प्रकृति आहत है भाग -2
हवा के पँख नहीं होते
फिर भी उडती है जाती है
ब्राह्म्ण्ड के हर छोर तक
क्यों कि उसे देना है जीवन
देनी हैँ सब को साँसें
मगर इन्सान
हाथ पाँव होते हुये भी
किसी की साँसें
छीन लेना चाहता है
काट लेना चाहता है
उडने वालों के पर
और कभी क्भी
बैठा रहता है कर्महीन
बन कर पृथ्वी पर बोझ
निश्चित ही
प्रकृति आहत होगी
अपनी रचना के
इस व्यवहार से
क्या जीव निर्जीव से भी
गया गुज़रा हो गया है
हवा के पँख नहीं होते
फिर भी उडती है जाती है
ब्राह्म्ण्ड के हर छोर तक
क्यों कि उसे देना है जीवन
देनी हैँ सब को साँसें
मगर इन्सान
हाथ पाँव होते हुये भी
किसी की साँसें
छीन लेना चाहता है
काट लेना चाहता है
उडने वालों के पर
और कभी क्भी
बैठा रहता है कर्महीन
बन कर पृथ्वी पर बोझ
निश्चित ही
प्रकृति आहत होगी
अपनी रचना के
इस व्यवहार से
क्या जीव निर्जीव से भी
गया गुज़रा हो गया है
12 comments:
बहुत सटीक जिज्ञासा है. शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत बढिया! क्या बात कही!
कभी कभी ऐसा लगता है कि जीव निर्जीव से बत्तर हो गया है पर क्या करे ....यह समस्या है बन गई है आज की तारिख मे .................व्यक्तिगत स्तर से ही सुधार लाया जा सकता है ..................
सही और सुन्दर बात कही आपने इस रचना के माध्यम से
Sochne ko vivash kar diya aapne.
बहुत ही सुन्दर रचना. किसी ने ठीक कहा. मंथन हो जाता है. आभार.
सादर प्रणाम , आंतरिक विश्लेषण करने के लिए विवश करती एक अद्भुद रचना हम कहाँ से कहाँ जा रहे है
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
sahi likha hai aapne
अति सुंदर बात कही आप ने इस कविता के जरिये.
धन्यवाद
अच्छा प्रश्न उठाया है आपने।
बहुत सुन्दर रचना है,
बधाई।
निश्चित ही
प्रकृति आहत होगी
अपनी रचना के
इस व्यवहार से
क्या जीव निर्जीव से भी
गया गुज़रा हो गया है
आदरणीय निर्मला जी ,
अपने बिलकुल सच लिखा है ...आज हम प्रकृति के ऊपर जो अत्याचार कर रहे हैं ..उसे तो रोकना ही होगा ...
पूनम
आपकी रचनाएँ भाव से परिपूर्ण होती हैं,
पूरे डूब जाते हैं,बधाई
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