28 September, 2010

गज़ल

इस गज़ल को आदरणीय प्राण भाई साहिब ने संवारा है। उनका बहुत बहुत धन्यवाद।
गज़ल
कसक ,ग़म ,दर्द बिन ये ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
मुझे अब आँसुओं  से  दुश्मनी  अच्छी  नहीं लगती

किनारा  कर गये हैं हम नवाला लोग मुश्किल में
मुझे  ऐसी  खुदाया दोस्ती  अच्छी  नहीं लगती

भला लगता है मुझको रोज ही रब  की इबादत पर
फरेबों से भरी  सी बंदगी अच्छी   नहीं   लगती

खुशी में भी उसे हंसना कभी अच्छा नहीं लगता
मुझे उसकी यही संजीदगी अच्छी नहीं  लगती

रुला  कर फिर मनाने की बुरी आदत उसे क्यों है
मुहब्बत में मुझे ये दिल्लगी अच्छी  नहीं  लगती

न काटो डाल जिस पर बैठ कर खुशियाँ  मनाते हो
तुम्हारे हाथों अपनी खुदकशी अच्छी  नहीं  लगती 

किसी से बात दिल की बांटना उसको  नहीं भाता
मेरे यारो  मुझे उसकी  खुदी  अच्छी नहीं  लगती

किसी रोगी को दूं खुशियाँ मुझे अच्छा ये लगता है
चुराऊँ उसके जीवन की खुशी अच्छी  नहीं  लगती

पड़ोसी को  पड़ोसी  की खबर ही अब नहीं  रहती
मुझे"  निर्मल " ये उसकी बेरुखी अच्छी नहीं लगती

73 comments:

Manish aka Manu Majaal said...

वैसे तो मियाँ 'मजाल' है खोज-ए-ऐब में माहिर,
पर किस मुहँ से कहें, की ये ग़ज़ल अच्छी नहीं लगती !
कमाल की ग़ज़ल, लिखते रहिये ..

संजय भास्‍कर said...

आप ने बहुत कमाल की गज़ले कही हैं

संजय भास्‍कर said...

आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

Wah wah….khoobsoorat prastuti…!

संगीता पुरी said...

बहुत ही खूबसूरत प्रस्‍तुति !!

अजित गुप्ता का कोना said...

बहुत ही जीवन्‍त गजल है, निर्मला जी बधाई।

Akanksha Yadav said...

बड़ी उम्दा ग़ज़ल है...जीवन के सच को भी पिरो दिया है...बधाई.

Apanatva said...

bahut sunder gahre bhavo kee abhivykti......bahut sunder lagee...
Aabhar

Bharat Bhushan said...

सुंदर ग़ज़ल.

kshama said...

Nihayat khoobsoorat ashar se saji behtareen gazal! Maza aa gaya! Baar,baar padhne ka man ho raha hai!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरत गज़ल ...
खुशी में हंसना भी तो उसे अच्छा नहीं लगता
मुझे उसकी यही संज़ीदगी अच्छी नहीं लगती ....कमाल का शेर है ..

वीना श्रीवास्तव said...

रुलाकर फिर मनाने की बुरी आदत उसे क्यों है
मुहब्बत में मुझे ये दिल्लगी अच्छी नहीं लगती
बहुत सुंदर...

P.N. Subramanian said...

बड़ी खूबसूरत ग़ज़ल. इसे कोई आवाज़ भी दे.

Nityanand Gayen said...

sundar

रचना दीक्षित said...

बहुत ही खूबसूरत गज़ल है बधाई

रश्मि प्रभा... said...

gazal me bhi awwal...badhaai

vandana gupta said...

सभी ख्याल बेहद खूबसूरत्……………शानदार गज़ल्।

shikha varshney said...

सभी शेर बढ़िया हैं.अच्छी गज़ल.

दिगम्बर नासवा said...

कमाल के शेर हैं .. आदरणीय प्राण जी ने तो ग़ज़ल में जान डाल दी है ...

रुला कर फिर ... और न काटो डाल ...... इन दोनो शेरों का कोई जवाब नही है ....

रंजना said...

वाह.....
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल है...हर शेर मन को छूते हैं...

