21 September, 2010

दहेज्-- अपनी बात।

क्या सामर्थ्यवान लोगों को दहेज देना चाहिये?
 मेरे ब्लाग www.veerbahuti.blogspot.com/ पर एक लघु कथा-- दो चेहरे पढ कर खुशदीप सहगल जी ने अपने ब्लाग http://deshnama.blogspot.com/ पर अपने विचार दिये और कई लोगों ने भी अपने अपने विचार दिये। आज उन से ही मन मे कुछ सवाल उठे।किसी का उन से सहमत होना न होना जरूरी नही जरूरी है हम फिर भी संवाद करें और अपने अपने विचार दें तो शायद कोई बीच का रास्ता हमे भी सूझ जाये।
मेरी लघु कथा का जिक्र हुया मुझे खुशी हुयी।लेकिन उस लघु कथा मे विषय ये नही था कि दहेज लिया दिया जाये य नही मै तो बस ये कहना चाहती थी कि लोग  दोहरी नीति अपनाते हैं, जब समाज की बात आती है तो ये कुरीति बन जाती है जब अपने घर की बात आती है तो ये जायज़ है। लेकिन दहेज के बारे मे आज कुछ बातें करना चाहूँगी। कुछ लोगों ने दहेज के लिये कहा कि अगर कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से दहेज देना चाहता है तो उसमे कोई बुराई नही। इस बात पर मन मे कुछ सवाल और भ्रम से उत्पन हुये जिन्हें आपके साथ बाँटना चाहती हूँ। िस व्यवस्था के लचीले पन मे कुछ सवाल उभरते हैं।  जिस जगह भी कुछ लचीला पन रहा है वहाँ लोग अपने स्वार्थ के लिये राह तलाश लेते हैं। हर पक्ष के दो पहलू होते हैं,देखने वाली बात ये है कि दोनो मे कौन सा समाज के लिये हानिकारक है और कौन सा सिर्फ कुछ लोगों के खुद के लिये। जो समाज के लिये हनिकारक हो।
 सब से पहले तो हमे ये तय करना चाहिये कि क्या हम लडकियों को समान अधिकार देने के हक मे हैं या नही।
अगर हैं तो लडकी को जब लडकों की तरह पढाया लिखाया जाता है और पिता की सम्पति पर बेटी का भी बेटे के बराबर हक होता है तो फिर दहेज किस बात के लिये। उपर से लडकी ने अगर नौकरी करनी है तो उसकी पूरी कमाई ससुराल मे ही तो जायेगी। फिर भी लडकी वालों को ये मजबूरी क्यों कि वो दहेज दें। अगर सच कहें तो अधिकतर दहेज केवल मजबूरी मे दिया जाता है। वो मजबूरी चाहे समाज की रीत हो या फिर  अपने  मान सम्मान की। ये भावना दहेज की कुरीति से ही पनपी है कि इस पवित्र बन्धन को आज केवल पैसे से तौला जाने लगा है। इसे अपने सम्मान और प्रतिष्ठा से जोडा जाने लगा है।
दूसरी बात जो कुछ लोगों ने उठाई है वो है कि जो समर्थ है वो अगर अपनी मर्जी से अपनी बेटी को कुछ देता है तो उसमे कोई नुकसान नहीं। हाँ सही है, लेकिन इसी लेन देन से बाकी लोगों के लिये एक लकीर खींच दी जाती है कि उसने अपनी लडकी को इतना दिया और हम ने क्या दिया? या हमे क्या मिला?  फिर जब एक ही घर मे दो बहुयें आती हैं एक को माँ बाप ने कैश या दहेज दिया दूसरी बहु बिना कुछ लिये आयी तो घर मे ही दो लकीरें खिंच जाती हैं। हमारा समाज इतना भी उदार नही हुया कि ऐसी बहुयों मे फर्क करना छोड दे।  अपनी एक रिश्तेदारी की बात बताती हूँ।  उन्होंने जब लडकी का रिश्ता किया तो शादी से पहले ही बात हो गयी कि दहेज नही लेंगे। लडकी  बहुत अच्छी जाब कर  रही थी। एक महीने मे 60 हजार रुपये तन्ख्वाह लेती थी। शादी धूम धाम से हो गयी और उसके दो माह बाद ही दूसरे बेटे की शादी की तो उसके माँ बाप ने अपनी लडकी के नाम दहेज  के रूप मे 10 लाख रुपये जमा करवा दिये। अब धीरे धीरे छोटी बहु तो सब की आँखों का तारा बन गयी वो भी जाब करती थी, मगर घर का कोई काम काज आदि नही करती थी और ऐश से रहती। वहाँ दूसरी बहु को पूरा घर भी सम्भालना पडता, मगर घर के लोग दूसरी को कुछ नही कहते।