21 November, 2009

अस्तित्व [गताँक से आगे]

पिछले अंक मे आपने पढा कि रमा को अपने पति की अलमारी से एक वसीयत मिली जिसमे उनके पति ने अपने 2 बेटों के नाम सारी संपति कर दी और छोटे बेटे और रमा के नाम कुछ नहीं किया जिस से रमा के मन मे क्षोभ हुया कि उसे बिना बताये ये सब क्यों किया गया। क्या औरत केवल घर की नौकरानी है उसकी इस फैसले मे कोई अहमियत नहीं ? उसने घर छोडने का फैसला कर लियाेऔर पने पति नंद के नाम पत्र लिख कर अपनी सहेली के घर चली गयी आब आगे पढें -------
आशा के घर पहुँची1 मुझे देखते ही आशा ने सवालों की झडी लगा दी
"अखिर ऐसा क्या हो गया जो तुम्हें ऐसी नौकरी की जरूरत पड गयी1नंद जी कहाँ हैं?"
मुँह से कुछ ना बोल सकी,बस आँखें बरस रही थी महसूस् हुआ कि सब कुछ खत्म हो गया है1मगर मेरे अन्दर की औरत का स्वाभिमान मुझे जीने की प्रेरणा दे रहा था1आशा ने पानी का गिलास पिलाया,कुछ संभली अब तक वर्मा जी भी आ चुके थे1 मैने उन्हें पूरी बात बताई1 सुन कर वो भी सन्न रह गये
"देखो आशा ये प्रश्न सिर्फ मेरे आत्म सम्मान का नहीं है1बल्कि एक औरत के अस्तित्व का है क्या औरत् सिर्फ आदमी के भोगने की वस्तु है?क्या घर्, परिवार्,बच्चो पर् और घर से सम्बंधित फैसलों पर उसका कोई अधिकार नही है ! अगर आप लोग मेरी बात से सहमत हैं तो कृ्प्या मुझ से और कुछ ना पूछें। अगर आप नौकरी दे सकते हैं तो ठीक है वर्ना कही और देख लूँगी1
"नहीं नहीं भाभीजी आप ऐस क्यों सोचती हैं? नौकरी क्या ये स्कूल ही आपका है1मगर मैं चाहता था एक बार नंद से इस बारे में बात तो करनी चाहिये"
*नहीं आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे1"
" खैर आपकी नौकरी पक्की है1"
दो तीन दिन में ही होस्टल वार्डन वाला घर मुझे सजा कर दे दिया गया 1वर्माजी ने फिर भी नंद को सब कुछ बता दिया था उनका फोन आया था1मुझे ही दोशी ठहरा रहे थे कि छोटे को तुम ने ही बिगाडा है अगर तुम चाह्ती हो कि कुछ तुम्हारे नाम कर दूँ 'तो कर सकता हूँ मगर बाद में ये दोनो बडे बेटों का होगा1मैने बिना जवाब दिये फोन काट दिया 1था वो अपने गरूर मे मेरे दिल की बात समझ ही नही पाये थे1मैं तो चाहती थी कि जो चोट उन्होंने मुझे पहुँचाई है उसे समझें1
बडे बेटे भी एक बार आये थे मगर औपचारिकता के लिये शायद उन्हें डर था कि माँ ने जिद की तो जमीन में से छोटे को हिस्सा देना पडेगा1 वर्मा जी ने नंद को समझाने की और मुझे मनाने की बहुत कोशिश की मगर नंद अपने फैसले पर अडे रहे। बडे बेटे भी एक बार आये फिर चुपी साध गय।
लगभग छ: महीने हो गये थे मुझे यहाँ आये हुये1घर से नाता टूट चुका था1बच्चों के बीच काफी व्यस्त रह्ती1फिर भी घर बच्चों की याद आती छोटे को तो शायद किसी ने बताया भी ना हो1नंद की भी बहुत याद आती--पता नहीं कोई उनका ध्यान रखता भी है या नहीं वर्मा जी ने कल बताया था कि दोनो कोठियाँ बन गयी हैं1नंद दो माह वहाँ रहे अब पुराने घर मे लौट आये हैं1ये भी कहा कि भाभी अब छोडिये गुस्सा नंद के पास चले जाईये1
अब औरत का मन--मुझे चिन्ता खाये जा रही थी-ेअकेले कैसे रहते होंगे--ठीक से खाते भी होंगे या नहीं--बेटों के पास क्यों नहीं रहते--शायद उनका व्यवहार बदल गया हो--मन पिघलने लगता मगर तभी वो कागज़ का टुकडा नाचते हुये आँखों के सामने आ जाता--मन फिर क्षोभ से भर जाता
चाय का कप ले कर लान मे आ बैठी1बच्चे लान मे खेल रहे थे मगर मेरा मन जाने क्यों उदास था छोटे की भी याद आ रही थी--चाय पीते लगा पीछे कोई है मुड कर देखा तो छोटा बेटा और बहू खडे थे1दोनो ने पाँव छूये1दोनो को गले लगाते ही आँखें बरसने लगी--
"माँ इतना कुछ हो गया मुझे खबर तक नही दी1क्या आपने भी मुझे मरा हुया समझ लिया था1" बेटे का शिकवा जायज़ था1
*नहीं बेटा मै तुम्हें न्याय नहीं दिला पाई तो तेरे सामने क्या मुँह ले कर जाती1फिर ये लडाई तो मेरी अपनी थी1"
"माँ मैं गरीब जरूर हूँ मगर दिल से इतना भी गरीब नहीं कि माँ के दिल को ना जान सकूँ1मैं कई बार घर गया मगर घर बंद मिला मैने सोचा आप बडे भईया के यहाँ चली गयी हैं1पिता जी के डर से वहाँ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया
*अच्छा चलो बातें बाद मे होंगी पहले आप तैयार हो कर हमारे साथ चलो"
"मगर कहाँ?"
माँ अगर आपको मुझ पर विश्वास हैतो! ये समझो कि आपका बेटा आपके स्वाभिमान को ठेस नही लगने देगा1ना आपकी मर्जी के बिना कहीं लेकर जाऊँगा1बस अब कोई सवाल नहीं"
"पर् बहू पहली बार घर आई है कुछ तो इसकी आवभगत कर लूँ1" मन मे डर स लग रहा था कहीं नंद बिमार तो नहीं --कहीं कोइ बुरी खबर तो नहीं--या बेटा अपने घर तो नहीं ले जाना चाहता1मगर बेटे को इनकार भी नहीं कर सकी
"माँ अब आवभगत का समय नहीं है आप जलदी चलें"
अन्दर ही अन्दर मै और घबरा गयी1मन किया उड कर नंद के पास पहुँच जाऊँ वो ठीक तो हैं!मैं जल्दी से तयार हुई घर को ताला लगाया और आया से कह कर बेटे के साथ चल पडी
चलते चलते बेटा बोला-"माँ अगर जीवन में जाने अनजाने किसी से कोई गलती हो जाये तो क्या वो माफी का हकदार नहीं रहता? मान लो मैं गलती करता हूँ तो क्या आप मुझे माफ नहीं करेंगी?"
"क्यों नहीं बेटा अगर गलती करने वाला अपनी गलती मानता है तो माफ कर देना चाहिये1क्षमा तो सब से बडा दान है1बात ्रते करते हम गेट के पास पहूँच चुके थे
"तो फिर मैं क्षमा का हकदार क्यों नहीं1क्या मुझे क्षमा करोगी?"----!नंद ये तो नंद की आवाज है---एक दम दिल धडका---गेट की तरफ देखा तो गेट के बाहर खडी गाडी का दरवाजा खोल कर नंद बाहर निकले और मेरे सामने आ खडे हुये1उनके पीछे--पीछे वर्माजी और आशा थे1
"रमा आज मैं एक औरत को नहीं, अपनी अर्धांगिनी को लेने आया हूं1हमारे बीच की टूटी हुई कडियों को जोडने आया हूँ1तुम्हारा स्वाभिमान लौटाने आया हूँ1उमीद है आज मुझे निराश नहीं करोगी1शायद तुम्हारे कहने से मै अपनी गलती का अह्सास ना कर पाता मगर तुम्हारे जाने के बाद मै तुम्हारे वजूद को समझ पाया हूँ1मैं तुम्हे नज़रंदाज कर जिस मृ्गतृ्ष्णा के पीछे भागने लग था वो झूठी थी इस का पता तुम्हारे जाने के बाद जान पाया1जिसे मैं खोटा सिक्का समझता था उसने ही मुझे सहारा दिया है दो दिन पहले ये ना आया होता तो शायद तुम मुझे आज ना देख पाती1बडों के हाथ जमीन जायदाद लगते ही मुझे नज़र अंदाज करना शुरू कर दिया1मैं वापिस अपने पुराने घर आ गया वहाँ तुम बिन कैसे रह रहा था ये मैं ही जानता हूँ1तभी दो दिन पहले छोटा तुम्हें मिलने के लिये आया1 मैं बुखार से तप रहा था1 नौकर भी छुटी पर था तो इसने मुझे सम्भाला1 इसे मैने सब कुछ सच बता दिया1मैं शर्म् के मारे तुम्हारे सामने नहीं आ रहा था लेकिन वर्माजी और छोटे ने मेरी मुश्किल आसान कर दी1 चलो मेरे साथ"कहते हुये नंद ने मेरे हाथ को जोर से पकड लिया---मेरी आँखें भी सावन भादों सी बह रही थी और उन आँसूओं मे बह ्रहे थे वो गिले शिकवे जो जाने अनजाने रिश्तों के बीच आ जाते ``हैं। अपने जीवन की कडियों से बंधी मै नंद का हाथ स्वाभिमान से पकड कर अपने घर जा रही थी1-- समाप्त


25 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

नन्द जी को कुछ ही दिनों में आटे-चावल का भाव पता चल गया ! बहुत बढिया कहानी थी ! अक्सर कुछ माँ-बाप इस तरह की गलतियां कर बैठते है जो मेरे हिसाब से उचित नहीं, उनके लिए पांचो उंगलिया बराबर होनी चाहिए

दीपक 'मशाल' said...

मासी आपकी इस कहानी के सुखांत ने भी आँखें गीली कर दीं...ये आपकी लेखनी का ही करिश्मा है जो पिछले तीन दिन से इसी कहानी के अंत के बारे में सोच रहा था...

अजय कुमार said...

सच है आँसू सारे गिल्र शिकवे बहा ले जाते हैं, अच्छी कहानी

दीपक 'मशाल' said...

मासी जी आज का लिंक देख लीजियेगा जब भी फ्री हों.. आप से बात करके मन को एक अजीब सा सुकून मिला..
http://swarnimpal.blogspot.com/2009/11/blog-post_20.html

सदा said...

कहानी का सुखद अंत बहुत ही अच्‍छी लगी, मन को भावुक कर गये कई लम्‍हे, बहुत-बहुत आभार ।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

मर्मस्पर्शी कहानी रही। और सुखान्त होने के कारण यह ज्यादा प्रभावी बन पडी है। बधाई।
--------
क्या स्टारवार शुरू होने वाली है?
परी कथा जैसा रोमांचक इंटरनेट का सफर।

अनिल कान्त said...

aap kahani ke maadhyam se bahut kuchh kah deti hain

achchha lagta hai

Arvind Mishra said...

सुखान्त !

शरद कोकास said...