HBMedia said...

kamal ki gajal hai...wah!

सदा said...

लाकर फिर मनाने की बुरी आदत उसे क्यों है
मुहब्बत में मुझे ये दिल्लगी अच्छी नहीं लगती ।


बहुत ही सुन्‍दर पंक्तिया, बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

Urmi said...

बहुत ख़ूबसूरत और शानदार ग़ज़ल प्रस्तुत किया है आपने! बेहद पसंद आया!

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बहुत खूबसूरत गज़ल
लाकर फिर मनाने की बुरी आदत उसे क्यों है
मुहब्बत में मुझे ये दिल्लगी अच्छी नहीं लगती ।

Aruna Kapoor said...

....बहुत सुंदर गजल है....सुंदर प्रस्तुति के लिये धन्यवाद!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

भले ही गजल को प्राण भाई साहब ने सँवारा हो मगर भाव बहुत अच्छे हैं इसमें!

ZEAL said...

.

लाकर फिर मनाने की बुरी आदत उसे क्यों है
मुहब्बत में मुझे ये दिल्लगी अच्छी नहीं लगती ।

बहुत ही खूबसूरत प्रस्‍तुति के लिये धन्यवाद!

.

डॉ टी एस दराल said...

बहुत सुन्दर ग़ज़ल है निर्मला जी । सारे अश आर बेहतरीन हैं । बहुत आनंद आया पढ़कर । आभार ।

rashmi ravija said...

किसी से दिल को बांटना उसे नहीं भाता...क्या बात कही है...
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल.

निर्मला कपिला said...

yयहाँ सभी ने 'लाकर' फिर मनाने--- पढा है जब्कि इसे 'रुला कर' फिर मनाने की--- पढें। धन्यवाद।

शोभना चौरे said...

hrek sher umda hai .

ताऊ रामपुरिया said...

लाकर फिर मनाने की बुरी आदत उसे क्यों है
मुहब्बत में मुझे ये दिल्लगी अच्छी नहीं लगती ।

बहुत ही सुंदर रचना.

रामराम

प्रवीण पाण्डेय said...

बड़े सुन्दर ढंग से सँवारी गज़ल।

शरद कोकास said...

अच्छी लगी प्राण साहब की यह गज़ल

महेन्‍द्र वर्मा said...

वाह..वाह...ग़ज़ल बेहतरीन है ... सभी शे‘र जीवन की सच्चाइयों को बयां कर रहे हैं।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

"भला लगता है मुझको रोज ही रब की इबादत पर
फरेबों से भरी सी बन्दगी अच्छी नहीं लगती !!"

वाह! सच कहूँ तो ये गजल हमें तो बेहद पसन्द आई....लाजवाब!

"अर्श" said...

वाह दिल खुश कर दिया ... अभी तक की आपकी सबसे कामयाब ग़ज़ल ! मज़ा आगया सच पूछो तो , मतला लाजवाब है , दुसरे शे'र में नवाला का मतलब ? वेसे तो आदरणीय प्राण साब के हांथो लौट के आयी ग़ज़ल कामयाब होती है और ये उसी में शुमार है! चौथे का मिसरा सानी कमाल का बना है ! और पांचवा मेरा सबसे पसंदीदा शे'र .... मेरी सारी गज़लें कुर्बान इस पर ... मक्ता भी खास तौर से पसंद आया !

आपका
अर्श

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा गज़ल बन पड़ी है, वाह!!


लाकर फिर मनाने की बुरी आदत उसे क्यों है
मुहब्बत में मुझे ये दिल्लगी अच्छी नहीं लगती ।


क्या कहने!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

बहुत ही सुंदर ग़ज़ल........

अंजना said...

वाह बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है|

देवेन्द्र पाण्डेय said...

वाह!
इस गज़ल के प्रत्येक शेर बेहद उम्दा हैं। इतनी लम्बी गज़ल में इतना कसाव कम ही देखने को मिलता है।

राज भाटिय़ा said...

बहुत खुब सुरत गजल जी, धन्यवाद

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

एतना देर से हम आए कि हमरे लिए कुछ बचा ही नहीं कहने को!!लाजवाब ग़ज़ल!!