अब बडी बहु के माँ बाप रिटायर हो चुके थे जो धन मिला उससे घर बनाया और तीनों बच्चों को अच्छी तालीम भी दी। कोई सरकारी नौकरी मे कितना धन जोड सकता है आखिर जब लडकी को ताने मिलने लगे तो उन्होंने कुछ राशी लडकी के नाम दे दी।। वो राशी ये सोच कर भी दी कि  दी कि उनके कोई बेटा नही मरने के बाद भी इसी का होगा। उसके बाद मजबूरी मे दूसरी लदकी को भी उतना ही देना पडा। और सारी जमा पूँजी समाप्त हो गयी।लेकिन कुछ समय बाद घर मे बीमारी ने ऐसे पाँव फैलाये कि वो लोग पैसे के अभाव मे आ गये।
आज वो उस की पूर्ती अपने खाने दाने मे और अपनी जरूरतों मे कटौती कर के कर रहे हैं जबकि ससुराल वाले उस बहु की इतनी बडी कमाई से शाही जीवन जी रहे हैं । ऐसे कितने उदाहरण अपने आस पास के दे सकती हूँ।
 अब अगर वो लाखों न दिया होता तो शायद अब उनके काम आता लडकियाँ चाहे कमाती हों मगर इतनी भी आज़ाद नही हुयी कि वो अपने माँ बाप पर अपनी मर्जी से कोई बडा खर्च कर सकें। फिर ऐसे हालात मे जहां बहु की कद्र सिर्फ पैसे से होती हो। इन्सान का मन बहुत विचित्र है। पैसा बडे बडों का ईमान गिरा देता है ये तो आपने देखा ही होगा जैसे इस परिवार का गिराया है। पहले चाहे उन्हों ने इसे कुरीति ही मान कर दहेज नही लिया मगर जब अपने आप आ गया तो लालच बढ गया। अगर आप गौर करें तो देहेज प्रथा मे  लचीलापन उन लोगों की सोच है जिनके लडके हैं। लडकी वालों मे बहुत कम लोग होंगे जो समर्थ होते हुये भी दहेज देना चाहेंगे। ये प्रथा है इस लिये उन्हें ये अपनी बेटी का मान सम्मान लगता है, तो इसे बुरा नही मानते। मगर ये बाकी समाज के असमर्थ लोगों के लिये मजबूरी बन जाता है।
मेरा मानना है कि जिस जगह लचीनापन होता है वहाँ अपने अपने स्वार्थ के लिये रास्ते जरूर खुल जाता हैं।  अगर यही लचीलापन हम केवल लडकियों को बराबरी का हिस्सा देने मे रखें तो शायद बाकी असमर्थ लोगों को कुछ राहत मिले।हिस्सा देने मे जो कुछ विसंगतियाँ आती हों उनके लिये हल खोजे जा सकते हैं।
एक सवाल और पूछना चाहती हूँ कि क्या जो लोग दहेज की हिमायत करते हैं वो इस बात की भी हिमायत करेंगे कि उनका बहु जो कमाती है उसमे से आधा अपने माँ बाप को दे कम से कम बुढापे मे उनके गुजर बसर का जिम्मा ले? कहने को तो हर कोई कह देगा लेकिन होगा नही। जिन के बेटे नही होते उन माँ बाप से तो लडके वालों की और भी आपेक्षायें बढ जाती हैं। कि बाद मे भी तो लडकी को ही मिलेगा इस लिये पहले ही उनकी आँखें लडकी वालों की सम्पति पर लग जाती हैं। इससे पहले कि वो अपना पैसा कहीं और न लुटा दें उन्हे मिल जाये। फिर हर तौहारों पर लेन देन केवल लडकी वालों की जिम्मेदारी होती है। इस प्रथा मे यही काफी नही कि दहेज दिया और छुट्टी मिल गयी। हर त्यौहार पर ससुराल वालों की आपेक्षायें बढती ही जाती हैं, जैसे बेटी को जन दे कर उन्हों ने कोई गुनाह किया है जिस की सजा उन्हें उम्र भर मिलती रहेगी।
