पुस्तक समीक्षा
द्वारा- श्रीमती निर्मला कपिला
जब कि पुस्तक समीक्षा मेरी लेखन विधा नही है मगर जब दीपक चौरसिया 'मशाल' की पुस्तक *अनुभूतियाँ* पढी तो अपने मन में उपजी अनुभूतिओं को लिखे बिना रह नहीं पाई। इस पुस्तक की जिस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वो है मानवीय सम्बन्धों की सुगन्ध, उस सुगन्ध में महके बचपन की अनुभूतियां, स्मृतियाँ और संस्कार। फिर भी उसने समाज के इन्सान के राजनीति के अच्छे बुरे सब पहलूओं पर बेबाक कलम चलाई है। हर कविता अपने को प्रतीक मान कर उसकी आत्मानुभूतियाँ हैं, जो देखा जो भोगा। ऐसे समय मे जबकि रिश्तों की अहमियत लुप्त हो रही है संयुक्त परिवार की परंपरा खत्म हो रही है, एक युवा कवि का उन रिश्तों की अहमियत की बात करना निस्सन्देह किसी संस्कारवान व्यक्तित्व की ओर इशारा करता है और ये सुखकर भी लगता है। दीपक आज भी उन रिश्तों की यादें मन मे संजोये हैं जिन मे रह कर वो पला बढा और जो अब दुनिया मे नहीं हैं वो भी उसकी यादों मे गहरे से जीवित हैं। उसकी एक कविता ने मुझे गहरे से छुआ है ''*तुम छोटी बऊ*'' --- छोटी बऊ उसके दादा (बाबा) की चाची थीं जो निःसंतान थीं और जिन्होंने पूरा जीवन इस परिवार को समर्पित कर दिया। बऊ से मिले प्यार और बचपन की अबोध शरारतों को जो उनकी गोद मे किया करते थे उन्हें बहुत सुन्दर शब्दों में उतारा है और उसी कविता की ये अंतिम पँक्तियाँ देखें
'कितना ही सुख पाऊँ
मगर हरदम जीत तुम्हारी ही होगी छोटी बऊ
मदर टेरेसा ना मिली मुझे
पर तुम मे देखा उन्हें प्रत्यक्ष
तुम थीं हाँ तुम्हीं हो
मेरी ग्रेट मदर टेरेसा छोटी बऊ'
माँ से दुनिया शुरू होती है शायद हर कवि मन माँ के लिये जरूर कुछ लिखता है
'माँ तेरी बेबसी आज भी
मेरी आँखों मे घूमती है
तुमने तोड़े थे सारे चक्रव्यूह
कौन्तेयपुत्र से भी अधिक
जबकि नहीं जानती थीं तुम
निकलना बाहर....
या शायद जानती थीं
पर नहीं निकलीं
हमारी खातिर,
अपनी नहीं
अपनों की खातिर'
माँ की कुर्बानियों को बहुत सुन्दर शब्दों से अभिव्यक्त किया है।
'दुनिया की हर ऊँचाई
तेरे कदम चूमती है
माँ आज भी
तेरी बेबसी
मेरी आँखों मे घूमती है।'
एक और कविता की ये पँक्तियाँ शायद उसके विदेश जाने के बाद माँ के लिये उपजी व्यथा है।
'यहाँ सब बहुत खूबसूरत है
पर माँ
मुझे फिर भी तेरी जरूरत है'
हर युवा की तरह जवानी के प्यार को भी अभिव्यक्त किया है मगर कुछ निराशा से। *कैसे हो* ये गीत भी गुनगुनाने लायक है। इसमें तारतम्यता, लयबदधता और रस का बोध होता है जिसमे कि दो प्रेम पंछियों को विपरीत स्वभाव वाला कहा गया है....
'उगते हुए लाल सूरज सी तुम
दहकते हुये सुर्ख शोले सा मैं
ठहरे हुये गहरे सागर सा मैं
बहती हुयी एक नदिया सी तुम
तुम मौजों से लड़ना चाहती
मैं साहिल पे चलना चाहता
कहो-कहो तुम्ही कहो...
मुहब्बत मुमकिन कैसे हो?'
