फेसबुक पर अपने ग्रुप साहित्य संगम की फिल्बदीह 154 मे हासिल 4 गजलें
मेरे दिल की' धड़कन बनी हर गज़ल
हां रहती है साँसों मे अक्सर गज़ल
इनायत रफाकत रहाफत लिये
जुबां पर गजल मेरे दरपर गजल
कसक दर्द गम भी हैं इसमें बड़े
मगर है तजुरबों का सागर ग़ज़ल
मनाऊं तो कैसे बुलाऊँ भी क्या
जो रहती हो नाराज तनकर ग़ज़ल
है शोखी शरारत है नाज-ओ सितम
हसीना से कुछ भी न कमतर ग़ज़ल
लियाकत जहानत जलाकत भरी
मुहब्बत से लाया है बुनकर ग़ज़ल
चिरागों से कह दो जरूरत नहीं
जलावत से आयी है भरकर ग़ज़ल
गजल 2
मुहब्बत से निकली निखरकर ग़ज़ल
खड़ी हो गयी फिर बिखरकर ग़ज़ल
कहीं तीरगी तो कहीं दर्द था
जिगर में चुभी बन के नश्तर ग़ज़ल
कशिश थी इशारे थे कहीं कुछ तो था
दिखा चाँद जैसे थी छतपर ग़ज़ल
न देखा जिसे और' न जाना कभी
खड़ी आज मेरे वो दरपर ग़ज़ल
मुहब्बत से छूआ उसे बार बार
बसी साँसों' में मेरी' हसकर ग़ज़ल
भले आज वल्लाह कहते हों लोग
थी दुत्कारी बेबह्र कहकर ग़ज़ल
लगी पाबंदी बह्र की और फिर
रही काफियों में उलझकर ग़ज़ल
गजल 3
गिरी बादलों से छिटक कर ग़ज़ल
घटा बन के बरसी कड़ककर ग़ज़ल
नजाकत बड़ी थी हिमाकत बड़ी
किसी ने भी देखी न छूकर ग़ज़ल
सहेली सहारा सभी कुछ तुम्ही
बनी आज मेरी तू रहबर ग़ज़ल
कभी दर्द कोई न उसने कहा
मगर आज रोई है क्योंकर ग़ज़ल
चुराए हैं आंसू कई मेरे पर
न अपना कहे दर्द खुलकर ग़ज़ल
शमा की तरह से जली रात दिन
सिसकती रही रोज जलकर ग़ज़ल
हरिक बार उससे मिली आप मैं
न आयी कभी खुद से चलकर ग़ज़ल
गज़ल 4
मेरी हो गयी आज दिलबर ग़ज़ल
जो आयी है बह्रों से छनकर ग़ज़ल
रकीबो के पाले मे देखा मुझे
लो तड़पी हुयी राख जलकर ग़ज़ल
मैं भौंचक खड़ी देखती रह गयी
गिरी हाथ से जब छिटककर ग़ज़ल
है दिल की जुबाँ एहसासो का सुर
कहीं रूह से निकली मचलकर ग़ज़ल
नहीं टूटी अब तक किसी बार से
रही मुस्कुराती है खिलकर गज़ल
हुये दूर शिकवे गिले आज सब
मिली है गले आज लगकर ग़ज़ल
न भाता मुझे कुछ गज़ल के सिवा
रखूंगी मै दिल से लगाकर गज़ल
मेरे दिल की' धड़कन बनी हर गज़ल
हां रहती है साँसों मे अक्सर गज़ल
इनायत रफाकत रहाफत लिये
जुबां पर गजल मेरे दरपर गजल
कसक दर्द गम भी हैं इसमें बड़े
मगर है तजुरबों का सागर ग़ज़ल
मनाऊं तो कैसे बुलाऊँ भी क्या
जो रहती हो नाराज तनकर ग़ज़ल
है शोखी शरारत है नाज-ओ सितम
हसीना से कुछ भी न कमतर ग़ज़ल
लियाकत जहानत जलाकत भरी
मुहब्बत से लाया है बुनकर ग़ज़ल
चिरागों से कह दो जरूरत नहीं
जलावत से आयी है भरकर ग़ज़ल
गजल 2
मुहब्बत से निकली निखरकर ग़ज़ल
खड़ी हो गयी फिर बिखरकर ग़ज़ल
कहीं तीरगी तो कहीं दर्द था
जिगर में चुभी बन के नश्तर ग़ज़ल
कशिश थी इशारे थे कहीं कुछ तो था
दिखा चाँद जैसे थी छतपर ग़ज़ल
न देखा जिसे और' न जाना कभी
खड़ी आज मेरे वो दरपर ग़ज़ल
मुहब्बत से छूआ उसे बार बार
बसी साँसों' में मेरी' हसकर ग़ज़ल
भले आज वल्लाह कहते हों लोग
थी दुत्कारी बेबह्र कहकर ग़ज़ल
लगी पाबंदी बह्र की और फिर
रही काफियों में उलझकर ग़ज़ल
गजल 3
गिरी बादलों से छिटक कर ग़ज़ल
घटा बन के बरसी कड़ककर ग़ज़ल
नजाकत बड़ी थी हिमाकत बड़ी
किसी ने भी देखी न छूकर ग़ज़ल
सहेली सहारा सभी कुछ तुम्ही
बनी आज मेरी तू रहबर ग़ज़ल
कभी दर्द कोई न उसने कहा
मगर आज रोई है क्योंकर ग़ज़ल
चुराए हैं आंसू कई मेरे पर
न अपना कहे दर्द खुलकर ग़ज़ल
शमा की तरह से जली रात दिन
सिसकती रही रोज जलकर ग़ज़ल
हरिक बार उससे मिली आप मैं
न आयी कभी खुद से चलकर ग़ज़ल
गज़ल 4
मेरी हो गयी आज दिलबर ग़ज़ल
जो आयी है बह्रों से छनकर ग़ज़ल
रकीबो के पाले मे देखा मुझे
लो तड़पी हुयी राख जलकर ग़ज़ल
मैं भौंचक खड़ी देखती रह गयी
गिरी हाथ से जब छिटककर ग़ज़ल
है दिल की जुबाँ एहसासो का सुर
कहीं रूह से निकली मचलकर ग़ज़ल
नहीं टूटी अब तक किसी बार से
रही मुस्कुराती है खिलकर गज़ल
हुये दूर शिकवे गिले आज सब
मिली है गले आज लगकर ग़ज़ल
न भाता मुझे कुछ गज़ल के सिवा
रखूंगी मै दिल से लगाकर गज़ल
3 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21-05-2016) को "अगर तू है, तो कहाँ है" (चर्चा अंक-2349) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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wah-wah didi har ek gajal ki harek panktiya lajwab hain
kisko kisse behetar kahun duvidha me hun .bas yahi kah sakati hun
lazwaab------
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