 कुछ दिन पहले ही किसी के घर मे ऐसा वाक्या हुया कि लडकी को  अपने माँ बाप के पास जमीन खरीदने के लिये पैसे लेने भेजा गया।  लेकिन लडकी के बाप के पास जो था उसी मे से अपना गुजर बसर करते थे। जब इन्कार किया तो लडकी  को मायके भेजना बन्द कर दिया। अब मरता क्या न करता कुछ पैसे दे कर अपनी बेटी से मिलने का हक लिया।
  कि बाद मे भी तो लडकी को ही मिलेगा इस लिये पहले ही उनकी आँखें लडकी वालों की सम्पति पर लग जाती हैं।
 बहुत कुछ इस विषय पर लिखा जा सकता है। मगर पोस्ट बडी नही करना चाहती। बस एक बात कहना चाहती हूँ कि अपनी सामर्थ्य और अपने मान सम्मान के लिये दिया गया दहेज क्या असमर्थ लोगों के लिये मजबूरी तो नही बन रहा? क्योंकि कई बार ससुराल वाले ताने दे देते हैं देखों फलाँ के घर कितना कुछ आया और तुम्हारे माँ बाप ने क्या दिया। और दिये गये समान मे मीन मेख निकलनी शुरू हो जाती है जिस से सास बहु मे या बाकी सब के दिलों मे मन मुटाव शुरू हो जाता है।अगर ये सब जायज़ है तो समान अधिकारों की बात छोडो।ऎसे कानून का विरोध करो जो लडकी को समान अधिकार देता है।
आज जिस समाज मे लोगों की सोच ये है कि पडोसी को देख कर अपना रहन सहन उनसे ऊँचा रखने की रेस लग जाती है, उस समाज मे ये लचीलापन एक अभिशाप से कम नहीं। फिर भी ये सब होता रहेगा हम और आप केवल बहस करते रहेंगे। बस ।सब की अपनी अपनी भावनायें अपनी अपनी सोच है।
किसी व्यवस्था मे उसके प्रबन्धन मे लचीलापन उस व्यवस्था के लिये घातक होता है, जैसे एक बाप घर की व्यवस्था मे  कई बार सख्ती से काम लेता बच्चों की बेहतरी के लिये  लेकिन माँ का व्यवहार लचीला  होता है जब माँ बच्चों की गलतियाँ  बाप से छुपाती है तो बच्चों को मनमर्जी करने की आदत पड जाती है। और कई बार आपने सुना होगा अकसर ये कहा जाता है इसे माँ ने बिगाडा है। मेरे कहने का तात्पर्य है कि जहाँ लचीलपन होता है वहीं से लोग अपने स्वार्थ का रास्ता तलाश लेते हैं। इन्सान के आपसी व्यवहार  और रिश्तों मे लचीनापन उस व्यवस्था को मजबूत करता है, लेकिन बुनियादी ढाँचे मे हानिकारक होता है। घर की नींव मजबूत हो लेकिन उपर की सज्जा अपनी सामर्थ्य के अनुसार हो यहाँ लचीलापन चलेगा लेकिन नींव मे नही। । अगर आज हमारे संविधान मे लचीलापन न होता तो शायद आज देश का ये हाल न होता। स्वतन्त्रता जब अभिशाप बन जाये तो स्वतन्त्रता के क्या मायने? पंजाबी की कहावत है कि
"भट्ठ पिया सोना जेहडा कन्ना नूँ खावे"  अर्थात उस सोने का क्या फायदा जो कानो को नुकसान दे।
 एक बात और जैसा हमारी हिन्दू संस्कृ्ति व जीवन दर्शन मे[बाकी धर्मों मे भी}, हमारे लिये रहन सहन के नियम  तय किये गये हैं क्या हम उनके अनुसार अपना रहन सहन या व्यव्हार करते हैं। नही!  हम उन्हें रूढीवादी कह कर अपने हिसाब और सुविधा से जीते हैं। तो फिर उस समय के हिसाब से चली व्यवस्था अगर समाज को हानि पहुंचा रही है तो उसे बदलने की जरूरत क्यों नही। लेकिन होगा तब जब हम अपनी सोच को इस जमाने के हिसाब से बदलेंगे। न कि लडकी को अभी भी निरीह प्राणी समझेंगे । शादी सामाजिक व्यवस्था का एक   जरूरी अंग ,इसे सार्थक और सुन्दर बनाने के लिये हमे ऐसी कुरीतियों का विरोध करना ही होगा।  इसकुरीति के चलते  न तो भ्रूण हत्यायें रुकेंगी और न दहेज हत्यायें। धन्यवाद।

