दर्द के कुछ कौर खा कर भूख मिटा लेते रहे हैं
प्यास अपनी आंसुओं से ही बुझा लेते रहे हैं
इस जमाने ने दिया क्या है सिवा बस ठोकरों के
बिन ठिकाने ज़िन्दगी फिर भी बिता लेते रहे हैं
आसमा है छत जमीं बिस्तर नसीबों मे हमारे
पी गमों के जाम हम तो लडखडा लेते रहे हैं
वो हिसाब किताब क्यों पूछे मुहब्बत मे बताओ ?
लोग तो इस इश्क मे जां तक लुटा लेते रहे हैं
कौन कहता है जमाना लडकिओं का आ गया है
लोग बहुओं को अभी तक भी जला लेते रहे हैं
रात तन्हा दिल उदासी से भरा सा हो कभी तो
बंद पलकों मे कई सपने बिठा लेते रहे हैं
यूं तमन्ना तो बहुत है हर खुशी हम्को मिले पर
जो मिला आंखों पे उसको ही बिठा लेते रहे हैं
16 comments:
बहुत खूब ... हर शेर आज के सन्दर्भ में है ... बहुत शशक्त है ...
लाजवाब ग़ज़ल ...
Sunder, samsamyik Panktiyan....
खुशी की तमन्ना है तो खुशी बाँटने हम चले हैं!
वाह!
आपकी ग़ज़ल अच्छी लगी "वो हिसाब किताब क्यों पूछें ...."
सच्ची ,,दिल की बातें......
मैंने तो चाह था, वो आ के गले लग जाए मेरे
पर क्यों, वो तो दूर से हाथ अपना हिलाते रहे हैं...
शुभकामनायें |
बहुत खूब ...
दिल से निकली लाजवाब गजल .
कई माह बाद आपकी रचना पढ़ने को मिली ...यूँ ही कभी कभार लिखते रहिएगा ..अच्छा लगता है ..
सादर
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल..सभी अशआर बहुत सटीक और उम्दा..
badhiya
:)
बहुत बढ़िया गज़ल
वाह! बेहतरीन ग़ज़ल है !
bahut khubsurat gazal hai Nirmla ji...
बहुत खूबसूरत गज़ल
बहुत गहरे जज़्बातों को बयान किया है आपने इस ग़ज़ल के माध्यम से . बधाई
बहुत गहरे जज़्बातों को बयान किया है आपने इस ग़ज़ल के माध्यम से . बधाई
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