कर्ज़दार
पिछली कडी मे आपने पढा कि प्रभात की माँ ने अपने पति की मौत के बाद कितने कष्ट उठा कर बच्चों को पढाया प्रभात की शादी मीरा से होने के बाद प्रभात ने सोचा कि अब माँ के कन्धे से जिम्मेदारियों का बोझ उतारना चाहिये। इस लिये उसने अपनी पत्नि को घर चलाने के लिये कहा और अपनी तन्ख्वाह उसे दे दी। ------अब आगे पढें----
प्रभात ने सोचा कि माँ खुश हो जायेगी कि उसके बहु बेटे उसका कितना ध्यान रखते हैं।-------
मगर माँ सुन कर सन्न रह गयी--
: बेता तेरी पत्नि आ गयी तो क्या घर मे मेरी कोई अहमियत नही रह गयी? अभी बेटी की शादी करनी है घर के और कितने काम है क्या अब इस उम्र मे बहु के आगे हाथ फैलाऊँगी?" माँ गुस्से मे भर गयी।
प्रभात एक दम सावधान हो गया वो समझ गया कि माँ अपने साम्राज्य पर किसी का अधिकार नही चाहती। आखिर कितने यत्न से उन्हों ने अपने इस साम्राज्य को संजोया था। इसकी एक एक ईँट उनके खून पसीने से सनी है।वो कैसे भूल गया कि माँ को ये स्वीकार नही होगा। ये घर उनका आत्मसम्मान , गर्व और जीवन था। शायद माँ ठीक ही तो कह रही है वो क्यों मीरा के आगे हाथ फैलाये । शायद प्रभात ने फैसला लेने से पहले इस दृष्टीकोण से सोचा ही नही था। एक अच्छे और आग्याकारी पुत्र होने के प्रयास मे वो कितनी बडी भूल कर गया था। उसने जल्दी से तन्खवाह रमा के हाथ से ले कर माँ के हाथों मे सौंप दी। वो माँ की भावनाओं और एकाधिकार को चोट नही पहुँचाना चाहता था।
मीरा को भी एक झटका लगा। उसने तो समर्पित भाव से इस जिम्मेदारी को सम्भालने के लिये इसमे हामी भरी थी न कि माँ के अधिकार छीनने के लिये। फिर भी उसे माँ की ये बात अच्छी नही लगी कि वो बहु के आगे हाथ फैलायेगी। मीरा ने सोचा अब वो भी तो अपनी जरूरतों के लिये माँ से ही माँगती है जब कि उसका पति कमाता है। फिर भी वो चुप रही और तन्खवाह माँ जी को दे दी।लेकिन अनजाने मे ही उसने सास बहु के रिश्ते मे एक दरार का सूत्रपात हो चुका था।
मीरा पहले अपनी जिस् इच्छा को मन मे दबा लिया करती थी धीरे धीरे वो उसके होठों तक आने लगी। माँ से जेब खर्च के लिये पैसे माँगते उसे अब बुरा लगने लगा। जब उसे माँ बेगाना समझती है तो वो क्यों इस घर की परवाह करे। शादी के बाद उसका कितना मन था कि वो दोनो कहीं घूमने जायें मगर माँ के सामने बोलने की कभी हिम्मत नही हुयी। माँ हमेशा सुनाती रहती थी बडी मुश्किल से घर चल रहा है। एक दिन उसने प्रभात से कहा
:"प्रभात एक वर्ष हो गया हमारी शादी को हम कहीं घूमने नही गये।चलो कुछ दिन कहीं घूम आते हैं।:
:"मैं मा से बात करूँगा।अगर मान गयी तो चलेंगे।"
मीरा को उसका ये जवाब अच्छा नही लगा। क्या हमारा इतना भी हक नही़ कि कही घूम आयें।
