ग़ज़ल
तुम मुझको अब शर्मिंदा न परेशान करोमेरी उलझन को थोडा तो आसान करो
कश्ती को आपनी कोई तो किनारा मिल जाए
तूफां में तो राहों की कुछ पहचान करो
खुद को लटकाया था मैंने तेरी सूली पर
जीना मुश्किल था मरना तो आसान करो
चिंगारी लील रही है मजहब की अब तो
अपनी दुनिया को तो यूँ ना सुनसान करो
लुटती है अस्मत उसकी अब बाज़ारों में
रक्षा अबला की तो मेरे भगवान करो
मुर्दादिल लोग नज़र आते हैं दुनिया में
कोई तो पैदा जिंदा दिल इंसान करो
जीयें तो जीयें कैसे ऎसी दुनिया में
जीने को मुहैया अब कुछ तो सामान करो
कश्ती को आपनी कोई तो किनारा मिल जाए
तूफां में तो राहों की कुछ पहचान करो
खुद को लटकाया था मैंने तेरी सूली पर
जीना मुश्किल था मरना तो आसान करो
चिंगारी लील रही है मजहब की अब तो
अपनी दुनिया को तो यूँ ना सुनसान करो
लुटती है अस्मत उसकी अब बाज़ारों में
रक्षा अबला की तो मेरे भगवान करो
मुर्दादिल लोग नज़र आते हैं दुनिया में
कोई तो पैदा जिंदा दिल इंसान करो
जीयें तो जीयें कैसे ऎसी दुनिया में
जीने को मुहैया अब कुछ तो सामान करो
27 comments:
जीयें तो जीयें कैसे......सामान करो.
वाह! अद्भुत शेर है. परिपक्व शेर. हालांकि पूरी ग़ज़ल अच्छी है लेकिन ये मिझे ख़ास तौर पर पसन्द आया.
अच्छी रचना ........अच्छे शे'र .........
बधाई !
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_______विनम्र निवेदन : सभी ब्लौगर बन्धु आजशनिवार
को भारतीय समय के अनुसार ठीक 10 बजे ईश्वर की
प्रार्थना में 108 बार स्मरण करें और श्री राज भाटिया के
लिए शीघ्र स्वास्थ्य हेतु मंगल कामना करें..........
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मुझे ग़ज़ल बहुत पसंद आई....मज़ा आ गया
शानदार गज़ल के लिए बधाई।
waise to poori ghazal hi adbhoot hai...
par ye do sher:
खुद को लटकाया था मैंने तेरी सूली पर
जीना मुश्किल था मरना तो आसान करो
....
मुर्दादिल लोग फिरें हैं बहुत दुनिया मे
कोई तो पैदा जिंदा दिल इंसान करो
hamesha ki tarah superb !!
pranam.
खुद को लटकाया था मैंने तेरी सूली पर
जीना मुश्किल था मरना तो आसान करो
खूबसूरत गजल निर्मला जी। जब प्राण शर्मा जी ने इसे सँवारा है तो फिर क्या कहने। एक तुकबंदी देखें-
यूँ तो भूख से मरते हैं रोज हजारों बेबस
स्वाइन फ्लू के डर से और न हलकान करो
खुद को लटकाया था मैंने तेरी सूली पर
जीना मुश्किल था मरना तो आसान करो
जीयें तो जीयें कैसे ऎसी दुनिया में
जीने को मुहैया अब कुछ तो सामान करो
बहुत अच्छी रचना. इसे यदि संगीतबद्ध किया जाए तो बहुत मनोहारी लगेगी.
जीयें तो जीयें कैसे ऎसी दुनिया में
जीने को मुहैया अब कुछ तो सामान करो
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति, आभार्
जीयें तो जीयें कैसे ऎसी दुनिया में
जीने को मुहैया अब कुछ तो सामान करो
सही है जिन्दगी यूँ ही तो नही जिया जा सकता है.
