बेटियों की माँ (कहानी )
सुनार के सामने बैठी हूं । भारी मन से गहनों की पोटली पर्स मे से निकाल कर कुछ देर हाथ में पकड़े रखती हूं । मन में बहुत कुछ उमड़ घमुड़ कर बाहर आने को आतुर है । कितन प्यार था इन जेवरों से । जब कभी किसी शादी व्याह पर पहनती तो देखने वाले देखते रह जाते । किसी राजकुमारी से कम नही लगती थी । खास कर लड़ियों वाला हार कालर सेट पहन कर गले से छाती तक सारा झिलमला उठता । मुझे इन्तजार रहता कि कब कोई शादी व्याह हो तो सारे जेवर पहून । मगर आज ये जेवर मेरे हाथ से निकले जा रहे थे । दिल में टीस उठती है ----- दबा लेती हू ---- लगता है आगे कभी व्याह शादियों का इन्तजार नही रहेगा -------- बनने संवरन की इच्छा इन गहनों के साथ ही पिघल जाएगी । सब हसरतें लम्बी सास खींचकर भावों को दबाने की कोशिश करती हू । सामने बेटी बैठी है -------- अपने जेवर तुड़वाकर उसके लिए जेवर बनवाने है ----- क्या सोचेगी बेटी ----- मा का दिल इतना छोटा है ? अब मा की कौन सी उम्र है इतने भारी जेवर पहनने की ------------- अपराधी की तरह नज़रें चुराते हुए सुनार से कहती हू ‘ देंखो जरा, कितना सोना है ? वो सारे जेवरों को हाथ में पकड़ता है - उल्ट-पल्ट कर देखता है - ‘इनमें से सारे नग निकालने पड़ेंगे तभी पता चलेगा ?‘‘
टीस और गहरी हो जाती है --------इतने सुन्दर नग टूट कर पत्थर हो जाएगे जो कभी मेरे गले में चमकते थे । शायद गले को भी यह आभास हो गया है -------बेटी फिर मेरी तरफ देखती है ----- गले से बड़ी मुकिल से धीमी सी आवाज़ निकलती है ---हा निकाल दो‘ ।
उसने पहला नग जमीन पर फेंका तो आखें भर आई । नग के आईने में स्मृतियां के कुछ रेषे दिखाई दिए । मा- पिता जी - कितने चाव से पिता जी ने आप सुनार के सामने बैठकर यह जेवर बनवाए थे । ‘ मेरी बेटी राजकुमारी इससे सुन्दर लगेगी । मा की आखें मे क्या था --- उस समय में मैं नही समझ पाई थी या अपने सपनों में खोई हुई मा की आखें में देखने का समय ही नही था । शायद उसकी आखों में वही कुछ था जो आज मेरी आखें में है, दिल में है ---- शरीर के रोम-रोम में है । अपनी मा का दर्द कहा जान पाई थी । सारी उम्र मा ने बिना जेवरों के काट दी । वो भी तीन बेटियों की शादी करते-करते बूढ़ी हो गई थी । अब बुढ़े आदमी की भी कुछ हसरतें होती हैं । बच्चे कहा समझ पाते हैं ---- मैं भी कहा समझ पाई--- इसी परंपरा में मेरी बारी है फिर कैसा दुख ----मा ने कभी किसी को आभास नहीं होने दिया, उन्हें शुरू से कानों में तरह-तरह के झूमके, टापस पहनने का शौक था मगर छोटी की शादी करते-करते सब कुछ बेटियों को दे दिया । फिर गृहस्थी के बोझ में फिर कभी बनवाने की हसरत घरी रह गई । किसी ने इस हसरत को जानने की चेष्टा भी नही की । औरत के दिल में गहनों की कितनी अहमियत होती है ---- यह तब जाना जब छोटी के बेटे की शादी पर उन्हें सोने के टापस मिले । मा के चेहरे का नूर देखते ही बनता था ‘देखा, मेरे दोहते ने नानी की इच्छा पूरी कर दी‘‘ वो सबसे कहती ।
धीरे-धीरे सब नग निकल गए थे । गहने बेजान से लग रहे थे । शायद अपनी दुर्दाशा पर रो रहे थे --------------‘ अभी इन्हें आग में गलाना पड़ेगा तभी पता चलेगा कि कितना सोना निकलेगा ।‘‘
‘हा,, गला दो‘ बचा हुआ साहस इकट्ठा कर, दो शब्द निकाल पाई ।