हरकीरत ' हीर' said...

निर्मला जी बेहतरीन ग़ज़ल ......
आप तो राऊंडर हो गयीं ......

ये दो शेर बहुत अच्छे लगे .......

@ न काटो डाल .......

@ किसी रोगी को दूँ खुशियाँ .....

अजय कुमार said...

बहुत उम्दा और बेहतरीन गजल ।

राजभाषा हिंदी said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
काव्य प्रयोजन (भाग-१०), मार्क्सवादी चिंतन, मनोज कुमार की प्रस्तुति, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें

दिनेशराय द्विवेदी said...

एक दम उत्तम ग़ज़ल है। बात तो हमेशा आप की बहुत जानदार होती है। यहाँ रूप भी निखर आया है।

स्वप्न मञ्जूषा said...

बहुत उम्दा गज़ल बन पड़ी है, वाह!!

नीरज गोस्वामी said...

वाह निर्मला जी वाह...क्या कमाल की गज़ल कही है आपने...एक एक शेर अपनी कहानी कह रहा है...आपकी सोच और लफ़्ज़ों का चुनाव बेहतरीन है...गुरुदेव प्राण साहब अपने पारस स्पर्श से हर वस्तु को सोना बनाने में सिद्ध हस्त हैं और जब गज़ल खुद ही सोना हो और गुरदेव का हाथ लगा हो तो समझिए सोने पर सुहागा है...
किसी एक शेर को अलग से कोट करने का मन नहीं कर रहा क्यूँ के ये फिर दूसरे शेरों के साथ बेइंसाफी होगी...
लिखती रहिये...

नीरज

Shah Nawaz said...

बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है.... एक-एक शेर एक से बढ़कर एक है.... बहुत खूब!



ज़रा यहाँ भी नज़र घुमाएं!
राष्ट्रमंडल खेल

प्रकाश गोविंद said...

बेहतरीन ग़ज़ल
सभी शेर एक से बढ़कर एक उम्दा हैं
पहला शेर ही दिल को भा गया :
कसक,ग़म,दर्द बिन ये ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
मुझे अब आँसुओं से दुश्मनी अच्छी नहीं लगती

इस शेर की तो बात ही क्या :
भला लगता है मुझको रोज ही रब की इबादत पर
फरेबों से भरी सी बंदगी अच्छी नहीं लगती

इस शेर की नाजुकी भी कमाल की है :
किसी से बात दिल की बांटना उसको नहीं भाता
मेरे यारो मुझे उसकी खुदी अच्छी नहीं लगती

कुल मिलाकर लाजवाब ग़ज़ल बन पड़ी है
आपको बहुत-बहुत बधाई

और हाँ जी
मुझे तो "लाकर" भी चलेगा और "रुलाकर" भी चलेगा :)
जब इस शेर में 'लाकर' शब्द का प्रयोग करते हैं तो भाव उभरते हैं कि कोई रूठकर चला गया है और वापस बुलाकर मान-मनव्वल किया जा रहा है !

रवीन्द्र प्रभात said...

निहायत ही उम्दा ग़ज़ल होती है आपकी, मैं तो हमेशा से ही आपकी ग़ज़लों का प्रशंसक रहा हूँ !
इस ग़ज़ल के सारे शेर वेहतरीन है, बहुत दिनों के बाद पढ़ी एक बढ़िया ग़ज़ल ....शुभकामनाएं !

Girish Kumar Billore said...

प्रणाम
अदभुत ही कहूंगा

Sadhana Vaid said...

बहुत ही कमाल की गज़ल है निर्मला दी ! हर शेर एक से बढ़ कर एक है ! इतनी खूबसूरत भावाभिव्यक्ति के लिये आपको बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं !

Yashwant R. B. Mathur said...

बेहतरीन और ताजगी भरी ग़ज़ल.

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

निर्मला जी, बहुत ही उम्दा कलाम पढ़ने को मिला है...

न काटो डाल जिस पर बैठकर खुशियां मनाते हो
तुम्हारे हाथों अपनी खुदकुशी अच्छी नहीं लगती...
दर्स भरा शेर है...
किसी से बात दिल की बांटना उसको नहीं भाता
मेरे यारो मुझे उसकी खुदी अच्छी नहीं लगती...
सही है....
अपनों के बीच इतना अंतर्मुखी होना भी मुनासिब नहीं...
बहुत अच्छी ग़ज़ल है.