39 comments:

संगीता पुरी said...

दहेज प्रथा को समाप्‍त करने के लिए बेहतर है .. लडकियों को लडकों की तरह ही पढाया लिखाया जाए .. उनके कैरियर को भी मजबूती दी जाए .. और पिता के संपत्ति पर बेटों की तरह उनका हक हो .. और मां बाप की जबाबदेही भी वो ले सकें !!

राणा प्रताप सिंह (Rana Pratap Singh) said...

आपकी बातों से अक्षरशः सहमत हूँ..दहेज़ चाहे मर्जी से दिया गया हो अथवा जबरदस्ती लिया गया हो दहेज़ ही होता है ..और इसका विरोध होना ही चाहिए|
जो लोग दहेज़ के हिमायती है उनके जवाबों की मुझे भी प्रतीक्षा है|

अजित गुप्ता का कोना said...

निर्मला जी, दहेज पर बहुत बातें होती हैं लेकिन मर्ज बढता ही जाता है। मर्ज बढता ही गया, ज्‍यों-ज्‍यों दवा की। असल में मुझे लगता है कि दवा ही गलत दी जा रही है। यह रोग लड़के वालों का है ही नहीं, यह लड़की वालों का है। हम क्‍यों लाचार है? हम क्‍यों चाहते हैं कि अमीर घर का इकलोता लड़का मिले। अपने से बड़ा, अपने से ज्‍यादा पढा-लिखा लड़के की क्‍यों तलाश है? आज समाज के सम्‍मुख निम्‍न मध्‍यम वर्गीय परिवारों के लड़कों को कोई लड़की नहीं देता और दूसरी तरफ अमीरों के बेटे खरीदे जा रहे हैं। कोई भी लडकी कभी लाचार नहीं थी और ना है। बल्कि जो बिक रहा है वह लाचार है। मैंने ऐसे कितने ही लडके देखे हैं जो मेरे आस पास हैं उनको अपनी बेकार लडकी के लिए खरीदा गया। यदि लडकी वाले यह निश्‍चय कर लें कि हम अपने से छोटे परिवार का लड़के से विवाह करेंगे तो यह समस्‍या रहेगी ही नहीं। लेकिन आजकल तो लडकी स्‍वयं चाहती है कि उसे दहेज मिले। प्रेम विवाह के बाद भी माता-पिता को लाखों रूपये इसलिए खर्च करने पड़ते हैं कि लड़की की इच्‍छा है। इसलिए इस बिन्‍दु पर भी समाज का ध्‍यान जाना चाहिए।

संजय भास्‍कर said...

आजकल तो लडकी स्‍वयं चाहती है कि उसे दहेज मिले। प्रेम विवाह के बाद भी माता-पिता को लाखों रूपये इसलिए खर्च करने पड़ते हैं कि लड़की की इच्‍छा है। इसलिए इस बिन्‍दु पर भी समाज का ध्‍यान जाना चाहिए।

निर्मला कपिला said...

