गज़ल
अपना इतिहास पुराना भूल गये
लोग विरासत का खज़ाना भूल गये
रिश्तों के पतझड मे ऐसे बिखरे
लोग बसंतों का जमाना भूल गये
दौलत की अँधी दौड मे उलझे वो
मानवता को ही निभाना भूल गये
भूल गये आज़ादी की वो गरिमा
कर्ज़ शहीदों का चुकाना भूल गये
वो बन बैठे ठेकेदार जु धर्म के
वो अपना धर्म निभाना भूल गये
बीवी के आँचल मे ऐसे उलझे
माँ का ही ठौर ठिकाना भूल गये
परयावरण बचाओ, देते भाषण
पर खुद वो पेड लगाना भूल गये
भूल गये सब प्यार मुहब्बत की बात्
अब वो हसना हंसाना भूल गये
अपना इतिहास पुराना भूल गये
लोग विरासत का खज़ाना भूल गये
रिश्तों के पतझड मे ऐसे बिखरे
लोग बसंतों का जमाना भूल गये
दौलत की अँधी दौड मे उलझे वो
मानवता को ही निभाना भूल गये
भूल गये आज़ादी की वो गरिमा
कर्ज़ शहीदों का चुकाना भूल गये
वो बन बैठे ठेकेदार जु धर्म के
वो अपना धर्म निभाना भूल गये
बीवी के आँचल मे ऐसे उलझे
माँ का ही ठौर ठिकाना भूल गये
परयावरण बचाओ, देते भाषण
पर खुद वो पेड लगाना भूल गये
भूल गये सब प्यार मुहब्बत की बात्
अब वो हसना हंसाना भूल गये
37 comments:
behatareen. nirmala ji, badhaai sweekaren.
बहुत सुन्दर !
यथार्थवादी रचना के लिए शुभकामनाएँ!
पर्यावरण पर भाषण देते पेड़ लगाना भूल गये ..
बीबी के आँचल मे मा को भूल गये ...
क्या क्या भूल गये ...!!
"भूल गये सब प्यार मुहब्बत की बात
अब वो हँसना हँसाना भूल गये"
बहुत खूब!
बहुत सुन्दर !
पर खुद वो पेड़ लगाना भूल गये, बहुत ही भावमय प्रस्तुति, सत्यता के बेहद निकट,आभार ।
बेहद उम्दा गजल लगी ,। बधाई
mom ..... बहुत सुंदर लगी यह ग़ज़ल.....
भूल गये आज़ादी की वो गरिमा
कर्ज़ शहीदों का चुकाना भूल गये
बहुत अच्छी और सच्ची ग़ज़ल
sab kuchh samet liya ....bahut sundar!!
बदलते दौर का एहसास
waah !
bahut hi umdaa gazal.........
रिश्तों के पतझड मे ऐसे बिखरे
लोग बसंतों का जमाना भूल गये
kyaa baat hai !
यथार्थवादी शेरों के साथ आपकी ग़ज़ल बहुत ही लाजवाब बन पड़ी है ......... उम्दा लिखा ........
यथार्थ कां चित्रित कर दिया आपने !!
आपकी विचार भरपूर रचना बहुत अच्छी लगी।
भूल गए आजादी वो गरिमा,
कर्ज शहीदों का चुकाना भूल गए
इसकी जगह अगर आपको अच्छा लगे तो
आजादी के नशे में हुए धुत्त ऐसे
कर्ज शहीदों का चुकाना भूल गए
आज की परिस्थिति पर लिखी सटीक रचना...बधाई
बेहतरीन ग़ज़ल है,बिलकुल यथार्थपरक ...सबकी आँखें खोलती हुई
उम्दा रचना.
bahut hi sundar aur yatharthparak gazal.
वाह बहुत लाजवाब.
रामराम.
अच्छी फटकार लगाई है , निर्मला जी।
सामयिक और सार्थक।
बेहद खूबसुरत गजल लिखी है आपने
बहुत बहुत सुंदर ग़ज़ल है। याद दिलाती है उन लक्ष्यों की जिन्हें हमने खुद आजादी के आंदोलन के दौरान तय किया था। लेकिन आजादी को केवल कुछ लोगों ने अपना बना कर बाकी सब को धता बता दी।
बहुत बढ़िया रचना ...आभार
अच्छे खयाल
कुर्सी से चिपके इस तरह, कहीं आना-जाना भूल गए.
बहुत सुन्दर!
satya ke bahut kareeb,hum kitne ehsaan bhul gayi,sunder rachana.
"भूल गये आज़ादी की वो गरिमा
कर्ज़ शहीदों का चुकाना भूल गये"
वाह! लाजवाब गजल्!
जिसका हर शेर वास्तविकता को चित्रित कर रहा है....
आभार्!
इस भुलक्कड़ स्वभाव के कारण ही हम कई भूल कर रहे हैं... अफ़सोस..
पर बहुत ही सुन्दर कृति..
आभार..
bahut bahut badhiya rachna...
bahut si cheejein yaad aa jayengi ji..bahut hi achhi rachna :)
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
अति सुन्दर ! अपनी भूलों का अहसास कराने के लिये आपका जितना आभार माना जाये कम होगा । आपने अपना दायित्व बखूबी निभाया है । आपका कोटिश: धन्यवाद !
Sahi kaha...log rishton kee patjhad me basant bhool jate hain....harek pankti marmik hai!
Khoob gaye pardesh ki apne deewar-o-dar bhool gaye,
Sheesh mahal ne aisa ghera,
Mitti ke ghar blhol gaye.
पता नही कैसे एस बेहतरीन रचना तक इतना देर से पहुँच पाया..बहुत बढ़िया रचना..बधाई
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