29 October, 2010

मिड डे मील--- कविता

मिड -डे मील

पुराने फटे से टाट पर
स्कूल के पेड के नीचे
बैठे हैं कुछ गरीब बस्ती के बच्चे
कपडों के नाम पर पहने हैं
बनियान और मैली सी चड्डी
उनकी आँखों मे देखे हैं कुछ ख्वाब
कलम को पँख लगा उडने के भाव
उतर आती है मेरी आँखों मे
एक बेबसी, एक पीडा
तोडना नही चाहती
उनका ये सपना
उन्हें बताऊँ कैसे
कलम को आजकल
पँख नही लगते
लगते हैँ सिर्फ पैसे
कहाँ से लायेंगे
कैसे पढ पायेंगे
उनके हिस्से तो आयेंगी
बस मिड -डे मील की कुछ रोटियाँ
नेता खेल रहे हैं अपनी गोटियाँ
इस रोटी को खाते खाते
वो पाल लेगा अंतहीन सपने
जो कभी ना होंगे उनके अपने
फिर वो तो सारी उम्र
अनुदान की रोटी ही चाहेगा
और इस लिये नेताओं की झोली उठायेगा
काश! कि इस
देश मे हो कोई सरकार
जिसे देश के भविष्य से हो सरोकार

56 comments:

Manish aka Manu Majaal said...

सरकार से अपेक्षा,
तो हमने लगे निराधार,
बेहतर ये की सोचिये विस्तार,
और करिए परिवार,
कविता का सकारात्मक अंत,
हमको है स्वीकार.
आप लिखते रहिये
बारमबार ....

Bharat Bhushan said...

बहुत सार्थक रचना. आपने देश की वास्तविक समस्या को उजागर किया है और सही जगह चोट की है. इस चोट से तिलमिलाने वाले ही नहीं मिलते.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

वोट मिलना चाहिये, बाकी कुछ नहीं...

PAWAN VIJAY said...

asardaar post
aabhar

मुकेश कुमार सिन्हा said...

sacha kaha aapne.........!!!


jindagi me padhai ka rang bharne k liye sarkar ko kuchh aur sochna hoga........

ye mid day meal se kuchh nahi hoga.......

sarthak rachna..

फ़िरदौस ख़ान said...

विचारणीय...सार्थक रचना...

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

उन्हें बताऊँ कैसे
कलम को आजकल
पँख नही लगते
लगते हैँ सिर्फ पैसे
कहाँ से लायेंगे
कैसे पढ पायेंगे
उनके हिस्से तो आयेंगी
बस मिड -डे मील की कुछ रोटियाँ
..............................
इस रोटी को खाते खाते
वो पाल लेगा अंतहीन सपने
जो कभी ना होंगे उनके अपने
फिर वो तो सारी उम्र...

देश का भविष्य कहे जाने वाले
इन बच्चों को लेकर कितना बड़ा सच कहा है आपने.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अनुदान पर पलने की आदत ....बहुत सटीक और सार्थक सोच ...

Sadhana Vaid said...

एक कटु सत्य को उजागर करती बहुत ही सार्थक रचना ! मिड डे मील के बहाने बच्चों को स्कूल बुला कर उन्हें साक्षर बनाने स्थान पर वोट की राजनीति ही अधिक दिखाई देती है ! जिसका लालच देकर बच्चों को बुलाते हैं वह मिड डे मील बासी और दूषित होता है और स्कूलों के रजिस्टर्स में अध्यापकों की संख्या तो बहुत होती है लेकिन क्लास में कोई भी अध्यापक पढाता हुआ नहीं मिलता ! यह बच्चों की भावनाओं और उनके माता पिता के साथ एक छल के सिवाय कुछ भी नहीं ! इतनी अच्छी पोस्ट के लिये बधाई !

arvind said...

bahut badhiya abhivyakti....vyavastha par jordar kataaksh...

इस्मत ज़ैदी said...

nirmala ji ,
kyaa baat hai!
is tarah sochana aur unhen shabdon men dhalna ,
aap pooree tarah kaamayaab hain
aap ki ye chinta ap ke sahruday hone kee daleel hai.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

bahut sundar rachna ! isme gehrai bhi hai aur soch bhi ! sach hai ki aaj padhai bhi paise walon kee bapouti ban gai hai ...

