23 August, 2015

गज़ल

फिलबदीह 80- काव्योदय  से हासिल गज़ल
बह्र --फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन
काफिया आ रदीफ कौन है
 गज़ल निर्मला कपिला

अब मुहब्बत यहां जानता कौन है
रूह की वो जुबां आंकता  कौन है

मंजिलों का पता कागज़ों ने दिया
नाम से तो मुझे जानता कौन है

वक्त का हर सफा खोल कर देखती
कौन देता खुशी सालता कौन है

अब खुदा है या भगवान बोलो उसे
एक ही बात है मानता कौन है

ज़िन्दगी बोझ हो तो भी चलते  रहो
रुक के मंज़िल पे पहुंचा भला कौन है --- ये अशार विजय स्वरणकार जी को समर्पित

झूठ की भी शिनाख्त किसे है यहां
चोर को चोर पहचानता कौन है

आंख कोई दिखाये तो डरते नही
गर चुनैती मिले  भागता कौन है

हादसा हो गया लोग इकट्ठे  हुये
चोट लगती जिसे देखता कौन है

लापता कितने बच्चे हुये हैं यहां
सच कहूँ तो उन्हे ढूंढ्ता कौन है

वक्त बेवक्त वो काम आया मेरे
किसको मांनूं जहां मे खुदा कौन है

17 August, 2015

गज़ल

कल की फिलबदी 74 से हासिल गज़ल
बह्र -- फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
गज़ल -- निर्मला कपिला


ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से ही यहां धोखा मिला
जब यहां भाई से भाई ही कहीं लुटता मिला

दोस्ती  बेनूर बेमतलव  नही तो क्या कहें
जिस तरह से दोस्ती मे वो जहर भरता मिला

क्या कहें उसकी मुहब्बत की कहानी दोस्तो
रात की थी ख्वाहिशें  तो  चांद  भी जगता मिला

दर्द जो सहला नही पाये मेरे हमदर्द साथी
छेड दी सारी खरोंचें घाव कुछ गहरा मिला

ख्वाहिशें थी चाहतें थी बेडियां और आज़िजी
ज़िन्दगी पर हर तरफ तकदीर का पहरा मिला

जो खुदा के सामने भी सिर झुकाता था नही
मुफ्लिसी मे  हर किसी के सामने झुकता मिला

ख्वाब हों दिन रात हों आवाज़ देता दर्द मुझ को
भूलना जितना भी चाहा और भी ज्यादा मिला

गुणीजनो से सुधार की आपेक्षा है

16 August, 2015

 ब्लाग की दुनिया
 
बहुत सन्नाटा है
बडी खामोशी है
कहां गये वो चहचहाते मंजए
कहां गये वो साथी
जो आवाज दे कर
पुकारते थे कि आओ
सच मे मेरी रूह
अब अपने ही शहर मे
आते हुये कांपती है
क्यों की उसे कदमों की लडखडाहत नही
दिल और कदमों की मजबूती चाहिये
उजडते हुई बस्ती को बसाने के लिये
नया जोश और कुछ वक्त चाहिये 
तो आओ करें एक कोशिश
फिर से इस रूह के शहर को बसाने की
ब्लाग की दुनिया को
 हसी खुशी से
फिर उसी मुकाम पर पहुंचाने की


15 August, 2015

कविता

बहिनो भाईओ सब से पहले सब को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभ्कामनायें1
उसके बाद  सब के भाजी स बी एस पावला जी का धन्यवाद जिन्हों ने मेरी समस्या का समाधान किया 1पूरी कहानी तो वही बता सकते हैं लेकिन मुझे इतना पता है कि वो शरारत किसने की नाम बताने की मजबूरी ये है कि वहां कुछ अच्छे लोग भी हैं जिनकी वजह से इस बार मै चुप कर गयी वो ये मत सोचें कि आगे से भी चुप रहूंगी1 सरकारें आती जाती रहती हैं  ये भी याद रखें 1किसी ने उसमे एक स्म्रिती इरानी की वीडिओ के साथ जगल नेट वर्क नाम से  कुछ डाउन्लोद कर दिया था1 इस कम्प्यूटर को मै या मेरे बच्चे ही चलाते हैं बच्चे तो आये नही और मै ऎसी चीज़ें डाउन लोड करती नही इस लिये उस शक्स का पता चल गया1लानत है ऎसे लोगों पर, जिनके मन मे इतनी बेईमानी है और जिसके कहने पर ये घ्रिणित काम किया गया उसे भी लानत है1 आज आज़ादी मनाने का दिन कैसे कहूँ कलम की आज़ादी ही छिनती जा रही है1 चलिये एक कविता जो 2006 मे छपी मेरी पुअस्तक से है -------

यथा राजा तथा प्रजा
 
जब समुदाय ,कुल और देश के प्रधान
अधर्म को देंगे अधिमान
 कर आदर्शों का परित्याग
प्रजा पर करेंगे अत्याचार
जब काम क्रोध मोह बढ जायेंगे
तो सत्युग त्र्ता दुआपर से
कलयुग ही आयेंगे
तब
प्रक्रितिक प्रकोप बढ जायेंगे
इन्द्र अग्नि वायू का प्रकोप
माहाप्रलय ही लायेगा
जो सारी मानवता को बहा ले जायेगा

