13 November, 2010

माँ की संदूकची [कविता]

माँ की संदूकची
माँ  तेरी सीख की संदूकची,
कितना कुछ होता था इस मे
तेरे आँचल की छाँव की कुछ कतलियाँ
ममता से भरी कुछ किरणे
दुख दर्द के दिनों मे जीने का सहारा
धूप के कुछ टुकडे,जो देते
कडी सीख ,जीवन के लिये
कुछ जरूरी नियम
तेरे हाथ से बुनी
सीख की एक रेशम की डोरी
जो सिखाती थी
परिवार मे रिश्तों को कैसे
बान्ध कर रखना
और बहुत कुछ था उसमे
तेरे हाथ से बनी
पुरानी साढी की एक गुडिया
जिसमे तेरे जीवन का हर रंग था
और गुडिया की आँखों मे
त्याग ,करुणा स्नेह, सहनशीलता
यही नारी के गुण
एक अच्छे परिवार और समाज की
संरचना करते हैं
तभी तो हर माँ
चाव से  दहेज मे
ये संदूकची दिया करती थी
मगर माँ अब समय बहुत बदल गया है
शायद इस सन्दूकची को
नये जमाने की दीमक लग गयी है
अब मायें इसे देना
"आऊट आफ" फैशन समझने लगी है
समय की धार से कितने टुकडे हो गये है
इस रेशम की डोरी के
अब आते ही लडकियाँ
अपना अलग घर बनाने की
सोचने लगती हैं
कोई माँ अब डोरी नही बुनती
बुनना सिलना भी तो अब कहाँ रहा है
अब वो तेरे हाथ से बनी गुडिया जैसी
गुडिया भी तो नही बनती
बाजार मे मिलती हैं गुडिया
बडी सी, रिमोट  से चलती है
जो नाचती गाती मस्त रहती है
ममता, करुणा, त्याग, सहनशीलता
पिछले जमाने की
वस्तुयें हो कर रह गयी हैं
लेकिन माँ
मैने जाना है
इस सन्दूकची ने मुझे कैसे
एक अच्छे परिवार का उपहार दिया
और मै सहेज रही हूँ एक और सन्दूकची
जैसे नानी ने तुझे और तू ने मुझे दी
इस रीत को तोडना नही चाहती
ताकि अभी भी बचे रहें
कुछ परिवार टूटने से
और हर माँ से कहूँगी
 कि अगर दहेज देना है
तो इस सन्दूकची के बिना नही

64 comments:

Bharat Bhushan said...

माँ की संदूकची में क्या-क्या होता है इसका सुंदर चित्रण आपने कर दिया है. इससे अधिक सुंदर संस्कारों का फूलदान और क्या हो सकता है.

संजय भास्‍कर said...

आदरणीय निर्मला कपिला जी
नमस्कार !
मन को छू लेने वाली कविता लिखी है आपने। बधाई।
..... आपकी लेखनी को नमन बधाई

P.N. Subramanian said...

"शायद इस सन्दूकची को
नये जमाने की दीमक लग गयी है"
मां केलिए ही नहीं सबको प्रेरणा देती सुन्दर कविता.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सच में नए ज़माने की हवा लग गयी है ..न कोई यह संदुकची देता है और न ही कोई लेना चाहता है ...

बहुत खूबसूरत भावों को संजोया है इस कविता में ...हर बिम्ब सटीक लिया है ...बहुत अच्छी रचना

Arvind Mishra said...

बदलाव के स्याह शेड !

अजय कुमार said...

मां की संदूकची ऐसे ही हस्तांतरित होती रहे ।

Randhir Singh Suman said...

nice.............

M VERMA said...

परिवर्तन अवश्यम्भावी है पर विगत तो सालता ही है

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सच में अब नहीं दी जाती वो संदूकची....... जिसमे प्यार, संस्कार सब कुछ भरा होता था....
नया ज़माना नयी बातें ......बदलाव दर्शाती सुंदर कविता

अजित गुप्ता का कोना said...

निर्मला जी,
मेरी एक कविता है वसीयत। उसमें मैंने कुछ पंक्तियां लिखी हैं, वे हैं -
इक दिन ऐसा भी आएगा
सब कुछ देने को मन कर जाएगा
जाती बिटिया की झोली में
क्या-क्या मैं भर दूंगी?
हीरे पन्ने माणक या
इन शब्दों में भीगी दुनिया?
उसकी मुट्ठी में चुपके से रख दूंगी
एक पिटारी प्यारे से शब्दों की
उन शब्दों से शायद मिल जाए
मन को जीतने की कुंजी!