अन्तर सोहिल said...

वो पाल लेगा अंतहीन सपने
जो कभी ना होंगे उनके अपने
फिर वो तो सारी उम्र
अनुदान की रोटी ही चाहेगा

सच्चाई की तरफ इशारा करती
बहुत बढिया पंक्तियां

प्रणाम स्वीकार करें

Aashu said...

गरीब की बेबसी, भ्रष्ट सरकार की नाकामी और अपने दिल के दर्द को बड़े अच्छे से उतारा गया है!

उस्ताद जी said...

4/10

सुन्दर भावों की सतही रचना
एक अछूते-नए विषय का चयन किन्तु कविता में जान नहीं आ पायी. आपका सन्देश अवश्य सब तक पहुँचता है.

kshama said...

इस रोटी को खाते खाते
वो पाल लेगा अंतहीन सपने
जो कभी ना होंगे उनके अपने
फिर वो तो सारी उम्र
अनुदान की रोटी ही चाहेगा
और इस लिये नेताओं की झोली उठायेगा
Aah! Kaisa hatbal-sa mahsoos hota hai!

PN Subramanian said...

"फिर वो तो सारी उम्र
अनुदान की रोटी ही चाहेगा"
बहुत ही सुन्दर रचना. आभार.

संगीता पुरी said...

बहुत सटीक अभिव्‍यक्ति !!

डॉ. मोनिका शर्मा said...

एक सार्थक और प्रासंगिक रचना.....

राज भाटिय़ा said...

आज के सत्य पर आधारित आप की यह कविता,मिड-डे-मील बनाया तो गरीब बच्चो के लिये था लेकिन पेट मै किसी ओर के जा रहा हे,बहुत सुंदर रचना धन्यवाद

रश्मि प्रभा... said...

kalam ke wpankh ... ab kaun dekhta hai, kalam ab kahan kisi kee jai bolti hai .....
bahut achhi rachna

मंजुला said...

bahut badia ...aur sach bhi......

प्रवीण पाण्डेय said...

यही देश की विडमेबना है, अधिकार को भिक्षा के रूप में बाटा जा रहा है।

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

आदरणीय निर्मला कपिला जी, आपने वाकई बहुत ही गम्भीर विषय को न सिर्फ़ छुआ है, बल्कि हिम्मत कर के उस पर सटीक प्रहार भी किया है| आपकी लेखनी को शत शत नमन|

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

khoobsurat sandesh!

M VERMA said...

वोट की राजनीति क्या न करवा दे
मिड डे मील का एक पक्ष ये भी है. पंगु बना देती है कौम को

shikha varshney said...

यहाँ सुलगते मुद्दों पर अपने स्वार्थ की रोटी सकने से फुर्सत मिले किसी को तो बच्चों के बारे में सोचे.
सटीक सार्थक अभिव्यक्ति निर्मला जी

मनोज कुमार said...

दीदी,
सार्थक, अनछुआ-सा विषय।

रंजना said...

क्या बात कही है आपने......
आँखें नाम हो आयीं...
सचमुच कि अपने देश में कोई ऐसी सरकार होती जो इनके सच्चे विकास को प्रतिबद्ध होती..

अत्यंत प्रभावशाली ढंग से आपने मिड डे मिल जैसे लोक लुभावने योंजानों कीपोल खोली है..सचमुच यही तो होता है इन सब का हश्र ...
आज तो शिक्षा के महंगे दुकानों के से निकले विद्तार्थी ही अपना भविष्य सुनिश्चित मान सकते हैं...

शिक्षामित्र said...

नतीज़ा चाहे जो हो,बच्चे की भूख मिटाना पहला लक्ष्य होना चाहिए। बाकी सब बातें उसके बाद हैं।

महेन्‍द्र वर्मा said...

कविता में संवेदना भी है और कटाक्ष भी।...अच्छी रचना।

Udan Tashtari said...

चिन्तनपरक..विचारणीय उम्दा रचना.

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

bahut sahi baat kahi... ye mid de meal ..pangu naa bana de soch ko aur samaj ko..
shubsandhya Nirmala ji..

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

bahut sahi baat kahi... ye mid de meal ..pangu naa bana de soch ko aur samaj ko..
shubsandhya Nirmala ji..

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

bahut sahi baat kahi... ye mid de meal ..pangu naa bana de soch ko aur samaj ko..
shubsandhya Nirmala ji..

ZEAL said...

.

कटु सत्य को उजागर करती बहुत ही सार्थक रचना !!!

.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

निम्मो दी! सरकार को अगर सरोकार है तो सिर्फ अपनी कुर्सी से... बिल्कुल सही कहा है आपने!!

डॉ टी एस दराल said...

सच कहा । अभी भी देश में अनगिनत बच्चे ऐसे ही हैं ।
ऊपर से मिड डे मील में भी धान्धलेबाज़ी ।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

विचारणीय्!
वोटों के सौदागरों से भली क्या उम्मीद की जा सकती है.....

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सार्थक चिंतन, शुभकामनाएं.

रामराम.

विनोद कुमार पांडेय said...

मिड-डे-मील के नाम पर बच्चों और उनके परिवार को एक लालच दी जाती है...ग़रीब बच्चों की मजबूरी होती है सरकारी स्कूलों में जाना और वहाँ मिड-डे मिल के नाम पर बस बहलाया जाता है|....बढ़िया प्रस्तुति...सोचनीय स्थिति है...धन्यवाद

उस्ताद जी (असली पटियाला वाले) said...

26/30 सुंदर श्रेष्ठ रचना।

rashmi ravija said...

काश! कि इस
देश मे हो कोई सरकार
जिसे देश के भविष्य से हो सरोकार
बस निर्मला जी....यही रोना है...किसी सरकार को देश के और उसके भविष्य के कर्णधारों से कोई सरोकार नहीं..उन्हें तो अपनी गोटियाँ फिट करनी हैं, इन्हें रोटियां देकर.
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता...

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढ़िया व सामयिक रचना है\यह एक कड़वा सच है

रानीविशाल said...

काश! कि इस
देश मे हो कोई सरकार
जिसे देश के भविष्य से हो सरोकार...आमीन .
व्यवस्थाओं के तार तार ढांचे की सच्चाई तो कहती ही है आपकी रचना लेकिन मासूम नवनिहलों की वेदना बहुत गहरा असर छोड़ रही है ....आभार !

निर्मला कपिला said...

हा हा हा नये उस्ताद? वाह अब तो जरूर लेखन मे सुधार करना पडेगा। धन्यवाद उस्ताद जी।

Girish Kumar Billore said...

वैसे कोर्ट की लताड़ से शुरु हुई है ये योजना
कविता ठीक ही नही अति उत्तम है
ताज़ा-पोस्ट ब्लाग4वार्ता
एक नज़र इधर भी मिसफ़िट:सीधी बात
बच्चन जी कृति मधुबाला पर संक्षिप्त चर्चा

सदा said...

बहुत ही सुन्‍दरता से व्‍यक्‍त बेहतरीन शब्‍द रचना ।

लता 'हया' said...

.आपका निःशब्द कमेन्ट सबसे अच्छा लगा लेकिन 'मिड डे मील' तो मूक ही कर गया .......विचारणीय व्यथा .

अजय कुमार said...

दुखद सत्य

दिगम्बर नासवा said...

बहुत मार्मिक ... सच लिखा है आपने ... सही समस्या क़ि और ध्यान खींच है समाज का ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मार्मिक चित्रण!
लाजवाब रचना!

अनामिका की सदायें ...... said...

सार्थक रचना. सुंदर चित्रण कर दिया मिड डे मील के बहाने.

Asha Joglekar said...

सही कहा मिड डे मील उसे अनुदान पर जीने की आदत डाल देगा । सरकार ................पर हम कर सकते हैं मदद एक बच्चे को १० वी तक पढाने का जिम्मा लेकर । उसकी किताब क़पियां फीस का खर्चा उठा कर ।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

नए विषय पर लिखना कठिन काम है।

Unknown said...

बहुत मार्मिक कविता पढ़ी ..बनियान और मेली सी चड्डी ...सरकार कोई हो सवेदनशील कहाँ है और अफ़सोस यह है अब गुदड़ी से लाल भी नहीं निकलते
रफत आलम

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