अगले दिन प्रभात ने माँ से बात की तो माँ ने" देखूँगी" कह कर टाल दिया। माँ को चिन्ता थी कि अगले महीने बेटी की M.B.A. की फीस जमा करवानी है। लोन की किश्त देनी है। जितना पैसा था छोटे को विदेश भेजने मे लगा दिया। फिर अभी बेटी की शादी भी करनी है। इस तरह की फिजूलखर्ची के लिये कहाँ पैसा है। यूँ भी माँ कुछ सचेत हो गयी थी। उसे लगा मीरा इसी लिये चाहती थी कि खर्च उसके हाथ मी आये तो वो अपनी फिजूलखर्ची करे। कहीं उसने बेटे को पूरी तरह वश मे कर लिया तो तो घर उजड जायेगा इस लिये उन्हें बाहर अकेले घूमने की आज़ादी देना नही चाहती थी अब उसे मीरा का समर्पणभाव झूठा लगने लगा था।
प्रभात ने मीरा से दो तीन महीने बाद जाने का वायदा कर लिया
धीरे धीरे सास बहु के बीच शीत युद्ध् सा चल पडा अविश्वास की नींव बनने लगी थी।और् दो तीन माह मे ही ये तल्खी पकडने लगा। मीरा को अपने लिये जब भी कोई चीज लेनी होती तो सास से पैसे माँगने पडते थे।कहीं किसी सहेली के घर जाना तो भी आग्या ले कर कभी दोनो को पिक्चर देखने जाना होता तो माँ की इजाजत लेकर वो भी कई मार माँ टाल देती कि खर्च बहुत हो गया है। फिर कभी देख लेना। मीरा ने चाहे कभी माँ को किसी बात के लिये जवाब नही दिया कभी ऊँचे मे बात नही की अनादर नही किया। मगर सास बहु की अस्तित्व की लडाई शुरू हो चुकी थी।
अब मीरा को नौकरी मिल गयी थी मीरा खुश थी मगर माँ चिन्तित। अब घर मे काम काज की भी समस्या आने लगी प्रभात ने कहा भी कि नौकर रख लेते हैं मगर माँ ने कहा
"क्या नौकरों के सिर पर भी कभी घर चलते हैं? सफाइयों वाली लगा लो बाकी काम के लिये नही। मैने भी तो इतने साल नौकरी की 3-3 बच्चे पाले मगर किसी काम के लिये कोई नौकरानी नही लगायी। माँ ने गर्व से सिर उठया मगर प्रभात को वो गर्व से अधिक दर्प लगा मगर वो कुछ नही बोला और मीरा भी पैर पटकती हुयी अन्दर चली गयी।
प्रभात महसूस कर रहा था कि माँ नाज़ायज ही मीरा पर दबाव बना रही है। अपने जमाने से तुलना करना कितना सही है ? उसे माँ का ये व्यवहार अच्छा नही लगा। आजकल और पुराने रहन सहन मे कितना अन्तर है? आज सफाई.बर्तन खाना पीना कितना बदल गया है पिछले जमाने मे एक कमरे मे लोग गुजारा कर लेते थी आज सब को अलग बेड रूम चाहिये। घर बडा सामान अधिक तो देखभाल भी उतनी ही बढ गयी है खाना पीना् रहन सहन उतना ही हाई फाई होगया है।
मीरा नौकरी के साथ साथ घर का पूरा काम सम्भाल रही थी सफाई वाली लगा ली थी मगर बर्तन कपडे सब उसे ही करने पडते थे। कई बार मीरा की तबीयत सही नही होती तो माँ को या प्रभात की बहन को काम करना पडता तो घर मे तूफान आ जाता बहन के पास पढने का बहाना और माँ के पास बुढापे का। मीरा सोचती कि कभी तो आराम उसे भी चाहिये फिर क्या मेरी कमाई का आनन्द ये लोग भी तो उठा रहे हैं।--- क्रमश:
प्रभात ने सोचा कि माँ खुश हो जायेगी कि उसके बहु बेटे उसका कितना ध्यान रखते हैं।-------
मगर माँ सुन कर सन्न रह गयी--