अजित जी और संजय जी बिलकुल इस बिन्दू पर ध्यान जाना चाहिये। क्योंकि ये प्रथा है इस लिये आजकल के बच्चे भी चाहते है। अगर ये प्रथा न हो तो कोई नही चाहेगा। लडकी के मन मे भी यही होता है कि ससुराल मे उसकी इज्जत हो इस लिये वो चाहती है क्योंकि दहेज एक प्रथा है। अजित जी सभी लोग अमीर लडके नही देखते लेकिन लडकी की शिक्षा दीक्षा के बराबर तो देखना ही पडता है। तो क्या लडकी को इतना पढा लिखा कर उससे कम लडके से व्याह दें ? आप ये तो मान गयी न कि अमीर से व्याहने की जो इच्छा रखते हैं उन्हें ही दहेज देना पडता है। कितनी त्रासद स्थिति है। बस मेरा यही कहना है कि अगर ये प्रथा मूल से ही समाप्त हो जाये तो सब कुछ सही हो जायेगा। मगर लगता नही कि वो समय भी आयेगा।

नीरज गोस्वामी said...

कोई लचीलापन नहीं...दहेज लेना और देना अपराध की श्रेणी में आता है और अगर हम इस बात को नहीं मानते तो अपराधी हैं...सीधी सी बात है...

नीरज

P.N. Subramanian said...

समाज में लचीलापन समस्या मूलक ही है. अजीत गुप्ता जी की बात में भी दम है.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत ज्वलंत विषय है ...दहेज ...आखिर है क्या ? प्रथा शायद शुरू हुई होगी नयी गृहस्थी को बनाने में मदद से ..पर अब यह मदद नहीं मजबूरी बनती जा रही है .... दहेज यानि विवाह में हर प्रकार का लें दें दहेज में ही शामिल है .चाहे वो माँगने पर दिया गया हो या अपनी इच्छा से ...बस जहाँ अपनी इच्छा से दिया जाता है वहाँ बोझ नहीं लगता ..खुशी होती है ...अपनी चादर से पांव बाहर निकार कर कुछ नहीं करना चाहिए ...न जाने क्यों लड़कियों का विवाह कर मुक्त होने का बोध करते हैं ? और इसी लिए लडकी वाले झुकते जाते हैं ...यदि लोंग लड़कियों को बोझ न समझ कर लड़के वालों की लालची प्रवृति के आगे घुटने न टेकें तो इस समस्या से छुटकारा मिलने की उम्मीद की जा सकती है ...जब बिना मेहनत के कुछ मिल जाए तो किसको अखरेगा ? और सच तो यह है कि एक ही इंसान बेटे के लिए अलग और बेटी के लिए अलग मापदंड रखता है ...यानि कि दो चेहरे ....

सुधीर राघव said...

बहुत ही सार्थक बहस है. इसे आगे बढ़ाते रहिए

सुधीर राघव said...

बहुत ही सार्थक बहस है. इसे आगे बढ़ाते रहिए

सदा said...

यह विष्‍ाय इतना गंभीर है, लेकिन फिर भी इस पर किसी प्रकार की रोक लगा पाना मुश्किल आज तक संभव नहीं हो सका, कभी माता-पिता अपनी खुशी से बेटी को दहेज देते हैं, कहीं पर अच्‍छे वर की चाह उन्‍हें दहेज देने को मजबूर कर देती है।

shikha varshney said...

दहेज की शुरुआत हुई थी ..की बेटी दूसरे घर जा रही है तो उसकी गृहस्थी बसने में मदद हो .परन्तु अब यह एक समस्या और मजबूरी बन चुकी है और मुझे तो ऐसा लगता है कि वक्त के साथ खतम होने कि जगह बढती ही जा रही है.और परिणाम हम आये दिन देखते हैं .खत्म होना चाहिए ये सब ..पर पाता नहीं कब ..और कैसे होगा....

रंजना said...

बात तो सही है...सैद्धांतिक और व्यवहारिक रूप में विरोधाभास ने ही दहेज़/उपहार/स्त्री धन को अभिशाप बना दिया है...

vandana gupta said...

कुछ समस्याओं का कोई हल नही और तब तक तो बिल्कुल नही जब तक चाहे लड्की वाला हो या लडके वाला दोनो की सोच मे परिवर्तन ना हो। जब तक मानसिकता नही बदलेगी तब तक दहेज लिया और दिया जाता रहेगा और हम सब बहस करते ही रहेंगे क्योंकि हर इंसान के लडका और लडकी दोनो ही होते हैं तो उसे खुद ये समझना होगा तभी किसी बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।

Khushdeep Sehgal said...