उसने गैस की फूकनी जलाई । एक छोटी सी कटोरी को गैस पर रखा, उसमें उसने गहने डाले और फूकनी से निकलती लपटों से गलाने लगा । लपलपाटी लपटों से सोना धधकने लगा । एक इतिहास जलने लगा ---- टीस और गहरी हुई । लगा जीवन में अब कोई चाव ----- नही रह गया है ---- एक मा‘-बाप के बेटी के लिए देखे सपनों का अन्त हो गया और मेरे मा- बाप के बीच उन प्यारी यादों का अन्त हो गया ----- भविष्य में अपने को बिना जेवरों के देखने की कल्पना करती हू तो ठेस लगती है । मेरी तीन समघनें और मैं एक तरफ खड़ी बातें कर रही है । इधर-उधर लोग खाने पीने में मस्त है । कुछ कुछ नज़रें मुझे ढूंढ रही है । थोड़ी दूर खड़ी औरतें बातें कर रही है । एक पूछती है ‘लड़की की मा कौन सी है ? ‘‘दूसरी कहती है ‘अरे वह जो पल्लू से अपने गले का आर्टीफिशल नेकलेस छुपाने की कोशिश कर रही है ।‘‘ सभी हस पड़ती हैं । समघनों ने शायद सुन लिया है ----- उनकी नज़रें मेरे गले की तरफ उठी --------- क्या है उन आखों में जो मुझे कचोट रहा है ---- हमदर्दी ----- दया--- नहीं--नहीं व्यंग है, बेटिया जन्मी हैं तो सजा तो मिलनी ही थी ----- उनके चेहरे पर लाली सी छा जाती है । बेटों का नूर उनके चेहरे से झलकने लगता है । अन्दर ही अन्दर गर्म से गढ़ी जा रही हूं, क्यों ? क्या बेटियों की मा होना गुनाह है ---- सदियों से चली आ रही इस परंपरा से बाहर निकल पाना कठिन है । आखें भर आती हैं । साथ खड़ी औरत कहती है बेटियों को पराए घर भेजना बहुत कठिन है और मुझे अन्दर की टीस को बाहर निकालने का मौका मिल जाता है । एक दो औरतें और सात्वना देती है । ---- आसुयों को पोंछकर कल्पनाओं से बाहर आती हू । मैं भी क्या उट पटाग सोचने लगती हू --- अभी तो देखना है कि कितना सोना है । शायद उसमें थोड़ा सा मेरे लिये भी बच जाए । सुनार ने गहने गला कर सोने की छोटी सी डली मेरे हाथ पर रख दी । मुटठी में भींच कर अपने को ढाढस बंधाती हू । इतनी सी डली में इतने वर्षों का इतिहास समाया हुआ था । तोल कर हिसाब लगाती हू तो बेटी के जेवर भी इसमें पूरे नही पड़ते है ------ मेरा सैट कहा बनेगा । फिर सोचती हू सास का सैट रहने देती हू ---- बेटी को इतना पढ़ा लिखा दिया है एक महीने की पगार में सैट बनवा देगी । मुझे कौर बनावाएगा ? मगर दूसरे ही पल बेटी का चेहरा देखती हू । सारी उम्र उसे सास के ताने सुनने पड़ेंगे कि तुम्हारे मा-बाप ने दिया क्या है------ नहीं नही मन को समझाती ह अब जीवन बचा ही कितना है । बाद में भी इन बेटियों का ही तो है । एक चादी की झाझर बची थी । उस समय - समय भारी घुघरू वाली छन छन करती झाझरों का रिवाज था ----- नई बहू की झाझर से घर का कोना कोना झनझना उठता । साढ़े तीन सौ ग्राम की झाझर को पुरखों की विरासत समझ कर रखना चाहती थी मगर पैसे पूरे नही पड़ रहे थे दिल कड़ा कर उसे भी सुनार को दे दिया । सुनार के पास तो यू पुराने जेवर आधे रह जाते है ------- झाझर को एक बार पाव में डालती हू -------------- बहुत कुछ आखें में घूम जाता है । बरसों पहले सुनी झकार आज भी पाव में थिरकन भर देती है । मगर आज पहन कर भी इसकी आवाज बेसुरी लग रही है ---शायद आज मन ठीक नही है । उसे भी उतार कर सुनार को दे देती हू ।
सुनार से सारा हिसाब किताब लिखवाकर गहने बनने दे देती हू । उठ कर खड़ी होती हू तो लड़खडार जाती हू । जैसे किसी ने जान निकाल दी हो । बेटी बढ़कर हाथ पकड़ती है---- डर जाती हू कहीं बेटी मेरे मन के भाव ने जान ले । उससे कहती हू अधिक देर बैठने से पैर सो गए हैं । अैार क्या कहती ? कैसे बताती कि इन पावों की थिरकन समाज की परंपंराओं की भेंट चढ़ गई है ।