: बेता तेरी पत्नि आ गयी तो क्या घर मे मेरी कोई अहमियत नही रह गयी? अभी बेटी की शादी करनी है घर के और कितने काम है क्या अब इस उम्र मे बहु के आगे हाथ फैलाऊँगी?" माँ गुस्से मे भर गयी।
प्रभात एक दम सावधान हो गया वो समझ गया कि माँ अपने साम्राज्य पर किसी का अधिकार नही चाहती। आखिर कितने यत्न से उन्हों ने अपने इस साम्राज्य को संजोया था। इसकी एक एक ईँट उनके खून पसीने से सनी है।वो कैसे भूल गया कि माँ को ये स्वीकार नही होगा। ये घर उनका आत्मसम्मान , गर्व और जीवन था। शायद माँ ठीक ही तो कह रही है वो क्यों मीरा के आगे हाथ फैलाये । शायद प्रभात ने फैसला लेने से पहले इस दृष्टीकोण से सोचा ही नही था। एक अच्छे और आग्याकारी पुत्र होने के प्रयास मे वो कितनी बडी भूल कर गया था। उसने जल्दी से तन्खवाह रमा के हाथ से ले कर माँ के हाथों मे सौंप दी। वो माँ की भावनाओं और एकाधिकार को चोट नही पहुँचाना चाहता था।
मीरा को भी एक झटका लगा। उसने तो समर्पित भाव से इस जिम्मेदारी को सम्भालने के लिये इसमे हामी भरी थी न कि माँ के अधिकार छीनने के लिये। फिर भी उसे माँ की ये बात अच्छी नही लगी कि वो बहु के आगे हाथ फैलायेगी। मीरा ने सोचा अब वो भी तो अपनी जरूरतों के लिये माँ से ही माँगती है जब कि उसका पति कमाता है। फिर भी वो चुप रही और तन्खवाह माँ जी को दे दी।लेकिन अनजाने मे ही उसने सास बहु के रिश्ते मे एक दरार का सूत्रपात हो चुका था।
मीरा पहले अपनी जिस् इच्छा को मन मे दबा लिया करती थी धीरे धीरे वो उसके होठों तक आने लगी। माँ से जेब खर्च के लिये पैसे माँगते उसे अब बुरा लगने लगा। जब उसे माँ बेगाना समझती है तो वो क्यों इस घर की परवाह करे। शादी के बाद उसका कितना मन था कि वो दोनो कहीं घूमने जायें मगर माँ के सामने बोलने की कभी हिम्मत नही हुयी। माँ हमेशा सुनाती रहती थी बडी मुश्किल से घर चल रहा है। एक दिन उसने प्रभात से कहा
:"प्रभात एक वर्ष हो गया हमारी शादी को हम कहीं घूमने नही गये।चलो कुछ दिन कहीं घूम आते हैं।:
:"मैं मा से बात करूँगा।अगर मान गयी तो चलेंगे।"
मीरा को उसका ये जवाब अच्छा नही लगा। क्या हमारा इतना भी हक नही़ कि कही घूम आयें।
अगले दिन प्रभात ने माँ से बात की तो माँ ने" देखूँगी" कह कर टाल दिया। माँ को चिन्ता थी कि अगले महीने बेटी की M.B.A. की फीस जमा करवानी है। लोन की किश्त देनी है। जितना पैसा था छोटे को विदेश भेजने मे लगा दिया। फिर अभी बेटी की शादी भी करनी है। इस तरह की फिजूलखर्ची के लिये कहाँ पैसा है। यूँ भी माँ कुछ सचेत हो गयी थी। उसे लगा मीरा इसी लिये चाहती थी कि खर्च उसके हाथ मी आये तो वो अपनी फिजूलखर्ची करे। कहीं उसने बेटे को पूरी तरह वश मे कर लिया तो तो घर उजड जायेगा इस लिये उन्हें बाहर अकेले घूमने की आज़ादी देना नही चाहती थी अब उसे मीरा का समर्पणभाव झूठा लगने लगा था।
प्रभात ने मीरा से दो तीन महीने बाद जाने का वायदा कर लिया