जब जुल्मों की हवाय्रं
तूफां बन जाएंगी
प्रेम प्यार मानवता की
किश्तियां  डूब जायेंगी
धरा हिचकोले खायेगी
भुकम्प की त्रास्दी आयेगी
ऋतु विकार तांडव दिखायेगा
कण कन शोर मचायेगा

यथा राजा तथा प्रजा
नही कहा किसी ने बेवजह
अभी वक्त रहते इसको जान लो
खुद गर्ज़ी के लिये
न मानवता के प्राण लो

अधर्म का कर परित्याग
मानवता और जनपद से कर सद्व्यवहार
तो प्रक्रिति
तुझ पर रहम खायेगी
नही तो  सच मान
कि अब  जल्दी
महा प्रलय ही आयेगी

14 August, 2015

कविता -----ज़िन्दगी

बहुत दिनो बाद आना हुया1 मेरी रूह का शहर कितना सुनसान  पडा है! असल मे जब से इसका टेमलेट बदल गया है तब से यहाण आना अच्छा नही लगता सजावट न हो तोक्या करें इतनी लायक नही हूँ कि खुद इसका टेम्लेट बदल लूँ दूसरी जब पिछली बार खुद कोशिश की तो ब्लाग लिस्ट उड गयी1 उसके बिना भी मुश्किल लगता है1 दूसरा अधिक देर बैठने की समस्या1 देखती हूँ कैसे निपट पाती हूँ इन समस्याओं से1 लीजिये मेरी सब से पहली रछना जो इस ब्लाग पर पोस्ट की थी 1


कविता (जिन्दगी)
खिलते फूल सी मुसकान है जिन्दगी
समझो तो बडी आसान है जिन्दगी
खुशी से जियें तो सदा बहार है जिन्दगी
दुख मे तलवार की धार है जिन्दगी
पतझर बसन्तो का सिलसिला है जिन्दगी
कभी इनायतें  तो कभी गिला है जिन्दगी
कभी हसीना की चाल सी मटकती है जिन्दगी
कभी सूखे पते सी भट्कती है जिन्दगी
आगे बढने वालों के लिये पैगाम है जिन्दगी
भटकने वालों की मयखाने मे गुमनाम है जिन्दगी
निराशा मे जी का जन्जाल है जिन्दगी
आशा मे सन्गीत सी सुरताल है
कहीं मखमली बिस्तर पर सोती है जिन्दगी
कभी फुटपाथ पर पडी रोती है जिन्दगी
कभी होती थी दिल्बरे यार जिन्दगी
आज चौराहे पे खडी है शरमसार जिन्दगी
सदिओं से मा के दूध की पह्चान है जिन्दगी
उसी औरत की अस्मत पर बेईमान है जिन्दगी
वरदानो मे दाऩ क्षमादान है जिन्दगी
बदले की आग मे शमशान है जिन्दगी
खुशी से जीओ चन्द दिन की मेहमान है जिन्दगी
इबादत करो इसकी भगवान है जिन्दगी

05 May, 2015

rishte--- कविता



ये रिश्ते
अजीब रिश्ते
कभी आग
तो कभी
ठंडी बर्फ्
नहीं रह्ते
एक से सदा
बदलते हैं ऐसे
जैसे मौसम के पहर
उगते हैं
सुहाने लगते हैं
वैसाख के सूरज् की
लौ फूट्ने से
पहले पहर जैसे
बढते हैं
भागते हैं
जेठ आशाढ की
चिलचिलाती धूप की
साँसों जैसे
फिर
पड जाती हैं दरारें
मेघों जैसे
कडकते बरसते
और बह जाते हैं
बरसाती नदी नालों जैसे
रह जाती हैं बस यादें
पौष माघ की सर्द रातों मे
दुबकी सी सिकुडी सी
मिटी कि पर्त् जैसी
चलता रहता है
रिश्तों का ये सफर् !!

15 April, 2015

गज़ल्



दर्द के कुछ कौर खा कर भूख मिटा लेते रहे हैं
प्यास अपनी आंसुओं से ही बुझा लेते रहे हैं

इस जमाने ने दिया क्या है सिवा बस ठोकरों के
बिन ठिकाने ज़िन्दगी फिर भी बिता लेते रहे हैं

आसमा है छत जमीं बिस्तर नसीबों मे हमारे
पी गमों के जाम हम तो लडखडा लेते रहे हैं

वो हिसाब किताब क्यों  पूछे  मुहब्बत मे बताओ ?
लोग तो इस इश्क मे जां तक लुटा लेते रहे हैं

कौन कहता है जमाना लडकिओं का आ गया है
लोग बहुओं को अभी तक भी जला लेते रहे हैं

रात तन्हा दिल उदासी  से भरा सा हो कभी तो
बंद पलकों मे कई सपने बिठा  लेते रहे हैं

यूं तमन्ना तो बहुत है हर खुशी हम्को मिले पर
जो मिला आंखों पे उसको ही बिठा लेते रहे हैं

पोस्ट ई मेल से प्रप्त करें}

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner