उस दिन मैं घर गयी तो जाते ही लेट गयी। खाना भी नहीं खाया। रह रह कर उस लडकी का चेहरा मेरी आँखों के सामने आ जाता। कैसे होगा उनके घर का गुज़ारा कोई और कमाने वाला भी नहीं । मा भी पढी लिखी नहीं थी उसकी । क्या ऐसे दुख भी होते हैं ---- माँ ने पूछा कि क्या बात है --तो मैने बताया कि आज एक आदमी की मौत हो गयी उसी से मन ठीक नहीं है। माँ भी समझाने लगी कि वह अस्पताल है वहाँ तो रोज़ ही ऐसे केस आते रहें गे तो क्या तू ऐसे ही रोयेगी? चल उठ खाना खा ले, धीरे धीरे सब ठीक हो जायेगा । अभी तूने ये सब पहले कभी देखा नहीं इस लिये। फिर पिताजी आ गये--* मेरी लाडली बेटी को क्या हुया? * मा ने बताया तो मेरे सिर पर हाथ फेरने लगे--- बेटा ये तो ज़िन्दगी की शुरूयात है अब समझो कि ज़िन्दगी शुरू हुई है । दुख और सुख जीवन के दो पहलू हैं आगर दुख ना हो तो सुख का कोई महत्व नहीं रह जाता । मगर यही दुख ज़िन्दगी की पाठशाला है । इन से ही आदमी मे दया, करुणा ,प्रेम क्षमा आदि संवेदनाओं का समावेश होता है। आज जिस तरह तुम मे रहम की भावना का उद्भव हुया है बस इसे समेट लो और हर दुखी के लिये ये भावना जब उपजेगी तो तुम्हें एक अच्छा इन्सान बनायेगी। तुम मे इन को सहन करने की शक्ति विकसित करनी होगी जो समय के साथ हो जाती है बस इतनी सी बात है। अब मन मे ठान लो कि दुखी की सेवा करनी है इसी लिये तुम्हें ये नौकरी मिली है। बात करने का ढंग था। सब कहते कि धीरी धीरे तुम इनकी आदि हो जाओगी मगर आदी होने मे और पिता जी की बातों मे अन्तर समझ आ गया था।
3 - चार दिन आराम से निकल गये । दीदी जब दवा की खिडकी पर बैठी होती तो मैं उनके पास बैठ कर उनके काम करने के तरीके को देखती रहती। हम लोग अन्दर से दरवाज़ा बन्द कर लेते बाहर भीड इतनी होती कि 50--60 मरीज खिडकी पर खडे ही रहते दवाईयाँभे उस समय अस्पताल मे बहुत मिलती थीं । भाखडा दैं का काम जोरों पर होने से शहर की जनसंख्या भी दिन पर दिम बढ रही थी।100 बिस्तर का अस्पताल था मगर 200 से कम मरीज दखिल नहीं रहते बरामदों मे भी अपने बिस्तर ला कर लोग इलाज करवाते थे।
मैं देखती कि दीदी बहुत ऊँचे बोलती हैं और जल्दी जल्दी से मरीज़ को खिडकी से हटने की हिदायत भी देती।लगातार बोलते जाना--- जल्दी करो --लाईन मे आओ--- ये इतने दिन की दवा है --- ये ऐसे खानी है--- इतने इतनी रोज़ खानी है आदि अब दिन मे कम से कम 700 मरीज़ नया पुराना 6 घण्टे मे निपटाना कोई आसान काम नहीं था दो जने भी बहुत मुश्किल से निपटा पाते अगर कोई मरीज़ दूसरी बार कुछ पूछ लेता तो दीदी डाँट देती--- अपना ध्यान इधर रखा करो हम कोई बादाम खा कर नहीं आते कि सारा दिन भौँकते रहें ---- । मुझे बहुत अजीब लगता बेचारे मरीज के मुँह की तरफ देखती रहती। कई मरीज तो लडने पर उतारू हो जाते तो ये समझ नहीं पाती कि कसूर किस क है। कभी मरीज पूरे दिन दवा खा चुका होता तो दीदी कहती जाओ पर्ची रिपीट करवा के आओ तो मरीज कहता कि भीड बहुत है आज दे दो कल करवा लूँगा । दीदी का मूड सही होता तो दे देती नहीं तो डाँट के भगा देती मुझे तब भी बहुत बुरा लगता कोई मरीज़ इतना दुखी होता कि खडा भी नहीं हो पाता वो लाईन से निकल कर दवा लेने आता तो दीदी डाँट देती मुझे बहुत तरस आता मगर दीदी कहती तुम्हें नहीं पता खिडकी पर आ कर सभी ऐसे बन जाते हैं मैं किस किस को देखूँ कि अधिक बीमार है या कम । लाईन मे लगे लोगों की गालियाँ नहीं सुननी मुझे। मतलव कि यहाँ भी मुझे यही लगता कि दीदी मे संवेदनायें मर चुकी हैं उन्हें तो किसी मशीन की तरह बस काम करने का पता है।जब कभी इन बातों पर चर्चा होती तो दीदी का वही पुराना जवाब धीरे धीरे सब समझ जाओगी और तुम भी ऐसी ही हो जाओगी।
इस धीरे धीरी ऐसी ही हो जाओगी मेरी जहन मे इतना घर कर गया कि हर बात पर मैं सोचने लगती कि अगर मैं ऐसी ही हो जाऊँगी तो मैं नौकरी छोड दूँगी मगर पत्थर दिल नहीं बनूँगी। मगर ये बदलाव सच मे इतने धीरे धीरे ही होता है कि इन्सान को पता भी नहीं चलता और वो इस से बचने के लिये अपने पक्ष मे कई बहाने घड लेता है। जैसे बच्चा हर वक्त मा के पास रहता है उसे कब पता लगता है कि किस दिन कितना कद बढा । मशीन की तरह काम करते हुये आदमी मशीन हो जाता है।
तीन चार दिन बाद पुलिस एक व्यक्ति की लाश ले कर आयी जो कि नहर से मिली थी उसका पोस्टमार्टम करवाना था। इस बा र्यहाँ किसी और फार्मासिस्ट की डयूटी थी। मगर दीदी ने कहा कि मुन्नी को भी अब सीखना पडेगा ये सब मैं जाती हूँ और इसे साथ ले जाती हूँ,तुम मेरी सीट देख लो। डाक्टर साहिब तैयार खडे थे। मुझे भी जाना ही पडा। वहाँ मार्चरी मे इतनी दुर्गन्ध आ रही थी मेरा मन खराब होने लगा। सफाई सेवक ने अगरबत्ती जलाई और खिडकियाँ दरवाजे खोले। इसके बाद हम सब लाश के पास खडे हो गये पहली बार इस दृ्श्य को देखा था लाश से दुर्गन्ध आ रही थी सफाई सेवक ने उस पर से कपडा उठाया तो मैं जरा पीछे हट गयी सभी के समने नँगी लाश को देखना अच्छा नहीं लगा। मगर दीदी नी बजू पकड कर साथ खडा कर लिया। सफाई सेवक ने पहले उसके पेट को चीरा और एक एक अंग निकाल कर डाक्टर को दिखाया और उसे जार मे रख्ता गया इस तरह उसने 5-6 जार तैयार किये । डाक्टर ने सभी कुछ नोट किया दीदी ने लाश का माप आदि लिया। मुझे एक दम वोमिट आयी और मैं बाहर भागी। आज तो मन मे पक्का सोच लिया था कि मैं नौकरी नहीं करूँगी। वपिस जा कर दीदी ने फटा फट चाय मंगवाई और साथ मे विसरा पैक करने लगी। वहीं टेबल पर विसरा पडा था और वहीं वो खडे हो कर चाय पी रही थी। मैने कहा दीदी आप बिना नहाये चाय कैसे पीने लगी। लाश के पास हो कर जो आते है वो पहले नहाते हैं फिर खाने की चीज़ को हाथ लगाते हैं, फिर आपने तो लाश को छूआ भी है। दीदी हंस पडी--धीरे धीरे सब जान जाओगी----- अब इसमे जानने की क्या बात है, यही सोचते हुये घर चली गयी मगर जा कर उस दिन भी खाना नहीं खाया गया। उल्टी सी आने को होती रही । नहा कर मैं सो गयी। सोचा शाम को पिताजी से बात करूँगी मुझे ये नैकरी नहीं करनी ये अस्पताल वाले तो निर्दयी और पशूओं जैसे हैं। इन्हें जिन्दा या मरे मे भी फर्क नज़र नहीं आता_।
फिर वही धीरे धीरे सब ठीक हो जाता है----- शायद--- क्या मै भी ऐसी ही हो जाऊँगी-------क्रमश:
20 comments:
कपिला जी बेहद संवेदना और सरल-सच्चे शब्दों का संसार ....माँ की गोद से निकलने के बाद इस छलना मयी संसार में सब कुछ कठोर है ...हम पीछे पलट कर देखें तो क्रमश हम कहाँ आगये हें ये देखें तो ताजुब्ब होगा मेरी शुभ कामना
सरल शब्दों में आपका संस्मरण पढ़ते हुए बहुत अच्छा लग रहा है
behad samvedansheel post hai......sach insaan ki bhavnayein dheere dheere marne lagti hain na chahte huye bhi.