धीरे धीरे सास बहु के बीच शीत युद्ध् सा चल पडा अविश्वास की नींव बनने लगी थी।और् दो तीन माह मे ही ये तल्खी पकडने लगा। मीरा को अपने लिये जब भी कोई चीज लेनी होती तो सास से पैसे माँगने पडते थे।कहीं किसी सहेली के घर जाना तो भी आग्या ले कर कभी दोनो को पिक्चर देखने जाना होता तो माँ की इजाजत लेकर वो भी कई मार माँ टाल देती कि खर्च बहुत हो गया है। फिर कभी देख लेना। मीरा ने चाहे कभी माँ को किसी बात के लिये जवाब नही दिया कभी ऊँचे मे बात नही की अनादर नही किया। मगर सास बहु की अस्तित्व की लडाई शुरू हो चुकी थी।
अब मीरा को नौकरी मिल गयी थी मीरा खुश थी मगर माँ चिन्तित। अब घर मे काम काज की भी समस्या आने लगी प्रभात ने कहा भी कि नौकर रख लेते हैं मगर माँ ने कहा
"क्या नौकरों के सिर पर भी कभी घर चलते हैं? सफाइयों वाली लगा लो बाकी काम के लिये नही। मैने भी तो इतने साल नौकरी की 3-3 बच्चे पाले मगर किसी काम के लिये कोई नौकरानी नही लगायी। माँ ने गर्व से सिर उठया मगर प्रभात को वो गर्व से अधिक दर्प लगा मगर वो कुछ नही बोला और मीरा भी पैर पटकती हुयी अन्दर चली गयी।
प्रभात महसूस कर रहा था कि माँ नाज़ायज ही मीरा पर दबाव बना रही है। अपने जमाने से तुलना करना कितना सही है ? उसे माँ का ये व्यवहार अच्छा नही लगा। आजकल और पुराने रहन सहन मे कितना अन्तर है? आज सफाई.बर्तन खाना पीना कितना बदल गया है पिछले जमाने मे एक कमरे मे लोग गुजारा कर लेते थी आज सब को अलग बेड रूम चाहिये। घर बडा सामान अधिक तो देखभाल भी उतनी ही बढ गयी है खाना पीना् रहन सहन उतना ही हाई फाई होगया है।
मीरा नौकरी के साथ साथ घर का पूरा काम सम्भाल रही थी सफाई वाली लगा ली थी मगर बर्तन कपडे सब उसे ही करने पडते थे। कई बार मीरा की तबीयत सही नही होती तो माँ को या प्रभात की बहन को काम करना पडता तो घर मे तूफान आ जाता बहन के पास पढने का बहाना और माँ के पास बुढापे का। मीरा सोचती कि कभी तो आराम उसे भी चाहिये फिर क्या मेरी कमाई का आनन्द ये लोग भी तो उठा रहे हैं।--- क्रमश:
37 comments:
कहानी बहुत अच्छी जा रही है..... आपने बाँध कर रखा हुआ है.... अब और आगे का इंतज़ार है.....
अंतर्द्वन्द और उत्तरदायित्वबोध को रेखांकित करती हुई कहानी आगे बढ रही है
बहुत सुन्दर
आपकी कहानी के प्रवाह ने मुझे बाँधकर रखा। सुन्दर -- अगली कड़ी के इन्तजार में।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
अक्सर रिश्ते बड़ी नाज़ुक डोर से बंधे होते हैं । विशेषकर बुजुर्गों के साथ बहुत सावधान रहना पड़ता है ।
सारी कमाई एक के हाथ में देना सही नहीं था । जेब खर्च तो बच्चों को भी दिया जाता है ।
संयुक्त परिवार बनाये रखना इसलिए मुश्किल होता जा रहा है ।
आगे देखते हैं क्या होता है ।
बढ़िया प्रवाह चल रहा है कथा का...आगे इन्तजार है.
