03 July, 2009

प्रकृति आहत है भाग -2
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हवा के पँख नहीं होते
फिर भी उडती है जाती है
ब्राह्म्ण्ड के हर छोर तक
क्यों कि उसे देना है जीवन
देनी हैँ सब को साँसें
मगर इन्सान
हाथ पाँव होते हुये भी
किसी की साँसें
छीन लेना चाहता है
काट लेना चाहता है
उडने वालों के पर
और कभी क्भी
बैठा रहता है कर्महीन
बन कर पृथ्वी पर बोझ
निश्चित ही
प्रकृति आहत होगी
अपनी रचना के
इस व्यवहार से
क्या जीव निर्जीव से भी
गया गुज़रा हो गया है

12 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सटीक जिज्ञासा है. शुभकामनाएं.

रामराम.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बहुत बढिया! क्या बात कही!

ओम आर्य said...

कभी कभी ऐसा लगता है कि जीव निर्जीव से बत्तर हो गया है पर क्या करे ....यह समस्या है बन गई है आज की तारिख मे .................व्यक्तिगत स्तर से ही सुधार लाया जा सकता है ..................

रंजू भाटिया said...

सही और सुन्दर बात कही आपने इस रचना के माध्यम से

sandhyagupta said...

Sochne ko vivash kar diya aapne.

P.N. Subramanian said...

बहुत ही सुन्दर रचना. किसी ने ठीक कहा. मंथन हो जाता है. आभार.

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

सादर प्रणाम , आंतरिक विश्लेषण करने के लिए विवश करती एक अद्भुद रचना हम कहाँ से कहाँ जा रहे है
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084

अनिल कान्त said...

sahi likha hai aapne

राज भाटिय़ा said...

अति सुंदर बात कही आप ने इस कविता के जरिये.
धन्यवाद

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अच्छा प्रश्न उठाया है आपने।
बहुत सुन्दर रचना है,
बधाई।

पूनम श्रीवास्तव said...

निश्चित ही
प्रकृति आहत होगी
अपनी रचना के
इस व्यवहार से
क्या जीव निर्जीव से भी
गया गुज़रा हो गया है

आदरणीय निर्मला जी ,
अपने बिलकुल सच लिखा है ...आज हम प्रकृति के ऊपर जो अत्याचार कर रहे हैं ..उसे तो रोकना ही होगा ...
पूनम

विनोद कुमार पांडेय said...

आपकी रचनाएँ भाव से परिपूर्ण होती हैं,
पूरे डूब जाते हैं,बधाई

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