सुनार सात दिन बात जेवर ले जाने को कहता है । सात दिन कैसे बीते बता नहीं सकती--- हो सकता है मैं ही ऐसा सोचती हू । ाायद बाकी बेटियों की मायें भी ऐसा ही सोचती होंगी । आज पहली बार लगता है मेरी आधुनिक सोच कि बेटे-बेटी में कोई फरक नहीं है , चूर-चूर हो जाती है --- जो चाहते हैं कि समाज बदले बेटी को सम्मान मिले --- वो सिर्फ लड़की वाले हैं । कितने लड़के वाले जो कहते है दहेज नहीं लेंगे ? वल्कि वो तो दो चार नई रस्में और निकाल लेते है । उन्हें तो लेने का बहाना चाहिए । लगता है और कभी इस समस्या से मुक्त नही हो सकती ।------ औरत ही दहेज चाहती है । औरत ही दहेज चाहती है सास बनकर ------- औरत ही दहेज देती है, मा बनकर । लगता है तीसरी बेटी की शादी पर बहुत बूढ़ी हो गई हू ----- शादियों के बोझ से कमर झुक गई है ----- खैर अब जीवन बचा ही कितना है । आगे बेटियां कहती रहती थी ‘मा यह पहन लो, वो पहन लो---- ऐसे अच्छी लगती है -----‘अब बेटिया ही चली गई तो कौन कहेगा । कौन पूछेगा ----मन और भी उदास हो जाता है । रीता सा मन----रीता सा बदन- लिए हफते बाद सुनार के यहा फिर जाती हू ---- बेटी साथ है ---- बेटी के चेहरे पर चमक देखकर कुछ सकून मिलता है ।
जैसे ही सुनार ने गहने निकाल कर सामने रखे, बेटी का चेहरा खिल उठता है ---- उन्हें बड़ी हसरत से पहन-पहन कर देखती है और मेरी आखों के सामने 35 वर्ष पहले का दृष्य घूम गया--------मैं भी तो इतनी ही खु थी -----------मा की सोचों से अनजान -------लेकिन आज तो जान गई हू --- सदियों से यही परंपरा चली आज रही है -----मैं वही तो कर रही जो मेरी मा ने किया ---बेटी की तरफ देखती हू उसकी खूशी देखकर सब कुछ भूल जाती ---- अपनी प्यारी सी राजकुमारी बेटी से बढ़कर तो नहीं हैं मेरी खुायॉं -----मन को कुछ सकून मिलता है ----जेवर उठा कर चल पड़ती हॅ बेटी की ऑंखों के सपने देखते हुूए । काष ! मेरी बेटी को इतना सुख दे, इतनी शक्ति दे कि उसको इन परंपराओं को न निभाना पड़े ----- मेरी बेटी अब अबला नहीं रही, पढ़ी लिखी सबला नारी है, वो जरूर दहेज जैसे दानव से लड़ेगी ----- अपनी बेटी के लिए----मेरी ऑंखों में चमक लौट आती है -----पैरों की थिरकन मचलने लगती है --------------।
उसने पहला नग जमीन पर फेंका तो आखें भर आई । नग के आईने में स्मृतियां के कुछ रेषे दिखाई दिए । मा- पिता जी - कितने चाव से पिता जी ने आप सुनार के सामने बैठकर यह जेवर बनवाए थे । ‘ मेरी बेटी राजकुमारी इससे सुन्दर लगेगी । मा की आखें मे क्या था --- उस समय में मैं नही समझ पाई थी या अपने सपनों में खोई हुई मा की आखें में देखने का समय ही नही था । शायद उसकी आखों में वही कुछ था जो आज मेरी आखें में है, दिल में है ---- शरीर के रोम-रोम में है । अपनी मा का दर्द कहा जान पाई थी । सारी उम्र मा ने बिना जेवरों के काट दी । वो भी तीन बेटियों की शादी करते-करते बूढ़ी हो गई थी । अब बुढ़े आदमी की भी कुछ हसरतें होती हैं । बच्चे कहा समझ पाते हैं ---- मैं भी कहा समझ पाई--- इसी परंपरा में मेरी बारी है फिर कैसा दुख ----मा ने कभी किसी को आभास नहीं होने दिया, उन्हें शुरू से कानों में तरह-तरह के झूमके, टापस पहनने का शौक था मगर छोटी की शादी करते-करते सब कुछ बेटियों को दे दिया । फिर गृहस्थी के बोझ में फिर कभी बनवाने की हसरत घरी रह गई । किसी ने इस हसरत को जानने की चेष्टा भी नही की । औरत के दिल में गहनों की कितनी अहमियत होती है ---- यह तब जाना जब छोटी के बेटे की शादी पर उन्हें सोने के टापस मिले । मा के चेहरे का नूर देखते ही बनता था ‘देखा, मेरे दोहते ने नानी की इच्छा पूरी कर दी‘‘ वो सबसे कहती ।