हासिल, मजबूरियां, छला गया, इन्तज़ार, कैसे यकीन दिलाऊँ, पागल, मन-चन्चल-गगन पखेरू है, रिश्ता, देखूँगा और चाहत शीर्षक वाली रचनाओं में प्रेमानुभूति के साथ-साथ एक दर्द है किसी को न पा सकने का... मजबूरियाँ देखिये-
'बात इतनी सी है
कि अब जब भी
जमीं पर आओ
इतनी मजबूरियाँ ले कर मत आना
कि हम मिल कर भी
न मिल सकें'
एक और कविता देखिये *मैं छला गया* की कुछ पँक्तियाँ
'दिल मे जिसको बसा के हम
बस राग वफा के गाते थे
हम कुछ तो उसकी सुनते थे
कुछ अपनी बात सुनाते थे
पर दिल मे रह कर दिल को वो
कुछ जख्म से दे कर चला गया
छला गया मैं छला गया'
तो वहीँ बंदिशें एक व्यंग्य रचना है जो कि राजनीतिक सरहदों की बात करती है और चीड, देवदार के पेड़ों के माध्यम से इंसां को समझाती है कि-
'ये सरहदें तुम्हारी बनायीं हैं
और सिर्फ तुम्हारे लिए हैं'
ऎसा नही है कि कवि केवल रिश्तों तक ही सीमित रहा... उसने समाज के विभिन्न पहलुओं को बड़ी बेबाकी से छुआ। समाज मे इन्सान के चरित्र की गिरावट, वैर, विरोध, झूठ-कपट कवि के भावुक मन को झकझोरते रहे है और वो कराहते हुये पुकार उठता है-----
कब आओगे वासुदेव की कुछ पँक्तियाँ
'अधर्म के दलदल में हैं
अर्जुन के भी पाँव
और रथ के पहिये...
कितने कर्ण खड़े हैं
सर संधान करने को
मगर अबकी बार
हल्का क्यों है
सच का पलड़ा?
सच कहो कब आयोगे वासुदेव?'
और अंतर्नाद गीत की एक झलक देखें कैसे उसके पौरुष को ललकारती हैं----
'खुँखार हुये कौरव के शर
गाण्डीव तेरा क्यों हल्का है
अर्जुन रण रस्ता देख रहा
विश्राम नहीं इक पल का है'
ऎक और चीज़ इस पुस्तक में है जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया उसका चिन्तन, जिस से उसकी आत्मा सहसा ही अपने मन के अंतर्द्वंद कह उठती है--
'कृष्ण बनने की कोशिश मे
मैं भीष्म होता जा रहा हूँ
अक्सर चाहता हूँ बसन्त होना
जाने क्यों ग्रीष्म होता जा रहा हूँ'
इसी संदर्भ मे उसकी कुछ कवितायें-- चेहरे और गिनती, अपने-पराये, थकावट, फैशनपरस्ती, बड़ा बदमाश और शीर्षक कविताअनुभूतियाँ सराहने योग्य हैं। ये पँक्तियाँ देखिये----
'शिव रूप पे लगे कलंकों को
तुम कुचल कुचल कर नाश करो
नापाक हुई इस धरती को
खल रक्त से फिर से साफ करो
जो हुया विश्व गुरू अपराधी
आयेंगे फिर न राम
प्रभु कर भी दो विध्वंस जहां'
कई बार खुद अपने को ही समझ नही पाता---- *विलीव इट और नाट* जिसमे आदमी को कई चेहरे लगाये दुनिया का बेस्ट एक्टर कहता है अपने माध्यम से। ये पंम्क्तियां देखिये----
'स्वप्नों मे आ कर
धमकाती हैं
धिक्कारती हैं
मेरे अन्तस की अनदेखियाँ
झपकती पलकों की अनुभूतियाँ'
कई बार तो इस छट्पटाहट से हताश हो कर वो मन ही मन इन चुनौतिओं से समझौता करने की बात करने लगता है---- मन के कोलाहल को शाँत करने की कोशिश करता है----
'जब किस्मत में
उनके साथ ही रहना लिखा है
तो क्यों न उन से
समझौता कर लूँ
बस इस लिये मैंने....
मेरी उलझनो ने...
