गज़ल
बुज दिली कहो या कहो तकदीर
लाँघ सकी ना हाथ की एक लकीर
दूर नहीं था सुन्दर सा सपना
पर साथ नहीं थी मेरी तकदीर
परँपरा के कर्ज़ चुकाते ढोते
रह गये दिल के हम फकीर
इतिहास पढा था बचपन मे
पढी थी उसमे एक तहरीर
लाँघने वाले प्रेम के दरिया
चढ गये भेँट कई राँझे ही्र
दिल रोता है आँखेँ रोती हैँ
दिल मे रहती उसकी तसवीर
उसने भी मुड कर ना देखा
ना सोची समझी कोई तदबीर
शायद देना चाहता हो दर्द मुझे
सालता रहे मुझे मेरा जमीर
बुज दिली कहो या कहो तकदीर
लाँघ सकी ना हाथ की एक लकीर
दूर नहीं था सुन्दर सा सपना
पर साथ नहीं थी मेरी तकदीर
परँपरा के कर्ज़ चुकाते ढोते
रह गये दिल के हम फकीर
इतिहास पढा था बचपन मे
पढी थी उसमे एक तहरीर
लाँघने वाले प्रेम के दरिया
चढ गये भेँट कई राँझे ही्र
दिल रोता है आँखेँ रोती हैँ
दिल मे रहती उसकी तसवीर
उसने भी मुड कर ना देखा
ना सोची समझी कोई तदबीर
शायद देना चाहता हो दर्द मुझे
सालता रहे मुझे मेरा जमीर
10 comments:
दूर नहीं था सुन्दर सा सपना
पर साथ नहीं थी मेरी तकदीर
YE SHE'R BAHOT KHUB HAI,AAP TO UTNI LIKH RAHI HAI JITNAA HAM JAISE SIKHTE HUYE BHI NAHI LIKH SAKTE.. BADHAAYEE
ARSH
"परँपरा के कर्ज़ चुकाते ढोते
रह गये दिल के हम फकीर" बहुत ही खूबसूरत. आभार.
aapne bahut hi sunder nazm likhe hai.......phoolo ko chaman nasib ho....yahi duaa karate hai.
इतिहास पढा था बचपन मे
पढी थी उसमे एक तहरीर
waah ji waah,
निर्मला जी कोशिश करती रहिये देखना आप एक दिन बहुत अच्छा लिखेंगी...शायरी के लिए किसी को गुरु मान कर उससे बारीकियां सीखिए...फिर उसका आनंद देखिये...
नीरज
बहुत ही खूबसूरत
दिल रोता है आँखेँ रोती हैँ
दिल मे रहती उसकी तसवीर
आपकी सोच मौलिक है............ग़ज़ल का शिल्प तो आ ही जाएगा ..........
बस आप लिखते रहें............सुन्दर हैं सब शेर
कहीं से नहीं लगता, आपका गजल नहीं लिखती. बहुत अच्छा लिखा है आपने.
मैडम आप अच्छा लिखती हैं। कृपया जारी रखें। मेरी शुभकामनायें।
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