धीरे-धीरे सब नग निकल गए थे । गहने बेजान से लग रहे थे । शायद अपनी दुर्दाशा पर रो रहे थे --------------‘ अभी इन्हें आग में गलाना पड़ेगा तभी पता चलेगा कि कितना सोना निकलेगा ।‘‘
‘हा,, गला दो‘ बचा हुआ साहस इकट्ठा कर, दो शब्द निकाल पाई ।
उसने गैस की फूकनी जलाई । एक छोटी सी कटोरी को गैस पर रखा, उसमें उसने गहने डाले और फूकनी से निकलती लपटों से गलाने लगा । लपलपाटी लपटों से सोना धधकने लगा । एक इतिहास जलने लगा ---- टीस और गहरी हुई । लगा जीवन में अब कोई चाव ----- नही रह गया है ---- एक मा‘-बाप के बेटी के लिए देखे सपनों का अन्त हो गया और मेरे मा- बाप के बीच उन प्यारी यादों का अन्त हो गया ----- भविष्य में अपने को बिना जेवरों के देखने की कल्पना करती हू तो ठेस लगती है । मेरी तीन समघनें और मैं एक तरफ खड़ी बातें कर रही है । इधर-उधर लोग खाने पीने में मस्त है । कुछ कुछ नज़रें मुझे ढूंढ रही है । थोड़ी दूर खड़ी औरतें बातें कर रही है । एक पूछती है ‘लड़की की मा कौन सी है ? ‘‘दूसरी कहती है ‘अरे वह जो पल्लू से अपने गले का आर्टीफिशल नेकलेस छुपाने की कोशिश कर रही है ।‘‘ सभी हस पड़ती हैं । समघनों ने शायद सुन लिया है ----- उनकी नज़रें मेरे गले की तरफ उठी --------- क्या है उन आखों में जो मुझे कचोट रहा है ---- हमदर्दी ----- दया--- नहीं--नहीं व्यंग है, बेटिया जन्मी हैं तो सजा तो मिलनी ही थी ----- उनके चेहरे पर लाली सी छा जाती है । बेटों का नूर उनके चेहरे से झलकने लगता है । अन्दर ही अन्दर गर्म से गढ़ी जा रही हूं, क्यों ? क्या बेटियों की मा होना गुनाह है ---- सदियों से चली आ रही इस परंपरा से बाहर निकल पाना कठिन है । आखें भर आती हैं । साथ खड़ी औरत कहती है बेटियों को पराए घर भेजना बहुत कठिन है और मुझे अन्दर की टीस को बाहर निकालने का मौका मिल जाता है । एक दो औरतें और सात्वना देती है । ---- आसुयों को पोंछकर कल्पनाओं से बाहर आती हू । मैं भी क्या उट पटाग सोचने लगती हू --- अभी तो देखना है कि कितना सोना है । शायद उसमें थोड़ा सा मेरे लिये भी बच जाए । सुनार ने गहने गला कर सोने की छोटी सी डली मेरे हाथ पर रख दी । मुटठी में भींच कर अपने को ढाढस बंधाती हू । इतनी सी डली में इतने वर्षों का इतिहास समाया हुआ था । तोल कर हिसाब लगाती हू तो बेटी के जेवर भी इसमें पूरे नही पड़ते है ------ मेरा सैट कहा बनेगा । फिर सोचती हू सास का सैट रहने देती हू ---- बेटी को इतना पढ़ा लिखा दिया है एक महीने की पगार में सैट बनवा देगी । मुझे कौर बनावाएगा ? मगर दूसरे ही पल बेटी का चेहरा देखती हू । सारी उम्र उसे सास के ताने सुनने पड़ेंगे कि तुम्हारे मा-बाप ने दिया क्या है------ नहीं नही मन को समझाती ह अब जीवन बचा ही कितना है । बाद में भी इन बेटियों का ही तो है । एक चादी की झाझर बची थी । उस समय - समय भारी घुघरू वाली छन छन करती झाझरों