और मेरी परिस्थितिओं ने
आपस मे समझौता कर लिया।'
नारी संवेदना को भी उसने दिल से समझा और महसूस किया है। वो आतंकवाद समझती है, साबित करने के लिये, परंपरा की चाल विशेष रूप से उल्लेखनीय रचनायें हैं... परम्परा की चाल स्त्री की तकलीफ भी है और रूढ़िवादी, अनावश्यक परम्परा के खिलाफ आवाज़ भी. साबित करने के लिए देखिये-
'तुम समन्दर हो गये
वो कतरा ही रह गयी
फिर भी डरते हो क्यों
कि वो कहीं उठ न जाये
तुम्हें कतरे का
कर्जदार साबित करने के लिये'
वो देश की राजनीति पर भी मौन नहीं रहा। बापू गान्धी को प्रतीक बना कर आज की राजनीति को उसने खूब आढे हाथों लिया है। *बापू भी खुश होते*, *बोली कब लगनी है* और *तुम न थे* देशभक्ति, राजनीतिक कटाक्ष और महापुरुषों से सीख देने के लिए प्रेरक उल्लेखनीय रचनायें हैं-
'बापू तेरी सच्चाई की
बोली कब लगनी है
घडियाँ, ऐनक सब बिके
कब प्यार की बोली लगनी है'
और जो सब से अच्छी कविता इस सन्दर्भ में मुझे लगी वो है लोकतन्त्र को लेकर--
'मैं अबोला एक भूला सा वेदमंत्र हूँ
खामियों से लथपथ मैं लोकतन्त्र हूँ
तंत्र हूँ स्वतन्त्र हूँ,दृष्टी मे मगर ओझल
मैं आत्मा से परतन्त्र हूँ
कहने को बढ रहा हूँ
पर जड़ों मे न झाँकिये
वहाँ से सड़ रहा हूँ मैं'
और अन्त मे कुछ नया सोचने के लिये प्रेरित करती पँक्तियाँ
'नये सिरे से सोचें हम
नयी सी कोई बात करें'
*सिगरेट*, बेरोजगारी, जन्मदिन, खंडहर की ईँट, दशहरा, पतंग रचनायें विभिन्न विषयों पर अनुभूतियों के समेटे हैं और सामजिक सरोकारों को लेकर लिखी गयी हैं। कवि अपनी अनुभूतिओं को कोई आवरण नहीं ओढाता बस जस की तस सामने रख देता है। कई बार वहाँ रस और लय का अभाव खटकता है मगर उसने अपने अन्दर के सच को ज़िन्दा रखने के लिये शब्दों से, कोई समझौता नहीं किया। जैसा की वैदेही शरण 'जोगी' जी ने कहा है कि दीपक की अनुभूतियाँ सत्य की ऊष्मा की अनुभूतियाँ हैं और डाक्टर मोहम्मद आजम जी ने दीपक के बारे मे कहा है कि इनमे कसक, तडप, सच्चाई, बगावत, आग, जज़्बात, इश्क, तहज़ीब, देशभक्ति, तंज व व्यंग, रिश्तों की पाकीज़गी आदि वो सब गुण हैं जो एक व्यक्ति को कवि,शायर का दर्ज़ा देते है। इस पुस्तक का पूरा श्रेय वो अपने परम आदरणीय गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी को देता है।आज के युवाओं मे गुरू शिष्य परंपरा का जीवन्त उदाहरण है उस का ये समर्पण ।
पुस्तक का आवरण साज-सज्जा सहज ही आकर्षित करती है। शिवना प्रकाशन इस के लिये बधाई की पात्र है| आशा है पाठक इस पुस्तक का खुले दिल से स्वागत करेंगे और ये हाथों हाथ बिकेगी। आने वाले समय का ये उभरता हुया कवि, शायर, कहानीकार है।
जो हर विधा मे लिखता है। ब्लोग पर इसके इस फन को महसूस किया जा सकता है। कामना करती हूँ इस दीपक की लौ हमेशा सब के लिये दीपशिखा सी हो और इसकी चमक दुनिया भर में फैले।
पुस्तक ---- अनुभूतियाँ
कुल्र रचनायें---56
पृष्ठ संख्या--104
प्रकाशित मूल्य--- २५० रुपये
