आओ कर लो मेरा वरण
हे नवजीवन दाता
हे त्रिलोकी विधाता
शुद्ध करो मेरा
अन्त:करण
आओ कर लो मेरा वरण
मेरे अवचेतन मन पर
त्रिश्णाओं स्पर्धाओं का धूआँ
बन जायेगा एक दिन
मेरे विनाश का कूआँ
लगा लो अपनी शरण
आओ कर लो मेरा वरण्
मन को लगी है चोट
मन रही कचोट
छटपटा रहा मन दर्पण
आओ कर लो मेरा वरण
दे दो चेतन प्राण
दे दो दिव्य ग्यान
स्वीकार करो समर्पण
आओ कर लो मेरा वरण
सुसंकल्प जगा दो
सुविग्य बना द
लगाओ मुझे शरण्
आओ कर लो मेरा वरण
हे नवजीवन दाता
हे त्रिलोकी विधाता
आओ कर लो मेरा वरण
शुद्ध करो अन्त:करण
हे नवजीवन दाता
हे त्रिलोकी विधाता
शुद्ध करो मेरा
अन्त:करण
आओ कर लो मेरा वरण
मेरे अवचेतन मन पर
त्रिश्णाओं स्पर्धाओं का धूआँ
बन जायेगा एक दिन
मेरे विनाश का कूआँ
लगा लो अपनी शरण
आओ कर लो मेरा वरण्
मन को लगी है चोट
मन रही कचोट
छटपटा रहा मन दर्पण
आओ कर लो मेरा वरण
दे दो चेतन प्राण
दे दो दिव्य ग्यान
स्वीकार करो समर्पण
आओ कर लो मेरा वरण
सुसंकल्प जगा दो
सुविग्य बना द
लगाओ मुझे शरण्
आओ कर लो मेरा वरण
हे नवजीवन दाता
हे त्रिलोकी विधाता
आओ कर लो मेरा वरण
शुद्ध करो अन्त:करण
22 comments:
अति उत्तम रचना...खासकर संसार और ईश्वर के मध्य की आवाज़
utkrisht prabhu prem ko samarpit rachna.........samarpan aisa hi hona chahiye.
कितना सुन्दर गीत है. इसे तो गुनगुनाने का मन हो रहा है.
सरल, सहज और सुन्दर गीत के लिए बधाई!
अति सुन्दर गीत रचने पर बधाई
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तख़लीक़-ए-नज़र
बहुत ही खुबसूरती से अपने मन के भावनाओ को पिरोया है ..........एक बेहद खुब्सूरत गीत.......
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, आभार्
uttam samarpan, utkrasht rachna ke liye nirmalaji, badhai.
अत्यंत सुंदर गीत. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
वरण का प्रयोग अच्छा है
shaj prakar...... sundar bhav......... wah.....
छटपटा रहा मन दर्पण
आओ कर लो मेरा वरण
दे दो चेतन प्राण
दे दो दिव्य ग्यान
स्वीकार करो समर्पण
आओ कर लो मेरा वरण....
ye lines vishesh taur par acchi lagi.
us nirakar ki bhakti aise hi ho sakti hai !!
अंतःकरण की शुद्धता बाह्यजगत को भी आलोकित करती है.
मन सात्विक हो उठा ! समर्पण सहज हो चला और मैं आत्म-विभोर हुआ ............प्रणाम! सादर चरण स्पर्श !
अद्भुत, शानदार, भक्ति-प्रेम से सराबोर इस सफल रचना की प्रस्तुति के लिए आभार. आप जिस विषय को कविता में उठाती हैं, जीवंत कर देती हैं...बधाई.
प्रभु चरणों में अपना पूर्ण समर्पण!!!
आपकी इस रचना को बार बार पढकर अपने अन्तर में सहेजने की कोशिश कर रहा हूँ।
अच्छी रचना.. वाह....
इस पुकार का अर्थ या कारण ? !
अरे
जब उसने किया मन निर्मल ,
तभी से मन में इक हूक उठी ,
उस से मिलन को रूह कूक उठी ,
छट गए सभी तृष्णाओं स्पर्धाओं के
कुहासे जो फैले थे भ्रम जालों से ,
पगले मन यही तो उसका वरण है,
यही तो वरण है
बहुत दिनों बाद याद किया , वैस मैं भी तो अन्तर-जाल पर ज्यादा घूम नहीं पाता एक आध पर ही जा पाता हूँ शारीरिक और मानसिक थकन दोनों अनुभव करने लगा हूँ |
बहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है ! बहुत बढ़िया लगा !इस बेहतरीन रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
सुसंकल्प जगा दो
सुविज्ञ बना दो
लगाओ मुझे शरण्
आओ कर लो मेरा वरण
कितनी उत्तम कामना है... सुन्दर साधू!!
wah wah nirmala ji...
very nice composition..
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