निर्मला जी,
आपकी बात बिल्कुल सही है,
दहेज के लोभियों को सख्त से सख्त सज़ा मिलनी चाहिए...
लेकिन क्या इससे बड़ा अपराध वो नहीं है जो कन्या का गर्भ में ही गला घोंट देता है...
ये तो खुद मां-बाप ही करते हैं...कभी मर्जी से कभी दबाव से...
खास तौर पर पंजाब में ये बीमारी अब भी बहुत है...तभी वहां लड़कों की शादियों के लिए लड़कियों का
अकाल पड़ता जा रहा है...
क्यों नहीं आज भी पंजाबी घरों में लड़के के जन्म की तरह ही लड़कियों के जन्म पर भी लोहड़ी मनाई जाती...
ये सिर्फ लड़के की चाहत क्यों...क्या इसलिए कि बड़ा होगा तो घर में शादी के बाद लड़की के साथ दहेज आएगा...
मेरा कहने का मतलब ये है कि सोच सिर्फ लड़के वालों की ही नहीं ऐसे लोगों की भी बदलनी चाहिए जो लड़कियों को बोझ समझते हैं...देखा जाए तो इसी में दहेज की बुराई का बीज भी छुपा है...ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार ही सबसे अच्छा उपाय है...

जय हिंद...

PRAN SHARMA said...

Yah byaah - shaadiyon par kewal
dahej hee nahin , tohfe lenaa -
denaa bhee vyavsaay ban gayaa hai
aur khoob chal rahaa hai.Hum ek -
doosre par dosh madhte hain lekin
sachchaaee yah hai ki is hamaam mein lagbhag sabhee nange hain.
kuchh aese log bhee hain jo apne
beton kee shaadiyon mein khoob
dahej lete to hain lekin apnee
betiyon kee shadiyon mein dahej
dete nahin hain.
U.K mein to dahej samasya
vikraal roop dhaaran kar rahee hai.
Dahej do tab bhee bura aur nahin
do tab bhee bura logon kee nazron
mein.

ZEAL said...

.

" यदि वर-पक्ष दहेज़ की डिमांड करता है , तो उस रिश्ते को सिरे से नकार देना चाहिए ।

" If a person can steal egg , will certainly steal your hen one day "

जो आज दहेज़ मांग रहा है, वो कल आपकी बेटी को जला कर मार भी सकता है

.

दिगम्बर नासवा said...

ये बीमारी कम होने का नाम नही ले रही क्योंकि समाज में आसानी से आए पैसे को लड़के लोग छोड़ने को तैयार नही हैं .... पर मेरा मानना है इसकी शुरुआत सिर्फ़ लड़के वालों और ख़ास कर लड़का ही कर सकता है ... हमारा समाज अभी इतना परिपक्व न्ही हुवा की लड़की वाले कहें हम दहेज नही देंगे ......

rashmi ravija said...

दहेज़ को जड़ से मिटाने के लिए ,इस प्रथा को बिलकुल ही समाप्त कर देना होगा...और इसकी शुरुआत लड़कों को ही करनी पड़ेगी...वे मुफ्त समान का लालच छोड़ थोड़ा संघर्ष को तैयार हो जाएँ तो सदा के लिए समाप्त हो जाएगी ये प्रथा.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

न तो इस समस्या का हल इमोशनल होकर खोजा जा सकता है, न इस विषय पर इमोशनल बहस की जा सकती है... क्योंकि इस तरह की बहस बस क्षणिक उत्तेजना पैदा करती हैं.और बाद में सब शांत और समाप्त हो जाता है... हो सकता है मेरी बात कड़वी लगे, तो मैं पहले ही माफी माँगता हूँ..बड़े भाई नीरज जी की बात से सहमत हूँ कि इस प्रथा के लिए कोई अपवाद नहीं होना चाहिए.. इस पार या उस पार..
परिवार नियोजन जैसी समस्या, जिसका निदान एकदम सस्ता और अपने हाथ में है, वो तो कारगर नहीं हो पाई इस देश में, फिर इस प्रथा का उन्मूलन कैसे सम्भव हो पाएगा जबकि यह तो लाखों का धंदा है... गंदा है पर धंधा है यह!!

ताऊ रामपुरिया said...

मर्ज बढता गया ज्यों ज्यों दवा की.....दहेज एक ऐसा नासूर है जो हम ही लेते हैं और हम ही देते हैं.

रामराम.

Shaivalika Joshi said...

Dahej Naari samaj ke liye bahut badi samsya hai
Ise jad se khatm hona chahiye
Meri Nazar me ise Khatm Naari hi kar sakti hai
Parantu ek padi likhi or majboot Naari
to Jarorat hai Betiyo ko padane likhane kii

Unknown said...

अद्भुत आलेख............

संगीता पुरी जी की टिप्पणी से मेरी पूर्ण सहमति........

अजय कुमार झा said...

ये समस्या आज एक नासूर बन चुकी है और अन्य कुरीतियों के जैसे ही ....और इसे यूं ही हटा देना कोई आसान काम नहीं है ..मैंने बेटे और बेटियों की शादी के समय ...एक ही व्यक्ति और एक परिवार द्वारा इस मुद्दे पर दोहरी नीति अपनाते हुए ..वो भी बेशर्मी से देखा है ..समाज इन मामलों में सड चुका है और बहुत कुछ ऐसा है जिसे काट कर फ़ेंका जाना जरूरी है

प्रवीण पाण्डेय said...

दहेज ने इतनी कटुता भर दी है समाज में कि इसके सार्थक रूप पर बातें करना भी पीड़ादायी लगता है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सामर्थ और स्वेच्छानुसार तो बिटिया को कुछ न कुछ अवश्य देना चाहिए!

मनोज कुमार said...

दीदी मैं तो ता उम्र इसका विर्ध करने की ठानी हुई है।

रानीविशाल said...

आपके आलेख मैं लिखी हर एक बात से पूरी तरह सहमत हूँ .....खास कर यह तो मेरे ह्रदय में भी काटें की तरह चुभता है की जब कोई पिता अपने बेटे और बेटी की पढ़ाई पर सामान रूप से व्यय करता है ..यह मेरे भी प्रत्यक्ष्य अनुभव है की सरकारी नौकरी में इतनी आमदनी ना होने पर भी पिता ने क़र्ज़ लेकर अपने बेटे और बेटी दोनों को उच्य शिक्षा दिलाई ....बेटी भी अच्छी नौकरी पर लग गई .अब उसकी शादी के लिये फिर क़र्ज़ लिया बेटी शादी कर ससुराल चली गई कामती भी है लेकिन सारा हिसाब किताब ससुराल में पता होता है चाह कर भी अपने पिता को पैसे नहीं दे पाती यहाँ तक की अपनी ही पढ़ाई का क़र्ज़ तक उतारने में भी ........इधर बिचारा भाई नौकरी के पहले दिन से ही क़र्ज़ भर रहा है दहेज़ के लिए लिया था वो भी ...अब उन लालचियों को कमाऊ लड़की मिली फिर भी समाज में दिखावा करने के लिए क्या कुछ नहीं लिए .....सारी समस्याओं की जड़ यह प्रथा ही है जिसे जड़ से ख़त्म करना ही चाहिए

Asha Joglekar said...

आपकी बात से सहमत । दहेज को सिरे से नकारा जाये । बेटे और बेटी को पिता की संपत्ती में समान हक हो । और बेटे की तरह बेटी भी माता पिता की वृध्दावस्था में जिम्मेवारी उठाये ।

वाणी गीत said...

अपनी बेटी के प्यार और सम्मान की खातिर दहेज़ देना दूसरी बेटियों और उनके अभिभावकों के लिए मजबूरी हो जाती है ...दुखद सत्य है ..
और यह भी एक पहलू है कि आजकल लड़कियां खुद दहेज़ ले जाना चाहती हैं , व्यवहारिक होती दुनिया का एक पक्ष यह भी है ...!
संपत्ति में बराबर का हिस्सेदार बनाकर तथा दहेज़ मांगने वाले परिवारों में विवाह नहीं कर इस प्रथा को समाप्त किया जा सकता है ..!