यथार्थ रचना
behad khoobsoorat bhavon ki mala hai jismein chun chun kar ek ek pankti piroyi huyi hai.
अच्छे शे'र ,ग़ज़ल बहुत पसंद आई |
चिंगारी लील रही है मजहब की अब तो
अपनी दुनिया को तो यूँ ना सुनसान करो
संदेश देती एक बेहतरीन प्रस्तुति..
सुंदर ग़ज़ल!!!
अति सुन्दर ग़ज़ल है
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1. चाँद, बादल और शाम
2. विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
निर्मला जी आपने भी निर्मल दिया होगा
तभी तो प्राण शर्मा जी ने प्राण डाल दिए
ऐसे जीवंत भाव खूबसूरती से संवार दिए
वाह ! सुंदर अशआरों से सजी एक बेहतरीन ग़ज़ल ...
शानदार गजल!! हर शेर उम्दा!!
आभार्!
बहुत सुंदर
तुम मुझको अब शर्मिन्दा न परेशान करो
मेरी उलझन को थोड़ा तो आसान करो
बहुत सुन्दर गज़ल और सामयिक विन्दुओं के तरफ ध्यान आकर्शित करती हुई गज़ल ।
मुर्दादिल लोग फिरें हैं बहुत दुनिया मे
कोई तो पैदा जिंदा दिल इंसान करो
lajvab .schmuch bhut achi vinti hai .
abhar.
जब ग़ज़ल , ग़ज़ल पितामह का प्यार लेकर आयी है तो इसके बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं है ... बहोत ही खुबसूरत कहन कहें है आपने... वेसे आपके लेखन के बारे में भी कुछ कहूँ मेरी मजाल कहाँ इसलिए चुप हूँ और सलाम करता चलता हूँ... सादर प्रणाम
अर्श
Bahut achchee rachana.
लुटती है अस्मत उसकी अब बाज़ारों में
रक्षा अबला की तो मेरे भगवान करों
जीयें तो जीयें कैसे ऎसी दुनिया में
जीने को मुहैया अब कुछ तो सामान करो
aankhe nam ho gayi .........uffff jindagi haay jindgi ....bahut bahut khub likha ............dero shubh kaamanaye
मुर्दादिल लोग फिरें हैं बहुत दुनिया मे
कोई तो पैदा जिंदा दिल इंसान करो
जीयें तो जीयें कैसे ऎसी दुनिया में
जीने को मुहैया अब कुछ तो सामान करो
वाह क्या बात है
आपको पढ़ कर हमेशा सुखद अनुभूति होती है
सुन्दर गजल कही आपने ............
वीनस केसरी
हर शेर लाजबाब!! बहुत सुन्दर गज़ल है.
nirmala ji, umda rachna.
har sher lajawaab.
प्रणाम माँ माफ़ी चाहूंगा कई दिन के बाद आप के ब्लॉग पर आरहा हूँ गजल इंतनी बेहतरीन है की मेरे पास शब्द ही नहीं है जो इसकी तारीफ़ में कह सकूँ लेकिन बिचदो शेर जो कम शब्दों में ही समाज की सारी व्यथा कह देते है, दिल को छू गए
चिंगारी लील रही है मजहब की अब तो
अपनी दुनिया को तो यूँ ना सुनसान करो
लुटती है अस्मत उसकी अब बाज़ारों में
रक्षा अबला की तो मेरे भगवान करो
लास्ट के शेर में आशा की किरण दिखाती बात कहती है आप
मुर्दादिल लोग नज़र आते हैं दुनिया में
कोई तो पैदा जिंदा दिल इंसान करो
मेरा प्रणाम स्वीकार करे
सादर
प्रवीण पथिक
'जीयें तो जीयें कैसे ऎसी दुनिया में
जीने को मुहैया अब कुछ तो सामान करो'
- समाज के कुछ चुनिन्दा लोग इस के लिए प्रयास करते हैं. ऐसे लोगों की संख्या जितनी अधिक होगी, जीना उतना आसान हो जाएगा.
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