27 December, 2008



अपने नसीब पर खडी रोती है इन्सानियत
भूखे पेट अनाज बोती है इन्सानियत
मां का आन्चल भी दागदार हो गया
कचरे में भ्रूण पडी रोती है इन्सानियत
आसमां की बुलन्दियों को छूती इमारतें
फिर भी फुटपाथ पर पडी सोती है इन्सानियत
घर की लक्ष्मी घर की लाज है वो
सडक पर कार में रेप होती है इन्सानियत
रिश्ते नाते धन दौलत में बदल गये
भाई की गोली से कत्ल होती है इन्सानियत
यथा राजा तथा प्रजा नहीं कहा बेवजह
नेताओं की नीचता पर शर्मसार होती है इन्सानियत

5 comments:

संगीता पुरी said...

सच है , इंसानियत अब है कहां ?

mehek said...

sahi baat kahi, bahut khub

नीरज गोस्वामी said...

कचरे में भ्रूण पडी रोती है इन्सानियत
एक कटु सत्य....अच्छी रचना...
नीरज

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

अच्छा िलखा है आपने । भाव, िवचार, संवेदना और िशल्प के समन्वय ने रचना को प्रभावशाली बना िदया है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है-आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-

http://www.ashokvichar.blogspot.com

निर्मला कपिला said...

sab ka shukria

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