का रिवाज था ----- नई बहू की झाझर से घर का कोना कोना झनझना उठता । साढ़े तीन सौ ग्राम की झाझर को पुरखों की विरासत समझ कर रखना चाहती थी मगर पैसे पूरे नही पड़ रहे थे दिल कड़ा कर उसे भी सुनार को दे दिया । सुनार के पास तो यू पुराने जेवर आधे रह जाते है ------- झाझर को एक बार पाव में डालती हू -------------- बहुत कुछ आखें में घूम जाता है । बरसों पहले सुनी झकार आज भी पाव में थिरकन भर देती है । मगर आज पहन कर भी इसकी आवाज बेसुरी लग रही है ---शायद आज मन ठीक नही है । उसे भी उतार कर सुनार को दे देती हू ।
सुनार से सारा हिसाब किताब लिखवाकर गहने बनने दे देती हू । उठ कर खड़ी होती हू तो लड़खडार जाती हू । जैसे किसी ने जान निकाल दी हो । बेटी बढ़कर हाथ पकड़ती है---- डर जाती हू कहीं बेटी मेरे मन के भाव ने जान ले । उससे कहती हू अधिक देर बैठने से पैर सो गए हैं । अैार क्या कहती ? कैसे बताती कि इन पावों की थिरकन समाज की परंपंराओं की भेंट चढ़ गई है ।
सुनार सात दिन बात जेवर ले जाने को कहता है । सात दिन कैसे बीते बता नहीं सकती--- हो सकता है मैं ही ऐसा सोचती हू । ाायद बाकी बेटियों की मायें भी ऐसा ही सोचती होंगी । आज पहली बार लगता है मेरी आधुनिक सोच कि बेटे-बेटी में कोई फरक नहीं है , चूर-चूर हो जाती है --- जो चाहते हैं कि समाज बदले बेटी को सम्मान मिले --- वो सिर्फ लड़की वाले हैं । कितने लड़के वाले जो कहते है दहेज नहीं लेंगे ? वल्कि वो तो दो चार नई रस्में और निकाल लेते है । उन्हें तो लेने का बहाना चाहिए । लगता है और कभी इस समस्या से मुक्त नही हो सकती ।------ औरत ही दहेज चाहती है । औरत ही दहेज चाहती है सास बनकर ------- औरत ही दहेज देती है, मा बनकर । लगता है तीसरी बेटी की शादी पर बहुत बूढ़ी हो गई हू ----- शादियों के बोझ से कमर झुक गई है ----- खैर अब जीवन बचा ही कितना है । आगे बेटियां कहती रहती थी ‘मा यह पहन लो, वो पहन लो---- ऐसे अच्छी लगती है -----‘अब बेटिया ही चली गई तो कौन कहेगा । कौन पूछेगा ----मन और भी उदास हो जाता है । रीता सा मन----रीता सा बदन- लिए हफते बाद सुनार के यहा फिर जाती हू ---- बेटी साथ है ---- बेटी के चेहरे पर चमक देखकर कुछ सकून मिलता है ।
जैसे ही सुनार ने गहने निकाल कर सामने रखे, बेटी का चेहरा खिल उठता है ---- उन्हें बड़ी हसरत से पहन-पहन कर देखती है और मेरी आखों के सामने 35 वर्ष पहले का दृष्य घूम गया--------मैं भी तो इतनी ही खु थी -----------मा की सोचों से अनजान -------लेकिन आज तो जान गई हू --- सदियों से यही परंपरा चली आज रही है -----मैं वही तो कर रही जो मेरी मा ने किया ---बेटी की तरफ देखती हू उसकी खूशी देखकर सब कुछ भूल जाती ---- अपनी प्यारी सी राजकुमारी बेटी से बढ़कर तो नहीं हैं मेरी खुायॉं -----मन को कुछ सकून मिलता है ----जेवर उठा कर चल पड़ती हॅ बेटी की ऑंखों के सपने देखते हुूए । काष ! मेरी बेटी को इतना सुख दे, इतनी शक्ति दे कि उसको इन परंपराओं को न निभाना पड़े ----- मेरी बेटी अब अबला नहीं रही, पढ़ी लिखी सबला नारी है, वो जरूर दहेज जैसे दानव से लड़ेगी ----- अपनी बेटी के लिए----मेरी ऑंखों में चमक लौट आती है -----पैरों की थिरकन मचलने लगती है --------------।
---निर्मला कपिला
47 comments:
ए मां,
तेरी सूरत के आगे भगवान की सूरत भी क्या होगी...क्या होगी...