यह संवेदित संस्मरण मन को अंदर तक छू गया,आपका बहुत-बहुत आभार्
Man ko chhu gayee samvednaayen.
( Treasurer-S. T. )
पिताजी को प्रणाम! सादर चरण स्पर्श! ................अभी तो मैं मौन हूँ ...........सुन रहा हूँ आपको .क्रमश ........
AAP BAHOOT HI BHAAVOOK TARIKE SE APNE SANSMARAN KO RAKH RAHI HAIN .... MAN BHI BHAVUK HO JATA HAI PADHTE HUVE .... AGLI KDI KA INTEZAAR RAHEGA ...
बहुत खूब.. समय के खेल को अत्यन्त भाव पूर्ण ढंग से दर्शाया..आज पूरा पढ़ नही पाया..बस समय निकाल कर फिर पूरा पढ़ता हूँ,आपकी अगली कड़ी का इंतज़ार भी रहेगा..शुभ कामना!!!
कपिला जी संवेदना से युक्त संस्मरण मन को छू गया
अद्भुत है .कहते है ..दुःख आदमी को मांजता है...पर दुःख एक संवेदनशील इंसान को ही मांज सकता है
निर्मला जी वक्त ओर लोग बना देते है हर इंसान को जल्लाद, जो काम हम नही करना चाहते वही काम हमे बेमन से करना ही पडता है, अगर सभी डा ऎसा सोचे तो मरीजो को कोन देखे गा, कोन इन्हे आराम देगा ? इस लिये जिन्हे हम जल्लाद कहते है, वेदर्द कहते है उन के अपने दर्द भी होते है... आप की यह कहानी बहुत कुछ कह रही है.. अगली कडी का इंतजार बेसब्री से है
lagta hai agla bhaag antim hoga....
...na bhi hua to padhne ke anad ko visaar hi dega.
pranam.
बहूत अच्छा निर्मला जी . वैसे संस्मरण लिखना काफी कठिन होता है
अपने स्मृति कक्ष में हमें प्रवेश देने हेतु बहुत बहुत आभार...चल रहे हैं आपके संग संग स्मृति पथ पर आत्म्विमुग्ध हुए...
लिखती रहें..
Kis boohe te dastak deva kis da dar kharhkavaN. Mere kolo khud gumm hoya mera hi sirnavaN
Bahut sahaj aur saral shabdon men likha gaya ..sansmaran man ko andolit kar gaya....
HemantKumar
इस संस्मरण को हम तक पहुचाने के लिये,
आपको बहुत-बहुत धन्यवाद!
bahut bhav poorn abhivaykti badhai
आपके संस्मरण से सिक्के से दुसरे पहलु का भी पता चल रहा हैं वर्ना अभी तक तो हम केवल मरीज बन कर ही सोचते झेलते रहे हैं...अब लगता हैं मानवीय संवेदनाएं हर तरफ होती हैं... अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा
आपके संस्मरण अच्छे लग रहे हैं । पर आपके पिताजी ने सही कहा, आप उस समय कम उम्र थीं मृत्यु देखी नही थी तो भावुक होना ही था . पर दुख देखते देखते दुखों को पचाना सीख जाता है आदमी ।
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