अच्छा लगा इसे पढ़ना ..।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

akhir apane astitv ki ladayi men jeet mil hi gayi Rama ko. stri ka mann padhna hi to nahi jante pati... bahut sateek baat kahi hai aapne kahani ke madhyam se....achchhi kahani...prernadayak.....badhai

राज भाटिय़ा said...

अच्छी लगी आप की यह कहानी. धन्यवाद

Kusum Thakur said...

एक सुखद अंत, बहुत अच्छी और शसक्त सामाजिक कहानी. बहुत बहुत बधाई !!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

कहानी अच्छे प्रवाह से चल रही है।।
बधाई!!!

vandana gupta said...

is waqt is kahani ko padhkar main aansuon se ro rahi hun.........isse jyada kahne ki is waqt himmat nhi hai.

rashmi ravija said...

कहानी बहुत ही सुन्दर बन पड़ी है,कहते हैं जो खुद की मदद नहीं करता ,उसकी मदद भगवान् भी नहीं कर पता अगर रमा लोकलाज के डर से यह कदम नहीं उठाती तो ज़िन्दगी भर घुट कर रह जाती और पति की भी आँखें नहीं खुलतीं.औरतें हर किसी से अपना दुःख छुपा कर रखती हैं,यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है.अच्छा सन्देश दिया है इस कहानी के मध्यम से कि आगे बढ़ो शुभचिंतकों से दुःख को शेयर करो और जीने के रास्ते तलाश करो.

वन्दना अवस्थी दुबे said...

badhiya kahani. jab tak ham apni izzat khud nahi karenge, tab tak doosare bhi hamaari izzat nahi karenge.

Smart Indian said...

अच्छी कहानी है. छोटा बेटा बचपन में पढी हुई रूसी लोककथाओं के छोटे इवान जैसा निकला.

वाणी गीत said...

अंत भला तो सब भला ....
अपने स्वाभिमान को बनाये रखने का सन्देश देती हुई यह प्रेरक कहानी मुझे बहुत अच्छी लगी ....छोटी छोटी बातें किस तरह मानसिक अघात का कारण बन जाती है और अधिकतर नारियां इस व्यथा को मन में दबाये रहती है ...मगर राम के स्वाभिमान ने बहुत सी स्त्रियों को यह राह दिखाई होगी ...बहुत बधाई ...!!

वाणी गीत said...

अंत भला तो सब भला ....
अपने स्वाभिमान को बनाये रखने का सन्देश देती हुई यह प्रेरक कहानी मुझे बहुत अच्छी लगी ....छोटी छोटी बातें किस तरह मानसिक अघात का कारण बन जाती है और अधिकतर नारियां इस व्यथा को मन में दबाये रहती है ...मगर राम के स्वाभिमान ने बहुत सी स्त्रियों को यह राह दिखाई होगी ...बहुत बधाई ...!!

Khushdeep Sehgal said...

कौन कहता है कि अमृता प्रीतम की कमी खलती है...

जय हिंद...

Asha Joglekar said...

बहुत सुंदर कहानी है, अंत सुखद है और ये जताता है कि नारी में खुद्दारी के साथ क्षमाशीलता भी होती है जो पुरुष में विरले ही मिलती है ।

पंकज said...

रोचक कहानी......

दिगम्बर नासवा said...

AAPKI KAHAANI BAHUT HI ACHEE LAGI ... SACH HAI AURAT AGAR CHAAHE TO DURGA BAN SAKTI HAI ... SHAKTI BAN SAKTI HAI ... AUR KSHAMA BHI KAR SAKTI HAI ... ANT BAHUT HI BHAVUK LAGA ....

Ria Sharma said...

आंसू किस तरह सारे अवसाद बहा ले जातें हैं..उलझते -सुलझते ...औरत के मनोभावों को दर्शाती ....अंत बहुत ही सुखद रहा ....

शीर्षक तो bahut eye catching ..है ही
Badhaii Nirmala ji !!

जोगी said...

waah waah..bahut hi achhi kahani...aaj padhi aur teenon hi kadi ek hi baar me padh dali :) ...

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