जय हिंद...
माँ के बारे मे कुछ भी कहना कम होगा....
पायँ लागु माँ जी...
माँ ही मेरी दुनिया है, इसलिए मै हमेशा उनके पास ही रहता हुँ, मैं आज भी बाहर चला जाता हुँ तो चिंता के मारे रात भर सो नही पाती-आखिर माँ है,
आभार
निर्मला जी, इस कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई! ऐसी कहानियों की बहुत जरूरत है। इस ने आँखें पनीली कर दीं।
निर्मला जी
दहेज का अर्थ है कि बिना श्रम किए सुख के साधनों का संचय। इसलिए आज स्वयं लड़की भी यही चाहती है कि मैं जब अपना घर बसाऊँ तब मेरे पास सारे ही सुख के संसाधन हों। उस समय उसे कभी नहीं दिखायी देता माँ का सूना गला या पिता की खाली होती जेब। यदि आज की लड़की निश्चय करले कि मैं दहेज रूपी ऐसा सुख नहीं मांगूगी तब समस्या का समाधान स्वत: हो जाएगा। बहुत ही अच्छी पोस्ट है। लोगों के मन को झिंझोड़ने का काम किया है। बधाई।
अत्यन्त मार्मिक और भावुक कर देने वाला आलेख..............
आपको प्रणाम !
आज की आपकी इस रचना को पढकर मुझे भी आपको माँ कहने को जी कर रहा है ..........आंखे नम हो गयी........
बहुत ही सुन्दर चित्र खिंचा है बेटियो की माँ ......यह सत्य है बेटियो की मा हमेशा से ऐसी रही है बेटो का माँ होना समाज मे बहुत ही प्रतिष्टा की विषय आज भी है .............पत नही कब इस तरह की मानसिकता का अंत होगा!बहुत ही सुन्दर चित्र खिचा है माँ जी!
ek maa ki ann ki lehron ko kitni khubsurati se alfaz diye hai aapne,sunder,marmik kahani.
आपकी इस कहानी ने झकझोर दिया. आभार.
Yahi hai ghar ghar ki kahani..Maa..Beti..Zewar ..fir Maa ..Beti.. zewar kuch bhi to nahi badalta
उसने पहला नग जमीन पर फेंका तो आखें भर आई । नग के आईने में स्मृतियां के कुछ रेषे दिखाई दिए । मा- पिता जी - कितने चाव से पिता जी ने आप सुनार के सामने बैठकर यह जेवर बनवाए थे । ‘ मेरी बेटी राजकुमारी इससे सुन्दर लगेगी । मा की आखें मे क्या था --- उस समय में मैं नही समझ पाई थी .
haan jab apne upaar guzarati hai na tab pata chalta hai...
..Pitaji ki wo baat yaad ho aie seHsa...
"Beta jab tere bacche honge na tab tujhe pata chelga"
kitni gehri samvedna hai...
...stri man ko hum kahan samajh paate hain...
...aaj pata chala !
aur behteri roop se pata chala....
PRANAM !
‘हा,, गला दो‘ बचा हुआ साहस इकट्ठा कर, दो शब्द निकाल पाई ।
UFFF....
उससे कहती हू अधिक देर बैठने से पैर सो गए हैं । अैार क्या कहती ? कैसे बताती कि इन पावों की थिरकन समाज की परंपंराओं की भेंट चढ़ गई है ।
सुनार सात दिन बात जेवर ले जाने को कहता है । सात दिन कैसे बीते बता नहीं सकती--- हो सकता है मैं ही ऐसा सोचती हू
मैं भी तो इतनी ही खु थी -----------मा की सोचों से अनजान -------लेकिन आज तो जान गई हू --- सदियों से यही परंपरा चली आज रही है
JAISE JAISE NEECHE AA RAHA HOON...
...MAN KI DASHA AURE BURI HOTI JA RAHI HAI....
....EK BEHTERIN KRITI LIKH DALI HA AAPNE...
...AAPKO PATA HAI?
PRANAM !!
बहुत सुन्दर है, बहुत प्यारा है, इतना बढ़िया चित्रण है की मेरे सामने आने वाले २५ सालों के बाद का दृश्य घूम गया है.... मेरी भी एक छोटी सी बिटिया है, क्या हमार सामने भी यही हालात होंगे, सोचने के लिए मजबूर हो गया हूँ...