प्रचार हेतु प्रारंभिक मूल्य- १२५ रुपये
प्रकाशक -- शिवना प्रकाशन , पी.सी.लैब, अपोजिट न्यू बस स्टैंड ,सिहोर(म.प्र.) 466001
जब कि पुस्तक समीक्षा मेरी लेखन विधा नही है मगर जब दीपक चौरसिया 'मशाल' की पुस्तक *अनुभूतियाँ* पढी तो अपने मन में उपजी अनुभूतिओं को लिखे बिना रह नहीं पाई। इस पुस्तक की जिस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वो है मानवीय सम्बन्धों की सुगन्ध, उस सुगन्ध में महके बचपन की अनुभूतियां, स्मृतियाँ और संस्कार। फिर भी उसने समाज के इन्सान के राजनीति के अच्छे बुरे सब पहलूओं पर बेबाक कलम चलाई है। हर कविता अपने को प्रतीक मान कर उसकी आत्मानुभूतियाँ हैं, जो देखा जो भोगा। ऐसे समय मे जबकि रिश्तों की अहमियत लुप्त हो रही है संयुक्त परिवार की परंपरा खत्म हो रही है, एक युवा कवि का उन रिश्तों की अहमियत की बात करना निस्सन्देह किसी संस्कारवान व्यक्तित्व की ओर इशारा करता है और ये सुखकर भी लगता है। दीपक आज भी उन रिश्तों की यादें मन मे संजोये हैं जिन मे रह कर वो पला बढा और जो अब दुनिया मे नहीं हैं वो भी उसकी यादों मे गहरे से जीवित हैं। उसकी एक कविता ने मुझे गहरे से छुआ है ''*तुम छोटी बऊ*'' --- छोटी बऊ उसके दादा (बाबा) की चाची थीं जो निःसंतान थीं और जिन्होंने पूरा जीवन इस परिवार को समर्पित कर दिया। बऊ से मिले प्यार और बचपन की अबोध शरारतों को जो उनकी गोद मे किया करते थे उन्हें बहुत सुन्दर शब्दों में उतारा है और उसी कविता की ये अंतिम पँक्तियाँ देखें
'कितना ही सुख पाऊँ
मगर हरदम जीत तुम्हारी ही होगी छोटी बऊ
मदर टेरेसा ना मिली मुझे
पर तुम मे देखा उन्हें प्रत्यक्ष
तुम थीं हाँ तुम्हीं हो
मेरी ग्रेट मदर टेरेसा छोटी बऊ'
माँ से दुनिया शुरू होती है शायद हर कवि मन माँ के लिये जरूर कुछ लिखता है
'माँ तेरी बेबसी आज भी
मेरी आँखों मे घूमती है
तुमने तोड़े थे सारे चक्रव्यूह
कौन्तेयपुत्र से भी अधिक
जबकि नहीं जानती थीं तुम
निकलना बाहर....
या शायद जानती थीं
पर नहीं निकलीं
हमारी खातिर,
अपनी नहीं
अपनों की खातिर'
माँ की कुर्बानियों को बहुत सुन्दर शब्दों से अभिव्यक्त किया है।
'दुनिया की हर ऊँचाई
तेरे कदम चूमती है
माँ आज भी
तेरी बेबसी
मेरी आँखों मे घूमती है।'
एक और कविता की ये पँक्तियाँ शायद उसके विदेश जाने के बाद माँ के लिये उपजी व्यथा है।
'यहाँ सब बहुत खूबसूरत है
पर माँ
मुझे फिर भी तेरी जरूरत है'
हर युवा की तरह जवानी के प्यार को भी अभिव्यक्त किया है मगर कुछ निराशा से। *कैसे हो* ये गीत भी गुनगुनाने लायक है। इसमें तारतम्यता, लयबदधता और रस का बोध होता है जिसमे कि दो प्रेम पंछियों को विपरीत स्वभाव वाला कहा गया है....
'उगते हुए लाल सूरज सी तुम
दहकते हुये सुर्ख शोले सा मैं
ठहरे हुये गहरे सागर सा मैं
बहती हुयी एक नदिया सी तुम
तुम मौजों से लड़ना चाहती
मैं साहिल पे चलना चाहता
कहो-कहो तुम्ही कहो...
मुहब्बत मुमकिन कैसे हो?'