कहानी बहुत अच्छी है। लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि आप के पास पूरे उपन्यास की कहानी होती है, और आप उसे कहानी में समेट देती हैं। इस से पात्रों को पाठकों से तादात्म्य स्थापित करने का पूरा अवसर नहीं मिलता। इस कहानी में भी पूरे उपन्यास का कलेवर समेट रही हैं आप।
कहानी बड़े प्रवाह के साथ आगे बढ़ रही है ! रोचकता बनी हुई है ! अगली कड़ी का इंतज़ार है !
मैं भी कुछ ऐसा ही सोच रहा था ... घर घर की कहानी है ... अक्सर देखा है परिवारों में ... ये किसका दोष है ?..... परिस्थिति ... सोच ... बदलाव .... आपकी अगली कड़ी शायद इसका जवाब देगी ....
अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।
अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।
Kahani waqayi badi utsukta jagrut kiye hue hai..jaldi-se agali kisht likh den!
माँ जी को प्रणाम।
मेरा हौसला अफजाई के लिये धन्यवाद।
आप के कहानी का तो मै कायल हुँ, कहानी बहुत ही सुन्दर है ।
कहानी धाराप्रवाह चल रही है और बहुत ही रोचक है अब तो अगली कडी का इंतज़ार है।
कहानी का प्रवाह बाँध कर रखे है ..अब आगे?
जीवन के सत्य को उकेरती अच्छी कहानी
....behatareen kahaanee !!!!
jeewan ki sacchai bayaan kar rahi hai aapki kahani...
bahut acchi lag rahi hai...aage ki kadi ki prateeksha hai...
aabhaar...
अगली कडियों की उत्सुकता बढ गयी है।
--------
भविष्य बताने वाली घोड़ी।
खेतों में लहराएँगी ब्लॉग की फसलें।
कहानी बहुत अच्छी लगी. आभार.
बेहतरीन कहानी...शुभकामनाएं..
अगली कड़ी का इंतज़ार है।
कहानी बांधते जा रही है ......अगली कड़ी का इंतज़ार है .
ाभी तो मन में कुछ सवाल जन्म ले रहे हैं, जिनका जवाब शायद अगली कडी में मिले...बरहहाल प्रतीक्षा कर रहे हैं..
बहुत अच्छी कहानी! शक की दवा तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी.
बहुत ही सुन्दरता के साथ बेहतरीन कहानी चल रही थी, क्रमश: पर रूकते हुये अगली कड़ी की प्रतीक्षा में ।
मैने अभी पिछली कहानी तो नही पढी, लेकिन इस कहानी मै मै प्रभात को कसुर वार मानता हुं, उस की थोडी समझ दारी से यह दरार ना पडती,क्योकि प्रभात अपनी मां को अच्छी प्रकार समझता था, ओर उसे यहां थोडा समझ से काम लेना चाहिये था
कहानी ने बांध कर रखा है...अगली कडी का इंतजार है!
सास बहू का द्वंद्व और रिश्तों की खटास शुरू हो चुकी है. रोचकता बनी हुई है.
bahut emotional kar dene wali story hai....aage jaanne ke liye curious hun
कृपया कहानी को शीघ्र आगे बढाइये...उत्सुकता अपने चरम पर है...
rishton ke nazuk daur se gujarti kahani,aage inazaar rahega,kahani ne bandh ke rakha hai utsukata ko.
कहानी बहुत अच्छी है। अगली कडी का इंतजार है!
agali kadi ki pratiksha hai, kahani sundar hai.
कहानी पढते समय सोच रहा था कि जीवन मे जब छोटे छोटे अहंम टकराते हैं तो मन कितना विचलित हो जाता है....अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।
कृपया कहानी को शीघ्र आगे बढाइये..अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।
Waah! itane samay ke baad dono kisht aaj pdane ko mili.....sahitya sagar me nahakar ujjval hone sa anubhav mila....dhanywaad.
kahani ki sabse achchhi bat ye hai ki ye dono paksho ki bhavnao ko vyakt kar rahi hai....
Post a Comment