मैं वही तो कर रही जो मेरी माँ ने किया था.........बेटी की तरफ देखती हूँ उसकी खुशी देखकर..............
निर्मला जी, यही तो संस्कार है, बहुत सुन्दर लेख !
अत्यन्त मार्मिक और भावुक कर देने वाला आलेख..............
मां के बारे में जितना कहा जाये वह बेहद कम प्रतीत होता है, बहुत ही भावमय प्रस्तुति, आभार
"----- मेरी बेटी अब अबला नहीं रही, पढ़ी लिखी सबला नारी है, वो जरूर दहेज जैसे दानव से लड़ेगी ----- "
कामना है कि यह स्वप्न पूरा हो।
मेरे पास शब्द नहीं हैं, हाँ आँखों में खरा पानी बहुत हैं.... क्या लिख रहा हूँ स्पष्ट दीखता भी नहीं..... शायद कुछ तकिया भी गीला हो गया.... ये लेट के लिखने की आदत भी न...
khani hai ya sach ,magar naari ka ek sach hai.divali ki shubh kamnaye
बेटियों के प्रति मां की भावना को बहुत ही सुन्दर भावों के साथ प्रस्तुत किया है ...सच ही है की एक उम्र के बाद हर मां अपनी बेटियों के लिए उसी तरह सोचना प्रारंभ कर देती है जैसे उनकी माँ सोचा करती थी ...माँ की सोच को दकियनूसी बता कर हंसने वाली आधुनिक बेटी भी खास समय में बिलकुल अपनी माँ की तरह ही होती है ...मुझे याद है जब रोकने टोकने पर गुस्सा दिखाते तो माँ हंस कर कहती थी ...बेटा जब माँ बनोगे तब पता चलेगा ...खूब पता चल रहा है ...!!
बहुत मार्मिकता लिये हुये है ये रचना. आभार आपका.
रामराम.
अत्यंत मार्मिक और भावुक कर देने वाली कहानी....एक दृश्य आँखों के आगे साकार हो उठा...एक बार अपनी बुआ के साथ,सुनार के यहाँ जाना हुआ था...एक व्यक्ति किसी मजबूरी के तहत एक लाल कपड़े में लपेटे कुछ गहने लेकर बेचने आया था...उसका बार बार रुमाल से पसीना पोंछता चेहरा आँखों के सामने से नहीं हट रहा.....
लगता है और कभी इस समस्या से मुक्त नही हो सकती ।------ औरत ही दहेज चाहती है । औरत ही दहेज चाहती है सास बनकर ------- औरत ही दहेज देती है, मा बनकर ।
सच लिखा आपने....हमें स्वयं ही इस दर्द और टीस से निजात पानी चाहिए ...
बेटी की माँ ....!!!आज के सन्दर्भ में पढ़ी लिखी काबिल बेटियों को देख कर गौरवान्वित होने का समय आने लगा है ...
आँखें गीली हो आयीं
बहुत अच्छी कहानी है
मन को झकझोरने वाली
maa tumne es kahani me bahut kuchh kah diyaa hai,bahut hi maarmik our dardanak...............,
बहुत ही ह्रदयस्पर्शी कहानी !
पढ़कर दिल भावुक हो जाता है !
बहुत सुंदर लगी आप की यह कहानी, आप ने एक मां के दिल को यहां निकाल कर दिखाया, मां तभी तो भगवान से आगे है,मेरे पास शव्द नही केसे तारीफ़ करुं इस कानी की? क्योकि शव्द भी छोटे पडते है.....काश वो जवान पढते जो अपनी मां को ही ठगते है, मां को ही ठुकराते है, उस का दिल दुखाते है, लेकिन मां फ़िर भी उन का बुरा नही मानती, उन्हे बद दुया नही देती.... आप की इस कहानी ने बहुत कुछ याद दिला दिया.
तुरंत इस कहानी को किसी पत्रिका में प्रकाशित होने के लिये भेजें । ये कहानी इस प्रकार ब्लाग पर कुछ लोगों के बीच पढ़े जाने के लिये नहीं है इसे तो हिंदी के हजारों पाठकों तक पहुंचना चाहिये । आपने संवेदनाओं का जो संसार रचा हे वो रुला देता है । और कहानी वहीं पर सार्थक हो जाती है । मैं कभी भी व्यर्थ प्रशंसा करने में विश्वास नहीं रखता इसलिये कह रहा हूं कि ये कहानी आप प्रिंट करवा के किसी साहित्यिक पत्रिका में भेजें । बहुत अच्छी कहानी लिखी है आपने । आशा है मेरी सलाह पर तुरंत अमल करेंगीं । कहानी में जेवरों के तोड़े जाने का जो मार्मिक चित्रण है वो किसी की आंखें नम करने के लिये काफी है । एक बहुत ही सशक्त कहानी के लिये मेरी दिल से बधाई स्वीकार करें ।
अत्यन्त सुंदर और दिल को छू लेने वाली लेख लिखा है आपने! माँ के बारे में जितना भी कहा जाए कम है! माँ हर किसीके जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और उन्ही की वजह से हम इस दुनिया में आए हैं!