हासिल, मजबूरियां, छला गया, इन्तज़ार, कैसे यकीन दिलाऊँ, पागल, मन-चन्चल-गगन पखेरू है, रिश्ता, देखूँगा और चाहत शीर्षक वाली रचनाओं में प्रेमानुभूति के साथ-साथ एक दर्द है किसी को न पा सकने का... मजबूरियाँ देखिये-
'बात इतनी सी है
कि अब जब भी
जमीं पर आओ
इतनी मजबूरियाँ ले कर मत आना
कि हम मिल कर भी
न मिल सकें'
एक और कविता देखिये *मैं छला गया* की कुछ पँक्तियाँ
'दिल मे जिसको बसा के हम
बस राग वफा के गाते थे
हम कुछ तो उसकी सुनते थे
कुछ अपनी बात सुनाते थे
पर दिल मे रह कर दिल को वो
कुछ जख्म से दे कर चला गया
छला गया मैं छला गया'
तो वहीँ बंदिशें एक व्यंग्य रचना है जो कि राजनीतिक सरहदों की बात करती है और चीड, देवदार के पेड़ों के माध्यम से इंसां को समझाती है कि-
'ये सरहदें तुम्हारी बनायीं हैं
और सिर्फ तुम्हारे लिए हैं'
ऎसा नही है कि कवि केवल रिश्तों तक ही सीमित रहा... उसने समाज के विभिन्न पहलुओं को बड़ी बेबाकी से छुआ। समाज मे इन्सान के चरित्र की गिरावट, वैर, विरोध, झूठ-कपट कवि के भावुक मन को झकझोरते रहे है और वो कराहते हुये पुकार उठता है-----
कब आओगे वासुदेव की कुछ पँक्तियाँ
'अधर्म के दलदल में हैं
अर्जुन के भी पाँव
और रथ के पहिये...
कितने कर्ण खड़े हैं
सर संधान करने को
मगर अबकी बार
हल्का क्यों है
सच का पलड़ा?
सच कहो कब आयोगे वासुदेव?'
और अंतर्नाद गीत की एक झलक देखें कैसे उसके पौरुष को ललकारती हैं----
'खुँखार हुये कौरव के शर
गाण्डीव तेरा क्यों हल्का है
अर्जुन रण रस्ता देख रहा
विश्राम नहीं इक पल का है'
ऎक और चीज़ इस पुस्तक में है जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया उसका चिन्तन, जिस से उसकी आत्मा सहसा ही अपने मन के अंतर्द्वंद कह उठती है--
'कृष्ण बनने की कोशिश मे
मैं भीष्म होता जा रहा हूँ
अक्सर चाहता हूँ बसन्त होना
जाने क्यों ग्रीष्म होता जा रहा हूँ'
इसी संदर्भ मे उसकी कुछ कवितायें-- चेहरे और गिनती, अपने-पराये, थकावट, फैशनपरस्ती, बड़ा बदमाश और शीर्षक कविताअनुभूतियाँ सराहने योग्य हैं। ये पँक्तियाँ देखिये----
'शिव रूप पे लगे कलंकों को
तुम कुचल कुचल कर नाश करो
नापाक हुई इस धरती को
खल रक्त से फिर से साफ करो
जो हुया विश्व गुरू अपराधी
आयेंगे फिर न राम
प्रभु कर भी दो विध्वंस जहां'
कई बार खुद अपने को ही समझ नही पाता---- *विलीव इट और नाट* जिसमे आदमी को कई चेहरे लगाये दुनिया का बेस्ट एक्टर कहता है अपने माध्यम से। ये पंम्क्तियां देखिये----
'स्वप्नों मे आ कर
धमकाती हैं
धिक्कारती हैं
मेरे अन्तस की अनदेखियाँ
झपकती पलकों की अनुभूतियाँ'
कई बार तो इस छट्पटाहट से हताश हो कर वो मन ही मन इन चुनौतिओं से समझौता करने की बात करने लगता है---- मन के कोलाहल को शाँत करने की कोशिश करता है----
'जब किस्मत में
उनके साथ ही रहना लिखा है
तो क्यों न उन से
समझौता कर लूँ
बस इस लिये मैंने....
मेरी उलझनो ने...