आपने बहुत ही अच्‍छी बात कविता के माध्‍यम से कह दी है। आभार।

kshama said...

इस रीत को तोडना नही चाहती
ताकि अभी भी बचे रहें
कुछ परिवार टूटने से
और हर माँ से कहूँगी
कि अगर दहेज देना है
तो इस सन्दूकची के बिना नही
Nirmalaji...meri to aankhen bhar aayeen,aapkee ye rachana padhte,padhte!

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

संदूकची में संस्कार सुरक्षित हैं..

रश्मि प्रभा... said...

main dungi wo sandukchi ..... is dharohar ko khone nahi dungi ......ise vatvriksh ke liye bhejiye

Majaal said...

बहुत अच्छी कविता, बहुत बढिया अंत, हमें तो आपकी कविताएँ ज्यादा पसंद आतीं है आपकी ग़ज़ल और कहानियों से :)

लिखते रहिये ....

महेन्‍द्र वर्मा said...

इस रीत को तोड़ना नहीं चाहती...

सचमुच, विलुप्त हो रही परम्पराओं को अब सहेजना आवश्यक हो गया है।
सुंदर ओर भावनाप्रधान कविता के लिए बधाई।

Asha Lata Saxena said...

आपकी रचनाएँ पढ़ने का बहुत इन्तजार रहता है
बहुत बहुत बधाई इस खूबसूरत रचना के लिए |
आशा

शिक्षामित्र said...

सदियों के अनुभव से चली परम्पराओं को क्षण भर में टूटते देखना दुखद अनुभव है। कहीं स्थान की कमी,कहीं भाव की!

vandana gupta said...

ताकि अभी भी बचे रहें
कुछ परिवार टूटने से
और हर माँ से कहूँगी
कि अगर दहेज देना है
तो इस सन्दूकची के बिना नही
बेहद सुन्दर उपहार और उतना ही सुन्दर भाव संग्रह ……………कोशिश जारी रहे तभी ये मान्यता जीवित रह पायेंगी।

कुमार राधारमण said...

प्लास्टिक कार्ड ने बहुत सी चीज़ों को रिप्लेस कर दिया है। मगर,इसके एवज में हमसे कितना कुछ छिना है,यह कविता उसका एक नमूना है।

Yashwant R. B. Mathur said...

"".....शायद इस सन्दूकची को
नये जमाने की दीमक लग गयी है
अब मायें इसे देना
"आऊट आफ" फैशन समझने लगी है....."

बदलते परिवेश का सुन्दर चित्रण!
और साथ में एक सीख भी कि -

"हर माँ से कहूँगी
कि अगर दहेज देना है
तो इस सन्दूकची के बिना नही"

अगर हम इस सीख को समझ सकें तभी इस कविता की सार्थकता होगी.

सादर-

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

सुन्दर रचना !

अब मायें इसे देना
आउट आफ़ फ़ैशन समझने लगी है,
और फ़ैशन परस्त बेटियां
संग ससुराल ले जाना नही चाह्ती !

रानीविशाल said...

बहुत ही सुन्दर और बहुत ही प्रभावशाली कविता है .....देश में हर माँ इस संदुकची को अगली पीढ़ी में हस्तांतरित कराती रहे .

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

मै सहेज रही हूँ एक और सन्दूकची
जैसे नानी ने तुझे और तू ने मुझे दी
इस रीत को तोडना नही चाहती
ताकि अभी भी बचे रहें
कुछ परिवार टूटने से
और हर माँ से कहूँगी
कि अगर दहेज देना है
तो इस सन्दूकची के बिना नही...

संस्कृति और परम्पराओं के लिबास में भावनाओं की नायाब सौगात पेश की है आपने.

समयचक्र said...

माँ पर बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना ... आभार प्रस्तुति के लिए...

प्रवीण पाण्डेय said...

पता नहीं कितना पुण्य संचित है इस संदूचकी में।

उस्ताद जी said...

6/10

कहाँ खो सी गयी है अब वो संदूकची ?
"ममता, करुणा, त्याग, सहनशीलता
पिछले जमाने की
वस्तुयें हो कर रह गयी हैं"

यह कविता तो नहीं लगी मुझे. लेकिन रचना के भाव अंतर्मन को छूने के लिए पूर्ण सक्षम हैं.
आपने नयी और पुरानी पीढी को बहुत सुन्दर सन्देश दिया.

priyankaabhilaashi said...