Rohit Singh said...

मेरे छोटे से दिमाग में यही आता है कि संपत्ति के अधिकार बराबर बांट दिए जाएं। लड़का हो या लड़की। मां-बाप आखरी सांस तक किसी बच्चे के नाम पर संपत्ति न कर सकें, ये प्रावधान हो। युवा को आगे आना होगा।
बाकी अजित जी की बात से सहमत हूं।
वैसे भी कमाने वाली पत्नी चाहने वालो का दहेज मांगना कमीनापन ही है।

राजभाषा हिंदी said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
काव्य प्रयोजन (भाग-९) मूल्य सिद्धांत, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें

अंजना said...

Happy Anant Chaturdashi
GANESH ki jyoti se noor miltahai
sbke dilon ko surur milta hai,
jobhi jaata hai GANESHA ke dwaar,
kuch na kuch zarror milta hai
“JAI SHREE GANESHA”

देवेन्द्र पाण्डेय said...

लघु कथा-'दो चेहरे' पर अपने कमेंट के बाद मैने सारे कमेंट पढ़े। खुशदीप जी का आलेख भी पढ़ा। मेरा अभी भी मानना है कि वह लघु कथा अपने शीर्षक के साथ अपने अर्थ खोलती, एक अच्छी और प्रेरक लघु कथा है।
..दहेज चाहे जिस रूप में लिया या दिया जाय सामाजिक अपराध है। जहाँ तक प्रेम का संबंध है तो प्रेम में लोग जान भी लुटा देते हैं, वहाँ धन का क्या मोल है! अधिकार और दावे की शुरूवात वहीं से होती है जहाँ प्रेम नहीं होता, जहाँ अन्याय होता है।
..भ्रूण हत्या लोभियों के नैतिक पतन की निम्नतर सीमा है। इससे नीचे कोई क्या गिर सकता है!
..जहाँ लचीला पन होता है वहीं से लोग अपने स्वार्थ का रास्ता निकाल लेते हैं।..
..एकदम सही कहा आपने। एक दोहा कभी लिखा था...

पड़वा मारें खेत में, बिटिया मारें पेट
मानवता की आँख में, भौतिकता की रेत।
..पड़वा=भैंस का बच्चा।

पूनम श्रीवास्तव said...

आदरणीया मैम, आपने इस लेख में समाज की एक बहुत ही दुखती रग को छुआ है---और बहुत ही तर्कपूर्ण ढंग से। इस प्रथा को तो हमें हर हाल में खतम करना ही चाहिये।

Apanatva said...

kum se kum bade garv ke sath mai to dava kartee hoo ki humare parivar me ek bhee shadee me dahej ka aadan pradan nahee huaa........
Samaj me ye pratha failee huee hai ye to mujhe bhee anubhav huaa...jab ladkiyo ke rishte koi batata tha pahile poochate the ki aap shadee me kitna lagaenge.....
hum to baat vahee khatm kar dete the .
aaj se 38 saal pahile inhone bina dahej mujhase shadee kee thee jabki IIT aur IIMcalcutta se pade hone ke naate bade bade rishte aae......ladkee wale bhee dahej ka laalach dete hai.....ye bhee ek such hai .
shiksha hee parivartan laaegee .
samajik mulyo ko samjhana hoga......
santulan bahut jarooree hai.........
shikshit baccho ko bhee ladke ho ya ladkiya drud rahkar dahej ke virodh me aawaz uthanee hogee .
Nirmalajee ab to sunne me aaya hai ki shadee karvane wale dalal bhee bahtee ganga me hath dho rahe hai..........
hum swayam jab tuk apanee soch nahee badlte samaj kaise badlega..?
sarthak post .
Aabhar .

kaiyo ke liye shadee status symbol ban kar rah gayee hai lakho karodo sirf sajavat par kharch kar diye jate hai....

बाल भवन जबलपुर said...

बेहद उत्तम पोस्ट

शरद कोकास said...

बहुत व्यावहारिक चर्चा है यह ।

Alpana Verma said...

आप की यह पोस्ट अच्छी लगी.आप ने विचारों को बहुत ही अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है.

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