और मेरी परिस्थितिओं ने
आपस मे समझौता कर लिया।'
नारी संवेदना को भी उसने दिल से समझा और महसूस किया है। वो आतंकवाद समझती है, साबित करने के लिये, परंपरा की चाल विशेष रूप से उल्लेखनीय रचनायें हैं... परम्परा की चाल स्त्री की तकलीफ भी है और रूढ़िवादी, अनावश्यक परम्परा के खिलाफ आवाज़ भी. साबित करने के लिए देखिये-
'तुम समन्दर हो गये
वो कतरा ही रह गयी
फिर भी डरते हो क्यों
कि वो कहीं उठ न जाये
तुम्हें कतरे का
कर्जदार साबित करने के लिये'
वो देश की राजनीति पर भी मौन नहीं रहा। बापू गान्धी को प्रतीक बना कर आज की राजनीति को उसने खूब आढे हाथों लिया है। *बापू भी खुश होते*, *बोली कब लगनी है* और *तुम न थे* देशभक्ति, राजनीतिक कटाक्ष और महापुरुषों से सीख देने के लिए प्रेरक उल्लेखनीय रचनायें हैं-
'बापू तेरी सच्चाई की
बोली कब लगनी है
घडियाँ, ऐनक सब बिके
कब प्यार की बोली लगनी है'
और जो सब से अच्छी कविता इस सन्दर्भ में मुझे लगी वो है लोकतन्त्र को लेकर--
'मैं अबोला एक भूला सा वेदमंत्र हूँ
खामियों से लथपथ मैं लोकतन्त्र हूँ
तंत्र हूँ स्वतन्त्र हूँ,दृष्टी मे मगर ओझल
मैं आत्मा से परतन्त्र हूँ
कहने को बढ रहा हूँ
पर जड़ों मे न झाँकिये
वहाँ से सड़ रहा हूँ मैं'
और अन्त मे कुछ नया सोचने के लिये प्रेरित करती पँक्तियाँ
'नये सिरे से सोचें हम
नयी सी कोई बात करें'
*सिगरेट*, बेरोजगारी, जन्मदिन, खंडहर की ईँट, दशहरा, पतंग रचनायें विभिन्न विषयों पर अनुभूतियों के समेटे हैं और सामजिक सरोकारों को लेकर लिखी गयी हैं। कवि अपनी अनुभूतिओं को कोई आवरण नहीं ओढाता बस जस की तस सामने रख देता है। कई बार वहाँ रस और लय का अभाव खटकता है मगर उसने अपने अन्दर के सच को ज़िन्दा रखने के लिये शब्दों से, कोई समझौता नहीं किया। जैसा की वैदेही शरण 'जोगी' जी ने कहा है कि दीपक की अनुभूतियाँ सत्य की ऊष्मा की अनुभूतियाँ हैं और डाक्टर मोहम्मद आजम जी ने दीपक के बारे मे कहा है कि इनमे कसक, तडप, सच्चाई, बगावत, आग, जज़्बात, इश्क, तहज़ीब, देशभक्ति, तंज व व्यंग, रिश्तों की पाकीज़गी आदि वो सब गुण हैं जो एक व्यक्ति को कवि,शायर का दर्ज़ा देते है। इस पुस्तक का पूरा श्रेय वो अपने परम आदरणीय गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी को देता है।आज के युवाओं मे गुरू शिष्य परंपरा का जीवन्त उदाहरण है उस का ये समर्पण ।
पुस्तक का आवरण साज-सज्जा सहज ही आकर्षित करती है। शिवना प्रकाशन इस के लिये बधाई की पात्र है| आशा है पाठक इस पुस्तक का खुले दिल से स्वागत करेंगे और ये हाथों हाथ बिकेगी। आने वाले समय का ये उभरता हुया कवि, शायर, कहानीकार है।
जो हर विधा मे लिखता है। ब्लोग पर इसके इस फन को महसूस किया जा सकता है। कामना करती हूँ इस दीपक की लौ हमेशा सब के लिये दीपशिखा सी हो और इसकी चमक दुनिया भर में फैले।
पुस्तक ---- अनुभूतियाँ
कुल्र रचनायें---56
पृष्ठ संख्या--104
प्रकाशित मूल्य--- २५० रुपये
प्रचार हेतु प्रारंभिक मूल्य- १२५ रुपये
प्रकाशक -- शिवना प्रकाशन , पी.सी.लैब, अपोजिट न्यू बस स्टैंड ,सिहोर(म.प्र.) 466001
36 comments:
बेहतरीन समीक्षा...अब तो रुका नहीं जा रहा पुस्तक पाने के लिए...कहाँ गया दीपक!!!