निशब्द हूँ..कितनी सरलता से आपने मूल्यों पर पसरती निष्ठुरता का चित्रण किया..!! कृतज्ञ हूँ..!!

शूरवीर रावत said...

शब्दों की पूंजी सँभालने का धैर्य कहाँ है आज की पीढ़ी में ....! मांएं देना भी चाहेगी तो............भावपूर्ण कविता. आभार.

मनोज कुमार said...

एक अच्छे परिवार का उपहार
दीदी,
इसे पढकर ऐसा लगा मानों आपकी सोच, अनुभूति, स्मृति और स्वप्न सब मिलकर काव्य का रूप धारण कर लिया हो। भाव और विस्तार कहीं ऊपर से चिपकाए नहीं लगते, इसलिए कविता में कोई पैबन्द या झोल नहीं है।

उस्ताद जी जूनियर होशियारपुर वाले said...

९.९५/१०
एक पूरी संस्कृति समेटे हुए है यह कविता. संदूकची में क्या कुछ समाया रहता था. आउट ऑफ़ फैशन वह संदूकची नहीं हुई. आउट ऑफ़ फैशन तो वह चीज होती है जो फैशन से जुडी हुई रहती है. जो हमारे संस्कारों से जुडी हुई चीज हो, उसमें फैशन कैसा?

मैं बहुत भावुक हो गया हूँ यह कविता पढ़कर. ईमानदारी से कह रहा हूँ.

ZEAL said...

.

भावुक कर देने वाली प्रस्तुति। माँ की यादों को सुन्दरता से संजोया है आपने।

.

Anonymous said...

maa ki sandook mein jeewan chhupa hota hai...
bahut hi marmik rachna.... kuch takniki karno se hindi mein tippani nahi kar pa raha hoon.... maafi chahunga....

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) said...

bahut sunder... sach mein vo puraani baaten ab nahi rahin!

shikha varshney said...

संवेदनाओं को छूती हुई अद्भुत कविता.भावुक कर दिया आपने.

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

बेहतरीन...मन्त्रमुग्ध कर देने वाली रचना!
युगों से चली आ रही परम्पराओं का यूँ टूटते जाना मन को पीडा तो देता ही है....

Smart Indian said...

माँ की संदूकची का बहुत सुंदर चित्रण

Smart Indian said...

माँ की संदूकची का बहुत सुंदर चित्रण

Sadhana Vaid said...

कितने दिनों के बाद इतनी भावपूर्ण कविता पढ़ी ! निर्मला दी इतनी सुन्दर कविता पढ़ कर मुझे भी दहेज में मिली अपनी माँ की ऐसी ही संदूकची की याद आ गयी जिसे मैंने आज तक बड़े जतन से सहेज कर रखा है ! आपकी रचना ने भाव विभोर कर दिया ! अति सुंदर !

कडुवासच said...

... sundar va bhaavpoorn rachanaa ... badhaai !

शरद कोकास said...

माँ की सन्दूकची मे सबसे ज़्यादा बच्चो के लिये प्यार होता है

रचना दीक्षित said...

कहाँ से ढूंढ़ लायी आप ये संदुकची. अब तो न जाने कितनी ही माओं को आता होगा स्वेटर बनाना?? कितनों ने तो ये संदुकची कब कि बेच दी होगी. अब कहाँ ये परमपराएँ बची कि संदुकची आगे कि पीढ़ी को दी जाए

दिगम्बर नासवा said...

बहुत मार्मिक ... परंपरा का निर्वाह कितना सकूं देता है ... और कितना ज़रूरी भी है ....
दिल में उतर गयी ये रचना ...

ज़मीर said...

बहुत ही सुन्दर रचना. आज के खोखलेपन को आपने सुन्दर रुप में प्रस्तुत किया है .
आभार.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत ही सुन्दर रचना ! माँ की संदूक का सबसे बड़ा धन तो उनकी ममता है ...
बाल दिवस की शुभकामनायें !

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

वाह आपने तो मुझे अपनी दादी की मिट्टी वाली कोठरी याद दिला दी...