जिंदगी के एक रूप को दिखाती रचना। बधाई।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।
बहुत मार्मिक और भावनात्मक --
बेटियों को तो हर कोई सुखी देखना चाहता है ......... आप इतना भाव पूर्ण लिखती हैं की मन भीग जाता है .......
अनुज सुबीर , बहुत बहुत धन्यवाद ये कहानी पिछले साल लिखी थी तब एक दो पत्रिका को भेजी थी और छपी भी थी। असल मे इस काम् मे मैं बहुत आलसी हूँ।आअब देखती हूँ कहीं जरूर भेजती हूँ। ये अगली किताब के लिये लिखी हुई है।मेरे उत्साह वर्द्धन के लिये धन्य्वाद मुझे खुशी है कि मेरे छोटे भाई को मेरी कितनी चिन्ता है। बाकी सभी पाठकों की धन्यवादी हूँ। जो रोज़ इतनी प्रतिक्रियाओं से मेरा उतसाह बढाते हैं सब का धन्यवाद्
बहुत ही मार्मिक भावुक करती हुई पोस्ट। समाज एक कडुवे सच को बयान करती हुई।
apki post ka link darpan ji se mila tha....pad ke etna hi kahna chahti hun...
keyboard nahi dikha kitni der tak.
moniter bhi dhundla raha..
jadhe ke dino ka pahla kohra hai aaj..
भावुक कर गई यह कहानी...माँ...इतना ही काफी होता है कि पूरे भाव दिल में उतर जाते हैं.आभार आपका.
मार्मिक कहानी!
waah :) ...bahut hi achha likha hai aapne
बहुत सुंदर बेटी अबला न रहे यही चाह होती है हर माँ की ।
परियो की नानी निर्मला जी आपने महिला मन के जेबर से लगाव का बहुत सुन्दर चित्र उकेरा है लेकिन कही मुझे लगता है कि हम देखे कि दोष समाज मे नही अपितु हमारी सोच मे है हम जब नयी सोच के साथ लडकी को भी लडके की तरह हर तरह से योग्य बना रहे है तो विवाह के मामले मे हमारी परमपरागत सोच क्यो ?
शादी के मामले मे परम्पराबादी होना ही इस त्रासदी का कारण है. जो लडका उसकी सोच के अनुकूल हो उसी का हाथ थामे. अगर पढी लिखी लडकी भी गहनो से ही अपने लिये सम्मान की तलाश करेगी तो उसके पढाई सिर्फ़ नौकरी पाने का जरिया रही. और अगर हमारा परम्परा मे अटूट विश्वास है तो परम्परा निभाने मे जो दर्द मिलता है उसे भी सहने को सहज तैयार रहना चाहिये.
kya kahun..........aapki rachna ne to nishabd kar diya......shayad har maa ki vyatha ko shabd de diye aapne............is vyatha ko to wohi samajh sakta hai jo isse gujra ho...........shayad tabhi kaha gaya hai.........ghayal ki gati ghayal jane.
वाह निर्मला जी क्या खूबसूरत भाव प्रस्तुत किया आपने..माँ के अंतर्मन की कहानी और बेटी के प्रति इतना प्यार सच में माँ की तुलना कभी किसी से की ही नही जा सकती है..माँ बस माँ ही हो सकती है...
bahut marmsparshi kahani....maa ke mann ki vedna ko khoob chitrit kiya hai....samvedansheel mann se likhi hai...badhai
भावुक कर गई यह कहानी...माँ...इतना ही काफी होता है कि पूरे भाव दिल में उतर जाते हैं.आभार आपका.
nirmlaji kamal likhti hai aap..sahajv sachi baat lagti ye kahani kitna kuch keh jati hai...wakai aap kaamaaal hai...aapko badhai
nirmlaji kamal likhti hai aap..sahajv sachi baat lagti ye kahani kitna kuch keh jati hai...wakai aap kaamaaal hai...aapko badhai
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