्चित ही होगी"

आपकी रचना में सम्वेदना का
सागर उमड़ पड़ा है।
सुन्दर अभिव्यक्ति।

विवेक सिंह said...

भावों के आपने शब्दों में सुन्दर तरीके से पिरोया है !

'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: said...

दर्द का कोई प्रकार नहीं होता ,
हवाओं का कोई आकार नहीं होता ,
भावों में कोई रार नहीं होता ,
सवेदानाओं में'वर्ण-विचार'नहीं होता||

बहुत भाव-पूर्ण क्रम प्रस्तुत कर रही हैं::

दुख मे आँसू बन कर
बहा ले जाती हैं पीडा
सुख मे समा जाती हैं पाँव मे
थिरकन बन कर
और दे जाती हैं हो्ठ पर्
सुन्दर मुस्कान
वात्सल्य मे माँ
गरीब के लिये करुणा


बधाई है

Dr. Ravi Srivastava said...

नमस्कार!
आज मुझे आप का ब्लॉग देखने का सुअवसर मिला।
वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आप की रचनाएँ, स्टाइल अन्य सबसे थोड़ा हट के है....आप का ब्लॉग पढ़कर ऐसा मुझे लगा. आशा है आपकी और अच्छी -अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगे. बधाई स्वीकारें।

आप के अमूल्य सुझावों और टिप्पणियों का 'मेरी पत्रिका' में स्वागत है...

Link : www.meripatrika.co.cc

…Ravi Srivastava

सदा said...

संवेदनाओं की ज़ुबाँ नहीं होती
कोई कोई आकार
या रूप नहीं होता
मगर उमड पडती हैं
करा देती हैं एहसास
अपने अस्तित्व का

बहुत ही सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति, बहुत-बहुत बधाई ।

Razi Shahab said...

aap ko padhna bahut achcha lagta hai

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

संवेदनाओं को स्वर दे दिया आपने!

vijay kumar sappatti said...

aadarniy nirmala ji

namaskar ..

दुख मे आँसू बन कर
बहा ले जाती हैं पीडा
सुख मे समा जाती हैं पाँव मे
थिरकन बन कर
और दे जाती हैं हो्ठ पर्
सुन्दर मुस्कान
वात्सल्य मे माँ
गरीब के लिये करुणा..

aapke shabdo ka chunaav ..dil ko bhigo deta hai ji ....

bahut hi accha aur saarthak lekhan .....

meri dil se badhai sweekar karen..

vijay

अनिल कान्त said...

आपकी रचना हमेश जिंदगी और प्रकृति से जुडी होती है

Anonymous said...

wah ji
bahoot khoob
it is heart touching
beutiful
brilliant
mind blowing
sunder
vchaarneey
i have many expression

hem pandey said...

'इंसान
बन जाता है
मानव से दानव
नहीं सहेज पाता
इन संपदाओं को'

- इसी लिए प्रकृति आहत होती है. लेकिन इंसान को चिंता नहीं.यही दानवत्व इंसान को महंगा पड़ेगा.

राज भाटिय़ा said...

आप ने सभी भावो की एक माला पिरो दी इस कवित के रुप मे , बहुत सुंदर.
धन्यवाद

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

दुख मे ेआँसू बन कर
बहा ले जाती हैं पीडा
सुख मे समा जाती हैं पाँव मे
थिरकन बन कर
और दे जाती हैं हो्ठ पर्
सुन्दर मुस्कान
वात्सल्य मे माँ
bhavo ki itni sundar abhivyakti yek yek shabd me sambedna ko udel kar bhar diya hai aap ne samvednaao ke aastitv ko lekar jis tarah ki uthal puthal har vyakti ke deel me hoti hai par aap ne unki sahi stithi ka nirdharan jis tarh se kiya hai atulniy hai
mera prnaam swikaar kare
saadar
praveenpathik
9971969084

शोभना चौरे said...

करा देती हैं एहसास
अपने अस्तित्व का
और ढल जाती हैं
परिस्थिती के अनुसार
bhut khoob lkha hai
sara arth aagya hai inme

शोभना चौरे said...

करा देती हैं एहसास
अपने अस्तित्व का
और ढल जाती हैं
परिस्थिती के अनुसार
bhut khoob lkha hai
sara arth aagya hai inme

Vinay said...

bahut khoob kahii

P.N. Subramanian said...

भावनाओं की बेहतरीन अभिव्यक्ति. शब्दों को ढूँढ ढूँढ के पिरोया सा.

Smart Indian said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!

Ashutosh said...

बहुत ही सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति

ओम आर्य said...

इन संपदाओं को
क्या प्रकृति आहत नहीं होगी
अपनी इन संपदाओं के तिरस्कार से
निश्चित ही होगी

bahut hi sahi kaha aapane ..............iski kimmat to insan ko chukana hi padega........behatrin

cartoonist anurag said...

aaderneey nirmala ji
sader pranam....
bahut hi shandar kavita hai....

विनोद कुमार पांडेय said...

उम्दा रचना,
बहुत बदल गया हैं, मानव आज के इस युग मे,

अनिल कान्त said...

आपके लिए मेरे ब्लॉग मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति की नयी पोस्ट पर एक अवार्ड है. कृपया आप अपना अवार्ड लें और उसके बारे में जाने.

दर्पण साह said...

ख मे आँसू बन कर
बहा ले जाती हैं पीडा
सुख मे समा जाती हैं पाँव मे
थिरकन बन कर
और दे जाती हैं हो्ठ पर्
सुन्दर मुस्कान
वात्सल्य मे माँ
गरीब के लिये करुणा


ye jo rishta hai iske baare main jitan bhi padhoon utna apni maa pe aur dharti maan pe garv hota hai !!

lekin dharti maa ke upar daya bhi kam nahi aati !!



acchi rachna share karne ke liye dhanyavaad !!

Anonymous said...

'.... आहत है'--१-२-३ पढीं. आप पहले की ही तरह दमदार रचनाएँ पेश कर रही हैं. ब्लॉग से पहले भी आपका जादू छाया था, ब्लॉग पर भी छाया हुआ है....और हाँ, साहित्य हिन्दुस्तानी में प्रकाशित गीत पर अपनी कीमती राय देने का शुक्रिया.

दिगम्बर नासवा said...

सच much praakriti aahat है आज............. bhagvaan भी aahat है आज............ prakriti और bhagwaan में क्या fark .............. एक diije के poorak ही तो हैं............ maanav prakriti का bhakshan कर रहा है........... leel रहा है उसके somy sondary को............. १-२-३ सब रचनाएँ लाजवाब हैं ...........

योगेन्द्र मौदगिल said...

अच्छी रचना..... साधुवाद..

संजीव गौतम said...

आज से आपके परिवार में मैं भी हूं. आपकी ये रचना भी अच्छी है और ललित जी वाली पोस्ट भी. मेरे भी दो बेटियां हैं ईश्वर करें कि मुझे भी ललित जी जैसे दामाद मिलें. उम्मीद है आगे बातचीत होती रहेगी. ग़ज़ल पर टिप्पणी के लिये शुक्रिया..

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