अच्छा प्रयास है। हर समीक्षा पुस्तक परिचय से आरंभ होती है। यह उस से कुछ आगे की चीज बन गई है। आप दो चार पुस्तकों की समीक्षा करेंगी तो हाथ मंज जाएगा। इस काम की ब्लागीरी में कमी है। समीक्षा के बिना लेखन आगे नहीं बढ़ता। समीक्षा आरंभ होनी चाहिए। यहाँ समीक्षा करने वाला या तो केवल तारीफ ही करता है आलोचना का अभाव है। इसे ऐसे आरंभ किया जा सकता है कि लेखक खुद समीक्षा का प्रस्ताव समीक्षक से करे और समीक्षक से सभी तरह की समीक्षा झेलने को तैयार रहे। जब कुछ समीक्षाएँ हो लेंगी और उन का प्रभाव देखने को मिलेगा तो यह सिलसिला भी चल निकलेगा। इस की बहुत जरूरत है। इस के बिना ब्लागीरी में लोग बिना मँजे रह जाएंगे। लोग तो जूता भी बिना पालिश के नहीं पहनते। ब्लागीरों को पालिश की जरूरत है।
मशाल भाई को...सलाम
और माँ को सजदा।
'माँ तेरी बेबसी आज भी
मेरी आँखों मे घूमती है
तुमने तोड़े थे सारे चक्रव्यूह
कौन्तेयपुत्र से भी अधिक
जबकि नहीं जानती थीं तुम
निकलना बाहर....
या शायद जानती थीं
पर नहीं निकलीं
हमारी खातिर,
अपनी नहीं
अपनों की खातिर'
सुन्दर समीक्षा निर्मला जी और दीपक जी को ढेरो शुभकामनाये ! निशंदेह इस युवा साहित्यकार के पास साहित्य का बहुत बड़ा खजाना है !
बहुत सुन्दर समीक्षा , रोचक लगा पढना....
regards
आपने बहुत ही सुन्दर पुस्तक समीक्षा की, बारीकी से हर कविता की गहराई को महसूस किया, दीपक जी को बहुत-बहुत बधाई इस उपलब्धि पर, शुभकामनायें ।
आपने बेहतरीन समीक्षा की
भाई दीपक मशाल जी को ढेरो शुभकामनाये !
अच्छी समीक्षा , दीपक जी को बधाई
मैं इसे दोबारा पढ़ूंगा. समीक्षा को.
पुस्तक की समीक्षा बहुत लाजवाब तरीके से की है .......... ख़ास ख़ास रचनाओं को बहुत असरदार तरीके से प्रस्तुत किया है आपने .......... दीपक जी की संवेदना झलकती है उनकी रचनाओं में .........
बहुत शानदार और विस्तृत समीक्षा. बधाई.
बहुत अच्छी पुस्तक और उतनी ही अच्छी समीक्षा,........जब मां के हाथों मां पर लिखी गयी पुस्तक की समीक्षा हो,तो उत्कृष्ट होना स्वाभाविक ही है.
पुस्तक तो देखी नही है लेकिन समीक्षा से आभास होता है कि बहुत कुछ खास होगा इसमें।
बहुत ही सुन्दर समीक्षा, आपने पुस्तक से अच्छे नगीने चुन कर लाये हैं...सारी कवितायें मन को छू गयीं बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति
प्रणाम माँ बहुत ही सुन्दर samixa प्रस्तुत की आप ने पुस्तक को पढने के लिए उत्सुकता और बढ़ गयी है
Rrgards
•▬●๋•pŕávểểń کhừklá●๋•▬•
9971969084
9211144086
बहुत सुंदर समीक्षा, इस किताब को पढने की उत्सुकता बढ गई है.
रामराम.
इस छोटी सी उम्र मै ही दीपक जी ने कमाल कर दिया, चलिये इस पुस्तक को मै भारत से ले कर आऊंगा समीक्षा बहुत सुंदर लगी.
धन्यवाद
निर्मला जी आपकी पुस्तक समीक्षा ने अभिभूत कर दिया...बिना पुस्तक को दिल से पढ़े ऐसी समीक्षा लिखना न मुमकिन है...आपने इस बारीकी से इस पुस्तक के पृष्ठ सामने रखें हैं की अब इसे बिना पढ़े रह पाना मुश्किल लग रहा है...पुस्तक मंगवाने के लिए गुरुदेव को लिखूं या दीपक को सोच रहा हूँ...