Anonymous said...

bahut hi khubsurat gazal.....
aap mere blog par aayin mera saubhagya...
yun hi utsaah wardhan karte rahein...

Arvind Mishra said...

वाह क्या कहने !

hem pandey said...

काश सभी की सोच इस गजल की तरह हो !

तिलक राज कपूर said...

पुख्‍ता अशआर लिये परिपक्‍व ग़ज़ल है। बधाई के पात्र हैं आप और प्राण साहब दोनों। जीवन के कई पहलू छूने की उम्‍दा कोशिश है।

वीरेंद्र सिंह said...

भई वाह ..क्या बढ़िया ग़ज़ल लिखी है.
एक से बढ़कर एक शेर ....
अगर इसे न पढ़ा तो क्या पढ़ा .
इतनी अच्छी रचना के लिए आपको
आभार ..

मेरे ब्लॉग पर आपके कमेन्ट के सन्दर्भ में,
कहना चाहता हूँ की परांठे वाली गली
चांदनी चौक में है . ये परांठो के लिए बहुत प्रसिद्ध है.
(चांदनी चौक, लाल किला के सामने है)
बॉलीवुड के सुप्रसिद्ध कलाकार श्री अक्षय कुमार का घर भी
इसी गली में है .

priyankaabhilaashi said...

वाह..!!

Creative Manch said...

ताजगी से भरी बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल
सारे शेर बेहद उम्दा हैं और संजो के रखने लायक हैं
आपको बधाई और आभार



आपके आशीर्वाद की प्रतीक्षा में :
मिलिए ब्लॉग सितारों से

पूनम श्रीवास्तव said...

Adarniya Mam,
har rachna ki hi tarah apki yah gazal bhi bahut sundar likhi gayi hai.
Poonam

सुनीता शानू said...

बहुत समय से पढ़ रही हूँ गज़ब लिखते हैं प्राण जी। धन्यवाद निर्मला जी।

Dr.Ajit said...

उम्दा गज़ल..

आभार
डा.अजीत

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) said...

लाकर फिर मनाने की बुरी आदत उसे क्यों है
मुहब्बत में मुझे ये दिल्लगी अच्छी नहीं लगती ।

बहुत ही सुंदर ..........आभार

सर्वत एम० said...

लहू दे कर संवारा है इसे जब प्राण भाई ने
कहूं कैसे बहन की शायरी अच्छी नहीं लगती.

आपने कमाल कर दिया. क्या मुझ गरीब की छुट्टी करने का इरादा है. कहानियों में तो पहले से ही आप के नाम का डंका बज रहा है, अब गज़लों में भी आपके नाम की तूती बोलने वाली है.

Shaivalika Joshi said...

Bahut hi sunder bhav

ज्योति सिंह said...

न काटो डाल जिस पर बैठकर खुशियां मनाते हो
तुम्हारे हाथों अपनी खुदकुशी अच्छी नहीं लगती...waah kya khoob likha hai ,laazwaab hai har sher .

Mumukshh Ki Rachanain said...

रुलाकर फिर मनाने की बुरी आदत उसे क्यों है
मुहब्बत में मुझे ये दिल्लगी अच्छी नहीं लगती

बहुत उम्दा बात...........

प्रभावशाली ग़ज़ल,

हार्दिक बधाई.....


चन्द्र मोहन गुप्त

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

ਨਿਰਮਲਾ ਮਾ,
ਨਮਸਤੇ!
ਅਛੀ ਲਗੀ, ਕਿਸੇ ਪਹਿਰ ਕਹ ਦੂੰ.....
ਕੇ ਆਪਕੀ ਏ ਗ਼ਜ਼ਲ ਅਛੀ ਨਹੀਂ ਲਗਤੀ!
ਪੈਰੀ ਪਾਉਣਾ!
ਆਸ਼ੀਸ਼

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

CORRECTION:
ਕੈਸੇ ਫਿਰ ਕਹ ਦੂੰ...

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