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

परमपरायें किसी भी देश , समाज ,समूह की पहचान होती है, इनमे समय के साथ थोड़ा बदलाव जायज़ है पर हम जिस दिन इनसे पूरी तरह कट जायेंगे उस दिन हमारे अस्तित्व पे प्रश्न चिन्ह लग जायेगा। बहुत ही सुन्दर कविता निर्मला जी को लख लख बधाई।

rashmi ravija said...

बहुत ही सुन्दर रचना..संदूकची में माँ-नानी का प्यार भरा स्पर्श और संस्कार भरे होते हैं..जो पीढ़ी डर पीढ़ी राह दिखाते हैं

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

bahut hee sundar ehsaas hai aunty ji!

प्रतिभा सक्सेना said...

हाँ ,मुझे याद है ,बिदा मैं एक संदूकची जरूर होती थी ,जिसमें भाँति-भाँति का सामान होता था ,-एक कजरौटा ,एक सिंधौरा , चूड़ियाँ ,एक रामायण,खिलौने ,-हाथ की बनाई कपड़े की गुड़िया,हस्त कला-कौशल की चीज़ें ,और भी बहुत कुछ .उसे परिवार की महिलाओं के बीच में बड़े आयोजन के साथ खोला जाता था .
अब कहाँ है वह सब !

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

संदुकची में बहुत ही अपार निधि है.. सिर्फ यही निधि हर लड़की को मिले ... दहेज तो कुछ भी नहीं ऐसी संदुकची के आगे... सुन्दर कही गयी ये बात ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 16 -11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

VIJAY KUMAR VERMA said...

इस रीत को तोडना नही चाहती
ताकि अभी भी बचे रहें
कुछ परिवार टूटने से
और हर माँ से कहूँगी
कि अगर दहेज देना है
तो इस सन्दूकची के बिना नही

बहुत ही सुन्दर रचना ! माँ की संदूक का सबसे बड़ा धन तो उनकी ममता है ...

Akanksha Yadav said...

पूरा ममत्व ही छलका दिया आपने..शानदार पोस्ट..बधाई.


_________________
'शब्द-शिखर' पर पढ़िए भारत की प्रथम महिला बैरिस्टर के बारे में...

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत प्‍यारी है मां की संदूकची।

---------
जानिए गायब होने का सूत्र।
….ये है तस्‍लीम की 100वीं पहेली।

Arvind Jangid said...

बहुत ही सुन्दर रचना !

Anonymous said...

भावुक कर दिया आपने... नमन करता हूँ आपको भी और माँ को भी...

Anonymous said...

क्या बात कही है साहब... भाषा के मामले में हमारे देश का हाल बुरा है, साइनबोर्ड़ हों या हिंदी की ड़ुगडुगी बजाते न्युज़ चैनल... हिंदी में फ़ॉर्म भर देने पर हमें किसी एलियन की तरह देखने वाले सरकारी कर्मचारी या बचपन से ही बच्चों को अंग्रेज़ी में बात करना (फिर चाहे वो गलत ही क्यों न बोलें) सिखाने वाले माँ-बाप... सही भाषा व सही भाव दोनों का ही अभाव है देश में... विड़ंबना...

Anonymous said...

सुंदर विचार... पर कोई इसको अमल में लाए तो...

सदा said...

मां की संदूकची में ... बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों के साथ्‍ा भावमय प्रस्‍तुति ।

रंजना said...

कितना सच कहा आपने....

अब यह सब आउट ऑफ़ फैशन हो गया है....

लेकिन सहेजने की कला भूलकर लोग अपनी ही जिन्दगी ko बिखेर रहे हैं...

भावपूर्ण अति सुन्दर कविता,जिससे यदि आदमी सीख ले तो जीवन संवर जाए...

Yogesh Verma Swapn said...

bahut sunder bhavnatmak abhivyakti , badhaai.

Asha Joglekar said...

अब माँयें ऐसी संदूकची नही देतीं । कहां गये वो दिन कहां गये वो लोग ।

अनामिका की सदायें ...... said...

इस कविता के लिए बस इतना ही कह सकती हूँ की मैं इसकी संदूकची में भरी भावनाओं को शायद कभी ना भुला पाऊं.

बहुत बहुत ही सुंदर कविता. और कमेन्ट देते टाइम साइड में आपकी एक फोटो दिख रही है जिसमे आपने शायद अपनी नातिन को उठाया हुआ है...और लग रहा है मानो उसे आप ये सब कह रही हों.:)

अनुपमा पाठक said...

भावपूर्ण रचना!

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