( भारतीय संस्कृ्ति )
मेरे मन मे जाने क्य आया
ये जानने का मन बनाया
कि देखें
भारत की संस्कृ्ति
किस मुकाम पर खडी है
लोगों पर उसकी
क्या छाप पडी है
गये घर घर मे
स्कूल ,कालेज परिसर मे
बाज़ार,क्लब,खेल के मैदान मे
सब जगह नज़र दौडाई
मगर भारतीय संस्कृ्ति
नज़र नही आई
मै बडा चकरायी
सोचा शायद मुझे ही
पता नही है
फिर एक बुकस्टाल पर
नज़र दौडाई बोली
:भाई सहिब-मुझे
भारतीय संस्कृ्ति पर कोई
पुस्तक दिखा दो
:नहीं है" वो बोला
पर कहाँ मिलेगी
इतना तो बता दो
उसने उपर से नीचे तक
मुझे निहारा और बोला
आप कवि या लेखक तो नहीं?
पर देखने मे लगते आउट डेटड नहीं
अजी किसी साधू महात्मा के पास जाईये
वहीं से जानकारी पाईये
एक आश्रम की राह पर निकल पडे
गेट पर थे दो संतरी खडे
मैं बोली;हम स्वामी जी के
दर्शन करना चाहते हैं
भारतीय संस्कृ्ति का
अवलोकन करना चाहते हैं
संतरी बोला;स्वामी जी नेट पर्
चैट कर रहे हैं
आप बैठ जाईये
लोग भी वेट कर रहे हैं
दो घंटे बाद स्वामी जी आये
आँखों पर धूप का चश्मा चढाये
हमने
अपने आने का मन्तव बताया
स्वामी जी हंसे और बोले
बेटी हम बार बार बता कर थक गये हैं
भारतीय संस्कृ्ति सुन लोगों के कान पक गये हैं
हम साधूओं ने भी
जीने का ढंघ अपना लिया है
अपना इस प्रोजैक्ट को ले कर
एक विदेशी टूर बना लिया है
हम ने जान लिया है
जब तक हमारी संस्कृ्ति
विदेश हो कर नहीं आयेगी
तब तक भारतीय जनता
इसे नहीं अपनायेगी
क्योंकि विदेशी लेबल बिना
भारतियों को कुछ भाता नहीं
घर की मुर्गी दाल बराबर
खाने मे मज़ा आता नहीं
18 comments:
इम्पोर्टेड वाला जब दिखे सूचित कीजियेगा. बहुत सुन्दर व्यंग. आभार.
अच्छी जानकारी, इतने सुन्दर और सटीक लेखन के लिये। बहुत-बहुत बधाई
भारतियों को कुछ भाता नहीं
घर की मुर्गी दाल बराबर
खाने मे मज़ा आता नहीं
satya hei didi, apka ye 'Sarcasm'
...aur aap dono!
हम ने जान लिया है
जब तक हमारी संस्कृ्ति
विदेश हो कर नहीं आयेगी
तब तक भारतीय जनता
इसे नहीं अपनायेगी........
sateek vyangya hai....badhaai aapko
निर्मला जी , आपकी रचनाएं लीक से हट कर होती है । कम शब्दों में संपूर्ण समाहित होता यह । यही रचना की प्रधानता है ।
जब तक हमारी संस्कृ्ति
विदेश हो कर नहीं आयेगी
तब तक भारतीय जनता
इसे नहीं अपनायेगी
क्योंकि विदेशी लेबल बिना
भारतियों को कुछ भाता नहीं
घर की मुर्गी दाल बराबर
खाने मे मज़ा आता नहीं...............
बहुत गहरी बात कह दिया आपने .यही यथार्थ भी है .
अच्छा व्यंग्य है...
बहुत ही उम्दा व्यंग्य....आपने बिल्कुल सच कहा है कि हम लोग पश्चिमी प्रभाव में इतना ज्यादा रम चुकें हैं कि अपनी संस्कृ्ति,संस्कार हमें ढोंग लगने लगे है.
क्योंकि विदेशी लेबल बिना
भारतियों को कुछ भाता नहीं
घर की मुर्गी दाल बराबर
खाने मे मज़ा आता नहीं
वाह ! वाह ! बहुत सुंदर व्यंग्य ...
बहुत ही सुंदर व्यंग, ओर सच भी.
धन्यवाद
Andhaa Anukaran karne walon ke shownk naye, par dimaag baasi hain;
Is bheed mein bache hain ab keval kuch hi Bhartiya, baaki sirf Bharatwasi hain.
निर्मला जी
क्या करार व्यंग है..:)
हर विधा में सक्षम है आपकी लेखनी
आप की लेखनी को शत् शत् नमन है
सादर !!
Zari rahe
saadar
जब तक हमारी संस्कृ्ति
विदेश हो कर नहीं आयेगी
तब तक भारतीय जनता
इसे नहीं अपनायेगी
क्योंकि विदेशी लेबल बिना
भारतियों को कुछ भाता नहीं
घर की मुर्गी दाल बराबर
खाने मे मज़ा आता नहीं
आदरणीय निर्मला जी ,
बहुत अच्छा व्यंग्य किया है अपने इस कविता में ...
हेमंत कुमार
इसे नहीं अपनायेगी
क्योंकि विदेशी लेबल बिना
भारतियों को कुछ भाता नहीं
घर की मुर्गी दाल बराबर
खाने मे मज़ा आता नहीं
अच्छा व्यंग्य है...!!
अच्छा है...
kya sachmuch aisa hi hai!
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