नीरज
di aapko aur deepak ji ko hardik badhayi ........aapne bahut hi prabhavshali dhang se samiksha ki hai aur deepak ji ki anmol kriti ke ansh hamein padhwaye.........shukriya.
सुन्दर रचना
बहुत बहुत आभार
सुन्दर पुस्तक की सुन्दर समीक्षा, निर्मला जी।
फुर्सत में पूरा पढेंगे।
आभार।
निर्मला जी
बहुत बहुत आभार
आपने किताब की विस्तृत जान्कारी
देकर किताब पढ़ने की उत्सुक्त जागरुत कर दी है
मासी जी ये आपका और ब्लॉगजगत के अन्य मनीषियों का आशीर्वाद ही है जो ये प्रकाशन संभव हो पाया....
आपकी इतनी उत्कृष्ट समीक्षा के बारे मैं बोल के छोटा मुँह बड़ी बात नहीं कर सकता... आप बेहतर अच्छा बुरा जानती हैं.. मैं तो ठहरा नौसिखिया.. kal saare samachar aur sameeksha http://swarnimpal.blogspot.com par bhi daloonga..
जय हिंद...
आपने बहुत ही सुन्दर समीक्षा की है, यदि इसे समीक्षा न कह कर ये कहें कि पूरी पुस्तक ही पढवा दी है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.
आप यदि आज्ञा दें तो इस समीक्षा को हम भी अपने एक दूसरे ब्लॉग पर लगा दें.
जैसा हो बताइयेगा.
dr.kumarendra@gmail.com
बेहतरीन प्रस्तुति,आभार इस जानकारी का.
बहुत ही ख़ूबसूरत समीक्षा ! आपने बड़े ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! पढ़कर बेहद अच्छा लगा! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई!
बहुत ही अच्छी समीक्षा......
दीपक मशाल जी तो हीरा हैं..ओर आप भी किसी जौहरी के कम नहीं, जो कि हीरे की परख जानता है।
दी आपने पुस्तक की बहुत अच्छीसमीक्षा की है । शिवना प्रकाशन आपका ही है मैं तो आपके प्रतिनिधि के रूप में उसको संभाल रहा हूं । सो आपका आशीर्वाद तो मुझे हमेशा ही चाहिये । आशा है अपने इस प्रतिनिधि को आप अपना आशीष हमेशा देती रहेंगीं ताकि आपका ये प्रतिनिधि आपके ही इस प्रकाशन को ठीक प्रकार से संभाल सके ।
आपका पोस्ट को पढ़कर तो आनन्द आ गया!
इसे चर्चा मंच में भी स्थान मिला है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/01/blog-post_28.html
शुक्रिया. यह तो आपकी विनम्रता है वरना आपकी इतनी सुन्दर समीक्षा से ऐसा लगा मानो पुस्तक सामने ही हो.
आपके प्रयास और इस समीक्षा (परिश्रमपूर्ण पोस्ट) की सराहना करता हूँ. जैसा की द्विवेदी जी कहते हैं... अब ब्लॉग में समीक्षाये खूब लिखनी चाहिए... दूर हो चुके पाठकों को फिर से जोड़ने का काम करता है.
दीपक में अनंत संभावनाएं है. पुनः: बधाई. हाँ मैंने तो पहले ही पुस्तक खरीदने की पेशकश भेज रखी है.
- सुलभ
बहुत उम्दा रचना
बहुत बहुत शुक्रिया
sameeksha bahut badhiya lagee...saare pakshon ko samet liya aapne..badhaai
उम्दा प्रयास बधाई आपको और भाई दीपक जी को
स स्नेह
- लावण्या
बहुत ही बेहतरीन समीक्षा ..
@समीर जी मेरी कॉपी भी आपके ही पास आएगी..इसलिए मुझे आपसे ही लेना है...
बस अब तो लग रहा है बस आ जाए..
दीपक बहुत बधाई..और आशीर्वाद !!
बहुत आभार....
Aapka hardik aabhar ,janmdin wish ke liye .Apne to bahut umda sameeksha ki hai pustak ki.Laga hi nahi ki aap pahli baar likh rahi hain .
Kuch bhi ho ,aap ka gyan rang dikha raha hai.Meri shubh kamnayen .
sader,
dr.bhoopendra
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